अवध के दरबारों में प्रसिद्ध शेख़ सादी की गुलिस्तां

ध्वनि 2- भाषायें
17-11-2018 02:45 PM
अवध के दरबारों में प्रसिद्ध शेख़ सादी की गुलिस्तां

शेख़ सादी (अबू-मुहम्मद मुस्लिह अल-दिन बिन अब्दल्लाह शिराज़ी) मध्ययुग में ईरान के एक प्रमुख फ़ारसी कवि और साहित्यकार थे, जो अपने लेख की गुणवत्ता और सामाजिक एवं नैतिक विचारों की गहराई के माध्यम से विख्यात हुए। उन्हें शास्त्रीय साहित्यिक परंपरा के सबसे महान कवियों में से एक के रूप में जाना जाता है। इन्होंने अपने साहसिक जीवन की अनेक मनोरंजक घटनाओं और विभिन्न देशों में प्राप्त अनोखे तथा मूल्यवान्‌ अनुभवों का वर्णन प्रसिद्ध पुस्तक ‘गुलिस्तां’ में किया है। अवध के नवाबों के दरबार में भी गुलिस्तां काफी प्रसिद्ध थी।

शेख़ सादी द्वारा लिखी गयी इस पुस्तक का कार्य सन्‌ 1258 में पूरा हुआ। इस पुस्तक का आरंभ उन्होंने 21 अप्रैल 1258 को अपने एक दोस्त के साथ बगीचे में घटित घटना के आधार पर किया, जिसका वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक के परिचय में किया है। जिसमें वे बताते हैं कि उनके दोस्त द्वारा बगीचे से शहर ले जाने के लिए कुछ फूल इकट्ठा किए गये। जिसे देख उनके मन में विचार आया कि ये फूल जल्द ही मुरझा जाएंगे और यह देख उन्होंने एक ऐसे बगीचे के निर्माण का विचार किया जो कभी ना मुरझाए। इसी घटना के बाद जन्म हुआ गुलिस्‍तां का जिसकी शुरुआत उन्होंने विनम्र समाज और बातचीत के नियमों पर दो अध्याय लिखकर की और बाद में उनके द्वारा अपनी यात्रा के दौरान, पुस्तक में अनेक अध्याय शामिल किए गये। पुस्तक के परिचय के बाद इस पुस्तक को आठ अध्यायों में विभाजित किया गया है, जिसमें विभिन्न विषयों का वर्णन किया गया, और प्रत्येक में कई कहानियां और कविताएं शामिल हैं।


शेख़ सादी की इस पुस्तक को अब तक की सबसे व्यापक रूप से पढ़ी जाने वाली पुस्तकों में से एक माना जाता है। इसकी रचना के समय से आज तक इसकी ‘अतुलनीय सादगी’ के लिए इसकी प्रशंसा की जाती है और साथ ही इसे सरल सुरुचिपूर्ण फ़ारसी गद्य के सार के रूप में देखा जाता है। गुलिस्तां को अब तक कई भाषाओं में अनुवादित किया जा चुका है - लैटिन, फ्रेंच, अंग्रेजी, तुर्की, हिंदी आदि।

सादी का पश्चिम में पहला परिचय आंद्रे डु रायर (1634) द्वारा आंशिक फ्रांसीसी अनुवाद के माध्यम से किया गया था। वहीं जॉर्जियस जेंटियस ने 1651 में फारसी पाठ के साथ लैटिन संस्करण को प्रस्तुत किया। एडम ओलेरियस द्वारा पहला प्रत्यक्ष जर्मन अनुवाद पेश किया गया। गुलिस्तां का अंग्रेजी भाषा में कई बार और विभिन्न लेखकों द्वारा अनुवाद किया गया। उज़्बेक के कवि और लेखक गफूर गुलम द्वारा भी उज़्बेक भाषा में गुलिस्तान का अनुवाद किया गया था। न्यूयॉर्क की एक इमारत की दीवार पर गुलिस्तां के पहले अध्याय की दसवीं कहानी को एक कालीन में बुनकर टांगा हुआ है:

"मनुष्य संपूर्ण रूप से सदस्य हैं,
एक सार और आत्मा के निर्माण में।
यदि एक सदस्य दर्द से पीड़ित है,
तो अन्य सदस्य असहज रहेंगे।
यदि आपको मानव दर्द के लिए कोई सहानुभूति नहीं है,
तो मानव नाम आप धारण नहीं कर सकते हैं।"

भारत में पहली बार फारसी भाषा में समीक्षा को 900/1494 में बहमानी सुल्तान के लिए ओवेस बी. ‘अला-अल-दीन आदम (Oways b. ʿAlāʾ-al-Din Ādam) द्वारा लिखा गया था। कियाबन-ए गुलिस्तान (1268/1852) में सेराज-अल-दीन ‘अली-खान आरज़ू, मिर नूर-अल्लाह अरारी और मोला साद तट्टावी द्वारा की गयी पूर्व समीक्षाओं को दर्शाया गया है। 1771 में, सर विलियम जोन्स (Sir William Jones) द्वारा फारसी के छात्रों को अपने पहले अभ्यास के लिए गुलिस्तां के आसान अध्याय को चुनने की सलाह दी गयी। इस प्रकार गुलिस्‍तां फोर्ट विलियम कॉलेज (Fort William College) (1801) में ब्रिटिश भारत के अधिकारियों के लिए फारसी शिक्षण का प्राथमिक पाठ बन गया।

सादी शेख़ द्वारा कई अनमोल विचार दिए गये, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

• इंसान मुस्तक़बिल को सोच के अपना हाल ज़ाया करता है, फिर मुस्तक़बिल में अपना माज़ी याद कर के रोता है।
मुस्तकबिल = भविष्य, माज़ी = भूतकाल, हाल = वर्तमान

• ताज्जुब की बात है अल्लाह अपनी इतनी सारी मख्लूक़ में से मुझे नहीं भूलता और मेरा तो एक ही अल्लाह है में उसे भूल जाता हूँ।

• बुरी सोहबत के दोस्तों से कांटे अच्छे हैं जो सिर्फ एक बार ज़ख्म देते हैं।

• जब मुझे पता चला कि मखमल के बिस्तर और ज़मीन पर सोने वालों के ख्वाब एक जैसे और क़बर भी एक जैसी होती है तो मुझे अल्लाह के इंसाफ पर यकीन आ गया।

• निराशावाद से कभी युद्ध नहीं जीता जाता।

शेख़ सादी पर एक समय ऐसा गुजरा, जब उनके पास पहनने के लिए जूते तक नहीं थे। वे खाली पैर चलते थे, जिसका उन्हें बड़ा अफसोस था। लेकिन जब उन्होंने एक पैरों के विकलांग व्यक्ति को देखा, तो तुरंत उन्हें अल्लाह के उपकार का एहसास हुआ और उन्होंने अल्लाह का शुक्र अदा किया कि "हे अल्लाह! यदि मैं जूते से वंचित हूं तो कम से कम तूने मुझे पैर तो दे रखे हैं, जिससे मैं चल सकता हूं और जब कि यह व्यक्ति पैर से भी वंचित है।"

संदर्भ:
1.https://en.wikipedia.org/wiki/Gulistan_(book)
2.https://goo.gl/xLrVsG
3.https://www.australianislamiclibrary.org/book-review-gulistan-e-saadi.html
4.http://www.iranicaonline.org/articles/golestan-e-sadi

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