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वर्तमान काल में हम जब अनेकों प्राचीन मंदिरों, मूर्तियों आदि को देखते हैं तो सहसा ही हमारे मुख से यह शब्द निकल जाता है कि ‘ओह, क्या सौंदर्य है!’ ये मूर्तियाँ इत्यादि हमें प्राचीन काल की सभ्यता, कला आदि की पहचान बताती हैं इनमें बनी विभिन्न देवताओं, नायिकाओं आदि की प्रतिमाएं दृश्य कला के विषय को उजागर करती हैं।
भारतीय सभ्यता में सौंदर्य का एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण महत्व प्राचीन काल से ही रहा है जिसकी जानकारी हमें प्रारम्भिक साहित्य, मूर्तियाँ, चित्रकारियां, लघु चित्र, रंग मंच, नृत्य आदि देते हैं। भारत में नृत्य कला और दृश्य कला के मध्य जो सम्बन्ध है उसकी रूप रेखा अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। भारतीय परंपरा में नृत्य एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण कला है, जिसे की यज्ञ की संज्ञा प्राप्त है और यही कारण है की नाट्य शास्त्र जैसा ग्रन्थ प्राचीन भारतीय परंपरा को प्रदर्शित करता है। यह भी सत्य है कि कला को योग और साधना का प्रतीक भी माना जाता है। यह उस प्रकार से ही बढ़ता है जिस प्रकार से ज्यादा से ज्यादा योग और साधना करने से मन और ज्ञान। कला के प्रत्येक पहलुओं का निर्माण करने के लिए कलाकार या शिल्पकार पूर्ण रूप से आनंद की स्थिति को जन्म देता है।
नृत्य पौराणिक कथाओं और धर्म के आधार पर पूरे विश्व भर में प्रचलित है। जैसा कि हमें पाषाणकालीन गुफा चित्रों से यह ज्ञात होता है कि नृत्य उस समय में एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण बिंदु था। भारत में भीमबेटिका, पहाड़गढ़, बृहस्पति कुण्ड आदि ऐसे शैलाश्रय हैं, जहाँ पर हमें पाषाणकालीन नृत्य के उदाहरण देखने को मिलते हैं जो कि 10,000 से 5,000 वर्ष पुराने हैं। नृत्य काम क्रिया से भी अत्यंत जुड़ाव रखता है तथा नृत्य विभिन्न कहानियों के संग्रह को भी आगे भविष्य में ले जाने का कार्य करता था। भारतीय परिदृश्य में, नृत्य का विवरण प्रस्तुत करने वाली पहली पांडुलिपि नाट्य शास्त्र है इसी से जुड़े नृत्य आज भी समाज में उपस्थित हैं जैसे कत्थक, भरतनाट्यम आदि।
भारतीय परंपरा में विश्व के सर्वोच्च नर्तक भगवान् शिव को माना जाता है तथा उनके ही नटराज रूप को इसका अधीष्ठा माना गया है। तांडव और लास्य भी शिव के नृत्य से ही सम्बंधित हैं। भारतीय धर्मग्रंथों में अप्सराओं का भी एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण विवरण हमें प्राप्त होता है जो कि देवताओं के लिए नृत्य करती थी। गन्धर्वों के भी विवरण को भूला नहीं जा सकता। भारतीय समाज में नृत्य एक अत्यंत ही पवित्र स्थान ग्रहण करता है और इसका उदाहरण विभिन्न मंदिरों में देखने को मिलता है जिसमे सभा मंडप आदि का निर्माण किया जाता था। मंडपों का निर्माण इसलिए किया जाता था ताकि इसमें नृत्य किया जा सके आज भी दक्षिण भारत के मंदिरों में यह परंपरा विराजमान है।
यदि हम दृश्य कला की बात करते हैं तो यह नृत्य के माध्यम से प्राचीन मूर्तियों में समावेशित है। नाट्य शास्त्र की तरह ही एक अन्य ग्रन्थ है जिसे शिल्प शास्त्र के नाम से जाना जाता है। यह ग्रन्थ मूर्तियों आदि के निर्माण के तरीकों को बताता है परन्तु इसमें भी नृत्य की तरह ही भाव, रस आदि का ख्याल रखा जाता है। बिना उपयुक्त रस और भाव के मूर्तियों में एक जीवंत होने का प्रमाण प्राप्त नहीं हो पाता है। यही कारण है कि एक नर्तक तथा एक मूर्तिकार दोनों के लिए इन सिद्धांतों को लेकर चलना अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। जब हम नटराज की मूर्ती, खजुराहो की मूर्तियों को, पडावली की मूर्तियों व सारनाथ, मथुरा कला की मूर्तियों को देखते हैं तो उनमें और नृत्य करने वाले नर्तक में किसी भी प्रकार का दोहरा मापदंड नहीं निकाल पाते।
चित्र(सन्दर्भ):
1. मुख्य चित्र में भगवान शिव की नृत्य मुद्रा में बनायी गयी भित्ति कला है।, Wikimedia
2. द्वितीय चित्र में नृत्य मुद्रा में बनायीं गयी प्रतिमा हैं।, Pexels
3. तृतीय चित्र में भगवान शिव और माता पार्वती की नृत्य मुद्रा में तरसी गयी प्रतिमा दृश्यांवित है।, Unsplash
4. चतुर्थ चित्र में अप्सरा की नृत्य मुद्रा में प्रतिमा है।, Unsplash
5. अंतिम चित्र में देवी देवताओं की नृत्य मुद्रा में प्रतिमा भारतीय संस्कृति में नृत्य के महत्व को पेश करती हैं।, Wikipedia
सन्दर्भ :
1. https://en.wikipedia.org/wiki/Dance_in_mythology_and_religion#Hindu_scriptures
2. https://disco.teak.fi/asia/dance-in-the-visual-arts/
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