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वर्षों से ही भारतीय सेना अपनी शौर्यता का लोहा मनवाती आ रही है चाहे वह किसी भी रूप में हो। इस शौर्यता के परचम को भारतीय सेना ने भयावह प्रथम विश्वयुद्ध में भी लहराया था। यह एक ऐसा मंज़र था जब पूरी दुनिया भय और आतंक के साये में थी किंतु किसी भी बात की परवाह किये बिना भारतीय सेना का यह समूह वीरता से आगे बढ़ता चला गया। बात प्रथम विश्व युद्ध (1914 से 1918) की है जब भारत ब्रिटिश सरकार के अधीन था तथा अंग्रेजों के असहनीय अत्याचारों से ग्रसित था। यह युद्ध यूरोप, एशिया व अफ़्रीका तीन महाद्वीपों के बीच लड़ा गया। चूंकि इस युद्ध में ब्रिटेन भी शामिल था इसलिए युद्ध में भारत का शामिल होना स्वाभाविक था। युद्ध के प्रारम्भिक चरणों में ब्रिटेन की शक्ति लगभग क्षीण हो गयी थी और ऐसी परिस्थिति में उसे भारतीय सैनिकों का सहारा लेना पड़ा। हालांकि भारत गुलाम था लेकिन फिर भी भारतीय सैनिकों ने स्वामी भक्ति को पहल दी और अपने अदम्य साहस का परिचय दिया। युद्ध के दौरान भारतीय सैनिक जिस भी मोर्चे पर गये वहां जी-जान से लड़े। इस युद्ध में लगभग 13 लाख भारतीय सैनिकों ने हिस्सा लिया जिसमें से लगभग 74,000 से अधिक सैनिक मारे गये थे।
युद्ध में भर्ती के -लिए गांव से लेकर शहर तक विभिन्न अभियान चलाए गये। भारी मात्रा में युद्ध के लिये चन्दा भी जुटाया गया। कई जवान सेना में खुशी-खुशी भी शामिल हुए। सेना के अन्दर रहते हुए उनके साथ कई प्रकार के भेदभाव किये गये। राशन से लेकर वेतन भत्ते और दूसरी सुविधाओं के मामले में भी उन्हें ब्रिटिश सैनिकों की अपेक्षा बहुत कम सुविधाएं दी गयीं। लेकिन फिर भी भारतीय सैनिकों ने वीरता से लड़ना जारी रखा और इस भेदभाव का असर कभी अपनी सेवाओं पर नहीं पड़ने दिया। युद्ध में कई पदार्थों की क्षति की गयी जिसकी आपूर्ति भारत द्वारा की गयी। खाद्य पदार्थों से लेकर गोला-बारूद, हथियार, यहां तक कि भारी संख्या में सैनिक भी भारत द्वारा ले जाये गये। भारतीयों के अदम्य साहस के कारण अंततः जर्मनी ने अपनी हार मानी। यदि युद्ध भारतीय सैनिकों ने नहीं लड़ा होता तो ब्रिटेन के लिये विजयी होना काफी कठिन था।
इस युद्ध में लखनऊ ब्रिगेड (Lucknow Brigade) के सैनिकों ने भी अपना योगदान दिया। यह ब्रिटिश भारतीय सेना की इंफेंट्री (Infantry) ब्रिगेड थी जिसका गठन 1907 में किचनर (Kitchener) सुधारों के परिणामस्वरूप किया गया था। प्रथम विश्व युद्ध के फैलने के साथ ही इसे 22वें (लखनऊ) ब्रिगेड के रूप में संगठित किया गया था। इस ब्रिगेड ने 1915 में मिस्र में सेवा दी। आंतरिक सुरक्षा कर्तव्यों के लिए और युद्ध के अंतिम वर्ष में भारतीय सेना के विस्तार में सहायता के लिए 1917 में इसे फिर से संगठित किया गया था। यह ब्रिगेड विश्वयुद्धों के बीच ब्रिटिश भारतीय सेना का हिस्सा बनी रही। 8वीं (लखनऊ) डिवीज़न ब्रिटिश भारतीय सेना भी उत्तरी सेना को गठित कर 1903 में बनायी गयी थी। 8वीं (लखनऊ) कैवेलरी (Cavalry) ब्रिगेड को पहली भारतीय कैवलरी डिवीज़न में स्थानांतरित कर फ्रांस में पश्चिमी मोर्चे पर सेवानिवृत्त किया गया था।
भारतीय सैनिक हर दिन अपनी जान जोखिम में डालकर कठोर और ठंडी जलवायु परिस्थितियों में भी वीरता से लड़ते रहे। फिर भी वे युद्ध समाप्त होने के बाद बड़े पैमाने पर अज्ञात रहने के लिए तैयार थे। जहां उन्हें अंग्रेजों द्वारा उपेक्षित किया गया था वहीं अपने ही देश द्वारा अनदेखा भी किया गया, जहां से वे आए थे। ये सैनिक सभी के लिए प्रेरणा स्रोत थे लेकिन उनमें से अधिकतर को विस्मृत कर दिया गया था। उनकी कहानियों और उनकी वीरता को लंबे समय तक युद्ध के लोकप्रिय इतिहास से हटा दिया गया। दरसल उस दौरान देश में राष्ट्रवाद के प्रभुत्व के कारण राष्ट्रवादियों द्वारा यह सोचा गया कि युद्ध में ब्रिटेन को सहयोग देने से अंग्रेज भारतीयों को स्वशासन और प्रभुत्व प्रदान करेंगे और उन्हें अधिक संवैधानिक अधिकार दिये जायेंगे किंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ, जबकि स्थिति और भी बदतर हो गयी। युद्ध के समाप्त होते ही रॉलेट एक्ट (Rowlatt Act) पारित किया गया तथा जलियांवाला बाग हत्याकांड जैसी भयावह घटनाओं को अंजाम दिया गया। अंग्रेजों के इस छल से गांधी जी जैसे कई राष्ट्रवादी क्रोधित थे लेकिन वे कुछ भी नहीं कर सकते थे।
राष्ट्रवादियों का मानना था कि वे सैनिक अपने देश के लिए नहीं लड़ रहे थे। यह उनका पेशा था। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा की जिन्होंने अपने लोगों को घर वापस भेजा तथा भारतियों को नियुक्त किया। इस युद्ध में भारत ने अपना सब कुछ दे दिया था किंतु बदले में उन्हें कुछ भी न मिला। भारतीय राष्ट्रवादियों के अनुसार सैनिक केवल अपने विदेशी आकाओं की सेवा करने के लिए ही विदेश गए थे। वे अपने औपनिवेशिक शासकों के इशारे पर लड़ रहे थे और यह राष्ट्रीय सेवा के रूप में उल्लिखित होने के योग्य नहीं था। भारत औपनिवेशिक युद्ध में अपने सैनिकों की भागीदारी से शर्मिंदा था। जब दुनिया ने 1964 में प्रथम विश्व युद्ध की 50वीं वर्षगांठ मनाई, तो भारत में बहुत कम ही सैनिकों का ज़िक्र किया गया था।
हालाँकि, अंग्रेजों ने उन असंख्य सैनिकों की याद में 1931 में नई दिल्ली स्थित इंडिया गेट (India Gate) का निर्माण किया जो विजयी मेहराब के रूप में जाना गया। यहाँ पर्यटन के लिए रोज़ सैकड़ों भारतीय आते तो हैं, परन्तु बहुत कम जानते हैं कि यह उन भारतीय सैनिकों को याद करता है, जिन्होंने प्रथम विश्व युद्ध में अपनी जान गंवा दी थी।
संदर्भ:
1.https://bit.ly/2YwsXtz
2.https://bit.ly/2LONd3X
3.https://bit.ly/2yrY6Qc
4.https://bbc.in/2K2D2qm
5.https://bit.ly/2SQ8U48
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