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मृद्भाण्डों पर मानव द्वारा की जाने वाली चित्रकारी के साक्ष्य तो हमें नवपाषाण काल से ही प्राप्त हो गये थे। बस यह कला समय के साथ-साथ परिवर्तित होती रही है। आज भी आप मिट्टी के बर्तनों पर हुयी अनेक प्रकार की खूबसूरत चित्रकारी देखते होंगे, यह कला किसी विशेष स्थान पर नहीं वरन् विश्व भर में प्रसिद्ध है। ब्रिटिश शासन काल के दौरान इंग्लैंड में चीनी मिट्टी के बर्तनों की एक नई शैली उभरकर सामने आयी, जिसे ट्रांसफरवेयर (Transferware) कहा गया। इन बर्तनों पर अत्यंत खूबसूरत चित्रकारी की गयी है, जिनकी खूबसूरती देखते ही बनती है।
18वीं सदी में इंग्लैण्ड के स्टेफ़ोर्डशायर में जन्मी यह कला 19वीं सदी तक संपूर्ण यूरोप, उत्तरी अमेरिका में अत्यंत लोकप्रिय हो गयी थी, विशेषकर सफेद और नीले रंग के ट्रांसफरवेयर बर्तन। इन बर्तनों पर फूल पत्ती के डिज़ाइन के साथ-साथ रमणीय स्थल (भारत, यूरोप, चीन आदि), वन एवं वन्यजीव, मनुष्यों द्वारा की जाने वाली गतिविधियां जैसे-शिकार करना इत्यादि की चित्रकारी अत्यंत खूबसूरती से की गयी। इन पर की गयी चित्रकारी ने ब्रिटेन के लोगों को बाहरी विश्व की ओर अत्यंत आकर्षित किया।
फोटोग्राफी के प्रारंभ होने से पूर्व ही भारत के कई खूबसूरत स्थानों को स्याही की मदद से इन पर चित्रित कर दिया गया। 1810-1840 के मध्य थॉमस और बेंजामिन गॉडविन ने एक ‘इंडियन व्यूज़’ (Indian Views) नाम की ट्रांसफरवेयर बर्तन श्रृंखला बनाई। इसमें इन्होंने चार्ल्स रेमस फोरेस्ट की पुस्तक ‘अ पिक्चरेस्क टूर अलोंग दी रिवर्स गेंजेस एंड जुमना, इन इंडिया’ (A Picturesque tour along the rivers Ganges and Jumna, in India) में दिए गए चित्र ‘सीटी ऑफ लखनऊ, कैपिटल ऑफ प्रोविंस ऑफ़ अवध’ (City of Lucknow, Capital of Province of Oude) में चित्रित रूमी दरवाज़े को पुनः चित्रित किया।
माइकल सैक ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया ऑन ट्रांसफरवेयर’ (India on Transferware) में ट्रांसफरवेयर पर बनाये गये भारत के सभी चित्रों को एकीकृत किया। 1895 -1904 के मध्य कई ट्रांसफरवेयर तैयार किये गये जिनपर लखनऊ का नाम लिखा होता था परन्तु वास्तव में उनके ऊपर लखनऊ का चित्र नहीं बना होता था। असल में कई चित्रों के पैटर्न (Pattern) का नाम ही लखनऊ पड़ गया था।
ट्रांसफरवेयर श्रृंखला के बर्तनों में की जाने वाली चित्रकारी के लिए सर्वप्रथम तांबे की प्लेट पर चित्र उकेरे जाते हैं। इसके बाद ताम्बे की प्लेट पर स्याही लगाकार उसपर एक महीन कागज़ रखा जाता है और स्याही के माध्यम से चित्रों को कागज़ पर उतार लिया जाता है। इस कागज़ को फिर बड़ी सावधानी से बर्तन पर टिकाया जाता है तथा इस पर एक ब्रश (Brush) से दबाव बनाया था है ताकि चित्र अच्छे से बर्तन पर स्याही के रूप में चिपक जाएँ। इन्हें बर्तन पर स्थायित्व देने के लिए कम तापमान पर बर्तन को एक भट्टी में भी रखा जाता है। इस चित्रकारी को बर्तन पर किये गये शीशे के आवरण की ऊपरी सतह और नीचली सतह दोनों पर किया जा सकता है किंतु अंदरूनी भाग में की गयी चित्रकारी लंबे समय के लिए स्थायी हो जाती है। जब तक यह कला पूर्णतः हस्तनिर्मित थी, तब तक इसकी श्रम लागत बहुत ज्यादा थी। 19वीं शताब्दी में एक तांबे की प्लेट तैयार करने में ही 6 सप्ताह का वक्त लग जाता था। समय के साथ इसके लिए विभिन्न उपकरण तैयार किये गये जिसने समय और लागत, दोनों में बचत की। आज यह कला मात्र मिट्टी के बर्तनों के रूप में ही नहीं वरन् घरों की साज सज्जा में भी उपयोग की जाती है।
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