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विभिन्न चीज़ों के लिए प्रख्यात हमारा शहर लखनऊ, अपने विशेष मिट्टी के खिलौनों के लिए भी प्रसिद्ध है। इन खिलौनों को प्रजापति समुदाय के कुम्हारों द्वारा, सुंदर रूप से तैयार किया जाता है। लखनऊ में मिट्टी के खिलौनों को बनाने का चलन, पिछली शताब्दी के पूर्वार्ध में अंग्रेजों के काल से शुरू हुआ, और भारतीय जीवन चित्रों को एकत्र करने में उनकी रुचि को पूरा करने हेतु, इनके लिए प्रेरणा ली गई। ये खिलौने गुटों या सेट(Set) में बनाए और बेचे जाते हैं, तथा, दो प्रकार के होते हैं- 1.मूर्तियां और 2.फल। मूर्तियों को वांछित शरीर के सांचे और हाथों एवं पैरों के लिए, हाथ से लगाई गई मिट्टी का उपयोग करके बनाया जाता है।
जबकि, फलों को केवल सांचों का उपयोग करके बनाया जाता है। बैंड सेट(Band set), सर्विंग सेट(Serving set), राजा-रानी सेट, दुल्हनें, साधु, कामुक खिलौने और मूर्तियां आदि उत्पाद कारीगरों द्वारा तैयार किए जाते हैं। इस प्रक्रिया के लिए टेराकोटा सांचा(Terracotta mould), ब्रश और तार जैसे उपकरणों का उपयोग किया जाता है।
ये लखनवी खिलौने ‘ग्रीन स्टेज(Green stage)’ नामक एक विशेष पद्धति से, मिट्टी पर उत्कीर्णन करके बनाएं जाते हैं। फिर इन आकृतियों को चित्रित किया जाता है। शैलीगत दृष्टि से, लखनऊ के खिलौनों की पोशाक में नव-शास्त्रीय(Neo-classical) तथा इतालवी शैली(Italian-style) की तरलता होती है।
लखनऊ के कुम्हारों द्वारा अपनाई गई हस्तकला की इतालवी शैली और तकनीक का श्रेय, जनरल क्लाउड मार्टिन (General Claude Martin) को जाता हैं, जो वर्ष 1751 में फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी(French East India Company) के साथ भारत आए थे। मार्टिन तत्कालीन भारत के कुछ सबसे अमीर यूरोपीय लोगों में से एक थे। जब उन्होंने 1780 में लखनऊ में, उनकी दूसरी संपत्ति खरीदी, तो उन्होंने इसके मैदान के लिए ग्रीक(Greek) और इतालवी शैलियों में पत्थर और प्लास्टर(Plaster) की मूर्तियां बनाने के लिए स्थानीय मूर्तिकारों को नियुक्त किया था। तब इस कला शैली की लोकप्रियता पूरे लखनऊ में फैल गई, और अन्य कला-रूपों, विशेष रूप से छोटी मिट्टी की आकृतियों में शामिल होने लगी।
फिर, 19वीं सदी की शुरुआत में, मिट्टी की आकृतियों को इतालवी टेराकोटा शैली से लाल गेरू के लेप के प्रयोग से बढ़ाया गया। हालांकि, 1856 में अवध के कब्जे के बाद सजावट की इस शैली में गिरावट आई। जबकि, लखनऊ की मिट्टी की आकृतियां यूरोपीय पर्यटकों के बीच लोकप्रिय थीं, तब यह फलों और सब्जियों के प्रतिरूप थे। कहा जाता है कि, ये प्रतिरूप इतने सजीव होते थे कि, जब तक इन्हें संभाला नहीं जाता था, तब तक इनकी कलाकृतियों का पता नहीं चल पाता था। इसीलिए, लखनऊ के कुम्हार भारत और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध थे।
दूसरी ओर, पश्चिम बंगाल राज्य का एक शहर – कृष्णानगर भी करीबन 250 वर्षों से, अपनी मिट्टी की आकृतियों के लिए प्रसिद्ध है। धातु की पट्टियों पर मिट्टी की कला करते हुए, ये खिलौने बनाए जाते हैं। इन आकृतियों की अधिक विस्तृत एवं बेहतर विशेषताओं के लिए, मिट्टी को रूई के साथ मिलाया जाता है। उन्हें धूप में सुखाया जाता है, और दरारों को कागज और इमली के बीज या गोंद से भर दिया जाता हैं। फिर इन आकृतियों को प्राकृतिक रंगों में चित्रित किया जाता है, इनमें भेड़ के ऊन या जूट से बने बाल जोड़े जाते हैं, और आकृतियों को पोशाके पहनाई जाती हैं। पुर्णकाय आकृतियां बनाने के लिए भी, इसी तरह की तकनीकों का उपयोग किया जाता है। हालांकि, इस मामले में, धातु के बजाए लकड़ी या पुआल से बनाए गए आधार का उपयोग किया जाता है।
कृष्णानगर की आकृतियां भी इतनी विस्तृत और जीवंत होती हैं कि, उन्हें वास्तविक लोगों पर आधारित किया जा सकता है। इन्हें बनाने वाले कारीगरों के काम में काफी नाजुकता और सुंदरता है; तथा, आकृतियां जीवन और अभिव्यक्ति के साथ सहज होती हैं।
वर्ष 1888 के ग्लासगो अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी(Glasgow International Exhibition) में, लखनऊ के खिलौने कृष्णानगर में बनाई गई आकृतियों से कीमतों के मामले में काफी सस्ते थे। हालांकि, व्यक्तिगत लघु आकृतियां समान कीमत के आसपास थीं।
परंतु, आज ऐसे शिल्प विभिन्न कारणों से विफल हो रहे हैं। वर्तमान समय में, जमींदारी नियम मूर्तियों और आकृतियों के निर्माण के लिए एक प्रमुख लाभ नहीं है। पहले इन शिल्पों के अस्तित्व के लिए, यह एक प्रमुख समर्थन था। आज, बुनियादी ढांचे, परिवहन और विपणन सुविधाओं में भी बदलाव आए हैं। विदेशों में फाइबरग्लास आकृतियों(Fiberglass models) के फलते-फूलते बाजार ने, कुछ कारीगरों को अपने उत्पादों की आधार सामग्री बदलने के लिए मजबूर कर दिया है। आजकल उत्पादों का अधिकाधिक व्यावसायीकरण हो रहा है, और कारीगर अपने उत्पादों को दुनिया भर के सामानों के साथ प्रतिस्पर्धा करते हुए पाते हैं।
इन हस्तशिल्पों में प्राचीन काल से लेकर आज तक की अद्वितीय विशेषताएं और सुंदरता है।
मूर्तिकला और इसकी प्रदर्शनी से हमारा भी गहरा भावनात्मक लगाव है। कृष्णानगर एवं लखनऊ के प्रसिद्ध मिट्टी के खिलौनों के अस्तित्व के लिए, सरकार को एक अच्छी नीति लानी चाहिए। इससे कारीगरों को अपने जुनून का पालन करने, और इस कला को जीवित रखने की अनुमति मिलेगी। हस्तशिल्प उत्पादन एक श्रम गहन उद्योग है, जो वास्तव में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में समाज के गरीब वर्ग के लिए रोजगार की उच्च क्षमता का निर्माण कर सकता है। इसलिए, यदि हस्तशिल्प निर्यात बाजार का दायरा बढ़ाकर इन समूहों को ऋण प्रदान करके समर्थन देने की नीतियां बनाई जाएं, तो वे बेहतर तरीके से अपना बुनियादी ढांचा स्थापित कर सकते हैं।
संदर्भ
http://tinyurl.com/288cmy7m
http://tinyurl.com/3thu32jc
http://tinyurl.com/4bp8aafp
http://tinyurl.com/fwsafpnp
चित्र संदर्भ
1. मिट्टी के हाथी को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
2. मिट्टी के पक्षियों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. एक मूर्तिकार को संदर्भित करता एक चित्रण (Pexels)
4. मिट्टी के खिलौनों को संदर्भित करता एक चित्रण (PIXNIO)
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