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लखनऊ अपनी वास्तुकला की विरासत के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। 221 फीट की ऊंचाई के साथ हुसैनाबाद घंटाघर भी लखनऊ की ब्रिटिश वास्तुकला का एक बेहतरीन उदाहरण है जिसका निर्माण 1881 और 1887 के मध्य कारवाया गया था। इसके निर्माण कार्य की शुरूआत नवाब नासिर-उद-दीन हैदर ने अवध के पहले संयुक्त प्रांत के लेफ्टिनेंट गर्वनर (Lieutenant Governor) जॉर्ज कूपर के स्वागत में करवाया था जिसमें लगभग 2 लाख रुपये की लागत आयी थी। लखनऊ का यह घंटाघर लंदन में स्थित प्रसिद्ध बिग बेन (Big Ben) घंटाघर की ही प्रतिकृति है। यह घड़ी पूरी तरह से लंदन से आयातित धातु से बनी हुई है।
घड़ी के प्रत्येक सिरे का व्यास 13 फीट है, जिसमें फूल और पंखुड़ियों के आकार के डायल (Dials) लगाये गये हैं जिनका व्यास 3 फीट है। इसमें लगी मिनट की सुंई 6 फीट तथा घंटे की सुंई 4.5 फीट लम्बी है। कहा जाता है कि इसकी घंटियाँ एक ऐसी ध्वनि का उत्पादन करती थीं जो पूरे शहर में आसानी से सुनाई दे जाती थी। लखनऊ की महान विरासत होने के बाद भी इस घंटाघर को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ए.एस.आई.) की सुरक्षा सूची में नहीं रखा गया और इसके फलस्वरूप 1984 में इसने पूरी तरह से काम करना बंद कर दिया। शहर में अन्य घंटाघर भी हैं जो शहर की समृद्ध विरासत को संरक्षित करने से संबंधित विभागों की अक्षमता को उजागर करते हैं। 1984 के बाद इस घंटाघर को ठीक करने के बहुत प्रयास किए गये जोकि असफल रहे जिसके बाद से हुसैनाबाद के इस प्रसिद्ध घंटाघर में लगभग 27 सालों तक सन्नाटा छाया रहा।
1999 में जिला प्रशासन द्वारा घड़ी को ठीक करने का पहला प्रयास किया गया किंतु यह पूरी तरह से असफल रहा। 2004 में घड़ी को फिर से सुधारने का प्रयास किया गया लेकिन यह प्रयास भी व्यर्थ रहा क्योंकि इस कार्य के लिए जिस व्यक्ति को नियुक्त किया गया था वह घड़ी के महत्वपूर्ण भागों को लेकर भाग गया था। 2009 में इस घंटाघर को ठीक करने का पुनः प्रयास किया गया जिसके लिए एक एंग्लो-स्विस (Anglo-Swiss) कंपनी से संपर्क किया गया किंतु कंपनी के अधिकारी द्वारा यह बताया गया कि घड़ी के कई हिस्से गायब होने की वजह से इसकी मरम्मत नहीं की जा सकती। सभी प्रयास विफल रहने के बाद अंततः 2010 में यांत्रिक इंजीनियर (Engineer) अखिलेश अग्रवाल और मर्चेंट नेवी (Merchant navy) के पारितोष चौहान नामक व्यक्तियों ने घड़ी को ठीक करने का ज़िम्मा अपने ऊपर लिया। 13 अप्रैल, 2010 को दोनों ने काम करना शुरू किया और 28 अक्टूबर 2010 तक वे इस विचलित घड़ी को कार्यशील बनाने में सफल हुए। उनके प्रयासों के कारण घड़ी ने 27 वर्षों की अपनी लम्बी चुप्पी को तोड़ा। दो स्थानीय लोगों की पहल और परिश्रम के कारण इस घड़ी ने फिर से काम करना शुरू किया। इस घड़ी के मरम्मत कार्य की अनुमानित लागत लगभग 20 लाख रुपये थी।
संदर्भ:
1. https://bit.ly/2yBBY6a
2. https://bit.ly/2YGxUw0
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