इस अंतर्राष्ट्रीय छात्र दिवस पर जानें, केम्ब्रिज और कोलंबिया विश्वविद्यालयों के बारे में
This International Students Day learn about Cambridge and Columbia Universities
Lucknow
17-11-2024 09:33 AM
क्या आप जानते हैं, मायोटोनिक बकरियाँ और अन्य जानवर, कैसे करते हैं तनाव का सामना ?
Do you know how other animals cope with stress
Lucknow
16-11-2024 09:20 AM
लखनऊ के लोगों, क्या आप जानते हैं कि मायोटोनिक बकरियाँ, जिन्हें टेनेसी फ़ेंटिंग गोट्स (Tennessee fainting goat) भी कहा जाता है, एक अमेरिकी नस्ल की बकरियाँ हैं, जो डरने या उत्साहित होने पर बेहोश-सी हो जाती हैं | इसका कारण एक अनुवांशिक स्थिति है, जिसे मायोटोनिया कॉन्जेनिटा (Myotonia congenita) कहते हैं। इस स्थिति में इनकी मांसपेशियाँ अकड़ जाती हैं, जिससे ये गिर भी जाती हैं।
तो आज, आइए इस अनोखे जानवर और इसके गुणों को विस्तार से समझते हैं। हम जानने की कोशिश करेंगे कि ये ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं । इसके बाद हम कुछ अन्य जानवरों के बारे में जानेंगे, जो अजीब तरीक़ों से चिंता का सामना करते हैं। अंत में, हम कुछ ऐसे जानवरों पर भी रोशनी डालेंगे, जो बेहद अनोखे ढंग से व्यवहार करते हैं, जैसे कि मछलियाँ जो चलती हैं, मेंढक जो उड़ते हैं, पक्षी जो तैर सकते हैं पर उड़ नहीं सकते, और नेवले जो नाचते हैं।
मायोटोनिक बकरियों का संक्षिप्त परिचय
मायोटोनिक बकरियाँ, अपनी अनोखी बनावट और स्टाइल में एक जैसी होती हैं। इनके चेहरे का प्रोफ़ाइल आमतौर पर थोड़ा अंदर की ओर झुका या लगभग सीधा होता है, और इनकी आँखें व माथा हल्का सा उभरा हुआ हो सकता है। इन बकरियों के कान मध्यम आकार के होते हैं और सामान्यतः क्षैतिज स्थिति में होते हैं; ये स्विस नस्लों के कानों से बड़े और अधिक क्षैतिज होते हैं, लेकिन नूबियन, स्पेनिश बकरियों या बोअर क्रॉस से छोटे और कम झुके हुए होते हैं। कानों के बीच में लहर या हल्की सी तरंग हो सकती है, हालाँकि कुछ ब्रीडर्स ऐसे स्टॉक को चुनते हैं जिसमें यह विशेषता नहीं होती।
अधिकतर बकरियों के सींग होते हैं, और इनके सींगों का आकार बड़े और घुमावदार से लेकर छोटे और सीधे तक हो सकता है। कुछ बकरियाँ बिना सींगों के होती हैं, और कुछ ब्रीडर्स (breeders) इस विशेषता के लिए खासतौर पर इन्हें चुनते हैं।
इनका कोट (बालों की परत) बहुत छोटे और चिकने से लेकर लंबे और रेशेदार तक हो सकता है। यह विविधता, सभी प्रकार की बकरियों में, विशेषकर पुराने मूल समूहों में, पाई जाती है। अधिकांश बकरियों के बाल, छोटे होते हैं, लेकिन जिनके बाल रेशेदार होते हैं, वे खराब मौसम में अधिक सहनशील होती हैं और इस विशेषता के लिए चुनी जाती हैं। कुछ बकरियाँ कश्मीरी रेशा भी उत्पन्न करती हैं।
एक 'लैंडरेस' नस्ल होने के कारण, टेनेसी फ़ेंटिंग बकरियों का आकार, हमेशा अलग-अलग होता है। हाल के चयन ने इस विविधता को और बढ़ाया है, जिससे इन बकरियों का वज़न 60 से लेकर 175 पाउंड तक हो सकता है।
टेनेसी फ़ेंटिंग बकरियाँ क्यों बेहोश हो जाती हैं?
मायोटोनिक बकरियाँ, एक वंशानुगत न्यूरोमस्क्युलर समस्या से प्रभावित होती हैं, जिसे मायोटोनिया कॉन्जेनिटा कहते हैं। इस समस्या में स्वैच्छिक संकुचन के बाद इनकी कंकाल की मांसपेशियाँ आराम नहीं कर पातीं, और इस स्थिति को ही मायोटोनिया कहा जाता है। इनकी मांसपेशियों की झिल्ली में एक असामान्यता होती है, जिससे ये बहुत ज़्यादा उत्तेजित हो जाती हैं। जब ये अपनी मांसपेशियों को संकुचित करती हैं, तो इन्हें सामान्य स्थिति में लौटने में कुछ अधिक समय लग सकता है। इसलिए, जब इन बकरियों को अचानक कोई झटका लगता है और उनकी मांसपेशियाँ तनाव में आ जाती हैं ( फ़ाइट या फ़्लाइट प्रतिक्रिया), तो सामान्य स्थिति में लौटने के लिए इन्हें कुछ सेकंड लगते हैं।
क्या टेनेसी बकरियों को दर्द होता है जब वे बेहोश हो जाती हैं?
हम पहले से जानते हैं कि वे चेतना नहीं खोतीं, इसलिए उन्हें इसके होने का एहसास होता है। लेकिन क्या इससे उन्हें दर्द होता है? इसका सीधा जवाब ‘हाँ’ या ‘नहीं’ में नहीं दिया जा सकता। चूँकि बकरियाँ सीधे हमें यह नहीं बता सकतीं, इसलिए उनके व्यवहार से ही हमें यह समझना होता है। उनके व्यवहार से ऐसा नहीं लगता कि उन्हें इससे कोई ख़ास परेशानी होती है। अधिकतर बकरियाँ, गिरने के बाद उठ जाती हैं और वही करती रहती हैं जो वे पहले कर रही थीं, मानो कुछ हुआ ही नहीं। हालाँकि, अगर वे ऊँचाई से गिरें या किसी नुकीली वस्तु पर गिरें जिससे उन्हें चोट लगे, तो स्थिति अलग हो सकती है।
पशु जगत के अनोखे तरीके तनाव को संभालने के लिए
1.) एक के ऊपर एक बिछते मेंढक: विभिन्न प्रकार के जानवर, जैसे झींगा और खरगोश, टॉनिक इम्मोबिलिटी (Tonic immobility (तनाव में स्थिर हो जाना)) का प्रदर्शन करते हैं। विभिन्न शारीरिक अवस्थाएँ इस स्थिति को उत्पन्न करती हैं। उदाहरण के लिए, मेंढकों को उल्टा करने पर वे आसानी से बेहोश हो जाते हैं। जैसे ही उन्हें उल्टा किया जाता है, वे ढीले हो जाते हैं और अपने हाथ-पैर क्रॉस कर लेते हैं, मानो अपनी छोटी-सी मेंढक ताबूत में जाने की तैयारी कर रहे हों।
2.) मृत दिखने वाले अपॉसम: जब एक अपॉसम (Opossum) डरता है, तो वह भी गिर पड़ता है। लेकिन अपॉसम के डरने का तरीक़ा थोड़ा अनोखा होता है - वह अपना मुँह खोलता है, बहुत अधिक लार बहाने लगता है, और उसकी पूँछ से दुर्गंध भरा हरा तरल निकलने लगता है। यह शिकारियों को यह सोचने के लिए प्रेरित करता है कि वह किसी भयंकर बीमारी से मरा हुआ है।
3.) रूप बदलते एफिड्स: मछली, चींटियाँ और अन्य समूह में रहने वाले जानवर, अक्सर डर का संकेत देने के लिए ‘अलार्म फ़ेरोमोन ’ छोड़ते हैं - एक तरह की गंध जो भागने की चेतावनी देती है। हालाँकि, मटर का एफिड इसमें एक क़दम आगे है। जब इसे अलार्म फ़ेरोमोन की गंध मिलती है, तो यह न केवल जल्दी से भागता है, बल्कि यदि यह जीवित रहता है, तो इसकी संतान में पंख होने की संभावना बढ़ जाती है, जिससे यह पीढ़ियों तक भागने की क्षमता प्रदान करता है।
अनोखे ढंग से व्यवहार करने वाले जानवरों पर एक नज़र
1.) मछलियाँ जो चल सकती हैं: मडस्किपर (Mudskipper) एक ऐसी मछली है जो अपना अधिकांश जीवन, ज़मीन पर बिताती है और हवा में साँस भी ले सकती है। यह जापान के कीचड़ वाले इलाकों में रहती है और छोटे-छोटे पौधों व जानवरों को खाती है जो गीली मिट्टी में पनपते हैं। इनके सिर पर आँखें होती हैं, जिससे ये शिकारियों को देख पाती हैं और साथी की तलाश में भी मदद मिलती है। ये कीचड़ में उछल-उछल कर अपने होने का संकेत देती हैं। धूप में सूखने का खतरा मडस्किपर के लिए गंभीर होता है, इसलिए यह कीचड़ में लोट कर या उसमें छिपकर अपनी त्वचा को ठंडा और नम रखती है।
2.) मेंढक जो उड़ सकते हैं: दक्षिण अमेरिका के वर्षावनों में ग्लाइडिंग लीफ़ फ्रॉग नामक मेंढक रहता है। यह पेड़ों की ऊँचाई से नीचे कूदता है और अपने बड़े-बड़े जालीदार पैरों का इस्तेमाल, पैराशूट की तरह करता है ताकि वह नीचे धीरे-धीरे उतर सके। ये मेंढक, अधिकतर समय ऊँचे पेड़ों पर रहते हैं और केवल प्रजनन के लिए नीचे आते हैं।
3.) पक्षी जो तैर सकते हैं पर उड़ नहीं सकते: पेंगुइन का टॉरपीडो जैसा आकार और उनकी मज़ेदार चाल हमें इतनी सामान्य लगने लगी है कि हम भूल जाते हैं कि वे कितने अनोखे जीव हैं। पेंगुइन की 18 प्रजातियाँ हैं, और इनमें से कोई भी उड़ नहीं सकती। पेंगुइन का शरीर मोटा और पैर छोटे होते हैं, जिससे वे तैरने और गोता लगाने में माहिर होते हैं। उनके मज़बूत पंख और पेक्टोरल मांसपेशियाँ, उन्हें पानी में तेज़ी से चलने में मदद करती हैं, जबकि पैर और पूँछ उन्हें दिशा देने में काम आते हैं।
4.) ऑक्टोपस जो चल सकते हैं: ऑक्टोपस आमतौर पर पानी में रहते और साँस लेते हैं, तो जब ज्वार घटने पर कोई ऑक्टोपस बीच के चट्टानी पोखर में फंस जाए , तो उसे पानी के लौटने तक इंतजार करना पड़ता है। लेकिन एब्डोपस एक्यूलेटस (Abdopus aculeatus) के साथ ऐसा नहीं है; यह ऑक्टोपस, ज़मीन पर निकल आता है। ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी क्षेत्र में पाया जाने वाला यह ऑक्टोपस, अपने मज़बूत हाथों पर लगे सैकड़ों छोटे सकर्स की मदद से खुद को खींचता है और चट्टानों के पोखर से दूसरे पोखर तक केकड़ों की तलाश में घूमता है।
5.) चूहे जो गाते हैं: नर चूहे, मादाओं को रिझाने के लिए, जटिल गीत गाते हैं। दुर्भाग्य से, हम इन्हें सुन नहीं सकते क्योंकि ये 50 से 100 किलोहर्ट्ज़ की आवृत्ति (frequency) पर गाए जाते हैं, जो हमारे सुनने की सीमा से बाहर है। नॉर्थ कैरोलाइना के ड्यूक यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग में पाया कि अगर दो नर चूहे, जिनकी आवाज़ की पिच अलग होती है, एक ही पिंजरे में रखे जाएँ, तो आठ हफ़्ते बाद वे एक ही पिच पर गाना शुरू कर देते हैं।
6.) स्टोट्स जो नाचते हैं: माना जाता है कि स्टोट्स खरगोशों को अपने पागलपन भरे ‘नृत्य’ से सम्मोहित कर देते हैं। इन्हें हवा में उछलते और अपनी पूँछ फैलाकर पागलपन में मचलते देखा गया है, जिससे उनका शिकार पूरी तरह से स्तब्ध हो जाता है। वैज्ञानिक अभी भी यह पता लगाने में जुटे हैं कि क्या यह ‘नृत्य’ वास्तव में उनके शिकार का तरीका है या शायद यह किसी परजीवी संक्रमण का प्रभाव है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/2py6y9xh
https://tinyurl.com/bp9sb3cb
https://tinyurl.com/wb84frtf
https://tinyurl.com/4rryvder
चित्र संदर्भ
1. मायोटोनिक बकरियों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. भूरे रंग की एक बकरी को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
3. बेहोश हो चुकी टेनेसी फ़ेंटिंग बकरी को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. अपॉसम (Opossum) को संदर्भित करता एक चित्रण (pxhere)
5. मडस्किपर (Mudskipper) को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
6. एक के ऊपर बैठे ग्लाइडिंग लीफ़ फ़्रॉगों (Gliding leaf frog) को संदर्भित करता एक चित्रण (Pexels)
7. एब्डोपस एक्यूलेटस (Abdopus aculeatus) को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
8. स्टोट (Stoat) को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
आधुनिक समय में भी प्रासंगिक हैं, गुरु नानक द्वारा दी गईं शिक्षाएं
The teachings of Guru Nanak are relevant even in modern times
Lucknow
15-11-2024 09:32 AM
सबसे पहले, हम गुरु नानक देव जी की मुख्य शिक्षाओं और आधुनिक समय में इनकी प्रासंगिकता को समझेंगे |
1. वंड छको (साझा करना): इस शिक्षा का अर्थ है कि ‘हमारे पास जो कुछ है उसे बाँटना और उसका आनंद लेना।’ हमें लालची नहीं होना चाहिए। इसके बजाय, हमें अपने समुदाय में दान के माध्यम से अपनी संपत्ति साझा करनी चाहिए।
- प्रासंगिकता: गुरु नानक ने सामुदायिक समारोहों (संगत) और साझा भोजन (पंगत) के माध्यम से, निस्वार्थ सेवा पर ज़ोर दिया। इससे भाईचारे और सामुदायिक सेवा को बढ़ावा मिलता है। उनकी शिक्षाएँ सहिष्णुता, सम्मान और शांतिपूर्ण तरीके से साथ रहने को प्रोत्साहित करती हैं।
2. किरत करो (ईमानदारी से जीना): इस शब्द का अर्थ 'ईमानदारी और निष्पक्षता से जीविकोपार्जन करना' होता है। हमें अपने कौशल, प्रतिभा और कड़ी मेहनत का उपयोग, अपने परिवार और समाज के लाभ के लिए करना चाहिए।
प्रासंगिकता: न्यायपूर्ण समाज बनाने के लिए ईमानदारी से जीना आवश्यक है। ये शिक्षाएँ सरकारी काम में ईमानदारी और नैतिकता को बढ़ावा देती हैं, जिससे भ्रष्टाचार और बेईमानी को खत्म करने में मदद मिलती है।
3. नाम जपो (भगवान का नाम जपें): यह शिक्षा, हमें भजन (कीर्तन), मंत्रोच्चार या ध्यान (सिमरन) के माध्यम से भगवान का नाम जपने के लिए प्रोत्साहित करती है।
प्रासंगिकता: भगवान का नाम जपने से हमें आध्यात्मिक जीवन जीने में मदद मिलती है। इससे तनाव और चिंता कम होती है।
4. कोई भेदभाव नहीं: गुरु नानक ने धर्म या लिंग जैसे कृत्रिम विभाजनों के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव का विरोध किया।
प्रासंगिकता: उनकी शिक्षाएँ, धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देती हैं। वे उन शुरुआती लोगों में से थे जिन्होंने कहा था कि 'हिंदुओं और मुसलमानों के बीच कोई विभाजन नहीं है! हम सभी भगवान की रचनाएँ हैं।' उनके विचार, एक निष्पक्ष और समान समाज बनाने में मदद करते हैं।
5. सरबत दा भला (भगवान से सभी की खुशी के लिए प्रार्थना करें): गुरु नानक देव जी ने हमें सिखाया कि हमें धर्म, जाति या लिंग से ऊपर उठकर, सभी के लिए अच्छी कामना करनी चाहिए।
दैनिक अरदास प्रार्थना के अंत में, हम कहते हैं, "नानक नाम चढ़दी कला, तेरे भाणे सरबत दा भला," जिसका अर्थ है "आपके नाम और आशीर्वाद से, दुनिया में हर कोई समृद्ध हो और शांति से रहे।"
प्रासंगिकता: इस प्रार्थना में, ईश्वर से केवल हमारे अपने समुदाय या परिवार की ही नहीं, बल्कि पूरी मानवता की भलाई के लिए निवेदन किया जाता है।
6. बिना किसी डर के सच बोलें: गुरु नानक देव जी ने हमें हमेशा बिना किसी डर के सच बोलने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि 'झूठ बोलकर जीतना अस्थायी है, लेकिन सत्य के साथ खड़े रहना स्थायी है।' सत्य का पालन करना गुरु की महत्वपूर्ण शिक्षाओं में से एक है। उन्होंने हमारे जीवन में एक सच्चे गुरु के होने के महत्व पर भी ज़ोर दिया। सच्चे गुरु के बिना, ईश्वर को पाना कठिन है।
प्रासंगिकता: गुरु नानक के अनुसार, मोक्ष पवित्र स्थानों पर जाने से नहीं बल्कि सच्चे हृदय और आत्मा से मिलता है।
गुरु नानक की कुछ अन्य शिक्षाएं जो समय की कसौटी पर खरी उतरी हैं !
1. ईश्वर एक है : धर्म का इस्तेमाल लोगों को बाँटने के लिए करना गलत है। गुरु नानक ने कहा, "न तो हिंदू है और न ही मुसलमान।" जब वे हरिद्वार गए, तो उन्होंने लोगों को अपने पूर्वजों के लिए सूर्य को गंगा जल चढ़ाते देखा। उन्होंने पश्चिम की ओर पानी फेंकना शुरू कर दिया। जब दूसरे लोग उन पर हँसे, तो उन्होंने जवाब दिया, "अगर गंगा का पानी स्वर्ग में आपके पूर्वजों तक पहुँच सकता है, तो मेरा पानी पंजाब में मेरे खेतों तक क्यों नहीं पहुँच सकता, जो यहाँ से बहुत करीब हैं?"
2. जंगल भाग जाने से आपको आत्मज्ञान नहीं मिलेगा: गुरु नानक ने सिखाया कि सच्चा धर्म, नम्रता और सहानुभूति के साथ जीवन यापन करने में है। वे, दुनिया के प्रलोभनों का सामना करते हुए एक अच्छा और शुद्ध जीवन जीने में विश्वास करते थे। उनके विचार थे कि समाज से दूर दिव्य सत्य की खोज करने की तुलना में गृहस्थ के रूप में रहना बेहतर है। आत्मज्ञान प्राप्त करने के बाद भी, वे किसान बने रहे।
3. गुरु नानक ने पाँच बुराइयों की पहचान की जो दुख का कारण बनती हैं:
अहंकार
क्रोध
लालच
मोह
वासना
शहरी जीवन में ज़्यादातर दर्द इन्हीं बुराइयों की वजह से होता है।
4. किसी भी तरह के अंधविश्वास से लड़ें: गुरु नानक ने अपना पूरा जीवन, व्यर्थ के रीति-रिवाज़ों और जाति व्यवस्था को चुनौती देने में बिताया। उन्होंने लोगों को उन प्रथाओं को अस्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित किया जो समाज में कोई भी सार्थक योगदान नहीं देती।
5. यात्रा करें: यात्रा करने से बहुमूल्य अनुभव मिलते हैं। उनके समय में अधिकांश धार्मिक नेता, अपने गाँवों में रहते थे | इसके बावजूद, उस समय, गुरु नानक ने बड़े पैमाने पर यात्रा की। उन्होंने इराक, लद्दाख, तिब्बत और सऊदी अरब जैसी जगहों की पैदल यात्रा की और अपनी यात्राओं से ज्ञान प्राप्त किया।
संदर्भ
https://tinyurl.com/2yvz8nvs
https://tinyurl.com/22w6qgsu
https://tinyurl.com/2yylgt7y
चित्र संदर्भ
1. गुरु ग्रंथ साहिब पढ़ रहे एक सिख पुजारी (ग्रंथी) को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. एक उदासी के दौरान, अपने साथियों को प्रेम और सच्चाई का संदेश देते गुरु नानक देव जी को संदर्भित करता एक चित्रण (Flickr)
भारत के सबसे बड़े व्यावसायिक क्षेत्रों में से एक बन गया है स्वास्थ्य देखभाल उद्योग
The healthcare industry has become one of the largest business sectors in India
Lucknow
14-11-2024 09:22 AM
किसी भी क्षेत्र की भलाई और विकास के लिए स्वास्थ्य देखभाल एक महत्वपूर्ण घटक है और हमारे देश भारत में विविध स्वास्थ्य चुनौतियों को देखते हुए यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। स्वास्थ्य देखभाल को प्राथमिकता देने का अर्थ है, सभी निवासियों के लिए आवश्यक सेवाओं तक पहुंच में सुधार करना, यह सुनिश्चित करना कि हर किसी को उनकी आवश्यकताओं के अनुसार चिकित्सा देखभाल मिल सके। स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढांचे को बढ़ाकर और पारंपरिक दृष्टिकोण के साथ आधुनिक प्रथाओं को एकीकृत करके, हम एक स्वस्थ समुदाय बना सकते हैं। एक मज़बूत स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली न केवल व्यक्तियों को स्वस्थ जीवन जीने में मदद करती है बल्कि देश के समग्र विकास में भी योगदान देती है। राजस्व और रोज़गार दोनों के मामले में स्वास्थ्य देखभाल उद्योग भारत के सबसे बड़े क्षेत्रों में से एक बन गया है। तो आइए. आज, भारत में प्रारंभिक वर्षों से लेकर आज तक सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में हुए विकास के बारे में जानते हैं और वर्तमान में भारत में भारत सेवा क्षेत्र में क्या स्थिति है, इसे समझते हैं। इसके साथ ही हम उन चुनौतियों और प्रगति की जांच करेंगे जो वर्तमान स्वास्थ्य प्रणाली को आकार देती हैं। अंत में, हम भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे के बारे में समझेंगे।
भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा का विकास- भारत के स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। वर्तमान में, सरकार के नीतिगत हस्तक्षेप, तकनीकी नवाचारों और सदियों पुरानी सिद्ध प्रणालियों के साथ, आधुनिक स्वास्थ्य सेवाओं के बढ़ते एकीकरण से भारतीय स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की समस्याओं को प्रभावी ढंग से संबोधित किया जा रहा है।
वर्ष 2014 में, विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organisation (WHO) द्वारा भारत को पोलियो मुक्त राष्ट्र घोषित कर दिया गया है। अमेरिका (1994), पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र (2000) और यूरोपीय क्षेत्र (2002) के बाद यह उपलब्धि हासिल करने वाला भारत विश्व का चौथा डब्ल्यूएचओ क्षेत्र है। यह उपलब्धि तकनीकी नवाचारों, करीबी निगरानी और लगभग 2.3 मिलियन पोलियो स्वयंसेवकों के अथक प्रयासों से संभव हुई, जिन्होंने टीकाकरण के लिए देश भर के प्रत्येक बच्चे तक पहुंचने के लिए दिन-रात कार्य किया। इसके अलावा, चेचक, पोलियो, यॉ और किडनी कृमि संक्रमण के उन्मूलन में भी स्वास्थ्य प्रणाली ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यहां तक कि मलेरिया, जो भारत में सबसे खतरनाक स्थानिक बीमारियों में से एक थी, अब देश में समाप्त होने की कगार पर है। इसके साथ ही, जिला और ब्लॉक स्तर पर कुष्ठ रोग को भी समाप्त करने की भी कोशिश की जा रही है।
भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र दूरदर्शी नीतिगत पहलों, और तकनीकी क्रांति के कारण एक महत्वपूर्ण बदलाव के दौर से गुज़र रहा है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (National Health Mission (NHM)), जो भारत का प्रमुख स्वास्थ्य क्षेत्र कार्यक्रम है, उसके द्वारा धीरे-धीरे ग्रामीण और शहरी स्वास्थ्य क्षेत्रों को पुनर्जीवित किया जा रहा है। इस मिशन के चार प्रमुख घटक हैं - राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन, तृतीयक देखभाल कार्यक्रम और स्वास्थ्य और चिकित्सा शिक्षा के लिए मानव संसाधन। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत भारत में मातृ एवं शिशु मृत्यु दर में महत्वपूर्ण कमी आई है। इसके अलावा, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत दो नए कार्यक्रम भी जोड़े गए हैं - मिशन इंद्रधनुष, जिसके द्वारा केवल एक वर्ष में टीकाकरण कवरेज में 5 प्रतिशत से अधिक सुधार किया गया है, और कायाकल्प पहल, जिसे 2016 में शुरू किया गया था और इसके तहत सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में स्वच्छता, प्रभावी अपशिष्ट प्रबंधन और संक्रमण नियंत्रण का अभ्यास किया जाता है। भारत में लगभग 100,00,00 मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य देखभाल (आशा) कार्यकर्ताओं को भी तैनात किया गया है, जो भारतीय स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में हो रहे बदलाव में परिवर्तनकारी भूमिका निभा रहे हैं।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2017, भारत में स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण बदलाव का प्रतीक है जिसके द्वारा सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय को समयबद्ध तरीके से सकल घरेलू उत्पाद के अभूतपूर्व 2.5 प्रतिशत तक बढ़ाया गया है। यह नीति सार्वजनिक सुविधाओं में सह-स्थान के माध्यम से आयुष की क्षमता का लाभ उठाकर पारंपरिक स्वास्थ्य प्रणालियों को मुख्यधारा में लाने की भी सिफ़ारिश करती है।
वर्तमान में भारतीय स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन चल रहे हैं:
नैदानिक अभ्यास में प्रौद्योगिकी को अपनाना और पुरानी बीमारियों को रोकने के लिए एक व्यवस्थित प्रयास करना। कुछ साल पहले तक भी भारत का स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र प्रौद्योगिकी अपनाने के मामले में पिछड़ा हुआ था। हालाँकि, हाल के दिनों में इसमें महत्वपूर्ण विकास हुआ है। प्रौद्योगिकी और स्वास्थ्य सेवा के संयोजन से कई समस्याओं के समाधान के लिए नए रास्ते खुले हैं। मेडिकल रिकॉर्ड के भंडारण से लेकर निदान और चिकित्सीय पद्धतियों तक, प्रौद्योगिकी देश में स्वास्थ्य सेवा वितरण प्रणाली में क्रांतिकारी बदलाव ला रही है। भारतीय स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में वृद्धि के पीछे निजी क्षेत्र एक और प्रेरक शक्ति रहा है। बेहतर स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करने, दुर्गम क्षेत्रों तक पहुँचने और परिचालन दक्षता में सुधार करने के लिए भारतीय स्वास्थ्य सेवा प्रदाता तेज़ी से नई तकनीकों को अपना रहे हैं।
यद्यपि बढ़ते चिकित्सा पर्यटन और बड़ी अस्पताल श्रृंखलाओं की स्थापना के साथ भारत तृतीयक स्वास्थ्य देखभाल के मामले में अच्छा प्रदर्शन कर रहा है, लेकिन प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल अभी भी चिंता का विषय बनी हुई है।
भारत में स्वास्थ्य सेवा: वर्तमान में, राजस्व और रोज़गार दोनों के मामले में स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र भारत के सबसे बड़े क्षेत्रों में से एक बन गया है। स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में अस्पताल, चिकित्सा उपकरण, नैदानिक परीक्षण, आउटसोर्सिंग, टेलीमेडिसिन, चिकित्सा पर्यटन, स्वास्थ्य बीमा और चिकित्सा उपकरण शामिल हैं।
भारत की स्वास्थ्य सेवा वितरण प्रणाली को दो प्रमुख घटकों में वर्गीकृत किया गया है: सार्वजनिक और निजी। सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के तहत प्रमुख शहरों में माध्यमिक और तृतीयक देखभाल संस्थान शामिल हैं। साथ ही, यह प्रणाली ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों (Primary Healthcare Centers (PHCs)) के रूप में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित करती है। महानगरों, टियर-I और टियर-II शहरों में निजी क्षेत्र अधिकांश माध्यमिक, तृतीयक और चतुर्धातुक देखभाल संस्थान प्रदान करता है। नैदानिक अनुसंधान की अपेक्षाकृत कम लागत के कारण भारत अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों के लिए अनुसंधान और विकास गतिविधियों के केंद्र के रूप में उभरा है।
वर्ष 2023 में, भारतीय स्वास्थ्य सेवा उद्योग, निज़ी और सरकारी दोनों क्षेत्रों को मिलाकर, 372 बिलियन अमेरिकी डॉलर के मूल्य तक पहुंच गया है। 2024 तक, भारतीय स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र भारत के सबसे बड़े नियोक्ताओं में से एक है क्योंकि इसमें कुल 7.5 मिलियन लोग कार्यरत हैं। आर्थिक सर्वेक्षण 2022-23 के अनुसार, स्वास्थ्य सेवा पर भारत का सार्वजनिक व्यय वित्त वर्ष 2023 में सकल घरेलू उत्पाद का 2.1% और वित्त वर्ष 22 में 2.2% तक पहुंच गया, जबकि वित्त वर्ष 2021 में यह 1.6% था। 2023 में भारत के अस्पताल बाज़ार का मूल्य 98.98 बिलियन अमेरिकी डॉलर था, जिसके 2024 से 2032 तक 8.0% की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर से 193.59 बिलियन अमेरिकी डॉलर के अनुमानित मूल्य तक पहुंचने का अनुमान है। इसके अलावा, दूरस्थ स्वास्थ्य देखभाल समाधानों की बढ़ती मांग और प्रौद्योगिकी में प्रगति के कारण टेलीमेडिसिन बाज़ार की 2025 तक 5.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है।
वित्त वर्ष 2024 में ( फ़रवरी तक), स्वास्थ्य बीमा कंपनियों द्वारा प्रीमियम कुल रुपए 2,63,082 करोड़ हो गया है। देश में अर्जित कुल सकल लिखित प्रीमियम में स्वास्थ्य खंड की हिस्सेदारी 33.33% है। 2024 में भारतीय चिकित्सा पर्यटन बाज़ार का मूल्य 7.69 बिलियन अमेरिकी डॉलर था और 2029 तक इसके 14.31 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है। भारत पर्यटन सांख्यिकी के अनुसार, 2023 में लगभग 634,561 विदेशी पर्यटक भारत में चिकित्सा उपचार के लिए आए, जो देश का दौरा करने वाले कुल अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों का लगभग 6.87% था। वर्तमान में 5-6 बिलियन अमेरिकी डॉलर की चिकित्सा मूल्य यात्रा और सालाना 500000 अंतर्राष्ट्रीय रोगियों के साथ, भारत उन्नत उपचार चाहने वाले अंतर्राष्ट्रीय रोगियों के लिए वैश्विक अग्रणी स्थलों में से एक बन गया है।
भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल का बुनियादी ढांचा- भारत में स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली दो क्षेत्रों सार्वजनिक और निज़ी स्वास्थ्य देखभाल सेवा प्रदाता - का मिश्रण है। हालांकि, अधिकांश निज़ी स्वास्थ्य देखभाल प्रदाता शहरी भारत में केंद्रित हैं, जो माध्यमिक और तृतीयक देखभाल स्वास्थ्य देखभाल सेवाएं प्रदान करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढांचे को जनसंख्या मानदंडों के आधार पर त्रि-स्तरीय प्रणाली के रूप में विकसित किया गया है, जो निम्न प्रकार है:
उप-केन्द्र (Sub-Center (SC)): 5000 लोगों की आबादी वाले मैदानी क्षेत्र में और 3000 की आबादी वाले पहाड़ी/पहुंचने में कठिन/आदिवासी क्षेत्रों में एक उप-केंद्र स्थापित किया जाता है, और यह प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली और समुदाय के बीच सबसे पहला और परिधीय संपर्क बिंदु है। प्रत्येक उप-केन्द्र में कम से कम एक सहायक नर्स मिडवाइफ़ /महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता और एक पुरुष स्वास्थ्य कार्यकर्ता होना आवश्यक है। उप-केन्द्रों को व्यवहार में परिवर्तन लाने और मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य, परिवार कल्याण, पोषण, टीकाकरण, दस्त नियंत्रण और संचारी रोग कार्यक्रमों के नियंत्रण के संबंध में सेवाएं प्रदान करने के लिए पारस्परिक संचार से संबंधित कार्य सौंपे गए हैं।
प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (Primary health centers (PHCs): 30000 लोगों की आबादी वाले मैदानी क्षेत्रों और 20000 की आबादी वाले पहाड़ी/पहुंचने में कठिन/आदिवासी क्षेत्रों में एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (PHCs) स्थापित किया जाता है, और यह ग्रामीण समुदाय और चिकित्सा के बीच पहला संपर्क बिंदु है। स्वास्थ्य देखभाल के निवारक और प्रोत्साहन पहलुओं पर ज़ोर देने के साथ, ग्रामीण आबादी को एकीकृत उपचारात्मक और निवारक स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने के लिए पी एच सी की परिकल्पना की गई थी। पी एच सी की स्थापना और रखरखाव का कार्य राज्य सरकारों द्वारा न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम /बुनियादी न्यूनतम सेवा कार्यक्रम के तहत किया जाता है। न्यूनतम आवश्यकता के अनुसार, पी एच सी में एक चिकित्सा अधिकारी और 14 पैरामेडिकल और अन्य कर्मचारी होने चाहिए। पी एच सी में अनुबंध के आधार पर दो अतिरिक्त स्टाफ़ नर्सों का प्रावधान है।
सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (Community health centers (CHCs): राज्य सरकार द्वारा 120000 लोगों की आबादी वाले मैदानी क्षेत्रों और 80000 की आबादी वाले पहाड़ी/पहुंचने में कठिन/आदिवासी क्षेत्रों में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र स्थापित और रखरखाव किए जाते हैं। मानदंडों के अनुसार, एक सीएचसी में चार चिकित्सा विशेषज्ञों, चिकित्सक, स्त्री रोग विशेषज्ञ/प्रसूति रोग विशेषज्ञ और बाल रोग विशेषज्ञ के साथ 21 पैरामेडिकल और अन्य कर्मचारियों का स्टाफ़ होना आवश्यक है। इसमें एक ऑपरेटिंग थिएटर, एक्स-रे, लेबर रूम और प्रयोगशाला सुविधाओं के साथ 30 बिस्तर होते हैं।
प्रथम रेफरल इकाइयाँ (First referral units (FRUs): किसी मौजूदा सुविधा (जिला अस्पताल, उप-विभागीय अस्पताल, सीएचसी) को पूरी तरह से चालू प्रथम रेफ़रल इकाई तभी घोषित किया जा सकता है, जब वह सभी आपात्कालीन स्थितियाँ, जो किसी भी अस्पताल को उपलब्ध कराने की आवश्यकता होती है, के अलावा आपातकालीन प्रसूति और नवजात देखभाल के लिए चौबीसों घंटे सेवाएं प्रदान करने के लिए सुसज्जित हो। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि किसी सुविधा को एफ आर यू घोषित किए जाने के तीन महत्वपूर्ण निर्धारक हैं:
(i) सर्जिकल हस्तक्षेप सहित आपातकालीन प्रसूति देखभाल;
(ii) छोटे और बीमार नवजात शिशुओं की देखभाल;
(iii) 24 घंटे के आधार पर रक्त भंडारण की सुविधा। वर्तमान में देश में 722 ज़िला अस्पताल, 4833 सी एच सी, 24 049 पी एच सी और 148 366 एससी हैं।
संदर्भ
https://tinyurl.com/4vryu8an
https://tinyurl.com/9nre3apy
https://tinyurl.com/bd595upp
चित्र संदर्भ
1. ऑपरेशन कक्ष में खड़े तीन डॉक्टरों के समूह को संदर्भित करता एक चित्रण (pexels)
2. एक मरीज़ का ऑपरेशन कर रहे चिकित्सकों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. एक मेडिकल उपकरण को संदर्भित करता एक चित्रण (pexels)
4. अस्पताल में अपने बच्चे को टीका लगवाती एक महिला को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
आइए जानें, लखनऊ के कारीगरों के लिए रीसाइकल्ड रेशम का महत्व
Let know the importance of recycled silk for the artisans of Lucknow
Lucknow
13-11-2024 09:26 AM
लखनऊ, अपनी समृद्ध संस्कृति और कपड़ों की विरासत के लिए जाना जाता है | लखनऊ के पास, रेशम के बचे हिस्सों का सही उपयोग करने का बेहतरीन मौका है। आजकल रेशम उद्योग टिकाऊ बनने के तरीकों की तलाश में है, और इसलिए बचे हुए रेशम—जैसे कपड़ों के छोटे टुकड़े और धागे—का सही इस्तेमाल बहुत जरूरी है। अगर हम इनका सही तरीके से उपयोग करें, तो लखनऊ न सिर्फ कचरा कम कर सकता है, बल्कि कारीगरों को भी मदद मिल सकती है और पर्यावरण के लिए अच्छे उत्पाद बनाए जा सकते हैं। इससे पुराने शिल्प में नई जान आएगी और यहां की अर्थव्यवस्था भी मजबूत होगी।
आज हम बात करेंगे कि रीसाइकल्ड रेशम का पर्यावरण पर कितना सकारात्मक असर होता है और यह वस्त्र उद्योग में टिकाऊपन और कचरे की कमी में कैसे मदद करता है। फिर हम जानेंगे कि रेशम कैसे बनता है, यानी इसके पीछे की प्रक्रिया क्या है। अंत में, हम यह भी चर्चा करेंगे कि रेशम के बचे हिस्सों का क्या उपयोग किया जा सकता है।
पर्यावरण को बचाने में रीसाइकल्ड सिल्क की भूमिका
रेशम एक प्राकृतिक फ़ाइबर है, जिसे सदियों से इसकी सुंदरता, आराम और सांस लेने की क्षमता के लिए सराहा गया है। लेकिन, पारंपरिक रेशम उत्पादन के पीछे कुछ समस्याएँ हैं, जैसे नैतिक प्रथाओं का अभाव, हानिकारक रसायनों का उपयोग, और पानी की अत्यधिक खपत। इसी में रिसाइकिल रेशम का महत्व बढ़ता है।
रीसाइकल्ड रेशम को रेशम के कचरे से पुनः उपयोग और पुनः प्रयोग करने योग्य बनाया जाता है, जैसे पुराने कपड़े, कटे हुए टुकड़े, और फेंके हुए रेशमी कोकून। यह टिकाऊ दृष्टिकोण न केवल कपड़ा कचरे को कम करता है, बल्कि नए रेशम के उत्पादन में जो अतिरिक्त संसाधन, जैसे पानी और ऊर्जा की आवश्यकता होती है, उसे भी घटाता है। रेशम का रिसाइक्लिंग करके, हम उद्योग के पर्यावरणीय प्रभाव को काफ़ी कम कर सकते हैं।
फ़ैशन ब्रांड जो रिसाइकिल रेशम का इस्तेमाल कर रहे हैं
कई फ़ैशन ब्रांड रिसाइकिल रेशम का उपयोग कर रहे हैं, जिससे वे स्टाइलिश और पर्यावरण के प्रति जागरूक बनाते हैं। यहाँ कुछ उदाहरण हैं:
• एलीन : यह ब्रांड अपने टिकाऊ विकास के प्रति प्रतिबद्धता के लिए जाना जाता है और इसने रिसाइकिल रेशम से बने कपड़ों की एक श्रृंखला प्रस्तुत की है। इनके डिज़ाइन रेशम की सुंदरता को प्रदर्शित करते हैं, जबकि फ़ैशन उद्योग में कचरे को कम करने के प्रति ब्रांड की प्रतिबद्धता को भी दर्शाते हैं।
• पेटागोनिया: यह बाहरी कपड़ों का बड़ा ब्रांड रिसाइकिल रेशम की दुनिया में अपने सिल्कवेट कैपिलीन संग्रह के साथ कदम रख चुका है। ये कपड़े उन लोगों के लिए डिज़ाइन किए गए हैं जो आराम और प्रदर्शन की तलाश में हैं, जबकि पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी को बनाए रखते हैं।
• रेफर्मेशन: टिकाऊ फ़ैशन में एक पथ प्रदर्शक, रेफर्मेशन नियमित रूप से अपनी कलेक्शनों में रीसाइकल रेशम का उपयोग करता है। इस ब्रांड के अनूठे डिज़ाइन और पर्यावरण के प्रति जागरूकता ने इसे इको-कॉंशियस ग्राहकों के बीच लोकप्रियता दिलाई है।
• स्टेला मेकार्टनी: अपनी क्रूरता-मुक्त और टिकाऊ फ़ैशन दृष्टिकोण के लिए प्रसिद्ध, स्टेला मेकार्टनी ने अपने डिज़ाइनों में पारंपरिक रेशम के विकल्प के रूप में रिसाइकिल रेशम का उपयोग करना शुरू कियाहै। उसकी ब्रांड की नैतिक और टिकाऊ प्रथाओं की प्रतिबद्धता हर कलेक्शन में स्पष्ट है।
रेशम बनाने की प्रक्रिया
रेशम, विभिन्न रेशमकीड़ों से प्राप्त होता है, विशेष रूप से बॉम्बेक्स मोरी, अपने शानदार फ़ाइबर के लिए अत्यधिक मूल्यवान है। इसे बनाने की प्रक्रिया में कई ध्यानपूर्वक कदम शामिल होते हैं:
1. रेशम उत्पादन (कटाई)
इसमें रेशम के कीड़ों को खिलाने के लिए मलबेरी के पेड़ों की खेती करना शामिल है। रेशम के कीड़ों को पत्तों पर सावधानी से रखा जाता है ताकि वे अच्छे से बढ़ सकें। जब रेशम के कीड़े लगभग तीन इंच लंबे हो जाते हैं, तो वे खाना खाना बंद कर देते हैं और अपने कोकून बनाने लगते हैं। इस चरण में कीड़ों की अच्छी देखभाल और सही पर्यावरण की स्थिति जरूरी होती है, जैसे तापमान और नमी।
2. स्टिफ्लिंग और छांटना
कोकून को तोड़ने से रोकने के लिए इसे गर्म हवा या भाप से स्टिफ किया जाता है। इस प्रक्रिया के दौरान, कोकून को भाप देने से उसमें मौजूद नाइट्रोजन के कारण निफ़ का विकास रुक जाता है। इसके बाद, कोकून की गुणवत्ता के आधार पर छंटाई की जाती है, और खराब कोकून को फेंक दिया जाता है। अच्छे कोकून को ही आगे की प्रक्रिया में इस्तेमाल किया जाता है।
3. उबालना
कोकून को उबालने से रेशम की फाइबर नरम हो जाती हैं और डिगमिंग शुरू होता है, जिससे वे रेशम की फ़ाइबर को एक साथ बांधने वाले सेरीसिन प्रोटीन को हटा दिया जाता है। इस प्रक्रिया में विशेष ध्यान रखा जाता है ताकि रेशम के धागे न टूटें। उबालने के बाद, कोकून को ठंडे पानी में डुबोकर फ़ाइबर को और नरम किया जाता है।
4. डीफ़्लॉसिंग
रेशम की खूबसूरती और मूल्य को बढ़ाने के लिए ढीली फाइबर को हटाया जाता है, आमतौर पर ब्रशिंग के माध्यम से। यह प्रक्रिया रेशम को एक चिकनी और चमकदार सतह देने में मदद करती है। डीफ़्लॉसिंग के बाद, रेशम की फाइबर की गुणवत्ता और मूल्य में वृद्धि होती है।
5. रीलिंग
इस प्रक्रिया में कोकून को रेशमी धागे में खोला जाता है। यहपहले हाथ से किया जाता था, लेकिन अब ज़्यादातर स्वचालित हो गया है। इस प्रक्रिया में धागे को एक रोलर पर लपेटा जाता है। कई कोकून को एक साथ रील किया जाता है ताकि मोटा रेशमी धागा बनाया जा सके। रीलिंग के दौरान, धागे को सावधानी से संभालना जरूरी होता है ताकि वह न टूटे।
6. रंगाई
रेशमी धागों को बड़े बैरल में धोया जाता है, गोंद रहित किया जाता है, और रंगा जाता है। इस प्रक्रिया में कई बार रंग के पानी में डुबाने से जीवंत रंग प्राप्त होते हैं। प्राकृतिक और सिंथेटिक दोनों प्रकार के रंगों का उपयोग किया जाता है। रंगाई के बाद, धागों को धूप में सूखने दिया जाता है, जिससे रंग की स्थिरता बढ़ती है।
7. स्पिनिंग
रंगे हुए रेशम के धागों को बोबिन पर लपेटा जाता है, और मोटे धागे बनाने के लिए कई धागों को मिलाया जाता है, जिससे अंतिम कपड़े का वजन और बनावट प्रभावित होती है। स्पिनिंग के बाद, धागे को विभिन्न कपड़ों में इस्तेमाल किया जा सकता है, जैसे साड़ी, दुपट्टा, और अन्य प्रकार के परिधान।
8. बुनाई
रेशम के धागे को विभिन्न तकनीकों से कपड़े में बुना जाता है। चार्म्यूज़ एक लोकप्रिय विधि है, जो शानदार फ़िनिश देती है। बुनाई की प्रक्रिया में विभिन्न पैटर्न और डिज़ाइन बनाए जाते हैं, जिससे कपड़े की सुंदरता और आकर्षण बढ़ता है।
9. प्रिंटिंग
कपड़े पर डिज़ाइन डिजिटल या हाथ से बनाए गए तरीकों से लगाए जाते हैं, जिससे कपड़े की सुंदरता बढ़ती है। प्रिंटिंग तकनीक के कारण रेशम के कपड़े को अनगिनत रंग और डिज़ाइन मिलते हैं, जिससे यह और भी आकर्षक बनता है।
10. फ़िनिशिंग
अंतिम चरण में रेशम को चमक और मज़बूती देने के लिए उपचार किए जाते हैं, जिससे यह मुड़ने-तड़ने से सुरक्षित और आग-प्रतिरोधी बनता है। इस चरण में रेशम के कपड़े को विशेष प्रकार के रसायनों से संसाधित किया जाता है, ताकि इसकी गुणवत्ता और दीर्घकालिकता बढ़े।
क्या है सिल्क वेस्ट और इसका पुनः उपयोग क्यों है ज़रूरी?
सिल्क वेस्ट, जिसे 'कता रेशम' या 'शापे सिल्क' कहा जाता है, रेशम बनाने के दौरान बचे हुए तंतुओं, कपड़ों के कटे टुकड़ों और त्यागे गए कोकून को कहा जाता है। इन चीज़ों को अक्सर बेकार समझा जाता है, लेकिन इन्हें फिर से इस्तेमाल कर नए उत्पाद बनाए जा सकते हैं, जिससे कपड़ा उद्योग में स्थिरता बढ़ती है। इसे दो श्रेणियों में बांटा जाता है—गम वेस्ट और थ्रोस्टर वेस्ट—जो इस बात पर निर्भर करता है कि यह किस चरण में बनती है।
• गम वेस्ट: यह रेशम का वेस्ट है, जो रीलिंग (धागा निकालने की प्रक्रिया) के दौरान इकट्ठा होता है।
• रीलिंग के लिए अनुपयुक्त कोकून: कुछ कोकून निरंतर रेशम धागा बनाने के लिए उपयुक्त नहीं होते, क्योंकि ये अधूरे होते हैं, गुणवत्ता मानकों को पूरा नहीं करते, या टूटे-फूटे और क्षतिग्रस्त होते हैं। इनमें वे कोकून भी शामिल होते हैं, जिनमें कीट द्वाराछेद किया होता है, जिससे कोकून के ऊपरी हिस्से में खुला स्थान बन जाता है। इस छेद के कारण इन्हें निरंतर धागा बनाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
• प्राथमिक रेशम वेस्ट: यह वेस्ट रीलिंग प्रक्रिया से पहले निकलता है, जब श्रमिक शुरुआती धागा ढूंढते हैं। इस समय 'सेरिसिन' (रेशम का एक घटक) अर्ध-पिघला हुआ निकलता है, जो सूखने पर कठोर तंतु में बदल जाता है।
• सूक्ष्म रीलिंग तंतु: जब निरंतर रेशम धागा निकालना संभव नहीं रहता, तो जो बचा हुआ वेस्ट होता है, वह अधूरे कोकून से बनता है, जिसमें कीट के अवशेष भी होते हैं, जिन्हें आगे की प्रक्रिया में अलग किया जाता है।
• लंबे तंतु और वाडिंग: यह उन तंतुओं और छोटे कणों से बनते हैं, जो कोकून खोलने की प्रक्रिया में निकलते हैं।
• थ्रोस्टर वेस्ट: यह वेस्ट रीलिंग के बाद की प्रक्रियाओं, जैसे कार्डिंग, कंघी, थ्रोइंग और बुनाई के दौरान बनता है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/bdcnrmra
https://tinyurl.com/ybb26p55
https://tinyurl.com/bdtp3w4n
चित्र संदर्भ
1. रेशम के कपड़ों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. सोने की ब्रोकेड (Brocade) वाली एक पारंपरिक बनारसी साड़ी को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. शहतूत रेशमकीट (mulberry silkworm) से पाए जाने वाले कच्चे रेशम को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. कोकूनों से रेशम के रेशे निकालने की प्रक्रिया को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
वर्तमान उदाहरणों से समझें, प्रोटोप्लैनेटों के निर्माण और उनसे जुड़े सिद्धांतों के बारे में
Understand the formation of protoplanets and the theories related to them through current examples
Lucknow
12-11-2024 09:32 AM
लखनऊ के कई नागरिकों के लिए, ‘प्रोटोप्लैनेट (Protoplanet)’ या ‘आद्य ग्रह’ शब्द नया हो सकता है। दरअसल, प्रोटोप्लैनेट, एक बड़ा ग्रहीय भ्रूण होता है, जो एक प्रोटोप्लेनेटरी डिस्क (Protoplanetary disk) के भीतर उत्पन्न हुआ है। यह एक विभेदित आंतरिक भाग का निर्माण करने के लिए, आंतरिक तौर पर पिघलने के दौर से गुज़रा है। प्रोटोप्लैनेट, छोटे खगोलीय पिंड हैं, जो चंद्रमा के आकार या उससे थोड़े बड़े होते हैं। इसके अलावा, ऐसा माना जाता है कि, वे कुछ किलोमीटर-आकार के ग्रहों से बने होते हैं, जो गुरुत्वाकर्षण से एक-दूसरे की कक्षाओं (orbits) में घूमते हैं और टकराते हैं, और अंत में, धीरे-धीरे प्रमुख ग्रहों में मिल जाते हैं। इन्हें अक्सर वैज्ञानिकों और खगोलविदों द्वारा, हमारे सौर मंडल के निर्माण खंड के रूप में करार दिया जाता है। तो आइए, आज इनके बारे में, इनकी विशेषताओं और उत्पत्ति के बारे में विस्तार से जानें। इसके बाद, हम ग्रह निर्माण के संबंध में, ग्रह परिकल्पना और उसके महत्व को समझने का प्रयास करेंगे। इस संदर्भ में, हम उन प्रोटोप्लैनेटों पर कुछ प्रकाश डालेंगे, जो अभी भी आंतरिक सौर मंडल में जीवित हैं। फिर, हम हाल के दिनों में हुई, कुछ प्रोटोप्लैनेट खोजों का पता लगाएंगे। अंत में, हम 2023 में खोजे गए प्रोटोप्लैनेट – एच डी169142 बी (HD169142 b) पर भी कुछ प्रकाश डालेंगे।
प्रोटोप्लैनेट का निर्माण और विशेषताएं –
सौर मंडल के मामले में, लगभग सभी प्रारंभिक प्रोटोप्लैनेट, बड़े पिंडों के बीच तेज़ी से बढ़ते प्रभावों के माध्यम से मिलकर, उन ग्रहों का निर्माण करते हैं, जिन्हें हम आज देखते हैं। यह भी माना जाता है कि, पृथ्वी के चंद्रमा का निर्माण, 4.5 अरब साल पहले थिया (Theia) नामक, एक सैद्धांतिक प्रोटोप्लैनेट के ज़बरदस्त प्रभाव से हुआ था।
प्रारंभ में, प्रोटोप्लैनेट में, रेडियोधर्मी तत्वों की उच्च सांद्रता रही होगी, जिसके परिणामस्वरूप, रेडियोधर्मी क्षय से काफ़ी आंतरिक ताप हुआ होगा। यह प्रभाव, तापन और गुरुत्वाकर्षण दबाव के साथ अपेक्षाकृत छोटे प्रोटोप्लैनेट के आंतरिक भाग को पिघला देता है, जिससे भारी तत्व (जैसे लौह-निकल) डूब जाते हैं। परिणामस्वरूप, एक प्रक्रिया होती है, जिसे ग्रहीय विभेदन के रूप में जाना जाता है।
ग्रहाणु परिकल्पना (Planetesimal Hypothesis) और इसका महत्व –
ग्रहाणु, धूल, चट्टान और अन्य सामग्रियों से बनी एक अवकाशीय वस्तु है, जिसका आकार एक मीटर से लेकर, सैकड़ों किलोमीटर तक होता है। माना जाता है कि, ग्रहाणुओं के टकराव से कुछ सौ बड़े ग्रहीय भ्रूणों का निर्माण हुआ। सैकड़ों लाखों वर्षों के दौरान, वे एक-दूसरे से टकराते रहे। हालांकि, ग्रहीय भ्रूणों के टकराकर, ग्रहों के निर्माण का सटीक क्रम ज्ञात नहीं है। लेकिन, माना जाता है कि, प्रारंभिक टकरावों ने, भ्रूणों की पहली “पीढ़ी” को, दूसरी पीढ़ी से बदल दिया होगा, जिसमें कम, लेकिन बड़े भ्रूण शामिल होंगे। ये वस्तुएं, बदले में कम, लेकिन उससे भी बड़े भ्रूणों की तीसरी पीढ़ी बनाने के लिए, टकराए होंगे। अंततः, केवल मुट्ठी भर भ्रूण बचे थे, जो ग्रहों के संयोजन को उचित रूप से पूरा करने के लिए टकराए।
सौर मंडल में साक्ष्य – जीवित अवशेष प्रोटोप्लैनेट
सौर मंडल के मामले में, ऐसा माना जाता है कि, ग्रहाणुओं के टकराव से, कुछ सौ ग्रहीय भ्रूणों का निर्माण हुआ। ऐसे भ्रूण, सेरेस (Ceres) और प्लूटो (Pluto) के समान थे, जिनका द्रव्यमान लगभग 10^22 से 10^23 किलोग्राम था, और व्यास कुछ हजार किलोमीटर था।
आज, आंतरिक सौर मंडल में, कमोबेश बरकरार रहने वाले तीन प्रोटोप्लैनेट – क्षुद्रग्रह सेरेस (Ceres), पालस (Pallas) और वेस्टा (Vesta) हैं। साइकी (Psyche) प्रोटोप्लैनेट, संभवतः किसी अन्य वस्तु के साथ, ख़तरनाक टकराव से बच गया है, जिसने एक प्रोटोप्लैनेट की बाहरी, चट्टानी परतों को छीन लिया है। क्षुद्रग्रह मेटिस (Metis) का भी मूल इतिहास, साइकी के समान ही हो सकता है। एक तरफ़, क्षुद्रग्रह लुटेशिया (Lutetia) में, ऐसी विशेषताएं हैं, जो एक प्रोटोप्लैनेट से मिलती जुलती हैं। साथ ही, सौर मंडल के कुइपर-बेल्ट (Kuiper-belt) में पाए जाने वाले, बौने ग्रहों को प्रोटोप्लैनेट कहा गया है। चूंकि, पृथ्वी पर लोहे के उल्कापिंड पाए गए हैं, इसलिए, यह माना जाता है कि, कुइपर बेल्ट में एक बार, अन्य धातु के केंद्र वाले प्रोटोप्लैनेट भी थे, जो तब से बाधित हो गए हैं। और, यही इन उल्कापिंडों का स्रोत हैं।
वर्तमान समय में, कुछ प्रोटोप्लैनेट निम्नलिखित हैं –
पी डी एस 70 (PDS 70) सितारा प्रणाली, पृथ्वी से 370 प्रकाश वर्ष दूर है। इस संदर्भ में, 2018 और 2019 में, खगोलविदों ने दो विशाल प्रोटोप्लैनेट – पी डी एस 70 बी और पीडीएस 70 सी, की खोज की घोषणा की थी। ये प्रोटोप्लैनेट, पी डी एस 70 युवा तारे की परिक्रमा कर रहे हैं। बाद में, 2020 में, कुछ नए सबूतों ने इन दोनों प्रोटोप्लैनेट के अस्तित्व की पुष्टि की है।
इसके अलावा, 2019 में, खगोलविदों ने कहा था कि, उन्हें प्रोटोप्लैनेट पी डी एस 70 सी के आसपास, एक सर्कमप्लैनेटरी डिस्क (Circumplanetary disc) के सबूत मिले हैं। इसका मतलब यह हो सकता है कि, इस तारे के चारों ओर चंद्रमा बन रहे हैं, या भविष्य में बनेंगे!
इसके अलावा, खगोलविदों ने 2018 में घोषणा की थी कि, उन्हें युवा तारे – एच डी 163296 के आसपास, एक प्रोटोप्लेनेटरी डिस्क में संभावित प्रोटोप्लैनेट के प्रमाण मिले हैं। यह तारा, लगभग चार मिलियन वर्ष पुराना है। इसके अलावा, खगोलविदों के एक अन्य संघ ने कहा है कि, उन्होंने इससे पहले भी, 2016 में एक ही तारे के आसपास दो संभावित प्रोटोप्लैनेट का पता लगाया था।
पृथ्वी से, लगभग 374 प्रकाश वर्ष दूर स्थित, एच डी 169142 बी की, लीज विश्वविद्यालय (University of Liège) और मोनाश विश्वविद्यालय (Monash University) के शोधकर्ताओं के एक संघ द्वारा, एक प्रोटोप्लैनेट के रूप में पुष्टि की गई है।
शोधकर्ताओं के इस संघ में, लीज विश्वविद्यालय के, वैलेन्टिन क्रिस्टियान्स (Valentin Christiaens) शामिल हैं। उन्होंने यूरोपीय दक्षिणी वेधशाला (ई एस ओ – European Southern Observatory) के स्फीयर स्फ़ीयर (SPHERE) उपकरण से, डेटा के विश्लेषण के परिणाम प्रकाशित किए हैं, जो एक नए प्रोटोप्लैनेट की पुष्टि करते हैं। यह परिणाम लीज विश्वविद्यालय के पी एस आई लैब (PSILab) द्वारा विकसित उन्नत छवि प्रसंस्करण उपकरणों की बदौलत संभव हुआ।
संदर्भ
https://tinyurl.com/26ysx8sk
https://tinyurl.com/45mvztn6
https://tinyurl.com/bdzjv3x2
https://tinyurl.com/4duua88b
चित्र संदर्भ
1. प्रोटोप्लेनेटरी डिस्क को संदर्भित करता एक चित्रण (pxhere)
2. वेस्टा (Vesta) नामक एक जीवित प्रोटोप्लैनेट को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. नेब्यूला (Nebula) को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. PDS 70c के चारों ओर चंद्रमा बनाने वाली डिस्क के विस्तृत और नज़दीकी दृश्य दिखाती छवि को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)