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हिन्दू धर्म में भगवान शिव को सृष्टि निर्माता माना जाता है तथा शक्ति (पार्वती) को इनकी अर्धांगिनी। ये दोनों एक दूसरे के पूरक के रूप में जाने जाते हैं। माना जाता है कि भगवान शिव और माँ पार्वती के समागम पर ही सृष्टि का निर्माण हुआ है। इस जीव जगत में मानव ईश्वर की सबसे अद्भूत और विचित्र रचना है। जिसमें साक्षात भगवान शिव और शक्ति का अंश निहित है। शिव आत्मा हैं तो शक्ति उसकी अभिव्यक्ति या स्वरूप अर्थात मानव शरीर में दिखाई दे वह शक्ति और जो इसे जीवित रखे वह आत्मा है। कबीर दास जी ने भी कहा है:
मोके कहां ढूंढे बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना मंदिर में ना मस्जिद में, ना काबे कैलाश में।।
सांख्य दर्शन के अनुसार सृष्टि के निर्माण में दो तत्व प्रमुख हैं पुरूष और प्रकृति। जिसमें पुरूष जीवात्मा का और प्रकृति पंचतत्वों का प्रतीक है। शिव और शक्ति को भी पुरूष और प्रकृति के रूप में भी इंगित किया जाता है, जिसमें शिव चेतना और शक्ति स्वभाव का प्रतीक हैं। शिव और शक्ति के मेल को अर्द्धनारीश्वर के रूप में जाना जाता है। अर्द्धनारीश्वर का शाब्दिक अर्थ है आधे नारी के शरीर से बने ईश्वर (शिव)। जिसमें भगवान शिव का आधा शरीर नर का और आधा शरीर नारी (शक्ति) का है। बाईं ओर माता, पार्वती, "स्त्री" ऊर्जा का और दाईं ओर शिव "पौरुष" चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह रूप भगवान शिव में शक्ति की भूमिका को दर्शाता है। जब तक ऊर्जा (शक्ति) और चेतना (शिव) नहीं मिलते हैं तब तक दोनों अनभिज्ञ, अस्त-व्यस्त एवं लक्ष्यहीन हैं। ऊर्जा चेतना के बिना कुछ भी उत्पन्न नहीं कर सकती। चेतना इसे संतुलन, रूप और दिशा प्रदान करती है। इसके विपरीत, ऊर्जा के बिना चेतना सुप्त शक्ति है, यदि ऊर्जा निष्क्रिय होती है तो चेतना किसी भी नवरचना के उद्भव को संभव नहीं बना सकती है। शक्ति के बिना शिव शव (मृत) हैं तो वहीं शिव के बिना शक्ति का अस्तित्व नहीं है। जब ये दोनों मिलते हैं तो एक नयी रचना का उद्भव होता है। इसी प्रकार मानव भी है यह एक विशुद्ध एकात्मक जीव नहीं है। इसमें नर एवं मादा दोनों के गुणसूत्रों का समावेश है तथा इन दोनों के समागम से ही नए जीव का उद्भव संभव है। इसलिए स्त्री और पुरूष एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं, यह एक ही शरीर में दोनों का अस्तित्व लिए हुए हैं।
मानव शरीर में शिव ‘चेतना’ की तो शक्ति ‘प्रकृति’ की भूमिका निभाते हैं। शिव अपरिवर्तनीय, अनंत और निराकार रूप से पिता के समान पालक की भूमिका निभाते हैं। जो पूर्णतः शक्ति में निहित हैं। शिव निराकार अदृश्य हैं जिन्हें शक्ति विभिन्न रंग देकर एक आकार प्रदान करती है। शक्ति एक जीव में एक माता की भूमिका निभाती हैं जो निस्वार्थ भाव से अपने संतानों से स्नेह करती है उनकी रक्षा एवं भरण पोषण करती है। शक्ति ऊर्जा, गति, परिवर्तन, प्रकृति के माध्यम से मानव को आत्मनिर्भर बनाती है। शिव पितृ प्रेम हैं जो मानव को चेतना, स्पष्टता और ज्ञान प्रदान करते हैं। जब शिव और शक्ति को मात्र एक "पुरुष" और "स्त्री" के रूप में देखा जाता है और उनके मिलन को कामवासना की तृप्ती के रूप में आंका जाता है जो कि गलत है, कामुकता पूरी तरह से स्वाभाविक है, परन्तु यह भ्रम तभी उत्पन्न होता है जब कामुकता और आध्यात्मिकता को मिला दिया जाता है। जो शिव और शक्ति के समागम के अर्थ को भिन्न पथ की ओर ले जाता है।
कामुकता स्त्री और पुरुष का मिलन है जबकि आध्यात्मिकता मानवीय चेतना और ईश्वर का मिलन है। शिव और शक्ति का अंश मानव में पौरूष और स्त्री गुणों के रूप में निहित है। जिनका शारीरिक स्तर पर भी प्रभाव पड़ता है। जिस कारण व्यक्ति अपने विपरित लिंग के प्रति तथा कुछ स्थितियों में अपने समलैंगिक की ओर आकर्षित होने लगता है। जब दोनों के मध्य संतुलन होता है, तो कामुकता की भावना समाप्त हो जाती है। जब तक चेतना भौतिक जगत से जुड़ी होती है तब तक व्यक्ति भौतिक साधनों की ओर ही भागता है शारीरिक सूख ही उसे जीवन का सबसे बड़ा सूख लगता हैं किंतु जब यह चेतना अपने अंतर्मन से जुड़ जाती है तो व्यक्ति सांसारिकता को छोड़ते हुए परम शक्ति में विलीन होने के लिए अग्रसर हो जाता है तथा उसे जीवन का वास्तविक परमानंद प्राप्त होता है। ईश्वर सर्वव्यापी, अनंत, निराकार हैं, जिन्हें चेतना के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है।
संदर्भ:
1. https://www.chakras.net/yoga-principles/22-shiva-and-shakti
2. https://www.ncbi.nlm.nih.gov/pmc/articles/PMC3705693/
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