साल के 12 महीनों या ऋतुओं से सम्बंधित है, बारहमासी गीत

ध्वनि 2- भाषायें
01-02-2020 12:30 PM
साल के 12 महीनों या ऋतुओं से सम्बंधित है, बारहमासी गीत

पुराने समय की बहुत सी ऐसी पुस्तकें हैं जिन्होंने आज के युग में भी अपनी अमिट छाप छोड़ी हुई है। ये पुस्तकें इतनी पुरानी हैं कि तब छपाई या प्रिंटिंग (Printing) का दौर भी शुरू नहीं हुआ था, और तब भी अपने-अपने क्षेत्रों में ये पुस्तकें उतनी ही प्रसिद्ध थीं जितनी कि प्रकाशित होने या छपने के बाद हुईं। इन्हीं सबसे लोकप्रिय पुस्तकों में से एक गीत-पुस्तक है, ‘बारहमासी’ (Barahmasi)। यह पुस्तक मुद्रण इतिहास के पहले चरण में लखनऊ में छपी सबसे लोकप्रिय पुस्तकों में से एक है। बारहमासी शब्द साल के 12 महीनों या ऋतुओं से सम्बंधित है।

प्राचीन काल की यदि बात की जाये तो भारतीय ऋतुओं का कविताओं, गद्यों और नाटकों में विशेष स्थान रहा है तथा इनमें ऋतुओं का वर्णन बहुत ही सुंदर तरीके से किया गया है। इन ऋतुओं ने मनुष्य और प्रकृति के बीच संबंध को भी व्यक्त किया है। बारहमासा के चित्र अर्थात पेंटिंग (Painting) में बारह महीने का चित्रण, भारतीय कवियों और चित्रकारों के कलात्मक और साहित्यिक प्रयासों को सहसंबद्ध करने का एक प्रयास था जिसमें वे ऋतुओं के चक्र का चित्रण करते थे। उसी समय, संगीत जो कि राग और रागिनियों से जुड़ा हुआ है, में भी इन बारह महीनों का चित्रण किया जाने लगा। ऋतुओं के लिए भारतीय साहित्यिक संदर्भ भी बहुत प्राचीन है, जिसका उदाहरण भारतीय महाकाव्य रामायण से लिया जा सकता है। इस महाकाव्य में पहली बार बदलते मौसम के अनुभवों का उल्लेख किया गया था।

पूरे शास्त्रीय भारतीय साहित्य में हम पाएँगे कि कोई भी व्यक्ति प्रकृति से संकेत लेते हुए अपने प्रियजनों के लिए विलाप करता है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण, में विभिन्न ऋतुओं की विशेषताओं को इंगित किया गया है। उदाहरण के लिए गर्मियों की तीव्रता को सूरज की ऊष्मा तथा मानव पर उसके असहनीय प्रभाव द्वारा दर्शाया जाता है, इसी प्रकार वसंत के मौसम को फूलों के खिलने, मधुमक्खियों के भिनभिनाने, और कोयल की मीठी आवाज़ से पहचाना जाता है। गुप्त काल में भारत के अग्रणी नाटककार और कवि कालिदास ने भी ऋतुओं को अपनी कृतियों में चित्रित किया जिनमें से ऋतुसम्हार भी एक है। इसमें उन्होंने प्रत्येक ऋतु के वर्णन के साथ-साथ प्रेमियों की भावुक प्रतिक्रियाओं का भी वर्णन किया है।

बारहमासी नामक यह पुस्तक उर्दू और नगरी दोनों में छपी थी और समाज के सभी वर्गों (हिंदुओं, मुसलमानों आदि) में बहुत लोकप्रिय थी। आश्चर्य की बात यह है कि बारहमासी के गीत लखनऊ में पहली बार मुद्रित होने के 250-300 साल पहले ही उत्तर भारत में अत्यधिक लोकप्रिय हो चुके थे। सरल शब्दों में कहा जाये तो बारहमासा एक विरहप्रधान लोक संगीत को कहा जाता है। यह संगीत 12 महीनों में नायक-नायिका के श्रृंगारिक विरह और मिलन क्रियाओं का चित्रण करता है। इस संगीत के गीतों में विभिन्न ऋतुओं की प्राकृतिक विशेषताओं का वर्णन किसी विरही या विरहनी के मुख से कराया जाता है ताकि अपनी दशा को वह हर महीने की खासियत के साथ पिरोकर रख सके। संगीत की इस शैली में अधिकतर किसी स्त्री का पति रोज़गार की तलाश में दूसरे देश चले जाता है और वह दुखी मन से अपनी सहेली को अपने मन की दशा बताते हुए कहती है कि पति के बिना हर मौसम व्यर्थ है।

उदाहरण के लिए-

सैंय्या मोरा गइले विदेसबा सखीरी ।
जिया नाहीं लागे ।।
चार महीना गर्मी के लागल।
नाहीं भेजे कौनो संदेसवा सखीरी ।।
बारहमासी गीत विभिन्न प्रकार के हैं। जैसे पारम्परिक बारहमासी, धार्मिक बारहमासी इत्यादि।

इस प्रकार के गीतों की रचना करने वाले कवियों में मलिक मोहम्मद जायसी, विद्यापति, भिखारी ठाकुरजी जैसे कवि शामिल हैं। मलिक मोहम्मद जायसी के बारहमासी गीत ‘जायसी का बारहमासा’ कहलाते हैं। जायसी के बारहमासा में रानी नागमती की मन की अवस्था बताई गयी है। नागमती चित्तौड़ के राजा रतनसेन की विवाहिता पत्नी थीं। जब रतनसेन चित्तौड़ छोड़कर रानी पदमिनी (पदमावती) से विवाह करने श्रीलंका गए तो नागमती इस बात से अनभिज्ञ थीं। अपने प्रियतम के वियोग में व्याकुल होकर नागमती को लगता था कि शायद राजा किसी अन्य स्त्री के प्रेम जाल में फंस गए हैं। इस प्रकार जो प्रकृति पति के समीप रहने पर सुखदायी लगती थी अब वह दुखदायी लगने लगी है।

नागमती कहती हैं –

नागर काहु नारि बस परा।
तेहे मोर पिउ मोंसो हरा।।

जायसी के बारहमासा के महत्त्वपूर्ण अंश इस प्रकार हैं।

चढा आसाढ़, गगन घन गाजा ।
साजा विरह दूंद दल बाजा ।।
सावन बरस मेह अति पानी ।
भरनि परी, हौं विरह झुरानी ।।
भा भादो दूभर अति भारी ।
कैसे भरौं रैन अधियारी ।।
लाग कुंवार , नीर जग घटा ।
अबहुं आउ कंत, तन लटा ।।
कातिक सरद चंद उजियारी ।
जग सीतल , हो विरहै जारी ।।
अगहन दिवस घटा निसि वाढी ।
दूभर रैनी, जाइ किमि गाढी ।।
पूस जाड़ थर - थर तन काँपा ।
सुरुज जाई लंका दिसी चाँपा ।।
लागेउ माघ परै अब पाला ।
बिरहा काल भऐउ जड़ काला ।।
फागुन पवन झकोरा वहा ।
चौगुन सीउ जाइ नहीं सहा ।।
चैत वसंता होई धमारी ।
मोहि लेखे संसार उजारी ।।
भा बैसाख तपनि अति लागी ।
चोआ चीर चंदन भा आगी ।।
जेठ जरै जग , चलै लुबारा ।
उठहिं बवंडर परहिं अंगारा ।।
विरह गाजी हनुमंत होई जागा ।
लंकादाह करै तन लागा ।।

एक अन्य मशहूर पारंम्परिक बारहमासा में एक नव विवाहिता जिसका पति कारोबार के सिलसले में परदेस जाने वाला है, उसे वह अपनी शादी में मिली नई झुलनी (नथ) से रिझाने व जाने से रोकने की कोशिश करती है।

इस बारहमासा की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं –

नई झुलनी की छईयां।
बलम दुपहरिया बिताय ला हो।।
चार महीना क गर्मी पड़त हैं।।
टप - टप चुएला पसीनमा बलम।।
जरा बेनिया डुलाय दा हो।।

यहां तक कि फिल्मों में भी इस तर्ज पर गाने बने हैं। जैसे–

हाय-हाय ये मजबूरी, ये मौसम और ये दूरी
मुझे पल-पल ये तरसाए, तेरी दो टकिये दी नौकरी में मेरा लाखों का सावन जाए।

संदर्भ:
1.
https://bit.ly/2GFkrhA
2. https://bit.ly/37P8RfD
3. https://www.exoticindiaart.com/article/barahmasa/2/
4. https://www.amarujala.com/shakti/barahmasa-poem-in-hindi-jaysi-vidyapati
चित्र सन्दर्भ:-
1.
https://bit.ly/2Olod3Y
2. https://bit.ly/3b4h5Cz
3. https://bit.ly/2UhL83M
4. https://bit.ly/2tmnYOO
5. https://bit.ly/2OhLXWB
6. https://bit.ly/31j8IP5

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