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लोहे की उपलब्धता ने आज वर्तमान विश्व की रूप रेखा ही बदलकर रख दी है। लखनऊ का इतिहास अभी तक मध्यकाल या उससे पीछे जाएँ तो महाजनपद काल तक ही माना जाता था। हाल ही में हुए सरयू नदी और सई नदी के मैदानी इलाकों से अन्वेषण में कई ऐसे अवशेष प्राप्त हुए जिन्होंने पुरातत्वविदों को यहाँ पर उत्खनन करने के लिए प्रोत्साहित किया। ये स्थान थे दादुपुर और लहुरदेवा। इन स्थानों का अन्वेषण और उत्खनन डॉ राकेश तिवारी द्वारा कराया गया था जो कि उत्तर प्रदेश पुरातत्त्व विभाग के निदेशक थें। इस उत्खनन के बाद जो अवशेष समीप आयें उन्होंने लखनऊ के इतिहास को कुल करीब 1500 ईसा पूर्व तक धकेल दिया।
दादुपुर जो कि यहाँ से करीब 22 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है से लाल मृद्भांड, चिकने लाल मृद्भांड, चमकीले काले मृद्भांड, लाल और काले मिश्रित मृद्भांड आदि की प्राप्ति हुयी। इसी के डिपाजिट में लौह के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। यहाँ से चबाई हुयी अस्थियों के भी अवशेष बड़ी संख्या में मिले हैं जोकि ये दर्शाते हैं की यहाँ के लोग मांसाहार का प्रयोग करते थे। यहाँ से जले हुए मिट्टी के अवशेष प्राप्त होते हैं और झोपड़ियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं जो कि यहाँ के गृह निर्माण कला के उपर भी प्रकाश डालते हैं। यहाँ से अनेकों की संख्या में मिले हिरन के सींगों के औजार और हड्डियों के औजार यह साबित करते हैं की यहाँ पर अस्थियों से बने औजारों का उद्योग हुआ करता होगा। जैसा कि उत्तर प्रदेश में सोनभद्र और चंदौली में हुए उत्खनन में जहाँ से लोहे के अवशेष प्राप्त हुए उनकी तिथि 1600 ईसा पूर्व तक की आई है। लेकिन अब जब हम एक बिंदु पर चर्चा करते हैं कि चंदौली और सोनभद्र के क्षेत्र में लोहे की खदाने उपलब्ध हैं लेकिन लखनऊ में लोहे के कार्य का मिलना एक बड़ी खबर है जोकि दोमट मिटटी के क्षेत्र में बसा है।
यहाँ से प्राप्त लोहे के अवशेष करीब 1500 ईसा पूर्व के हैं अब यह इस बात पर भी जोर देता है कि हो ना हो यहाँ पर कच्चा लोहा कहीं और से मंगाया जाता रहा होगा। यह कथन प्राचीन व्यापार को भी सिद्ध करता है। दादुपुर से करीब 25 किलोमीटर दूर एक अन्य पुरास्थल से 1500 ईसा पूर्व से पहले के भी मानव के बसने के अवशेष प्राप्त हुए हैं। दादुपुर का पुरास्थल सई नदी के किनारे पर बसा हुआ है। ऋग्वेद में सई नदी को संडिका नदी के नाम से पुकारा गया है। अब जैसा कि यह सत्य है कि ऋग्वेद की रचना 1500 ईसा पूर्व के करीब हुयी थी तो यह सिद्ध होता है कि इस स्थान पर उस समय मनुष्य निवास करते रहे थे। इन सभी तथ्यों से यह भी बात निकल कर आई कि यह मात्र एक कैंप की तरह का बसाव या फिर सामयिक बसाव ना होकर एक स्थाई बसाव था। लाहुरदेवा से जो अवशेष प्राप्त हुए हैं उनसे सरयू नदी के पार पहली बार खेती या कृषि की बात स्वीकारी जाती है। यहीं से इंसानों द्वारा चावल की खेती किये जाने के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इन सभी अवशेषों की प्राप्ति से यह तो सिद्ध हो गया कि लखनऊ के आस पास का क्षेत्र लौह युग में सुचारू रूप से प्रचलित था।
सन्दर्भ:-
1. https://www.archaeologyonline.net/artifacts/iron-ore
2. http://www.orientalthane.com/archaeology/news_7_30.htm
3. https://bit.ly/393CcE3
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