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धर्म के प्रति लोगों की निष्ठा आज से ही नहीं वरन् सदियों से चली आ रही है या हम कह सकते हैं कि यह सभ्यताओं के साथ ही प्रारंभ हो गयी थी और आज भी यथावत बनी हुयी है। आज भी लोग अपने धर्म के साथ किसी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहते हैं और अपने धार्मिक कर्तव्यों को पूरा करने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। विश्व में आज विविध धर्मों का अनुसरण किया जाता है जिनमें शीर्ष पर इसाई, मुस्लिम, हिन्दू, बौद्ध इत्यादि हैं। इन धर्मों में पर्याप्त भिन्नता देखने को मिलती है, किंतु कुछ रस्में अधिकांश धर्मों में समान हैं जैसे पशु बलि देने कि रस्म।
इस्लाम धर्म का विश्व में दूसरा स्थान है तथा विश्व के लगभग सभी हिस्सों में इस्लाम धर्म के अनुयायी मिल जाएंगे। इसलिए इस्लामिक पर्वों का उत्साह विश्व के अधिकांश राष्ट्रों में देखने को मिलता है, जैसे कि आजकल बकरीद (ईद-उल-जुहा) का उत्साह बना हुआ है। बकरीद मुख्यतः पशु बलि पर आधारित पर्व है, जिसका मुख्य उद्देश्य इब्राहिम की कुर्बानी को याद करना है। इब्राहिम ने ईश्वर की आज्ञा का पालन करने हेतु अपने बेटे की बलि दी थी किंतु ईश्वर ने उनके बेटे के स्थान पर मेमने/भेड़ को रख दिया था। तभी से इस्लाम धर्म में पशु बलि की प्रथा प्रारंभ हुयी और आज भी इसका अनुसरण किया जाता है। बलि दिए गए पशु के मांस को तीन हिस्सों में बांटकर परिवार वालों, ज़रूरतमंदों या गरीबों और मित्रगणों/रिश्तेदारों के बीच बांट दिया जाता है। यह रस्म हज यात्रा के नौवें चरण में संपन्न की जाती है।
जैसा कि हम ऊपर उल्लेख कर ही चुके हैं कि पशु बलि देना मात्र किसी एक धर्म की ही नहीं वरन् विश्व के अधिकांश धर्मों की एक प्रमुख रस्म है, जिसका मुख्य उद्देश्य ईश्वर को प्रसन्न करना है। कई स्थानों पर तो धार्मिक अनुष्ठान के नाम पर मानव बलि भी दे दी जाती थी।
यूरोप में बलि की प्रथा काफी सामान्य है। यूरोप में प्रचलित प्रारंभिक संस्कृतियों में बलि प्रथा का व्यापक प्रचलन था। मिश्र से प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्यों से स्पष्ट हो जाता है कि तत्कालीन समाज में पशु बलि को कितना महत्व दिया जाता था। कांस्य युग (3000 ईसापूर्व) के अंत तक मिश्र में पशु बलि सामान्य बात हो गयी थी किंतु वे अपने घरेलू पशु के स्थान पर आयातित पशुओं की बलि देते थे। प्राचीन क्रिट (Crete) में फैस्टोस (Phaistos) की मिनोआ बस्ती में, खुदाई में पशु बलि के लिए उपयोग की जाने वाली घाटियों का पता चला है, जो कि 2000 से 1700 ईसा पूर्व की हैं। मिश्र ही नहीं वरन् मेसोपोटामिया और फारस की सभ्यताओं के साथ-साथ इसकी निकटवर्ती सभ्यताओं में भी पशु बलि काफी सामान्य थी। बलि देने की प्रक्रिया प्रायः भिन्न-भिन्न होती थी। कभी इन्हें मार दिया जाता था, कभी जला दिया जाता था तो कभी दफना दिया जाता था।
ऊपर दिया गया चित्र सन 1920 में जारी किया गया पोस्ट कार्ड (Post Card) है, जिसमें बनारस के मंकी टेम्पल (Monkey Temple) में अन्दर पशु कुर्बानी को दिखाया गया है।
यहूदियों की हीब्रू बाइबल (Hebrew Bible) में कहा गया है कि यहोवा ने इस्राएलियों को आज्ञा दी थी कि वे अलग-अलग वेदियों में चढ़ावे और बलिदान चढ़ाएँ। यह बलिदान पादरियों के हाथों से दिए जाने चाहिए। यरुशलम में मंदिर बनाने से पूर्व इस्राएली रेगिस्तान में सामूहिक रूप से रहते थे तथा वहीं पर बलि दिया करते थे। सोलोमन के मंदिर के निर्माण के बाद, बलिदानों की अनुमति केवल वहीं दी गयी थी। किंतु आगे चलकर मंदिरों को नष्ट कर दिया गया और बलि देने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। दूसरी शताब्दी के यहूदी-रोमन युद्धों के दौरान बलि प्रथा पुनः प्रारंभ की गयी, उसके बाद कुछ समुदायों ने इसे जारी रखा।
इसाईयों की धार्मिक मान्यता भी है कि परमेश्वर (मसीहा) ने अपनी संतानों (भक्तों) के पापों के निस्तारण के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया था। यीशु के क्रोस (Cross) पर बलिदान को याद करने के लिए पशु बलि दी जाती है। यद्यपि यह किसी भी इसाई समूह के सिद्धांत या धर्मशास्त्र का हिस्सा नहीं है। फिर भी आज कई गिरजाघरों में पशु बलि दी जाती है या बलि दिए गए पशुओं को गिरजाघर में लाया जाता है।
हिन्दू धर्म भी बलि प्रथा से अछुता नहीं रहा है। भारत में प्राचीन काल से ही पशु बलि दी जाती थी और इसका उल्लेख यजुर्वेद जैसे शास्त्रों में किया गया है। प्राचीन काल में सम्राट बनने के लिए अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न कराया जाता था, जिसके लिए एक घोड़े की बलि दी जाती थी। हालांकि इतिहास में कई ऐसे अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न कराए गए हैं जिनमें घोड़ों की बलि नहीं दी गयी है। हिन्दू धर्म में बलि प्रथाएं शक्तिवाद से संबंधित हैं जिसका अनुकरण अधिकांशतः स्थानीय जनजातियों द्वारा किया जाता है। जबकि हिंदू धर्मशास्त्रों जैसे-गीता और पुराणों में पशु बलि की मनाही है। भारत के पूर्वी राज्यों में नवरात्रि के दौरान दुर्गा पूजा के समारोह में पशु बलि दी जाती है। भारत देश में कई ऐसे देवी के मंदिर हैं जहां रस्म और परंपराओं के नाम पर आज भी पशु बलि दी जाती है।
विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों में बलिदान की रस्म निस्संदेह कई कारकों से प्रभावित है। जिसे तर्क के आधार पर समाप्त नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह सदियों से मानव जीवन का हिस्सा रही हैं तथा आज भी लोग भावनात्मक रूप से इससे जुड़े हुए हैं।
संदर्भ:
1. https://en.wikipedia.org/wiki/Eid_al-Adha
2. https://en.wikipedia.org/wiki/Animal_sacrifice
3. https://en.wikipedia.org/wiki/Korban
4. https://en.wikipedia.org/wiki/Animal_sacrifice_in_Hinduism
5. https://bit.ly/2OMUDXt
चित्र संदर्भ:-
1. https://picryl.com/media/les-sacrifices-de-cain-et-abel-869f83
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