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नवाबों के शहर के नाम से मशहूर हमारा शहर लखनऊ कई विरासतों और ऐतिहासिक कहानियों को अपने अंदर समेटे हुए है। गंगा-जमुना तहज़ीब वाले हमारे लखनऊ की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां प्रत्येक त्यौहार बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। दिवाली हो या होली, ईद हो या क्रिसमस, हर त्यौहार पर अमीनाबाद, हजरतगंज, इंदिरानगर, आलमबाग, चौक आदि बाजारों की रौनक देखते ही बनती है। तो आइए आज होली के इस पावन अवसर पर हम, होली की कहानी और हमारे शहर में होली कैसे मनाई जाती है इसके बारे में जानते हैं, और साथ ही यह भी जानते हैं कि हमारे शहर की होली, जिसे नवाबी होली के नाम से जाना जाता है, कैसे प्रेम की मिसाल बन गई है?
प्राचीन काल से ही होली का त्यौहार वसंत ऋतु का स्वागत करने के एक तरीके के रूप में मनाया जाता है, और इसे एक नई शुरुआत के रूप में भी देखा जाता है जहां लोग अपने सभी अंतर्विरोधों को दूर करते हुए नई शुरुआत करते हैं। त्यौहार के पहले दिन, प्रतीकात्मक रूप से सभी बुराइयों को जलाने और एक रंगीन और जीवंत नए भविष्य का मार्ग प्रशस्त करने के लिए अलाव जलाया जाता है। जबकि होली महोत्सव में, जीवंत रंगों में रंगे लोग अपने जीवन में खुशहाली और तरक्की जैसे रंग भरने की कामना करते हैं। धार्मिक अर्थ में, रंग प्रतीकात्मकता से समृद्ध होते हैं और उनके कई अर्थ होते हैं। एक अर्थ में रंग उस पाप का भी प्रतिनिधित्व कर सकते हैं, जिसको लोग दिन के अंत में रंग उतारने के साथ अपने जीवन से बुराइयों को हटाने का कार्य करते हैं।
होली का त्यौहार मूल रूप से बुराई पर अच्छाई की विजय को दर्शाता है। होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकश्यप नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के अहंकार में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। किंतु हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का अनन्य भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरणकश्यप ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका जिसे अग्नि में भस्म न होने का वरदान प्राप्त था, की सहायता से प्रहलाद को अग्नि में भस्म करने की योजना बनाई। लेकिन अग्नि में बैठने पर होलिका तो भस्म हो गई, लेकिन ईश्वर की कृपा से प्रह्लाद सुरक्षित रहे। कहानी के अनुसार, भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार अर्थात् आधे शेर और आधे मनुष्य का रूप लेकर हिरण्यकश्यप का वध कर दिया। इस तरह, अच्छाई ने बुराई पर विजय प्राप्त की। प्रतीक रूप से यह भी माना जाता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। बैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका लकड़ियों के रूप में जल जाती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद ‘आनंद’ अक्षुण्ण रहता है, जिसे लोग रंगों के साथ मनाते हैं। होली के त्यौहार से जुड़ी एक और कहानी राधा और कृष्ण की है। भगवान विष्णु के आठवें अवतार, भगवान श्रीकृष्ण को जब देवी राधा से प्रेम हो गया, तो उन्हें डर था कि उनकी नीली त्वचा के कारण वह उनसे प्रेम नहीं करेंगी - लेकिन राधा ने श्रीकृष्ण को अपनी त्वचा को रंग से रंगने की अनुमति दी, जिससे वे एक सच्चे जोड़े बन गए। होली पर, महोत्सव में भाग लेने वाले लोग कृष्ण और राधा के सम्मान में एक-दूसरे की त्वचा पर रंग लगाते हैं।
हमारा शहर लखनऊ भी अपने होली महोत्सव के लिए जाना जाता है। जैसे-जैसे होली का त्यौहार नजदीक आता है, पूरा शहर पिचकारियों के रंगों से नहा जाता है और पार्टियों और डीजे की आवाज से गूंजने लगता है। हालांकि आज जो होली का रूप हमें अपने शहर में दिखाई देता है, वह आज से लगभग 20-25 साल पहले बेहद भव्य होता था। होली से पहले पार्टियों और कवि सम्मेलनों के आयोजन से लेकर मुशायरा रातों और होली मिलन की मेजबानी तक, रंगों का यह त्यौहार शहर में एक अलग स्तर के उत्साह के साथ मनाया जाता था।
हालाँकि, यह मथुरा की प्रसिद्ध ब्रज की होली जितनी प्रसिद्ध नहीं है, फिर भी लखनऊ में नवाबी संरक्षण के तहत रंगों के त्यौहार को समान उत्साह और भव्यता के साथ मनाने की अपनी विशिष्ट परंपरा है। आज के असभ्य तरीके के विपरीत, होली तब तहज़ीब और सलीके के साथ खेली जाती थी। होली की रंगों की विषय में एक इतिहासकार बताते हैं कि उस दौरान गुलाबी पसंदीदा रंग था, जिसे 'टेसू' के फूलों से प्राप्त किया जाता था। सफ़ेद कपड़े पहने हुए लोगों पर यह रंग अनोखी रौनक बिखेरता था। उत्सव की शुरुआत को चिह्नित करने के लिए युवाओं द्वारा अपने बड़ों के चरणों में गेंदे के फूलों के साथ अबीर और गुलाल से सजी चांदी की थालियाँ रखी जाती थी। उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात ही युवा एक-दूसरे पर रंग डालते थे। कहा जाता है कि नवाब वाजिद अली शाह कैसरबाग पैलेस में भगवान कृष्ण के गुणों का गुणगान करते हुए मस्जिदों और ओपेरा में भाग लेकर यह त्यौहार मनाते थे। गंगा-जमुना तहजीब की एक ऐसी ही घटना नवाब आसफ-उद-दौला के समय में सामने आई। होली और मोहर्रम दोनों अधिकांशतः एक ही समय पर पड़ते थे। नवाब आसफ़-उद-दौला तालकटोरा में एक 'मजलिस' (धार्मिक मण्डली) में भाग लेने के लिए जा रहे थे, जब चौक से गुज़र रहे थे तो उन्होंने देखा कि मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं के प्रति श्रद्धा दिखाते हुए, जिनके लिए मोहर्रम शोक का महीना है, हिंदुओं ने इस कार्यक्रम को नहीं मनाने का फैसला किया था।
संदर्भ
https://tinyurl.com/unuvcb4
https://tinyurl.com/ysf6crjx
https://tinyurl.com/4hjfdt69
चित्र संदर्भ
1. होली खेलती महिलाओं को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. होली खेलते बच्चों को संदर्भित करता एक चित्रण (Needpix)
3. हिरण्यकश्यप के वध को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. बाज़ार में बिक रहे रंगों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. कैसरबाग पैलेस को संदर्भित करता एक चित्रण (look&learn)
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