इतिहास जानने का सबसे महत्वपूर्ण साधन है, मिट्टी के बर्तन

म्रिदभाण्ड से काँच व आभूषण
16-05-2020 09:30 AM
इतिहास जानने का सबसे महत्वपूर्ण साधन है, मिट्टी के बर्तन

मिट्टी के बर्तन मनुष्य के विकास काल से लेकर आज तक किसी ना किसी रूप में हमारे साथ रहे हैं। ये मिट्टी के बर्तन या मृद्भांड आज वर्तमान समय में पुरातत्वविदों को विभिन्न समय काल का निर्धारण करने में महत्ती उपयोगी साबित होते हैं। पुरातत्व एक ऐसा विषय है जो कि मनुष्य के जीवन काल से तथा उसके द्वारा प्रयोग में लायी जाने वाली वस्तुओं के अवशेषों के अध्ययन से जुड़ा हुआ है। इस विषय से ही मनुष्य के विकास के विभिन्न पहलुओं की जानकारी हमें प्राप्त होती है।
पूरे विश्व का इतिहास मुख्य रूप से 4 चरणों में बाटा गया है-

1. पाषाणकाल
2. प्राचीन इतिहास
3. मध्यकाल
4. आधुनिक काल

इन दिए हुए इतिहास के विभिन्न समयकाल में पाषाणकाल को अन्य 6 कालों में विभाजित किया गया है-
1.
निम्न पुरापाषाण काल
2. मध्य पुरापाषाण काल
3. उत्तर पुरापाषाण काल
4. मध्य पाषाण काल
5. नवपाषाण काल
6. ताम्रपाषाण काल।

प्राचीन इतिहास की बात करें तो इसकी शुरुआत तब से शुरु होती है जब मनुष्य लेखन कला की शुरुआत कर चुका था। उपरोक्त लिखित कालों से सम्बंधित और उनके अलावा भी कई सभ्यताओं का जन्म हुआ है जिनको निम्नलिखित रूप से देख सकते हैं-
1. लौह युग
2. अहाड संस्कृति
3. बनास संस्कृति
4. जोर्वे संस्कृति आदि।

उपरोक्त लिखित संस्कृतियों में भी विभिन्न परतें या स्वरुप होते हैं उदाहरण के लिए हम सिन्धु सभ्यता जिसे कि भारत में प्रागैतिहासिक में गिना जाता है को देख सकते हैं- प्रारंभिक काल, विकसित काल और ह्रास काल।

अब जब हम उपरोक्त दिए गए तमाम कालों को देख चुके हैं तो यह समझना अत्यंत जरूरी है कि एक पुरातत्ववेत्ता कैसे पहचान पाता है कि कौन सा पुरास्थल किस समय काल से जुड़ा हुआ है? इसका उत्तर मृद्भांडों में छिपा हुआ है, पाषाणकाल के शुरूआती 3 कालों तक हमें मृद्भांड प्राप्त नहीं होते अतः इस काल में सबसे अधिक पत्थर के औजार प्राप्त होते हैं, उन्हीं पत्थर के औजारों के माध्यम से हमें उस पुरास्थल के काल के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। मध्य पाषाण काल, नवपाषाणकाल और ताम्र पाषाण काल के दौरान मृद्भांडों का निर्माण किया जाता था अतः उनके विषय में जानकारी हमें दो प्रमुख माध्यमों से मिल जाती है और वो माध्यम हैं प्रस्तर के औजार और मृद्भांड।

किसी भी पुरास्थल के अन्वेषण के दौरान जब कोई मृद्भांड का ठीकरा या टुकड़ा किसी भी पुरातत्वविद को मिलता है तो उसको अत्यधिक प्रसन्नता होती है कारण उस एक टुकड़े के आधार पर वह आराम से उस पुरास्थल की ऐतिहासिकता को सिद्ध कर देता है। उदाहरण स्वरुप यदि किसी पुरास्थल पर उत्तरी कृष्णलेपित मृद्भांड या NBPW मिल जाए तो आराम से उस पुरास्थल के काल को करीब 800 ईसा पूर्व का माना जा सकता है तथा उसको लौह संस्कृति या युग से जोड़ के देखा जा सकता है। प्राचीन काल में मृद्भांडों को अत्यंत ही खूबसूरती से सजाया जाता था तथा उनको बड़ी ही नजाकत के साथ बनाया जाता था। यह प्रश्न बड़े पैमाने पर पूछा जाता है कि आखिर किसी भी एक पुरातत्वस्थल से इतनी बड़ी संख्या में मृद्भांड कैसे मिलते हैं तो इसका जवाब यह है कि मिट्टी के बर्तन मजबूती में धातु के बर्तनों से कमजोर होते हैं अतः वे बड़ी आसानी से टूट जाया करते थे, उनको टूटने के बाद प्राचीन लोग उन्हें अपने आस पास ही फेंक दिया करते थे जिसके कारण हमें इतनी बड़ी संख्या में मिट्टी के बर्तन मिल जाते हैं।

अब यह जानना जरूरी है कि आखिर ये मृद्भांड बनाए कैसे जाते थे? पाषाणकाल के दौरान चाक का आविष्कार नहीं हुआ था तो उस काल में मनुष्य अलग अलग विधियों से मृद्भांड का निर्माण किया करता था जैसे कि मिट्टी को गोल आकार में लम्बा कर उसे गोल आकार में रखते हुए छोटे से बड़े की तरह बनाया जाता था और फिर इसे धुप में तथा आग में पका दिया जाता था, एक अन्य विधि के अनुसार मिट्टी को फूस के बने टोकरों के चारो ओर बाहर और अन्दर से मिट्टी का लेप लगा कर बनाया जाता था जिसे बाद में जला दिया जाता था जिससे मिट्टी के बीच की फूस जल जाती थी तथा बर्तन बाहर और अन्दर दोनों ओर से पक जाता था। नवपाषाण काल के दौरान मिट्टी के बर्तनों में काफी सुधार हुआ। चाक की खोज हो जाने के बाद से मिट्टी के बर्तनों के कई स्वरुप सामने आने लगें।

दुनिया की अब तक की सबसे प्राचीनतम मृद्भांड का अवशेष चीन से प्राप्त हुआ जिसकी तिथि करीब 18,000 ईसा पूर्व है। भारत में प्राचीनतम मृद्भांड के अवशेष लहुरदेवा से प्राप्त हुए जिसे की 7,000 ईसा पूर्व का माना जाता है। इस पुरास्थल की खुदाई डॉ राकेश तिवारी जी ने कराई थी। भारत में चाक पर मिट्टी के बर्तन मेहरगढ़ काल संख्या 2 से शुरू हुआ जिसका तिथि 5,500 ईसा पूर्व से लेकर 4,800 ईसा पूर्व है। सिन्धु सभ्यता के उदय के बाद मानो भारत में मृद्भांड बनाने की परंपरा में एक क्रान्ति सी आ गई और यहाँ से अनेकों प्रकार के मिट्टी के बर्तनों का विकास होना शुरू हुआ तथा इस काल में बर्तनों को रंगने तथा उन पर कलाकृतियाँ बनायी जानी शुरू हो सकी। मृद्भांड पर बनी कलाकृतियाँ प्राचीनकाल के समाज और संस्कृति पर प्रकाश डालने का कार्य करती हैं। मृद्भांडों के तिथि को थर्मो ल्युमोसेंस (thermoluminescence) तकनिकी से जाना जा सकता है। जैसा ज्ञात है कि प्रत्येक काल के मृद्भांडों की अपनी एक अलग विशेषता होती है तो उसके आधार पर ही उनके काल का निर्धारण संभव हो पाता है यहाँ तक की विभिन्न समयों में अलग अलग प्रकार के बर्तनों की गर्दन भी बनायी जाती थी अतः यह बिंदु भी हमें एक महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है।

लखनऊ गंगा के मैदानी भाग में स्थित है तथा यहाँ पर प्रमुख नदी गोमती है ऐसी स्थिति में यहाँ का वातावरण प्राचीन काल में मनुष्य के रहने के लिए अत्यंत ही महत्वपूर्ण था इसी कारण यहाँ से उत्तरी कृष्णलेपित मृद्भांड, चित्रित धूसर मृद्भांड जैसे अत्यंत ही महत्वपूर्ण मृद्भांड हमें प्राप्त होते हैं। वर्तमान समय में यहाँ से समीप ही बसे चिनहट में मिट्टी के बर्तन बड़े पैमाने पर बनाए जाते हैं जो कि प्राचीन और आधुनिक तकनिकी को जिन्दा रखे हुए हैं। चिनहट में मिट्टी के बर्तनों का यह व्यवसाय आज बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार प्रदान करता है।

चित्र (सन्दर्भ):
1. मुख्य चित्र में धूमिल मृद्भाण्ड (घड़े) दिखाई दे रहे हैं।
2. दूसरे चित्र में हड़प्पा से मिले मृद्भाण्ड दिखाए गए हैं जो मथुरा संग्रहालय में रखे हुए हैं।
3. तीसरे चित्र में हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से मिले हुए मृद्भाण्ड दिखाए गए हैं जो राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली में रखे गए है।
4. चौथे चित्र में मोहनजोदड़ो से प्राप्त मृद्भाण्ड हैं जिसके ऊपर रेसिन के साक्ष्य उपस्थित हैं।
5. पांचवे चित्र में चीन से प्राप्त मृद्भाण्ड दृस्यन्वित हैं।
6. छटे चित्र में सन 1910 से पहले अपने चाक पर मृद्भाण्ड बनाता हुआ एक कुम्हार दिख रहा है।
7. अंतिम चित्र में चिनहट की मृद कलाकारी प्रस्तुत की गयी है।
सन्दर्भ :
1. https://archaeology.uiowa.edu/prehistoric-pottery-0
2. https://bit.ly/2LnDb7o
3. https://en.wikipedia.org/wiki/Pottery#Archaeology

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