जानिए प्राचीन नालंदा के निर्माताओं का रोचक इतिहास

छोटे राज्य 300 ईस्वी से 1000 ईस्वी तक
24-09-2024 09:24 AM
Post Viewership from Post Date to 25- Oct-2024 (31st) Day
City Subscribers (FB+App) Website (Direct+Google) Email Instagram Total
2000 117 2117
जानिए प्राचीन नालंदा के निर्माताओं का रोचक इतिहास
एक समय, हमारा शहर लखनऊ, गुप्त साम्राज्य का हिस्सा था। गुप्त साम्राज्य, भारतीय उपमहाद्वीप में, एक प्राचीन साम्राज्य था। यह तीसरी शताब्दी ईस्वी के मध्य से, छठी शताब्दी ईस्वी के मध्य तक, अस्तित्व में था। यह, मगध का, सातवां शासक राजवंश था। लगभग 319 से 467 ईस्वी तक, अपने चरम पर, इस साम्राज्य ने, भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश हिस्से पर शासन किया था। इसी काल में, ऐतिहासिक एवं प्रतिष्ठित – नालंदा विश्वविद्यालय का निर्माण हुआ। तो चलिए, आज, गुप्त वंश के बारे में विस्तार से बात करते हैं। आगे, हम इस साम्राज्य की प्रशासन व्यवस्था को समझने का प्रयास करेंगे। फिर हम, गुप्त साम्राज्य के सबसे महत्वपूर्ण शासकों के बारे में बात करेंगे। हम इस अवधि के दौरान हुए, धार्मिक विकास पर भी कुछ प्रकाश डालेंगे। उसके बाद, हम गुप्त काल के सिक्कों पर चर्चा करेंगे । अंत में हम, गुप्त काल में प्रचलित विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बारे में पता लगाएंगे।
गुप्त शासकों ने, तीसरी शताब्दी के मध्य से, छठी शताब्दी के मध्य तक, उत्तरी तथा मध्य और पश्चिमी भारत के कुछ हिस्सों पर, अपना साम्राज्य बनाए रखा। इतिहासकारों ने, गुप्त काल को, ‘भारत का शास्त्रीय युग’ माना था। क्योंकि, इसी काल के दौरान, भारतीय साहित्य, कला, वास्तुकला और दर्शन के मानदंड स्थापित किए गए थे। लेकिन, उनमें से कई धारणाओं को, मौर्य एवं गुप्त काल के दौरान हुए भारतीय समाज और संस्कृति के अधिक व्यापक अध्ययनों द्वारा चुनौती दी गई है । परंपरागत रूप से, गुप्त युग की देन में, अंकन की दशमलव प्रणाली; महान संस्कृत महाकाव्य; और हिंदू कला के साथ-साथ, खगोल विज्ञान, गणित और धातु विज्ञान शामिल थे।
गुप्त सम्राट, महान प्रशासक होने के साथ-साथ, अपने कुशल शासन के लिए भी जाने जाते थे । मनु, याज्ञवल्क्य, नारद, पराशर और कामन्दक के नीतिसार के धर्मशास्त्र को आदर्श मानने वाले ये शासक, अच्छी तरह से जानते थे, कि, राज्य की स्थिरता और स्थायित्व, शासकों के कुशल प्रशासन पर ही निर्भर करते थी।
अतः उन्होंने, प्रशासन की एक प्रभावशाली और परोपकारी प्रणाली विकसित की और समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरूप, प्राचीन प्रशासनिक प्रणाली का नवीनीकरण किया। यहां, यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि, भारत में, शासन का महत्वपूर्ण विकेंद्रीकरण भी, गुप्त साम्राज्य के साथ शुरू हुआ। तब, प्रांतों को, शासन और प्रशासन के मामले में, काफ़ी स्वायत्तता प्राप्त थी।
इस कारण, साम्राज्य को, तीन प्रशासनिक इकाइयों – केंद्रीय, प्रांतीय और शहर में, उनके प्रबंधन के लिए, अधिकारियों के साथ, विभाजित किया गया था। हालांकि, पहले की तरह, गांव ही, प्रशासन की सबसे छोटी इकाई बना रहा। शहरी प्रशासन में, प्रमुख कारीगरों व व्यापारियों की भागीदारी, गुप्त प्रशासन की विशिष्ट विशेषता थी।
गुप्त साम्राज्य के सबसे महत्वपूर्ण शासक निम्नलिखित हैं –
1.) चंद्रगुप्त प्रथम (320 - 335 ई.): गुप्त साम्राज्य की शुरुआत, 319-320 ईस्वी में, चंद्रगुप्त प्रथम के राज्यारोहण के साथ हुई। अपने अधिकार को मज़बूत करने के लिए, उन्होंने, नेपाल के लिच्छवियों के साथ वैवाहिक गठबंधन किया। 321 ईस्वी तक, उन्होंने, गंगा नदी से लेकर, प्रयाग तक, क्षेत्रों को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया। उनके साम्राज्य में, बंगाल; वर्तमान बिहार के कुछ हिस्से; राजधानी के रुप में, पाटलिपुत्र; और उत्तर प्रदेश शामिल थे । साथ ही, राजा चंद्रगुप्त प्रथम ने अपने एवं अपनी रानी के नाम वाले सिक्के भी चलाए।
2.) समुद्रगुप्त (335/336 – 375 ई.): समुद्रगुप्त ने, युद्ध और विजय की नीति अपनाई। उनके दरबारी कवि – हरिसेन द्वारा, प्राचीन संस्कृत में लिखा गया, इलाहाबाद स्तंभ शिलालेख – प्रयाग-प्रशस्ति, उनकी उपलब्धियों का, विस्तृत विवरण प्रदान करता है। यह शिलालेख, उसी स्तंभ पर है, जिस पर, सम्राट अशोक के शिलालेख अंकित हैं। समुद्रगुप्त का शासन, भारतीय उपमहाद्वीप के एक महत्वपूर्ण हिस्से तक फैला हुआ था। इसमें, पंजाब और नेपाल से लेकर, कांचीपुरम के पल्लव साम्राज्य तक क्षेत्र शामिल थे । उन्होंने, अश्वमेध यज्ञ(घोड़े की बलि) के पौराणिक विषय को दर्शाने वाले, सिक्के ढाले, जो एक पुनर्स्थापक के रूप में, उनकी भूमिका के प्रतीक थे । साथ ही, कविता में उनके कौशल के कारण, उन्हें, ‘कविराज’ यह शीर्षक प्रदान किया गया था, जिसका अर्थ – “कवियों के बीच राजा” था।
3.) चंद्रगुप्त द्वितीय (376 – 413/415 ई.): दक्कन के वाकाटक राजवंश के राजकुमार – रुद्रसेन द्वितीय से, अपनी बेटी, प्रभावती की शादी कराकर, चंद्रगुप्त द्वितीय ने, अप्रत्यक्ष रूप से, वाकाटक साम्राज्य पर शासन किया। साथ ही, उन्होंने, शक शासकों को हराकर, पश्चिमी मालवा और गुजरात क्षेत्रों पर, सफ़लता पूर्वक कब्ज़ा कर लिया। महरौली (दिल्ली) में, लौह स्तंभ पर बने, एक शिलालेख से, संकेत मिलता है कि, उनकी साम्राज्य में, भारत और बंगाल के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र शामिल थे । उनके शासनकाल के दौरान, चांदी, तांबे और सोने (दिनारा) से बने, सिक्के ढाले गए, और इन सिक्कों को, अक्सर, चंद्र के नाम से जाना जाता था।
4.) कुमारगुप्त प्रथम (415 – 455 ई.): कुमारगुप्त प्रथम ने, अपने शाही पदनामों के रूप में, ‘शक्रादित्य’ और ‘महेंद्रादित्य’ की उपाधियां धारण की । उन्होंने, अश्वमेघ यज्ञ भी किए। कुमारगुप्त प्रथम ने नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की। उनके शासनकाल के उल्लेखनीय शिलालेखों में, करंदंडा, मंदसौर बिल्साड शिलालेख और दामोदर ताम्र शिलालेख शामिल हैं।
5.) स्कंदगुप्त (455 – 467 ई.): राजा स्कंदगुप्त ने, अपने शाही पदनाम के रूप में, ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की थी। उनके शासनकाल के दौरान, जूनागढ़ या गिरनार में मिले एक शिलालेख में उल्लेख है कि, उनके राज्यपाल – पर्णदत्त ने, सुदर्शन झील की मरम्मत का कार्य कराया था। हालांकि, उनकी मृत्यु के बाद, पुरुगुप्त, कुमारगुप्त द्वितीय, बुद्धगुप्त, नरसिंहागुप्त, कुमारगुप्त तृतीय और विष्णुगुप्त जैसे कई उत्तराधिकारी, गुप्त साम्राज्य को, हूण शासकों से बचाने में असमर्थ रहे ।
गुप्त साम्राज्य के दौरान, उल्लेखनीय रूप से धार्मिक विकास हुआ। गुप्त राजवंश, अपने कट्टर हिंदू धर्म के लिए प्रसिद्ध था। लेकिन, उन्होंने बौद्ध और जैन धर्मीय लोगों को भी अपने धर्म का पालन करने की अनुमति दी थी ।
नालंदा विश्वविद्यालय, गुप्त काल के दौरान, शिक्षा का एक प्रसिद्ध केंद्र बन गया। साथ ही, इस काल के दौरान, सगोत्र विवाह के माध्यम से, यह जाति व्यवस्था के औपचारिकीकरण से भी जुड़ा था ।
नरसिंहागुप्त बालादित्य ने, महायान बौद्ध धर्म से प्रभावित होकर, नालंदा विश्वविद्यालय में, एक ‘संघराम’, और 300 फ़ीट ऊंचे विहार का निर्माण किया। बौद्ध धर्म के संरक्षण के लिए, ये पहल की गई थी। इसके अलावा, नरसिंहागुप्त के पुत्र के रूप में, वज्र ने, बौद्ध धर्म का समर्थन जारी रखा। वज्र का यह कार्य, जुआनज़ांग(Xuanzang) के उनके धार्मिक प्रायोजन खातों से प्रमाणित है।
इसके अतिरिक्त, गुप्त काल के प्रमुख सिक्के, निम्नलिखित हैं –
1.) दीनार अर्थात सोने के सिक्के, मुद्राशास्त्रीय उत्कृष्टता के सबसे दुर्लभ उदाहरणों में से एक हैं।
2.) राजवंश के सिक्कों में, शासक राजा को, आम तौर पर, सिक्कों की सामने वाली बाजू पर, दिखाया जाता था। इसमें कभी–कभी, किंवदंतियां भी शामिल होती थीं। जबकि, किसी देवता को, आमतौर पर, सिक्के के पिछले हिस्से पर प्रदर्शित किया जाता था। गुप्त मुद्रा, धातु विज्ञान और डिज़ाइन की उत्कृष्टता का प्रतिनिधित्व करती थी।
3.) भारतीय–यूनानी और कुषाण सिक्कों के बाद, गुप्त काल के सिक्कों में, एक विशिष्ट भारतीय पहचान के साथ, महत्वपूर्ण पुनरुद्धार हुआ।
4.) गुप्त कालीन सिक्कों में, दर्शाए गए सम्राट, युद्ध के शस्त्रों से लैस होते हैं। साथ ही, इन सिक्कों में, त्रिशूल को, गरुड़-प्रधान मानक (गरुड़ ध्वज) से बदल दिया गया था, जो गुप्त राजवंश का शाही प्रतीक था।
गुप्त काल के दौरान, विज्ञान और प्रौद्योगिकी भी, विकसित हो रही थी। यह विकास इस प्रकार हुआ –
1.) 499 ईस्वी में, आर्यभट्ट, पहले खगोलशास्त्री थे। उन्होंने, मौलिक खगोलीय समस्याएं प्रस्तुत कीं। काफ़ी हद तक, उनके प्रयासों के कारण ही, खगोल विज्ञान को, गणित से एक अलग अनुशासन के रूप में मान्यता दी गई।
2.) उन्होंने गणना की, कि, पाई (π) का मान – 3.1416 है, और सौर वर्ष की लंबाई, 365.3586805 दिन है। ये दोनों मान, उल्लेखनीय रूप से, वर्तमान अनुमानों के समान हैं।
3.) उनका मानना था कि, पृथ्वी एक गोला है, जो अपनी धुरी पर घूमती है। उन्होंने यह भी कहा था कि, ग्रहण, पृथ्वी की छाया, चंद्रमा पर पड़ने के कारण, होता है। वह ‘आर्यभट्टीयम’ नामक, एक ग्रंथ के लेखक भी थे, जो बीजगणित, अंकगणित और ज्यामिति से संबंधित थी ।
4.) आर्यभट्ट के अलावा, वराहमिहिर, इस शताब्दी के अंत में उभरे, एक कवि थे। उन्होंने, खगोल विज्ञान और कुंडली पर कई ग्रंथ लिखें।
5.) उनकी रचना – पंचसिद्धांतिका, खगोल विज्ञान के पांच सिद्धांतों को संबोधित करती है। इनमें से दो सिद्धांत, यूनानी खगोल विज्ञान की गहन समझ को दर्शाते हैं। उनके अन्य प्रमुख कार्यों में, लघु-जातक, बृहत्जातक और बृहत् संहिता शामिल हैं।
6.) दूसरी तरफ़, पालकल्प्य का ‘हस्तायुर्वेद’, या पशु चिकित्सा विज्ञान, गुप्त काल के दौरान, चिकित्सा विज्ञान में हुई प्रगति की पुष्टि करता है। इस समय के दौरान, एक चिकित्सा कार्य – ‘नवनीतकम’, संकलित किया गया था। यह व्यंजनों, सूत्रों और नुस्खों का एक नियम ग्रंथ था।

संदर्भ
https://tinyurl.com/b286ekx6
https://tinyurl.com/bdf2u32m
https://tinyurl.com/yz9kctfn
https://tinyurl.com/y2c48967
https://tinyurl.com/5xsv2hyt

चित्र संदर्भ

1. नालंदा विश्वविद्यालय को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. अश्व राक्षस केशी से युद्ध करते हुए श्री कृष्ण को दर्शाती एक पांचवी शताब्दी की प्रतिमा को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. चंद्रगुप्त प्रथम के सिक्के को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. समुद्रगुप्त के सिक्के को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. नालंदा विश्वविद्यालय और कुमारगुप्त प्रथम के सिक्के को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
6. आर्यभट्ट को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
पिछला / Previous अगला / Next

Definitions of the Post Viewership Metrics

A. City Subscribers (FB + App) - This is the Total city-based unique subscribers from the Prarang Hindi FB page and the Prarang App who reached this specific post.

B. Website (Google + Direct) - This is the Total viewership of readers who reached this post directly through their browsers and via Google search.

C. Total Viewership — This is the Sum of all Subscribers (FB+App), Website (Google+Direct), Email, and Instagram who reached this Prarang post/page.

D. The Reach (Viewership) - The reach on the post is updated either on the 6th day from the day of posting or on the completion (Day 31 or 32) of one month from the day of posting.