कलात्मक अभिव्यक्ति का एक रूचिपूर्ण माध्यम है प्रिंटमेकिंग (Printmaking)

द्रिश्य 3 कला व सौन्दर्य
06-06-2020 10:10 AM
कलात्मक अभिव्यक्ति का एक रूचिपूर्ण माध्यम है प्रिंटमेकिंग (Printmaking)

कला एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने विचारों या भावों की अभिव्यक्ति करता है। प्रिंटमेकिंग (Printmaking) एक ऐसी ही कलात्मक अभिव्यक्ति है, जिसकी जड़े सिंधु घाटी सभ्यता से जुडी हुई हैं। कला के रूप में इसका ऐतिहासिक विकास दिलचस्प है। कलात्मक अभिव्यक्ति का यह माध्यम मुख्य रूप से जन संचार या प्रलेखन के माध्यम के रूप में उपयोग किया जाता था तथा आज भी कई लोग इसमें रूचि लेते हैं। कला के इस रूप के साथ, आप केवल एक डिज़ाइन (Design) ही नहीं बना सकते बल्कि एक दृष्टिकोण भी बना सकते हैं जो बाकियों से पूरी तरह अलग है। कई बार प्रिंटमेकिंग और प्रिंटिंग को समान समझा जाता है किंतु इन दोनों में बहुत अंतर है। प्रिंटिंग, प्रिंटिंग प्रेस (Press) या इसी तरह की तकनीक के माध्यम से मुद्रित सामग्री के उत्पादन की प्रक्रिया है जबकि प्रिंटमेकिंग कला का क्षेत्र है जोकि एक प्लेट या ब्लॉक (Block) से या एक स्क्रीन (Screen) जाल के माध्यम से कागज, कपडे आदि पर स्याही के हस्तांतरण से संबंधित है।

प्रिंटमेकिंग सामान्य रूप से कागज पर, छपाई द्वारा कलाकृतियां बनाने की प्रक्रिया है। यह एक कलात्मक प्रक्रिया है जो एक सांचे (Matrix) से छवियों को किसी अन्य सतह पर स्थानांतरित करने के सिद्धांत पर आधारित है, सबसे अधिक बार कागज या कपड़े पर। पारंपरिक प्रिंटमेकिंग तकनीकों में वुडकट (Woodcut), नक़्क़ाशी (Etching), उत्कीर्णन (Engraving) और लिथोग्राफी (Lithography) शामिल हैं, जबकि आधुनिक कलाकारों ने स्क्रीन-प्रिंटिंग को शामिल करने के लिए उपलब्ध तकनीकों का विस्तार किया है। एक सांचा अनिवार्य रूप से एक टेम्पलेट (Template) होना चाहिए जोकि लकड़ी, धातु, या कांच से बना हो सकता है। उपकरण या रसायनों के साथ सांचे की सपाट सतह पर काम करके डिज़ाइन, सांचे पर बनाया जाता है। वांछित सतह पर इसे स्थानांतरित करने के लिए सांचे पर स्याही लगाई जाती है। सांचे से प्रिंट करने के लिए नियंत्रित दबाव के अनुप्रयोग की आवश्यकता होती है, जिसे अक्सर प्रिंटिंग प्रेस का उपयोग करके हासिल किया जाता है, जो कागज या कपड़े पर मुद्रित होने पर डिजाइन का एक समान प्रभाव पैदा करता है (अधिक आधुनिक प्रिंटमेकिंग तकनीक, जैसे स्क्रीन-प्रिन्टिंग, को एक प्रेस की आवश्यकता नहीं होती है)। परिणामस्वरूप प्राप्त प्रिंट अक्सर सांचे पर मूल डिजाइन की दर्पण छवि होती है। प्रिंटमेकिंग का सबसे बडा लाभ यह है कि एक ही डिज़ाइन के कई प्रभाव एकल सांचे से प्रिंट किए जा सकते हैं।

प्रिंटमेकिंग तकनीकों को आमतौर पर निम्नलिखित मूल श्रेणियों में विभाजित किया जाता है:
रिलिफ (Relief) :
जहां स्याही, सांचे की मूल सतह पर लगाई जाती है। इस तकनीक में वुडकट या वुड ब्लॉक (Block) शामिल हैं जैसा कि इन्हें एशियाई रूपों में आमतौर पर लकड़ी के उत्कीर्णन, लीनोकट (Linocut) और मेटलकट (Metalcut) के नाम से जाना जाता है।

इंटाग्लियो (Intaglio): इसमें स्याही को सांचे की मूल सतह के नीचे लगाया जाता है। इंटाग्लियो तकनीक में उत्कीर्णन, नक़्क़ाशी, मेज़ोटिन्ट (Mezzotint), एक्वाटिंट (Aquatint) शामिल हैं।
प्लानोग्राफिक (Planographic) : इस विधि में सांचा अपनी मूल सतह को बनाए रखता है, लेकिन छवि के हस्तांतरण के लिए अनुमति देने के लिए विशेष रूप से तैयार या स्याही किया जाता है। इसमें लिथोग्राफी, मोनोटाइपिंग (Monotyping) और डिजिटल (Digital) तकनीक शामिल हैं।
स्टेंसिल (Stencil) : इसमें स्याही या पेंट (Paint) को तैयार स्क्रीन के माध्यम से दबाया जाता है, जिसमें स्क्रीन प्रिंटिंग और पॉचोइर (Pochoir) शामिल हैं।

वुडकट सबसे शुरुआती प्रिंटमेकिंग तकनीक है, और सुदूर पूर्व में पारंपरिक रूप से उपयोग की जाती है। इसे शायद पहली बार कपड़े पर मुद्रण पैटर्न (Pattern) के साधन के रूप में विकसित किया गया था, 5 वीं शताब्दी तक चीन में कागज पर किसी विषय और चित्र छपाई के लिए इसका उपयोग किया जाता था। कागज पर छवियों के वुडकट जापान में 1400 के आसपास विकसित हुए। कलाकार लकड़ी के तख़्त पर या कागज पर एक डिज़ाइन बनाता है जिसे लकड़ी में स्थानांतरित किया जाता है। इसी प्रकार प्रिंटमेकिंग की नक़्क़ाशी तकनीक इंटाग्लियो परिवार का हिस्सा है तथा माना जाता है कि इस प्रक्रिया का आविष्कार जर्मनी के ऑग्सबर्ग के डैनियल होफर (1470–1536) ने किया था जिन्होंने कवच को इस तरीके से सजाया और प्रिंटमेकिंग की विधि लागू की। इस तकनीक का फायदा यह था कि ड्राइंग (Drawing) में प्रशिक्षित कलाकार के लिए इसे सीखना आसान है। नक़्क़ाशीदार प्रिंट आम तौर पर रैखिक होते हैं और अक्सर इसमें बारीक विवरण और आकृति होती है। प्रिंटमेकिंग की लिथोग्राफी तकनीक का आविष्कार 1798 में एलो सिनफेल्डर द्वारा किया गया था और यह तेल और पानी के रासायनिक प्रतिकर्षण पर आधारित है। इसमें एक छिद्रपूर्ण सतह, आम तौर पर चूना पत्थर का उपयोग किया जाता है।

छवि को तेलीय माध्यम के साथ चूना पत्थर पर रेखांकित किया जाता है। चूना-संरक्षित डिजाइन को चूना पत्थर में स्थानांतरित करते हुए, अम्ल का इस्तेमाल किया जाता है जिसके बाद छवि को सतह में 'जलता हुआ छोड़ दिया जाता है। इसके बाद इस पर पानी में घुलनशील पदार्थ ‘गम अरेबिक (Gum arabic)’ का इस्तेमाल कर पत्थर की सतह को सील (Seal) कर दिया जाता है। पत्थर की सतह पर केवल पानी रहता है तथा यह ड्राइंग के तेल आधारित अवशेषों में शामिल नहीं होता। इसके बाद तेल की स्याही को पूरी सतह को आवरित करने वाले रोलर (Roller) के साथ लगाया जाता है। चूँकि पानी स्याही में तेल को पीछे धकेलता है, इसलिए स्याही छवि को रंजित करते हुए केवल तेलमय भाग पर चिपकती है। सूखी कागज की एक शीट (Sheet) को सतह पर रखा जाता है, और फिर प्रिंटिंग प्रेस के दबाव से छवि को कागज में स्थानांतरित किया जाता है। इसी प्रकार से उत्कीर्णन की प्रक्रिया को जर्मनी में 1430 के दशक में सुनार द्वारा इस्तेमाल की गई नक्काशी से विकसित किया गया था। इसमें कठोर स्टील उपकरण जिसे बरिन (Burin) कहा जाता है, का उपयोग एक धातु प्लेट की सतह में डिज़ाइन को काटने के लिए किया जाता है।

समकालीन प्रिंटमेकिंग गुटेनबर्ग के बाइबिल को छापने के लगभग सौ साल बाद 1556 में भारत आयी। इस समय, प्रिंटमेकिंग का उपयोग केवल नकल करने और सामग्री को पुन: पेश करने के लिए एक उपकरण के रूप में किया गया था। हालांकि, यह सबूत पाये गये हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता के समय तक भारत में बड़े पैमाने पर दोहराव की अवधारणा का उपयोग किया गया था। उदाहरण के लिए जमीन के अनुदान, तांबे की प्लेटों पर जानकारी उत्कीर्ण करके और लकड़ी, हड्डी, हाथी दांत जैसी विभिन्न सतहों पर नक्काशी करके मूल रूप से दर्ज कर उस समय के एक महत्वपूर्ण शिल्प के रूप में प्रलेखित किए गए थे। फिर भी, कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए एक मीडिया (Media) के रूप में प्रिंटमेकिंग, जैसा कि आज मान्यता प्राप्त है, भारत में अस्सी साल पहले उभरा। गैस्पर डी लियो (Gaspar de Leo) द्वारा क्रिश्चियन लाइफ का आध्यात्मिक संग्रह (Spiritual Compendium of Christian Life), 1561 में गोवा में छपा था। इस पुस्तक को भारत में सबसे पुराने जीवित मुद्रित संकलन के रूप में दर्ज किया गया है। कुछ वर्षों बाद, 1568 में, पहला सचित्र आवरण गोवा में, आर्चीडीओसी गोवा का संविधान (Constitution of Archdiocese Goa) पुस्तक के लिए छपा था। पारंपरिक द्वार या प्रवेश द्वार की एक छवि का चित्रण वुडब्लॉक की सहायक तकनीक का उपयोग करके किया गया था। इंटाग्लियो प्रिंटिंग की प्रक्रिया भारत में डेनिश मिशनरी, बार्थोलोमेव ज़ेगेनबल्ग द्वारा शुरू की गई थी।

उन्होंने द एवेंजेलिस्ट्स एंड द एक्ट्स ऑफ द एपॉस्टल्स (The Evangelists and the Acts of The Apostles,) नाम की एक पुस्तक प्रकाशित की जोकि ट्रानकेबर (Tranqueber-तमिलनाडु में एक जिला, जो उस समय डेनमार्क का उपनिवेश था) में छपी थी। इस पुस्तक के शुरुआती पृष्ठ में भूरे रंग की छाया में एक नक़्क़ाशी छापी गई थी। यह भारत में रंग मुद्रण के पहले दर्ज उदाहरणों में से एक बना। ज़ेगेनबल्ग की एक अन्य पुस्तक ग्रामटिका डामुलिका (Gramatica Damulica), प्लेट उत्कीर्णन का सबसे पहला उदाहरण प्रदर्शित करती है। एक प्रारम्भिक मुद्रित चित्रण (वुड ब्लॉक प्रिंट), 1806 में तंजौर में छपी बालबोध मुक्तावाली नामक पुस्तक में पायी जा सकती है। हालाँकि, एक भारतीय कलाकार द्वारा छापे गए चित्रण का पहला उदाहरण बंगाली पुस्तक ओनूदाह मोंगल (Onoodah Mongal) का हिस्सा था। यह पुस्तक गंगा किशोर भट्टाचार्य द्वारा प्रकाशित की गई थी और 1816 में कलकत्ता के फेरिस एंड कंपनी (Ferris & Company) प्रेस में छपी थी। इस पुस्तक में दो उत्कीर्ण चित्र हैं, जो अभिलेखों के साथ हैं। कलकत्ता में इंटाग्लियो प्रिंट के प्रकाशनों का अध्ययन करने के बाद, यह स्पष्ट है कि इंटाग्लियो प्रिंट प्रेस 1780 के दशक तक शहर में अच्छी तरह से स्थापित थे। 1824 में कोलकाता के गवर्नमेंट लिथोग्राफिक प्रेस में लिथोग्राफिक दृष्टांतों के पहले उदाहरण एक पुस्तक के लिए छपे थे। 1870 के दशक में कैलेंडर, पुस्तकों और अन्य प्रकाशनों के लिए मुद्रित चित्रों की मांग बढ़ने के साथ, और एकल शीट डिस्प्ले प्रिंट्स (Display prints) (फाइन आर्ट प्रिंट्स- Fine art prints) के लोकप्रियता हासिल करने के साथ पूरे भारत में कई कला स्टूडियो और प्रिंटमेकिंग प्रेस फले-फूले।

कोलकाता में बटाला 19 वीं शताब्दी में भारतीय प्रिंटमेकिंग गतिविधियों का केंद्र था। भारत में बिताए गए अपने समय के दौरान, ब्रिटिश अपनी शिक्षा प्रणाली शुरू करने और शिल्प और डिजाइन-उन्मुख कलाकारों की प्रतिभा को प्रोत्साहित करने के लिए उत्सुक थे। यह बदले में उन्हें विदेशी बाजार में भारतीय शिल्प की मांग को पूरा करने के साधन उपलब्ध कराता था। राजा रवि वर्मा भारत के पहले कलाकार थे जिन्होंने प्रिंटमेकिंग का इस्तेमाल किया, न केवल अपने आप में एक कलात्मक माध्यम के रूप में, बल्कि अपनी कला को जन-जन तक पहुँचाने के लिए। अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए, उन्होंने 19 वीं शताब्दी के अंत में अपना स्वयं का लिथोग्राफिक प्रेस स्थापित किया, जिसे बॉम्बे के घाटकोपर में रवि वर्मा प्रेस के नाम से जाना जाता था। यहाँ उन्होंने अपने कई धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष चित्रों की नकल की और उन्हें चमकदार आत्मकथाओं के रूप में छापा। 1919 में टैगोर द्वारा स्थापित कला भवन की स्थापना के साथ ललित कला माध्यम के रूप में प्रिंटमेकिंग की प्रथा ने अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त की। टैगोर द्वारा स्थापित एक पूर्व संगठन, बिचित्रा क्लब (Bichitra Club) था, जहाँ चित्रकला और प्रिंटमेकिंग की नई शैलियों की खोज की गई थी। भारत में रामेंद्रनाथ चक्रवर्ती, बिनोद बिहारी मुखर्जी, रामकिंकर बैज, मणींद्र भूषण गुप्ता और विश्वरुप बोस आदि कुछ ऐसे भारतीय कलाकार हैं, जिन्होंने 1930 और 40 के दशक के दौरान प्रिंटमेकिंग में बड़ी दिलचस्पी पैदा की और उसे बरकरार रखा। उन्होंने इसकी विभिन्न तकनीकों के साथ स्वतंत्र रूप से प्रयोग किया और कई इंटाग्लियो और रिलिफ प्रिंट बनाए। यह भारत में प्रिंटमेकिंग के लिए महत्वपूर्ण मोड़ था, क्योंकि कलाकार अब तकनीक को अपने प्रतिलिपि मूल्य के साथ नहीं जोड़ते थे, बल्कि इसके बजाय उन्हें ललित कला बनाने के लिए उपयोग करने पर ध्यान केंद्रित करते थे।

1956 तक प्रिंटमेकिंग का उपयोग नकल के लिए बड़े पैमाने पर किया गया। मुख्य रूप से बाइबिल प्रिंटिंग, पोस्टर, प्लेइंग कार्ड (Playing cards), मैनिफ़ेस्टो (Manifestos) और पुस्तक आवरण में वुडब्लॉक चित्रण का उपयोग करके। पिछले नब्बे वर्षों में, प्रिंटमेकिंग दृश्य कला के एक माध्यम के रूप में विकसित हुई। भारत में प्रिंटमेकिंग को एक कला के रूप में पोषण प्रदान करने का श्रेय बंगाल के प्रसिद्ध कलाकार सोमनाथ होरे को जाता है जिन्होंने कृष्ण रेड्डी, जैसे एक अग्रणी प्रिंटमेकर से मार्गदर्शन प्राप्त किया था। होर प्रिंट्स के साथ अपने प्रयोगों के लिए जाने जाते थे। प्रिंट कला को आगे ले जाने वाले सनत कर थे जिन्होंने कला को गैर-पारंपरिक रूपों से उठाया और इंटाग्लियो प्रिंट बनाने के साथ प्रयोग किया। इनके अलावा कंवल कृष्ण एक अन्य प्रसिद्ध कलाकार थे जिन्होंने अपने प्रिंट्स को चमकदार रंगों, उभरी हुई सतहों और एक विशेष आकर्षण के साथ उभारकर हलचल मचा दी। यूरोप जाकर उन्होंने इंटाग्लियो प्रिंटिंग तकनीक सीखी तथा वापस आकर अपना प्रेस स्थापित किया और प्रिंटों में बहु-रंग होने का चलन शुरू किया। केजी सुब्रमण्यन जैसे जाने-माने वरिष्ठ कलाकारों के पास प्रसिद्ध कला संस्थान शांतिनिकेतन में लिथोग्राफिक प्रिंट और फोलियो (Folio) के विशिष्ट निकाय हैं। के जी सुब्रमण्यम द्वारा प्रशिक्षित एक अन्य कलाकार के लक्ष्मण गौड़ हैं जिन्होंने प्रिंटमेकिंग को भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय कला प्रेमियों तक ले जाने में उत्कृष्ट योगदान दिया है। इसी प्रकार से अनेक भारतीय कलाकारों और उनके चित्रों ने भारत में कला के रूप में प्रिंटमेकिंग को प्रोत्साहित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

चित्र सन्दर्भ:
1. मुख्य चित्र में इंटाग्लिओ विधि द्वारा बनाया गया पवित्र परिवार और सिस्टर कैथरीन बारबरा जॉन का चित्रण है। (Wikipedia)br> 2. दूसरे चित्र में वुडकट प्रिंट के लिए लकड़ी के सिरे पर अंकन का चित्रण है। (Publicdomainpicture)
3. तीसरे चित्र में लीनोकट का प्रस्तुतीकरण है। (pexels)
4. चौथे चित्र में वुड के द्वारा बनाया गया एक चित्रण है। (Wikimeida)
5. पांचवे चित्र में इंटाग्लिओ विधि को पेश किया गया है। (Flickr)
6. छटे चित्र में स्क्रीन प्रिंटिंग दिखाई दे रही है। (Needpix)
7. सातवे चित्र में स्टैंसिल दिखाए गए है, से एक चित्रण के लिए तैयार किया गया है।
8. आठवें चित्र में वुडकट और लीनोकट का चित्र है। (Prarang)
9. नौवे चित्र में इंटेग्लिओ विधि दिख रही है।(Publicdomainpictures)
10. अंतिम चित्र स्क्रीन प्रिंटिंग का है। (/p)

संदर्भ:
1. https://en.wikipedia.org/wiki/Printmaking
2. https://bit.ly/3gYbHEg
3. https://www.saffronart.com/sitepages/printmaking/history.aspx
4. https://bit.ly/2UgLyGR

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