लखनऊ - नवाबों का शहर












लखनऊ के प्रसिद्ध मलाई पनीर का स्वाद, इन शानदार सूक्ष्मजीवों के बिना फ़ीका ही रह जाता !
कीटाणु,एक कोशीय जीव,क्रोमिस्टा, व शैवाल
Bacteria,Protozoa,Chromista, and Algae
24-03-2025 09:30 AM
Lucknow-Hindi

गर्मियां शुरू होते ही नवाबों के शहर लखनऊ में छाछ और लस्सी जैसे कई अन्य किण्वित उत्पादों की माँग कई गुना बढ़ जाती है! इसके अलावा लखनऊ में पनीर से बनने वाले कई व्यंजन तो शहर की पहचान माने जाते हैं! इसलिए हम सभी को उन सूक्ष्मजीवों से ज़रूर अवगत होना चाहिए जिनकी बदौलत, किण्वित खाद्य और पेय पदार्थों का निर्माण संभव हो पाता है। ये छोटे-छोटे जीव हमारी रोज़मर्रा के कई पसंदीदा खाद्य पदार्थों के उत्पादन में मदद करते हैं। जैसे कि बैक्टीरिया (bacteria) और यीस्ट (yeast) का उपयोग दही और पनीर से लेकर ब्रेड (bread) और अचार का स्वाद, बनावट और गुणवत्ता को सुधारने के लिए किया जाता है। ये जीव, भोजन के किण्वन में भी सहायक होते हैं।
पेय उद्योग में भी इनकी भूमिका अहम साबित होती है। छाछ, सिरका और दूसरे किण्वित पेय बनाने में ये नन्हे जीव महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। इस प्रकार सूक्ष्मजीव न केवल स्वाद बढ़ाते हैं, बल्कि भोजन को संरक्षित करने और उसके पोषण मूल्य को बेहतर बनाने में भी सहायक होते हैं। इसलिए आज के इस लेख में हम डेयरी किण्वन में लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया (Lactic Acid Bacteria) की भूमिका पर चर्चा करेंगे। ये बैक्टीरिया दही, पनीर और अन्य किण्वित डेयरी उत्पादों के उत्पादन में मदद करते हैं। इसके बाद, हम सोया सॉस (soy sauce) के निर्माण में किण्वन की प्रक्रिया को समझेंगे और जानेंगे कि सूक्ष्मजीव सोयाबीन को किस तरह तोड़कर उसमें गहरा स्वाद विकसित करते हैं। अंत में, हम यीस्ट की भूमिका पर नज़र डालेंगे। यीस्ट, वाइन (wine) और ब्रेड उत्पादन में महत्वपूर्ण होता है। यह शर्करा को किण्वित कर वाइन में अल्कोहल(alcohol) बनाता है और ब्रेड को फूलने में मदद करता है।
आइए शुरुआत, डेयरी किण्वन (दही, पनीर) के निर्माण में लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया की भूमिका को समझने के साथ करते हैं:
डेयरी उत्पाद, प्रोटीन के प्रमुख स्रोत माने जाते हैं। किण्वन (fermentation) एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, जो दूध को संरक्षित करने में मदद करती है। बिना किण्वन के दूध जल्दी खराब हो सकता है।
लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया, दूध में मौजूद शर्करा ( लैक्टोज़) (lactose) को लैक्टिक एसिड में बदल देते हैं। इस प्रक्रिया में कार्बन डाइऑक्साइड (Carbon dioxide) एक उप-उत्पाद के रूप में बनता है। बैक्टीरिया के विकास और विभाजन के लिए दूध को हल्के तापमान (लगभग 25 डिग्री सेल्सियस) पर गर्म किया जाता है।
पनीर बनाने के लिए दूध में 'रेनेट' (Rennet) नामक एंज़ाइम (enzyme) मिलाया जाता है। यह दूध को जमाने और एक साथ चिपकाने में मदद करता है। इसके बाद अतिरिक्त तरल को अलग कर दिया जाता है। इस चरण में पनीर या क्वार्क (Quark) जैसे ताज़े पनीर ठंडा करके खाने के लिए तैयार किए जाते हैं।
कुछ पनीर को और अधिक समय तक सूखने दिया जाता है। पकने की प्रक्रिया से गुज़रने से उनका स्वाद और बनावट विकसित होती है। कुछ पनीर को लंबे समय तक पकने दिया जाता है, जिससे उनमें विशिष्ट गंध और स्वाद आ जाता है।
बड़े पैमाने पर पनीर उत्पादन में 'स्टार्टर कल्चर' (Starter culture) का उपयोग किया जाता है। स्टार्टर कल्चर दूध में विशेष बैक्टीरिया मिलाने की एक विधि होती है। हालांकि, कई पनीर ऐसे भी होते हैं जो दूध में स्वाभाविक रूप से मौजूद बैक्टीरिया पर निर्भर करते हैं। बैक्टीरिया का प्रकार जानवरों की नस्ल और क्षेत्र के अनुसार अलग-अलग होता है, जिससे विभिन्न प्रकार के पनीर को उनकी विशेष पहचान मिलती है।
लंबे समय तक पकने वाले पनीर में एक 'द्वितीयक सूक्ष्मजीव समुदाय' विकसित होता है। यह समुदाय पनीर के प्रोटीन पर जैव रासायनिक प्रक्रियाएँ करता है, जिससे स्वाद और बनावट में विशेष बदलाव आते हैं। उदाहरण के लिए, 'ब्लू चीज़' (Blue Cheese) को एक विशेष प्रकार की फफूंदी (मोल्ड) से पकाया जाता है, जिस कारण इस में नीला रंग आता है। कुछ यूरोपीय देशों में पनीर को 'चूना पत्थर की गुफ़ाओं' में पकाया जाता है। इन गुफ़ाओं में मौजूद प्राकृतिक सूक्ष्मजीव पनीर को विशिष्ट स्वाद और गंध प्रदान करते हैं।
आइए, अब दही बनाने की प्रक्रिया को समझते हैं:
- दही बनाने की प्रक्रिया भी पनीर के समान ही होती है। लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया दूध के लैक्टोज को एसिड में बदल देते हैं। इससे दूध का पी एच (pH) कम हो जाता है, और वह गाढ़ा होकर दही में बदल जाता है।
- ' योगर्ट ' (Yogurt) शब्द की उत्पत्ति तुर्की भाषा के एक शब्द से मानी जाती है, जिसका अर्थ 'गाढ़ा करना या जमाना' होता है। इतिहासकार मानते हैं कि भारत में '6000 ईसा पूर्व' से दही बनाई जा रही है।
- पनीर की तरह ही, अलग-अलग प्रकार के दूध में मौजूद बैक्टीरिया दही को उसका विशिष्ट स्वाद देते हैं। इस कारण विभिन्न स्थानों पर बनने वाला दही थोड़ा अलग स्वाद और बनावट का हो सकता है।
आइए, अब सोया सॉस बनाने की किण्वन प्रक्रिया को समझते हैं:
पारंपरिक सोया सॉस बनाने के लिए चार मुख्य सामग्री (सोयाबीन, गेहूं, नमक और पानी) की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा ‘किण्वन’ होता है। सोया सॉस जितनी अधिक अवधि तक किण्वित होता है, उसका स्वाद उतना ही गहरा और समृद्ध हो जाता है। उच्च गुणवत्ता वाला सोया सॉस तैयार करने में कई महीनों या वर्षों तक का समय लग सकता है।
प्रारंभिक चरण: सबसे पहले, सोयाबीन को भाप में पकाया जाता है। गेहूं को भूनने के बाद उसे कुचला जाता है। फिर इन दोनों को मिलाकर एक मिश्रण तैयार किया जाता है। इस मिश्रण में एक विशेष प्रकार का मोल्ड (आमतौर पर Aspergillus oryzae या Aspergillus sojae) मिलाया जाता है। इस चरण में मिश्रण को "कोजी" कहा जाता है।
कोजी को लकड़ी की ट्रे पर फैलाकर 2-3 दिनों के लिए किण्वन के लिए छोड़ दिया जाता है। इस दौरान स्टार्च (starch) सरल शर्करा में, प्रोटीन अमीनो एसिड (Amino acid) में और तेल फ़ैटी एसिड (Fatty acid) में परिवर्तित हो जाते हैं। इन्हीं अमीनो एसिड में से एक ग्लूटामिक एसिड(Glutamic acid) होता है, जो परमेसन चीज़ (Parmesan cheese) और मशरूम में भी पाया जाता है और सोया सॉस को उसका विशिष्ट उमामी स्वाद देता है।
किण्वन के दौरान मिश्रण से गर्मी उत्पन्न होती है, जिसे नियंत्रित करना आवश्यक होता है। इसलिए, कोजी को समय-समय पर मिलाया जाता है ताकि तापमान संतुलित बना रहे। पारंपरिक शराब बनाने वाली कुछ ब्रुअरीज(Brewery) में तापमान और नमी को नियंत्रित करने के लिए एयर वेंट, हीटर और वॉटर बॉइलर का उपयोग किया जाता था।
ब्राइन किण्वन (अगला चरण): इसके बाद कोजी में नमक और पानी मिलाकर मोरोमी नामक मिश्रण तैयार किया जाता है। इसमें स्टार्टर कल्चर भी मिलाया जाता है, जिसमें लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया और खमीर होते हैं। ये सूक्ष्मजीव किण्वन के दूसरे चरण को पूरा करने में मदद करते हैं।
पुरानी और स्थापित ब्रुअरीज़ में लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया और खमीर के विशेष स्ट्रेन विकसित किए जाते हैं, जो सोया सॉस को उसकी अनूठी सुगंध और स्वाद प्रदान करते हैं। यही कारण है कि वाइन और पनीर की तरह, हर सोया सॉस का स्वाद इस बात पर निर्भर करता है कि वह कहाँ और किस वातावरण में बना है।
परिष्करण ( अंतिम चरण): कई महीनों या वर्षों के किण्वन के बाद, मोरोमी एक गाढ़े, चिपचिपे मिश्रण में बदल जाता है, जिसमें खमीरी और तीखी सुगंध होती है। फिर इस मिश्रण को कपड़े से ढके कंटेनरों में दबाकर छाना जाता है, जिससे कच्चा सोया सॉस प्राप्त होता है।
बोतल में भरने से पहले, कच्चे सोया सॉस को उच्च तापमान पर गर्म करके पाश्चुरीकृत किया जाता है। यह प्रक्रिया इसे सुरक्षित बनाती है और इसके स्वाद को संतुलित करती है। इसके बाद, इसे बोतलबंद कर बाज़ार में बेचा जाता है।
इस तरह, महीनों या वर्षों की मेहनत और प्राकृतिक किण्वन से उच्च गुणवत्ता वाला सोया सॉस तैयार होता है, जो स्वाद में गहरा, सुगंध में समृद्ध और उपयोग में बहुपयोगी होता है।
आइए, अब एक नज़र वाइन और ब्रेड उत्पादन में यीस्ट की भूमिका पर भी डालते हैं:
बीयर, वाइन और ब्रेड बनाने में यीस्ट (खमीर) बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह न केवल शर्करा को अल्कोहल और कार्बन डाइऑक्साइड में बदलता है, बल्कि इसके स्वाद, सुगंध और बनावट को भी प्रभावित करता है। इन उत्पादों की गुणवत्ता में यीस्ट का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है।
वाइन बनाने में यीस्ट का कार्य बीयर उत्पादन से मिलता-जुलता है, लेकिन इसमें कुछ अलग विशेषताएँ भी होती हैं। अंगूर में स्वाभाविक रूप से शर्करा होती है, जो यीस्ट की सहायता से किण्वित होकर वाइन में बदल जाती है। वाइन निर्माण में मुख्य रूप से सैकरोमाइसिस सेरेविसी (Saccharomyces cerevisiae) यीस्ट का उपयोग किया जाता है, हालांकि अन्य प्राकृतिक यीस्ट भी इस प्रक्रिया में योगदान देते हैं।
वाइन बनाने की प्रक्रिया अंगूर को कुचलने और उनका रस निकालने से शुरू होती है। इस रस को "मस्ट" कहा जाता है। इसके बाद इसे किण्वन टैंकों में रखा जाता है, जहाँ यीस्ट सक्रिय होता है। यीस्ट, चाहे स्वाभाविक रूप से अंगूर की खाल पर मौजूद हो या अलग से जोड़ा गया हो, वह मस्ट में मौजूद शर्करा का उपभोग ज़रूर करता है। इस प्रक्रिया में अल्कोहल, कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य स्वाद देने वाले तत्व उत्पन्न होते हैं।
वाइनमेकर किण्वन की प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं। वे तापमान और ऑक्सीजन स्तर को संतुलित रखते हैं, क्योंकि ये कारक वाइन के स्वाद और गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं। किण्वन पूरा होने के बाद, वाइन को परिपक्व होने के लिए रखा जाता है, जिससे उसका स्वाद और विशेषताएँ और निखरती हैं।
ब्रेड उत्पादन में यीस्ट की क्या भूमिका होती है ?
ब्रेड बनाने में भी यीस्ट की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है, लेकिन इसकी प्रक्रिया वाइन उत्पादन से अलग होती है। ब्रेड में यीस्ट एक उठाने वाले एजेंट के रूप में कार्य करता है, जो आटे को फूलाने और उसकी बनावट को हल्का व नरम बनाने में मदद करता है।
ब्रेड निर्माण में सबसे अधिक सैकरोमाइसिस सेरेविसी (Saccharomyces cerevisiae) यीस्ट का उपयोग किया जाता है। जब यीस्ट को आटे में मिलाया जाता है, तो यह आटे में मौजूद शर्करा को खाकर कार्बन डाइऑक्साइड उत्पन्न करता है। यह गैस आटे के अंदर छोटे-छोटे बुलबुले बनाती है, जिससे ब्रेड हल्की और फूली हुई बनती है। इस प्रक्रिया को "प्रूफिंग" कहा जाता है, और यह ब्रेड की सही बनावट के लिए आवश्यक होती है।
ब्रेड बनाने में तापमान और समय का विशेष ध्यान रखा जाता है। बेकर (बेकरी में काम करने वाले) यीस्ट की गतिविधि को नियंत्रित करने के लिए तापमान को संतुलित रखते हैं। जब आटा पूरी तरह फूल जाता है, तो इसे ओवन में बेक किया जाता है। उच्च तापमान के कारण यीस्ट नष्ट हो जाता है, और ब्रेड की संरचना स्थायी रूप से सेट हो जाती है। इस प्रक्रिया के दौरान ब्रेड का सुनहरा कुरकुरा क्रस्ट बनता है।
यीस्ट का योगदान केवल ब्रेड को फूलाने तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि यह स्वाद और सुगंध में भी योगदान देता है। किण्वन के दौरान उत्पन्न होने वाले अल्कोहल और अन्य कार्बनिक यौगिक ब्रेड को उसका विशिष्ट स्वाद और मनमोहक खुशबू देते हैं।
चाहे वाइन हो या ब्रेड, यीस्ट इन दोनों के उत्पादन में एक अदृश्य लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह केवल किण्वन प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है, बल्कि स्वाद, सुगंध और बनावट को भी प्रभावित करता है। इस कारण, वाइनमेकर और बेकर दोनों ही यीस्ट की गतिविधियों को नियंत्रित करते हैं, ताकि उच्च गुणवत्ता वाले उत्पाद तैयार किए जा सकें।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: मलाई पनीर और उनमें मौजूद सूक्ष्मजीव (flickr, wikimedia)
आइए आज देखें, धरती पर सबसे तेज़ दौड़ने वाले जानवरों को
व्यवहारिक
By Behaviour
23-03-2025 09:17 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ के कई नागरिक इस तथ्य से अवगत हैं कि अफ़्रीकी चीता (African cheetah) जिसे वैज्ञानिक तौर पर एसिनोनिक्स जुबेटस (Acinonyx jubatus) कहा जाता है, धरती पर दौड़ने वाला सबसे तेज़ प्राणी है। यह साबित हो चुका है कि ये जीव, अधिकतम 104.2 किलोमीटर प्रति घंटे (64.8 मील प्रति घंटे) की गति से दौड़ सकते हैं। वहीं दूसरी ओर, शुतुरमुर्ग जो सबसे तेज़ दौड़ने वाले पक्षी के रूप में जाने जाते हैं, छोटी दूरी के लिए 43 मील प्रति घंटे (69 किलोमीटर प्रति घंटा) और लंबी दूरी के लिए 30-37 मील प्रति घंटे (48-60 किलोमीटर प्रति घंटा) की गति से दौड़ सकते हैं। चीता, जो कि बिल्लियों के परिवार से संबंधित हैं, उनकी प्रमुख विशेषता यह है कि उनका शरीर बहुत हल्का होता है, जो उन्हें तेज़ी से दौड़ने में मदद करता है। इसके अलावा, उनका छोटा सिर और लंबे पैर भी उन्हें अधिक गति प्रदान करते हैं। साथ ही, उनकी रीढ़ की हड्डी भी बहुत लचीली होती है, जो उन्हें तेज़ दौड़ने का एक और कारण बनती है। गति बढ़ाने के लिए, वे एक समय में केवल एक पैर ही ज़मीन पर रखते हैं। शक्तिशाली पंजे, चौड़ी नाक, हृदय और मांसपेशियों को अधिक ऑक्सीजन देने के लिए मौजूद बड़े फेफड़े आदि उन्हें स्फूर्ति के साथ भागने में मदद करते हैं। तो आइए, आज हम, इन चलचित्रों के माध्यम से धरती पर सबसे तेज़ दौड़ने वाले कुछ जानवरों के बारे में जानते हैं। उपरोक्त वर्णित जानवरों के अलावा, हम ज़ेबरा (Zebra), ब्लू विल्डेबीस्ट (Blue wildebeest), ग्रेहाउंड (Greyhound), स्प्रिंगबोक (Springbok), क्वॉर्टर हॉर्स (Quarter horse) जैसे जानवरों को दौड़ते हुए देखेंगे और इनकी गति का आंकलन करने की कोशिश करेंगे। इसके अलावा, हम यह समझेंगे कि चीता इतना तेज़ कैसे दौड़ता है। अंत में हम, एक अन्य वीडियो क्लिप के माध्यम से, दौड़ते समय, चीते की गतिविधियों का विश्लेषण करने का प्रयास करेंगे।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/4596hr3e
https://tinyurl.com/y7tarn7t
https://tinyurl.com/5n6uyvht
https://tinyurl.com/ymrwyh4r
https://tinyurl.com/mvp8ku8u
https://tinyurl.com/2p9zsxbd
लखनऊ की बढ़ती बिजली आपूर्ति हेतु बांधों का, नदियों व् संवेदनशील गंगा डॉल्फ़िन पर हुआ असर
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
22-03-2025 09:14 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ विद्युत आपूर्ति प्रशासन (Lucknow Electricity Supply Administration) के अनुसार, लखनऊ में बिजली की मांग 1688.93 मेगावाट दर्ज की गई। इसमें सबसे ज़्यादा लोड, गोमती नगर के 220 के वी (kV) सब-स्टेशन पर था, जहां 183.40 मेगावाट बिजली की जरूरत पड़ी। इसके बाद मेहताब बाग के 132 केवी सब-स्टेशन की मांग 130 मेगावाट और कानपुर रोड के 220 केवी सब-स्टेशन की मांग 113 मेगावाट रही। इसमें कोई शक नहीं कि इस बिजली का एक हिस्सा बांधों से पैदा हुआ था।
इसी से जुड़ी बात करें, तो आज हम भारत में जलविद्युत उत्पादन के ऐतिहासिक विकास के बारे में जानेंगे। फिर, हम समझेंगे कि इस तरह की बिजली उत्पादन प्रणाली के क्या नुकसान होते हैं। इसके अलावा, हम यह भी जानने की कोशिश करेंगे कि भारत की नदियों की जैव विविधता पर बांधों का क्या असर पड़ता है। खासतौर पर, हम देखेंगे कि गंगा नदी में पाए जाने वाले डॉल्फिन पर इसका क्या प्रभाव होता है। अंत में, हम बड़े बांधों के अलावा बिजली उत्पादन के अन्य विकल्पों पर भी चर्चा करेंगे।
भारत में जलविद्युत उत्पादन का ऐतिहासिक विकास
साल 1947 से 1967 के बीच, भारत में जलविद्युत क्षमता में 13% से अधिक की वृद्धि हुई और जलविद्युत संयंत्रों से बिजली उत्पादन 11% बढ़ा। इस समय में सरकार ने बड़े बहुउद्देशीय बांधों के निर्माण को बढ़ावा दिया। इन बांधों को ‘भारत के मंदिर’ कहा गया क्योंकि ये न केवल सिंचाई बल्कि बिजली उत्पादन के लिए भी बनाए गए थे।
इसके बाद के दो दशकों (1967-87) में जलविद्युत क्षमता 18% बढ़ी, लेकिन उत्पादन केवल 5% ही बढ़ सका। इस दौरान, कोयले से बनने वाली बिजली का उत्पादन (Thermal Power Production) तेज़ी से बढ़ने लगा, जिससे जलविद्युत उत्पादन को पीछे हटना पड़ा। अधिकतर बड़े बांधों का उपयोग नहर आधारित सिंचाई के लिए किया जाने लगा। इस समय, देशभर में बिजली की सरकारी सब्सिडी के कारण भूजल पंपिंग (पानी खींचने) में भी इज़ाफ़ा हुआ, लेकिन इस प्रक्रिया में मुख्य रूप से कोयले से बनने वाली बिजली का उपयोग किया गया।
1987 से 2007 के बीच जलविद्युत उत्पादन में गिरावट आई और इसकी वृद्धि दर केवल 3% रह गई। 1980 के दशक में बड़े बांधों के सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों का विरोध शुरू हुआ, जो इस दौर में और तेज़ हो गया। हालांकि, निजी क्षेत्र (Private Sector) को भी जलविद्युत उत्पादन की अनुमति दी गई, फिर भी 2007 से 2019 के बीच जलविद्युत क्षमता और उत्पादन, दोनों की वृद्धि दर घटकर सिर्फ़ 1% रह गई।
भारत में जलविद्युत ऊर्जा के नुकसान
1. मछलियों को नुकसान - बांध बनने से नदियों का बहाव रुक जाता है, जिससे मछलियाँ अपने अंडे देने की जगह तक नहीं पहुँच पातीं। इससे वे जीव भी प्रभावित होते हैं जो मछलियों को खाते हैं। इसके अलावा, नदी किनारे रहने वाले जानवरों को भी पानी मिलना बंद हो सकता है।
2. कम जगहों पर ही बन सकते हैं - जलविद्युत संयंत्र बनाने के लिए बहुत कम जगहें उपयुक्त होती हैं। कई बार ये जगहें बड़े शहरों से दूर होती हैं, जिससे वहाँ की बिजली का सही उपयोग नहीं हो पाता।
3. बनने में ज़्यादा पैसा लगता है - कोई भी बिजली घर बनाना आसान नहीं होता, लेकिन जलविद्युत संयंत्र के लिए बांध भी बनाना पड़ता है। इससे इसकी शुरुआती लागत ज़्यादा होती है। हालाँकि, बाद में इसे ईंधन खरीदने की ज़रूरत नहीं होती, जिससे पैसे की बचत होती है।
4. प्रदूषण हो सकता है - बिजली बनाने के दौरान जलविद्युत संयंत्र खुद कोई धुआँ नहीं छोड़ते, लेकिन जहाँ पानी जमा होता है, वहाँ नीचे दबे पौधे सड़ने लगते हैं। इससे कार्बन और मीथेन जैसी हानिकारक गैसें निकल सकती हैं।
5. सूखे में काम नहीं करता - अगर किसी जगह पर बारिश कम हो जाए या सूखा पड़ जाए, तो जलविद्युत संयंत्र से बिजली नहीं बन पाएगी। जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाले समय में सूखा ज़्यादा हो सकता है।
6. बाढ़ का खतरा - अगर कोई बांध, ऊँचाई पर बनाया गया हो और वह टूट जाए, तो नीचे के गाँवों और शहरों में बाढ़ आ सकती है। इतिहास में सबसे बड़ा बांध हादसा, चीन में ‘बानकियाओ बांध’ (Banqiao Dam) का था, जिसमें 1,71,000 से ज़्यादा लोग मारे गए थे।
भारत में बांधों का नदी जैव विविधता पर प्रभाव
थोड़े समय पहले यह देखा गया कि ब्रह्मपुत्र नदी में गंगा नदी की कुछ मादा डॉल्फ़िन बहुत कमज़ोर होकर धीरे-धीरे तैर रही थीं। पहले ये डॉल्फ़िन काफी फुर्तीली और स्वस्थ होती थीं, लेकिन अब उनकी चमकदार त्वचा मुरझा गई है, पेट पिचक गए हैं, और वे मुश्किल से पानी की सतह पर आकर सांस ले पा रही थीं। यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि भारत में गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों पर लगातार बांध बनाए जा रहे हैं, जिससे इन नदियों का प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र और जीवन प्रभावित हो रहा है।
मछलियों और अन्य जीवों पर असर
बांध बनाने से नदी का बहाव रुक जाता है, जिससे मछलियों का प्रवास मार्ग कट जाता है और वे अंडे नहीं दे पातीं। जब मछलियाँ नहीं मिलतीं, तो उन्हें खाने वाले गंगा डॉल्फ़िन जैसे जीव भी भूख से मरने लगते हैं। इसके अलावा, रॉयल बंगाल टाइगर, भारतीय गेंडा, इरावदी डॉल्फ़िन, साइबेरियन सारस और कई अन्य जीव भी ऐसे प्रभावित होते हैं। ये सभी जीव एक स्वस्थ नदी पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर होते हैं, जो बांधों की वजह से नष्ट हो रहा है।
पोषक तत्वों की कमी
नदी में पानी के साथ पोषक तत्व जैसे कार्बन, नाइट्रोजन, सिलिकॉन और फॉस्फोरस भी बहते हैं, जो नदी के किनारे और समुद्र में मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं। लेकिन जब बांध बनाए जाते हैं, तो ये तत्व उपरी हिस्से में जमा हो जाते हैं और नीचे नहीं बह पाते। इससे खेती और समुद्र में शैवाल की वृद्धि पर असर पड़ता है, जो जलवायु परिवर्तन को और बढ़ावा देता है।
भूकंप और बाढ़ का खतरा
कुछ बांध भूकंप संभावित इलाकों में बनाए जाते हैं, जैसे हिमालय में। अगर वहां कोई भूकंप आता है और बांध टूटता है, तो नीचे के इलाके में बाढ़ आ सकती है। इससे लाखों लोगों की जान जा सकती है। चीन के जिन्शा नदी (Jinsha River) पर बने शिलुओडू बांध (Xiluodu Dam) का उदाहरण देखा गया, जहां बड़े पैमाने पर भू-स्खलन हुआ और घाटी के आकार में बदलाव आया।
क्या बांध पानी बचाते हैं?
बांधों के समर्थक कहते हैं कि ये पानी को संग्रहीत करके उसका उपयोग करते हैं, जिससे पानी की कमी दूर होती है। लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है। दरअसल, बांधों में जमा पानी सूर्य की गर्मी से वाष्पित हो जाता है और बड़ी मात्रा में पानी की बर्बादी होती है। दुनियाभर में जलाशय हर साल करीब 170 घन किलोमीटर पानी वाष्पित कर देते हैं, जो 7% मीठे पानी के बराबर है।
जलविद्युत ऊर्जा कितनी स्वच्छ है ?
हमें लगता है कि जलविद्युत ऊर्जा कोयला और पेट्रोलियम से बनी बिजली से साफ होती है, लेकिन यह भी सही नहीं है। बांधों में जमा जलाशयों में सड़े हुए पौधे और मलबा ग्रीनहाउस गैसों (GHG) जैसे मीथेन और कार्बन डाइऑक्साइड को छोड़ते हैं, जो जलवायु परिवर्तन में योगदान करते हैं। पर्यावरण समूह इंटरनेशनल रिवर्स (International Rivers) की निदेशक केट हॉर्नर (Kate Horner) ने इसे लेकर चेतावनी दी थी कि, “यह गलत होगा कि हम बांधों को जलवायु संकट का समाधान मान लें।”
खतरनाक अपशिष्ट भंडारण
कुछ बांधों का उपयोग, खतरनाक खनन कचरे (toxic mining waste) को संग्रहित करने के लिए किया जाता है। हालांकि, इन बांधों के टूटने का खतरा ज़्यादा होता है। जब ये बांध टूटते हैं, तो ज़हरीले पदार्थ मिट्टी में समा जाते हैं और इससे पर्यावरण को बहुत नुकसान होता है। बांधों का विफल होना एक सामान्य समस्या बन चुकी है।
भारत में बड़े बांधों के कुछ वैकल्पिक तरीके
1.) पानी का पुनः उपयोग/पुनर्चक्रण: पानी को पुनः उपयोग या पुनर्चक्रित करने का एक तरीका है सीवेज का उपचार। सीवेज ट्रीटमेंट संयंत्र (Sewage Treatment Plants) गंदे पानी (सीवेज) या ग्रे पानी को साफ कर सकते हैं और इसे फिर से औद्योगिक प्रक्रियाओं, सिंचाई, शौचालयों आदि के लिए उपयोग में ला सकते हैं। इससे पानी की कमी को कम किया जा सकता है।
2.) भूमिगत जल पुनर्भरण: यह प्रक्रिया, वर्षा के पानी को जमीन में समाने की होती है, ताकि भूजल स्तर बढ़ सके। यदि मृदा रेत वाली हो, तो पानी 2 दिन में मिट्टी में समा जाता है और यह सबसे तेज़ तरीका है।
3.) मौजूदा बांधों का पुनर्निर्माण: नए बांध बनाने के बजाय, हम पुराने बांधों की क्षमता बढ़ा सकते हैं। नए चैनल खोल सकते हैं और उन्हें नए कामों के लिए उपयोग कर सकते हैं। यह तरीका, नए बांध बनाने से सस्ता और आसान है, और इससे पर्यावरण और समाज पर कम असर पड़ता है।
4.) बाढ़ प्रबंधन के अन्य तरीके: बांध बाढ़ के नियंत्रण में मदद करते हैं, लेकिन इसके अलावा भी कई तरीके हैं जैसे - पानी के बहाव को कम करना, नदी किनारे और नदी के अंदर बाढ़ प्रबंधन करना, और लोगों को खतरे से दूर रखना आदि।
5.) ऊर्जा उत्पादन के वैकल्पिक तरीके: बांधों का मुख्य काम जल विद्युत (हाइड्रो पावर) उत्पादन होता है, लेकिन इससे होने वाली समस्याओं के कारण हमें दूसरे तरीके भी सोचने चाहिए। कुछ विकल्प हैं - ऊर्जा के सही इस्तेमाल की तकनीकें, सौर ऊर्जा, थर्मल ऊर्जा आदि का उपयोग।
इन विकल्पों से हम बड़े बांधों से होने वाली समस्याओं को कम कर सकते हैं और पर्यावरण के अनुकूल तरीके से पानी और ऊर्जा का उपयोग कर सकते हैं।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: श्रीनगर में अलकनंदा जलविद्युत परियोजना (Wikimedia)
लखनऊ, अपने शारीरिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए रखें अपने मानसिक स्वास्थ्य का ख्याल !
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
21-03-2025 09:16 AM
Lucknow-Hindi

आप इस बात से अवश्य सहमत होंगे कि हमारा मानसिक स्वास्थ्य बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह हमारे सोचने, महसूस करने और व्यवहार करने के तरीके को प्रभावित करता है। इसके साथ ही, हमारे मानसिक स्वास्थ्य और शारीरिक स्वास्थ्य परस्पर संबंधित हैं। हमारे मानसिक स्वास्थ्य का प्रभाव शारीरिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। अच्छे मानसिक स्वास्थ्य से हमें तनाव से निपटने, रिश्ते बनाने और समग्र कल्याण में योगदान करने में मदद मिलती है। तो आइए, आज मानसिक स्वास्थ्य के घटकों के बारे में विस्तार से समझते हुए यह जानते हैं कि हमारा मानसिक स्वास्थ्य हमारे शारीरिक स्वास्थ्य से कैसे संबंधित है। इसके साथ ही, हम मानसिक स्वास्थ्य के कारकों के बारे में समझेंगे। अंत में, हम भारत में मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए कुछ उपाय जानेंगे।
मानसिक स्वास्थ्य के घटक:
- संज्ञानात्मक स्वास्थ्य (Cognitive Health): हमारे विचार, लगातार पृष्ठभूमि में चलते रहते हैं। वास्तव में, एक अध्ययन से पता चला है कि हमारे मन में प्रति दिन औसतन 6,000 से अधिक विचार आते हैं! लेकिन परेशानी तब खड़ी होती है, जब हम अपने विचारों को परिकल्पना के बजाय, तथ्यों के रूप में सत्य मानने लगते हैं, क्योंकि हमारे विचारों का हमारी भावनाओं और व्यवहार पर प्रभाव पड़ता है। दूसरे शब्दों में, हम कैसा महसूस करते हैं और कैसे कार्य करते हैं, इसके लिए हमारे सोचने का तरीका मायने रखता है। उदाहरण के लिए, जब आपको अपने पर्यवेक्षक से कुछ आलोचनात्मक प्रतिक्रिया प्राप्त होती है, तो इस प्रतिक्रिया के जवाब में आप जो निष्कर्ष निकालेंगे, वह इस बात को प्रभावित करेगा कि आप कैसा महसूस करते हैं और आप कैसे प्रतिक्रिया देने का निर्णय लेते हैं। यदि आपके मन में यह विचार आता है, "मैं असफ़ल हूँ", तो आप शर्मिंदा और निराश महसूस कर सकते हैं। आप कम आत्मविश्वासी, कम प्रेरित और कम रचनात्मक महसूस कर सकते हैं, और काम पर आपका कमज़ोर प्रदर्शन, आपको और भी अधिक असफ़ल महसूस कराता है। किसी विचार को पहचानना, कि वह सिर्फ़ एक विचार है, आप जो कुछ भी सोचते हैं उस पर विश्वास करने के जाल से खुद को मुक्त करने के लिए एक महत्वपूर्ण पहला कदम है।
- भावनात्मक स्वास्थ्य (Emotional Health): हमारी भावनाएं, हमें अपने लक्ष्यों और मूल्यों के अनुरूप कार्य करने के लिए प्रेरित करने में मदद करती हैं। लेकिन हमारे विचारों की तरह, भावनाएं भी पक्षपातपूर्ण और भ्रामक हो सकती हैं। जब हम अपनी भावनाओं को आवश्यकता से अधिक महत्व देते हैं, तो हम परेशानी में पड़ सकते हैं। दूसरी ओर, यदि हम अपनी भावनाओं को रोकते हैं, तो हम प्रभावी रूप से जीवन से ही पीछे हट जाते हैं। तो फिर प्रश्न उठता है कि ऐसे में हम क्या करें? इसके लिए आप जो भावना महसूस कर रहे हैं उसे नाम देकर शुरुआत करें। यथासंभव विशिष्ट बनने का प्रयास करें, पहले तो आपको केवल गुस्सा आ सकता है, लेकिन ऐसा करना जारी रखें। भावना का नामकरण आपको उसे महसूस करने की अनुमति देता है। यह भावना का संदर्भ भी देता है कि क्या यह आपके किसी विचार की प्रतिक्रिया है? यदि ऐसा है, तो आप उस विचार को पुनः आकार देने के लिए अपने सटीक सोच कौशल का उपयोग कर सकते हैं।
- व्यवहारिक स्वास्थ्य (Behavioural Health): व्यवहारिक स्वास्थ्य, इस बात पर हो सकता है कि आप अपने आस-पास की दुनिया के साथ कितने जुड़े हुए हैं, आप कितनी अच्छी तरह काम कर रहे हैं, आपके रिश्तों की गुणवत्ता और आप किस हद तक अपनेपन और समुदाय की भावना महसूस करते हैं। अपने विचारों और भावनाओं को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करना सीखने से आपके व्यवहार संबंधी स्वास्थ्य में सुधार होगा। अपने डर को सही आकार देकर और अपनी भावनाओं को नियंत्रित करके, आप नई या चुनौतीपूर्ण स्थितियों से बचने के बजाय अपने आस-पास की दुनिया से जुड़ने में सक्षम हो पाएंगे।
मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य का संबंध:
हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के बीच एक अनोखा परस्पर संबंध है। जो व्यक्ति तनावग्रस्त या चिंतित रहते हैं या अपनी भावनाओं के बारे में बात नहीं कर हैं पाते हैं, उन्हें शारीरिक या दैहिक समस्या हो सकती है। यह अक्सर सिरदर्द, अल्सर या शारीरिक बीमारियों के रूप में प्रकट हो सकती है। अवसाद और चिंता जैसी कुछ मानसिक से बीमारियों से मधुमेह, स्ट्रोक और हृदय रोग जैसी गंभीर शारीरिक बीमारियों का खतरा बढ़ सकता है। वहीं, पुरानी शारीरिक स्वास्थ्य समस्याएं भी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं में योगदान कर सकती हैं।
मानसिक स्वास्थ्य के निर्धारक तत्व:
- हमारे संपर्क में आने वाले कई व्यक्ति, और यहां तक कि सामाजिक और संरचनात्मक संस्थाएं, हमारे मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं।
- भावनात्मक कौशल, मादक द्रव्यों का उपयोग और आनुवंशिकी जैसे व्यक्तिगत मनोवैज्ञानिक और जैविक कारक लोगों को मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के प्रति अधिक संवेदनशील बना सकते हैं।
- गरीबी, हिंसा और असमानता सहित प्रतिकूल सामाजिक, आर्थिक, भू-राजनीतिक और पर्यावरणीय परिस्थितियों के संपर्क में आने से लोगों में मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों का अनुभव होने का खतरा बढ़ जाता है।
- हमारे जीवन के सभी चरणों में हानिकारक कारक प्रकट हो सकते हैं, लेकिन विकास की दृष्टि से, विशेष रूप से प्रारंभिक बचपन के दौरान होने वाले जोखिम विशेष रूप से हानिकारक होते हैं। उदाहरण के लिए, कठोर पालन-पोषण और शारीरिक सज़ा बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है।
- इसी तरह हमारे पूरे जीवन में सुरक्षात्मक कारक भी घटित होते हैं। इनमें हमारे व्यक्तिगत, सामाजिक और भावनात्मक कौशल एवं विशेषताओं के साथ-साथ सकारात्मक सामाजिक संपर्क, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, सभ्य कार्य, सुरक्षित पड़ोस और सामुदायिक एकजुटता आदि शामिल हैं।
- हानिकारक और सुरक्षात्मक दोनों कारक समाज में विभिन्न स्तरों पर पाए जा सकते हैं। वैश्विक स्तर पर, आर्थिक मंदी, बीमारी का प्रकोप, मानवीय आपात स्थिति और जबरन विस्थापन और बढ़ते जलवायु संकट मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक कारकों में शामिल हैं।
मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता कैसे बढ़ाएं:
मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता बढ़ने और इसका समर्थन करने के लिए आप कर सकते हैं:
- मानसिक स्वास्थ्य के बारे में स्वयं को शिक्षित करें: आप विशिष्ट मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों के बारे में जितना अधिक सीखेंगे, आपके लिए दूसरों के साथ बातचीत के लिए समय और स्थान बनाना उतना ही आसान होगा।
- उपचार के बारे में मिथकों और तथ्यों की खोज करें: शारीरिक बीमारियों का आमतौर पर, नियमित और विशिष्ट उपचार होता है। एक मानसिक बीमारी, किसी शारीरिक बीमारी से कहीं अधिक जटिल होती है। कुछ लोगों के लिए मनोचिकित्सा प्रभावी हो सकती है, वहीं दूसरों को मनोचिकित्सा और चिकित्सकीय दवाओं के संयोजन से राहत मिल सकती है। मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की देखभाल के बारे में अधिक जानकर, आप जरूरतमंद लोगों को मार्गदर्शन करने में मदद कर सकते हैं।
- बीमारी को संबोधित करें: कुछ लोग मानसिक बीमारी को कलंक मानते हैं, इसलिए मानसिक रोगियों को सहायक, विचारशील और तथ्यात्मक शिक्षा प्रदान करने के लिए बीमारी को संबोधित करें। मानसिक स्वास्थ्य उपचार को शारीरिक स्वास्थ्य उपचार के बराबर करने पर विचार करें और दूसरों को इसे समझने में मदद करें। इसके अलावा, मानसिक स्वास्थ्य के प्रति अपने स्वयं के अंतर्निहित पूर्वाग्रहों का निरीक्षण करें और उन्हें दूर करने के लिए काम करें।
- अपनी कहानी साझा करें: 2020 के एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार, अवसाद (Depression) के बारे में ऑनलाइन जानकारी चाहने वाले चार में से तीन युवा किशोर अन्य लोगों की कहानियाँ सुनना चाहते हैं। यदि आपके पास मानसिक बीमारी का व्यक्तिगत अनुभव है, तो अपनी कहानी साझा करने से उन लोगों को आशा मिल सकती है, जो पीड़ित हैं।
- मानसिक स्वास्थ्य के लिए उत्साही अधिवक्ताओं से जुड़ें: अपने समुदाय में ऐसे कार्यक्रम खोजें, जो मानसिक बीमारी के बारे में जागरूकता बढ़ाते हैं।
संदर्भ:
मुख्य चित्र स्रोत : pexels
कन्नौज को अपनी राजधानी बनाकर, मौखरि राजवंश के शासकों ने किया हमारे क्षेत्र पर शासन
छोटे राज्य 300 ईस्वी से 1000 ईस्वी तक
Small Kingdoms: 300 CE to 1000 CE
20-03-2025 09:27 AM
Lucknow-Hindi

क्या आप यह जानते हैं कि, प्राचीन काल में ‘मौखरि राजवंश’ ने उत्तर भारत के एक महत्वपूर्ण हिस्से पर शासन किया था। मुख्य रूप से हमारे वर्तमान उत्तर प्रदेश राज्य के क्षेत्र में, छठवीं शताब्दी के दौरान, राजधानी कन्नौज के साथ, इस राजवंश का शासन था। तो चलिए आज, मौखरि राजवंश के बारे में विस्तार से बात करते हैं। आगे, हम इस राजवंश की प्रशासन प्रणाली के बारे में जानेंगे। इसके अलावा, हम इस समय के दौरान विकसित हुई, इस क्षेत्र की कला और संस्कृति पर कुछ प्रकाश डालेंगे। आगे बढ़ते हुए, हम मौखरि राजवंश के महत्वपूर्ण शासकों के बारे में बात करेंगे। उसके बाद, हम इस राजवंश की शैक्षिक प्रणाली के बारे में पता लगाएंगे। और अंत में, हम इस राजवंश के सिक्कों का अध्ययन करेंगे।
मौखरि राजवंश का परिचय:
गुप्ता साम्राज्य की गिरावट के साथ, उत्तर भारत में गंगा-यमुना दोआब (दो नदियों के बीच मौजूद भूमि) क्षेत्र का बढ़ता राजनीतिक महत्व, कन्नौज के मौखरि राजवंश और मगध (उत्तर गुप्ता) के साथ उनकी बढ़ती प्रतिद्वंद्विता के साथ स्पष्ट था। छठवीं शताब्दी की शुरुआत से सातवीं शताब्दी की शुरुआत में, दो मौखरि घराने थे। दक्षिण बिहार में, गया में पहला घराना था, और उत्तर प्रदेश में, कन्नौज में दूसरा मौखरि घराना था। इनके मुख्य ज्ञात स्रोत, इशानवर्मन के हरहा शिलालेख, और आदित्यसेन के अफ़साद शिलालेख के साथ, बन्हाड़ा के हर्षाचरित जैसे ग्रंथों की तरह शिलालेख हैं। अंतिम मौखरि शासक ग्राहवर्मन थे, जो हर्ष साम्राज्य के संस्थापक – पुष्यभुति राजवंश के हर्षवर्धन के बहनोई थे। इस प्रकार, पुष्यभुतियों और मौखरियों के बीच एक गठबंधन था। इसने उत्तर भारत की शक्ति की धुरी को बदल दिया। वर्ष 605 में ग्राहवर्मन की हत्या के साथ, हालांकि यह राजवंश समाप्त हो गया।
मौखरि राजवंश का प्रशासन:
मौखरि वंश की राजधानी – कन्याकूबजा, एक महान महानगरीय शहर के रूप में समृद्धि और महत्व में बढ़ने लगी। मौखरियों के निधन के बाद, यह सम्राट हर्ष के साम्राज्य की राजधानी बन गई। इसलिए, कन्याकूबजा को बड़े पैमाने पर शाही शक्तियों द्वारा चुना गया था।
पहले तीन मौखरि राजाओं का उल्लेख, शिलालेखों में, ‘महाराजा’ के रूप में किया गया है। लेकिन, उनके उत्तराधिकारियों ने सत्ता और प्रतिष्ठा में वृद्धि दिखाते हुए बड़े खिताब ग्रहण किए। ईशानवर्मन, महाराजधिराज शीर्षक को अपनाने वाले पहले मौखरि शासक थे।
मौखरि राजवंश के दौरान कला और संस्कृति:
मौखरि राजा, कवियों और लेखकों के संरक्षक थे, और उनके शासनकाल के दौरान कई साहित्यिक कार्यों की रचना की गई। इनके समय के विभिन्न मुहर और शिलालेख भी ज्ञात हैं, जैसे कि – सर्ववर्मन राजा के असीरगढ़ शिलालेख; इशानवर्मन के हराहा शिलालेख आदि। हराहा शिलालेख, बारबंकी ज़िले के हरारा गांव के पास खोजा गया था, जो विक्रम संवत (610 ईस्वी) में मौजूद मौखरियों की वंशावली को रिकॉर्ड करता है।

सासानियन साम्राज्य के साथ, मौखरियों का संपर्क:
हूण साम्राज्य (Hunnic Empire) के अंत के साथ, भारत और सासानियन फ़ारस के बीच नए संपर्क स्थापित किए गए थे। शतरंज और बैकगैमोन (Backgammon) जैसे बौद्धिक खेलों ने, खुसरो प्रथम और “भारत के महान राजा” के बीच, राजनयिक संबंध का प्रदर्शन किया। उनके वज़ीर ने, शतरंज को सम्राट खुसरो के लिए एक हंसमुख व चंचल चुनौती के रूप में प्रसिद्ध किया।
मौखरि राजवंश के महत्वपूर्ण शासक:
प्रारंभिक शासक:
कन्याकूबजा शाखा के पहले तीन शासक – हरीवर्मन, आदित्यवर्मन और ईश्वरवर्मन थे। वे बाद के गुप्त शासन की ताकत को स्वीकार करने के लिए आए, और उनके साथ वैवाहिक संबंध बनाए। उनकी स्थिति सामान्य राजाओं के रूप में बनी रही, और उन्हें किसी भी विजय की अन्य कार्रवाई के साथ श्रेय नहीं दिया जाता है।
•ईशानवर्मन (Ishananavarman):
ईशानवर्मन, सन 554 में सिंहासन पर बैठे थें। मौखरि परिवार को उच्चता में लाने वाले पहले शासक थे। उनके शिलालेखों के अनुसार, उन्होंने दक्षिण-पूर्वी भारत के आंध्रों, सुलिका और गौड़ा शासकों को हराया। इसने मौखरियों की राजनीतिक शक्ति को बढ़ाया, और बाद में गुप्त राजा – कुमारगुप्त तृतीय को चिंतित कर दिया, जिन्होंने इशानवर्मन को हराया था।
उत्तर काल के राजा:
इशानवर्मन के उत्तराधिकारी, उनके बेटे – सर्ववर्मन ((Sarvavarmana) छटी शताब्दी) थे। उन्होंने अपने पिता की हार का बदला लेने के लिए, बाद में गुप्तों को चुनौती दी। कुमारगुप्त के बेटे और उत्तराधिकारी – दामोदरगुप्त ने मौखरियों के साथ लड़ाई जारी रखी, लेकिन युद्ध में हार गए। वे संभवतः सर्ववर्मन के विरुद्ध हार गए, जिन्होंने तब मगध या उसके एक बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया था। दामोदरगुप्त के बेटे – गौड़ा को अपने सामंती शशांक के लिए खोने पर, मालवा में शरण लेनी पड़ी।
मौखरि राजवंश की शैक्षिक प्रणाली:
मौखरि शासकों को सीखने और छात्रवृत्ति के संरक्षण के लिए जाना जाता था, और उनकी अदालतें बौद्धिक और सांस्कृतिक गतिविधि की केंद्र थीं।
मौखरि काल के दौरान, संस्कृत साहित्य और कला का विकास हुआ। रामायण और महाभारत सहित, इस दौरान कई महत्वपूर्ण साहित्यिक कार्यों का उत्पादन किया गया था। मौखरि शासक, कवियों और विद्वानों के संरक्षक थे, और कई संस्कृत विद्वानों और बुद्धिजीवियों को उनके न्यायालयों से जोड़ा गया था। बौद्ध धर्म भी मौखरि संस्कृति का एक महत्वपूर्ण पहलू था। इस प्रकार, उनके शासनकाल के दौरान कई बौद्ध मठों और शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की गई थी। बौद्ध भिक्षुओं ने उत्तरी भारत में शिक्षा और छात्रवृत्ति के प्रसार में, एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, और उनके मठों ने शिक्षा के केंद्रों के रूप में कार्य किया।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि, भारत में प्रारंभिक मध्ययुगीन काल के दौरान, शिक्षा, मुख्य रूप से उच्च वर्गों – विशेष रूप से ब्राह्मणों के लिए ही सुलभ थी। जाति व्यवस्था ने, विभिन्न वर्गों की शिक्षा तक पहुंच निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालांकि, यह भी संभावना है कि, कुछ शैक्षिक अवसर निचली जातियों – विशेष रूप से शिल्प और व्यापार से संबंधित व्यक्तियों के लिए भी उपलब्ध थे।

मौखरि राजवंश द्वारा बनाए गए सिक्के:
इशानवर्मन और उनके उत्तराधिकारियों द्वारा जारी किए गए सिक्के, सांस्कृतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण हैं। ये सिक्के, केंद्रीय मयूर-प्रकार का अनुसरण करते इतिहासकारों को इन सिक्कों में दो कारणों की वजह से रुचि है: इनकी हूण (Hun) शासक – तोरामे (Toramāṇa) द्वारा अपने सिक्कों के लिए नकल की गई थी। और, दूसरा कारण था कि, इन सिक्कों की श्रृंखला के अंतिम और सबसे प्रचुर मात्रा में उपलब्ध किए गए सिक्कों पर दिखाई देने वाला नाम – ‘शिलादित्य’ है। राजा शिलादित्य को लगभग निश्चित रूप से, थानेसर और कन्नौज के महान राजा – हर्षवर्धन के नाम के साथ पहचाना जाता है, जो उनका मौखरि राजकुमारों से संबंध बताता है।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: कन्नौज के मौखरी शासक ईशानवर्मन (लगभग 535-553 ईस्वी) के काल का सिक्का। अग्रभाग पर बाएं मुख किए हुए मुकुटधारी राजा की आकृति है, जिसके मुकुट पर अर्धचंद्र बना हुआ है। पृष्ठभाग पर बाईं ओर सिर घुमाए हुए एक मोर की छवि अंकित है | (Wikimedia)
इस गर्मी, खरबूज़े की खेती न सिर्फ़ लखनऊ के लोगों को ताज़गी देगी, बल्कि उनकी आमदनी भी बढ़ाएगी
फल-सब्ज़ियां
Fruits and Vegetables
19-03-2025 09:17 AM
Lucknow-Hindi

हमारा राज्य उत्तर प्रदेश, भारत में खरबूज़े के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है। यहां किसानों ने, इसे मुख्य रूप से नदी किनारे और उपजाऊ मैदानों में उगाया है। उत्तर प्रदेश के कई ज़िले, खासकर गर्मियों के मौसम के दौरान, खरबूज़े की खेती के लिए प्रसिद्ध होते हैं। यह फल अच्छी धूप और गर्म तापमान के साथ, रेतीली दोमट मिट्टी में सबसे अच्छा बढ़ता है। खरबूज़ा न केवल ताज़ा होता है, बल्कि विटामिन ए (Vitamin-A) और सी (Vitamin-C) में भी समृद्ध है, हमारी प्रतिरक्षा को बढ़ावा देता है, त्वचा स्वास्थ्य में सुधार करता है, और शरीर को जलयोजित रखता है। यह पौष्टिक फल, राज्य में किसानों और लोगों के स्वास्थ्य का समर्थन करता है।
आज, हम खरबूज़े और इसके पोषण संबंधी मूल्यों पर चर्चा करेंगे। इसके बाद, हम बेहतर पाचन और प्रतिरक्षा मज़बूती प्रभाव सहित, इसके स्वास्थ्य लाभों का पता लगाएंगे। फिर हम लोकप्रिय खरबूज़ा किस्मों और उनकी उपज को देखेंगे, तथा भारत में शीर्ष 5 खरबूज़ा-उत्पादक राज्यों पर प्रकाश डालेंगे। अंत में, हम उत्तर प्रदेश में इसकी खेती पर चर्चा करेंगे।
खरबूज़ा-
खरबूज़ा, एक मीठा और रसदार फल है। इसमें उच्च पानी की मात्रा होने के कारण, गर्मियों के दौरान इसका सेवन, ताज़गी भरा और लाभदायक साबित होता है। इसके स्वास्थ्य लाभ, फल के हर हिस्से में पाए जा सकते हैं। भारत में किसानों द्वारा विशेष रूप से गर्मी के मौसम के दौरान, खरबूज़ा (कुकुमिस मेलो – Cucumis melo) एक फल फ़सल के रूप में, व्यापक रूप से उगाया जाता है।
ये विटामिन ए और सी में समृद्ध होते हैं। यह खनिज़ों, एंटीऑक्सिडेंट (Antioxidant) और अन्य पौष्टिक गुणों में भी उच्च है। अपरिपक्व फल का सब्ज़ियों के रूप में उपयोग किया जाता है, और उनके बीज भी खाने योग्य होते हैं। खरबूज़े में, 90% से अधिक पानी होता है, जो हमारे शरीर को ठंडक प्रदान करता है। इनका उपयोग, मिठाई बनाने के लिए भी किया जाता है। भारत में, खरबूज़ा, मुख्य रूप से पंजाब, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और मध्य प्रदेश में उगाया जाता है। भारत, चीन(China) और तुर्की(Turkey) के बाद दुनिया में खरबूज़े का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।
खरबूज़े के पोषण संबंधी तथ्य-
प्रत्येक 100 ग्राम खरबूज़े में निम्नलिखित पोषण मात्रा होती है:
कैलोरी – 25 किलो कैलोरी
कार्बोहाइड्रेट – 4.64 ग्राम
प्रोटीन – 0.48 ग्राम
वसा – 0.37 ग्राम
आहार फ़ाइबर – 1.79 ग्राम
खरबूज़े के स्वास्थ्य लाभ-
१.शरीर को जलयोजित रखता है।
ज़्यादातर पानी होने के कारण, इसका सेवन पौष्टिक होने के अलावा, शरीर को ताज़ा और जलयोजित रखता है।
२.प्रतिरक्षा प्रणाली को बढ़ावा देता है।
खरबूज़े की उच्च विटामिन सी मात्रा, इसे हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को बढ़ावा देने में मदद करती है। यह हमारे शरीर को नई सफ़ेद रक्त कोशिकाएं बनाने में मदद करता है, जो शरीर की बीमारी से लड़ने की क्षमताओं को बढ़ावा देती है।
३.खरबूज़ा दृष्टि के लिए अच्छा है।
खरबूज़े में ज़ेक्सैन्थिन (Zeaxanthin), बीटा-कैरोटीन (Beta-carotene) और ल्यूटिन (Lutein) जैसे एंटीऑक्सिडेंट मौजूद हैं, जो हमारे आंखों के स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिए जाने जाते हैं। इस फल का नियमित सेवन, उम्र से संबंधित दृष्टि हानि को रोकने और जीवन भर, आंखों के सामान्य कार्य को बनाए रखने में मदद कर सकता है। इन एंटीऑक्सिडेंट के साथ-साथ विटामिन ए और सी में उच्च खाद्य पदार्थ खाने से, स्वस्थ आंखों के कार्य और दृष्टि को बनाए रखने में मदद मिलती है।
४.हृदय स्वास्थ्य के लिए अच्छा है।
खरबूज़े में मौजूद पोटैशियम (Potassium), रक्तचाप को विनियमित करने में मदद करता है। यह हृदय रोगों की संभावना को भी कम करता है। इसके अलावा, इसमें एडेनोसिन (Adenosine) की उपस्थिति के कारण, हृदय प्रणाली में रक्त के थक्कों को भी कम किया जाता है।
५.एक स्वस्थ आंत प्रणाली विकसित करता है।
स्वस्थ आंत स्वास्थ्य को, खरबूज़े की उच्च पानी और फ़ाइबर सामग्री द्वारा सुनिश्चित किया जाता है। यह पेट को ठंडा रखने और आंत्र संचलन को विनियमित करने में मदद करता है, एवं कब्ज को रोकने में मदद करता है।
६.वज़न घटाने में मदद करता है।
खरबूज़े में मौजूद पोटेशियम एवं अत्यधिक पानी और फ़ाइबर सामग्री, वज़न घटाने में मदद करती है। उनमें वसा नगण्य है, जो एक अतिरिक्त लाभ है।
७.मधुमेह नेफ्रोपैथी को रोकता है।
खरबूज़े में मौजूद एक अर्क – ‘ऑक्सीकिन (Oxykine)’ को, मधुमेह नेफ़्रोपैथी (Diabetic nephropathy) को रोकने के लिए जाना जाता है। मधुमेह नेफ्रोपैथी एक ऐसी स्थिति है, जहां गुर्दे की कोशिकाएं क्षतिग्रस्त होती हैं।

खरबूज़े की लोकप्रिय किस्में-
•हरा मधु (Hara Madhu):
यह किस्म देर से परिपक्व होती है। ये फल बड़े व गोल आकार के होते हैं, एवं इनका औसत वज़न लगभग एक किलो होता है। इनके छिलके हल्के पीले रंग के होते है। इसमें कुल निलंबित ठोस पदार्थ (TSS), लगभग 13% है और यह स्वाद में बहुत मीठा है। इसका गुदा हरा, मोटा और रसदार होता है, जबकि बीज छोटे आकार के होते हैं। यह पाउडर फ़फूंदी के लिए प्रतिरोधी है। यह 50 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।
•पंजाब सुनहरी (Punjab Sunehri):
यह हरा मधु किस्म से 12 दिन पहले परिपक्व होता है। फल गोल आकार और हल्के भूरे रंग के रंग के होते हैं। इसका औसत वज़न लगभग 700-800 ग्राम है, जिसमें लगभग 11% कुल निलंबित ठोस पदार्थ होते है। इसका गुदा मोटा व नारंगी है। इसकी गुणवत्ता अच्छी है। यह फ्रूटफ़्लाई (Fruit fly) कीटों के हमले के प्रति, प्रतिरोधी है। इसकी औसत उपज लगभग प्रति एकड़ 65 क्विंटल है।
•पंजाब हाइब्रिड (Punjab Hybrid):
यह जल्द ही परिपक्व होता है। जालीनुमा हल्के पीले रंग वाले छिलके के साथ, यह फल, गोल आकार का होता है। इसका गुदा मोटा, रसदार और नारंगी रंग का है, जिसमें उत्कृष्ट स्वाद है। इसमें 12% तक कुल निलंबित ठोस पदार्थ होते हैं और फल का औसत वज़न लगभग 800 ग्राम है। यह भी, फ्रूटफ़्लाई कीटों के हमले के प्रति, प्रतिरोधी है और प्रति एकड़ 65 क्विंटल की औसत उपज देता है।
•एम एच–51 (MH-51):
यह 89 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है। इसमें गोल फल होते हैं, जिनमें धारियां होती हैं, और इसका छिलका महीन जालीनुमा होता हैं। इसमें 12% सुक्रोज़ सामग्री होती है।
•एम एच–27 (MH-27):
यह 88 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है। इसमें 12.5% सुक्रोज़ सामग्री शामिल है।
•अन्य किस्में:
- अर्क जीत (Arka Jeet)
- अर्क राजहंस (Arka Rajhans)
- एम एच 10 (MH-10)
- पूसा मधुरिमा (Pusa madhurima)
भारत में शीर्ष 5 खरबूज़ा उत्पादक राज्य-
देश के कई राज्य इस फल का उत्पादन करने में आगे हैं, जो इसकी राष्ट्रव्यापी बाज़ारों में आपूर्ति करते हैं। भारत, हर साल लगभग 1-2 मिलियन टन खरबूज़े का उत्पादन करता है। शीर्ष खरबूज़ा उत्पादक राज्यों में उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और मध्य प्रदेश शामिल हैं।
•उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश, भारत में खरबूज़ा-उत्पादक राज्यों की सूची में अग्रिम है। यह राज्य, सालाना 528.32 टन खरबूज़ों का उत्पादन करता है, जो 56.52% की बाज़ार हिस्सेदारी रखता है। इसकी उपजाऊ मिट्टी और सहायक जलवायु, इसे उच्च गुणवत्ता वाले खरबूज़े को बढ़ने के लिए एक आदर्श स्थान बनाती है।
•आंध्र प्रदेश
आंध्र प्रदेश, भारत के खरबूज़ा उत्पादन में दूसरे स्थान पर है, एवं हर साल 151.50 टन उपज का योगदान देता है। यह भारत के कुल खरबूज़ा उत्पादन का 16.21% है। इस राज्य की गर्म जलवायु और उन्नत कृषि तकनीक, बड़े पैमाने पर खेती का समर्थन करती है।
•पंजाब
पंजाब की आदर्श मौसम स्थिति के साथ, यह राज्य, सालाना 91.26 टन खरबूज़ों का उत्पादन करता है, जो बाज़ार में 9.76% का योगदान देता है। इसके खरबूज़े को उनकी ताज़गी और स्वाद के लिए जाना जाता है।
•मध्य प्रदेश
मध्य प्रदेश, इस फल की खेती के लिए, अपनी मिश्रित जलवायु से लाभान्वित होता हैं। राज्य सालाना 40.30 टन खरबूज़ों का उत्पादन करता है, जो भारत के कुल उत्पादन में 4.31% का योगदान देता है।
•कर्नाटक
कर्नाटक राज्य की आदर्श जलवायु, इस फल के बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक उत्पादन का समर्थन करती है। कर्नाटक के खरबूज़े, मीठे, रसदार और उच्च मांग वाले हैं।
उत्तर प्रदेश में खरबूज़े की खेती-
भारत के फल उत्पादन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए, उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों में खरबूज़े की व्यापक खेती की जाती है। प्रमुख खरबूज़ा-उत्पादक क्षेत्रों में फ़र्रुखाबाद, ईटा, अलीगढ़, फ़िरोज़ाबाद, आगरा, कन्नौज, बरेली, उन्नाव, इलाहाबाद, मैनपुरी, बदायूं, हाथरस, हरदोई, कानपुर नगर, कानपुर देहात, अमरोहा और कासगान शामिल हैं। ये ज़िले, अपनी उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी और एक गर्म जलवायु के कारण, खरबूज़े की खेती के लिए आदर्श हैं ।
संदर्भ:
मुख्य चित्र स्रोत : Wikimedia
आइए जानें, कैसे दो कमरों का एक मेमोरियल स्कूल, 225 एकड़ के लखनऊ विश्वविद्यालय में बदल गया
उपनिवेश व विश्वयुद्ध 1780 ईस्वी से 1947 ईस्वी तक
Colonization And World Wars : 1780 CE to 1947 CE
18-03-2025 09:19 AM
Lucknow-Hindi

क्या आप जानते हैं कि लखनऊ विश्वविद्यालय को पहले ‘कैनिंग हाईस्कूल’ के नाम से जाना जाता था। इसकी स्थापना, 1864 में ब्रिटिश भारत के पहले वायसराय चार्ल्स जॉन कैनिंग (Charles John Canning) की स्मृति में की गई थी। वास्तव में, ब्रिटिश भारत में प्रशासनिक सुविधा और सामाजिक-राजनीतिक नियंत्रण के उद्देश्य से, विभिन्न शिक्षा नीतियों के विकास के माध्यम से शिक्षा के स्तरों में व्यापक सुधार किया गया। तो आइए, आज भारतीय शिक्षा के लिए अंग्रेज़ों द्वारा शुरू की गई कुछ महत्वपूर्ण शैक्षिक नीतियों के बारे में जानते हैं। इसके साथ ही, हम 19वीं शताब्दी के दौरान भारत में तकनीकी शिक्षा के इतिहास और विकास पर कुछ प्रकाश डालेंगे। अंत में, हम यह जानेंगे कि कैसे दो कमरों का मेमोरियल स्कूल 225 एकड़ के लखनऊ विश्वविद्यालय में बदल गया।
ब्रिटिश भारत में शिक्षा नीतियाँ:
मैकॉले के लिखित ब्योरे, 1835 (Macaulay’s Minutes):
ओरिएंटल-एंग्लो विवाद को संबोधित करने के लिए, लॉर्ड विलियम बेंटिंक (Lord William Bentinck) के अनुग्रह पर लॉर्ड मैकॉले (Thomas Babington Macaulay) ने 1835 में अपने प्रसिद्ध मिनट्स या लिखित ब्योरे प्रस्तुत किए।
विशेषताएं:
- शिक्षा का माध्यम: पश्चिमी शिक्षा प्रदान करने के लिए माध्यम के रूप में अंग्रेज़ी की सिफ़ारिश की गई और इसे पारंपरिक शिक्षा से बेहतर माना गया।
- एक नए वर्ग का निर्माण: मैकॉले ने एक ऐसे वर्ग की कल्पना की, जो "रक्त और रंग में भारतीय, लेकिन राय, नैतिकता और बुद्धि में अंग्रेज़ हो।"
- अधोमुखी निस्पंदन सिद्धांत: उन्होंने केवल कुछ भारतीयों को शिक्षित करने का प्रस्ताव रखा, जो जनता के बीच ज्ञान फैलाने के लिए मध्यस्थ के रूप में कार्य करेंगे।
- नीति परिवर्तन:
- संस्कृत और अरबी पुस्तकों की छपाई बंद कर दी गई।
- फ़ारसी की जगह अंग्रेज़ी अदालत की भाषा बन गई।
- पश्चिमी विज्ञान और साहित्य को प्राथमिकता दी गई।
प्रभाव:
- 1842 तक, देशभर में 42 स्कूल स्थापित किए गए, और बंगाल जैसे प्रेसीडेंसी में शैक्षिक क्षेत्र स्थापित किए गए।
- आधुनिक शिक्षा ने भारतीयों को पश्चिमी राजनीतिक और सामाजिक विचारों से परिचित कराया, जिससे राष्ट्रवाद की बौद्धिक नींव को बढ़ावा मिला।
- अधोमुखी निस्पंदन सिद्धांत की सफलता से, शिक्षा अभिजात वर्ग तक ही सीमित रही, और आम जनता अशिक्षित ही रही।
वुड्स डिस्पैच, 1854 (Wood’s Despatch):
'वुड्स डिस्पैच' 1853 के चार्टर अधिनियम के दौरान, चार्ल्स वुड (Sir Charles Wood) द्वारा शुरू की गई पहली व्यापक शिक्षा नीति थी। इसका उद्देश्य पूरे भारत में एक मज़बूत शैक्षिक ढांचा स्थापित करना था।
विशेषताएं:
- सभी के लिए शिक्षा: छात्रों को समर्थन देने के लिए छात्रवृत्ति के साथ भारतीयों के लिए प्राथमिक, मध्य और उच्च शिक्षा पर जोर दिया गया।
- शिक्षा का माध्यम: स्कूलों के लिए स्थानीय भाषाएँ और उच्च अध्ययन के लिए अंग्रेज़ी को शिक्षा का माध्यम बनाया गया।
- संस्थागत ढाँचा:
- कलकत्ता, मद्रास और बंबई में विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई। सभी प्रांतों में सार्वजनिक शिक्षा विभाग स्थापित किये गये।
- श्रेणीबद्ध विद्यालयों (विश्वविद्यालय, कॉलेज, उच्च विद्यालय, माध्यमिक विद्यालय, प्राथमिक विद्यालय) की सिफ़ारिश की गई।
- महिला एवं व्यावसायिक शिक्षा: महिला एवं व्यावसायिक शिक्षा को बढ़ावा मिला।
- सहायता अनुदान: धर्मनिरपेक्ष शिक्षा और निरीक्षण जैसी शर्तों को पूरा करने वाले निजी विद्यालयों को वित्तीय सहायता के लिए योग्य माना गया।
प्रभाव:
- शिक्षा तक पहुंच तो बढ़ी लेकिन भारतीय भाषाओं और संस्कृति की उपेक्षा की गई।
- ज्ञान प्राप्ति के बजाय, शिक्षा आजीविका का साधन बन गई।
- इसने आधुनिक संस्थागत ढांचे की नींव रखते हुए शिक्षा को केंद्रीकृत किया।
हंटर शिक्षा आयोग,1882-83 (Hunter Education Commission):
हंटर कमीशन ने वुड्स डिस्पैच के बाद, शिक्षा में प्रगति की समीक्षा और महत्वपूर्ण बदलावों की सिफ़ारिश की।
प्राथमिक शिक्षा:
- छात्रों को केवल उच्च अध्ययन के लिए तैयार करने के बजाय सार्वजनिक शिक्षा पर ध्यान केंद्रित किया गया।
- स्थानीय बोर्डों को स्कूली शिक्षा के लिए उपकर लगाने का अधिकार दिया गया।
- स्वदेशी शिक्षा प्रणालियों को सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त रखा गया।
- माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा: पाठ्यक्रम को दो भागों में विभाजित किया गया:
- पाठ्यक्रम ए (Curriculum A): उच्च शिक्षा के लिए प्रारंभिक विषय।
- पाठ्यक्रम बी (Curriculum B): व्यावहारिक और व्यावसायिक विषय।
प्रभाव:
- प्राथमिक शिक्षा को बल मिला और शैक्षिक अवसरों का विस्तार हुआ।
- विद्यालयों को पिछड़े वर्गों के छात्रों को प्रवेश देने के लिए प्रोत्साहित किया गया।
रैले आयोग और भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम, 1904 (Raleigh Commission and Indian Universities Act):
1902 में नियुक्त रैले आयोग का उद्देश्य, विश्वविद्यालय शिक्षा को संबोधित करना और राष्ट्रवादी भावनाओं पर अंकुश लगाना था।
विशेषताएं:
- विश्वविद्यालयों को कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए स्वायत्तता दी गई।
- कॉलेजों के लिए सख्त संबद्धता नियम बनाए गए।
- विश्वविद्यालयों के क्षेत्रीय अधिकारों को परिभाषित किया गया।
- विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर शिक्षण और ऑनर्स पाठ्यक्रमों की शुरूआत हुई।
प्रभाव:
- विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियंत्रण बढ़ गया।
- इस अधिनियम ने भारत में विश्वविद्यालय अनुदान की शुरुआत को चिह्नित किया।
सैडलर आयोग, 1917-19 (Sadler Commission):
इसकी स्थापना, विश्वविद्यालय शिक्षा में सुधार के लिए माध्यमिक शिक्षा में सुधार की आवश्यकता को पहचानकर की गई थी। इस आयोग में माइकल सैडलर (Michael Sadler) के साथ दो भारतीय सदस्य- आशुतोष मुखर्जी और जिया उद्दीन अहमद भी शामिल थे।
विशेषताएं:
- उच्च शिक्षा को मैट्रिक परीक्षा के बजाय, इंटरमीडिएट परीक्षा में विभाजित करने का सुझाव दिया गया।
- माध्यमिक और इंटरमीडिएट शिक्षा बोर्ड की स्थापना करने और उसे माध्यमिक शिक्षा का प्रशासन और नियंत्रण सौंपने की सिफ़ारिश की गई।
- कलकत्ता विश्वविद्यालय में महिला शिक्षा के लिए एक विशेष बोर्ड की सिफ़ारिश की गई।
प्रभाव:
- 1916-21 के दौरान, सात नए विश्वविद्यालयों - मैसूर, पटना, बनारस, अलीगढ़, ढाका, लखनऊ और उस्मानिया की स्थापना की गई।
- 1920 में, भारत सरकार ने प्रांतीय सरकारों को सैडलर रिपोर्ट की सिफ़ारिश की।
ब्रिटिश भारत में तकनीकी शिक्षा:
इंजीनियरिंग शिक्षा: औपनिवेशिक सरकार की ज़रूरतों के अनुरूप और बुनियादी ढांचे के विकास की पहल में सहायता के लिए, भारत के कई शहरों में, अंग्रेज़ों ने इंजीनियरिंग संस्थानों की स्थापना की, जैसे कि रूड़की में इंजीनियरिंग कॉलेज (1847) और शिबपुर में भारतीय इंजीनियरिंग विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान (1856)।
तकनीकी कॉलेज: कुछ व्यवसायों में व्यावहारिक शिक्षा प्रदान करने के लिए तकनीकी कॉलेज बनाए गए। लाहौर में 'मेयो स्कूल ऑफ़ आर्ट' (1875) और रूड़की में 'थॉमसन सिविल इंजीनियरिंग कॉलेज' (1845) ऐसे दो प्रतिष्ठित तकनीकी संस्थान हैं।
औद्योगिक शिक्षा: भारत में विकासशील उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए ब्रिटिश सरकार ने औद्योगिक शिक्षा कार्यक्रम स्थापित किये। इन पहलों ने कृषि, खनन और कपड़ा उद्योग जैसे उद्योगों में कर्मचारियों को उपयोगी कौशल प्रदान करने का प्रयास किया।
भारत में तकनीकी शिक्षा: तकनीकी शिक्षा, पहले मुख्य रूप से विशेषाधिकार प्राप्त भारतीयों या ब्रिटिश नागरिकों के लिए उपलब्ध थी। हालाँकि, 1916 में भारतीय औद्योगिक आयोग की स्थापना के बाद, तकनीकी शिक्षा तक भारतीयों की पहुँच बढ़ाने के प्रयास किए गए। भारतीय छात्रों को घरेलू और विदेशी दोनों स्तरों पर तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने के लिए अनुदान और छात्रवृत्तियाँ दी गईं।
विश्वविद्यालयों की भूमिका: भारत में तकनीकी शिक्षा कार्यक्रम वाले विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई। उदाहरण के लिए, कलकत्ता, मद्रास और बॉम्बे विश्वविद्यालयों ने, 1857 में अपने पाठ्यक्रम के हिस्से के रूप में तकनीकी पाठ्यक्रम प्रदान किए।
व्यावहारिक प्रशिक्षण: अंग्रेज़, सैद्धांतिक शिक्षा के साथ साथ, व्यावहारिक प्रशिक्षण के महत्व को समझते थे। इसलिए, छात्रों को व्यावहारिक अनुभव प्रदान करने के लिए कार्यशालाओं, प्रयोगशालाओं और क्षेत्रीय प्रशिक्षण को अक्सर तकनीकी शिक्षा संस्थानों में शामिल किया गया।
कैसे दो-कमरे का एक मेमोरियल स्कूल, 225 एकड़ के लखनऊ विश्वविद्यालय में बदल गया:
1862 में ब्रिटिश भारत के पहले वाइसराय (Viceroy) , चार्ल्स जॉन कैनिंग के देहांत के बाद, अवध में उनके वफ़ादार तालुकदारों के एक समूह ने उनकी स्मृति में एक शैक्षणिक संस्था शुरू करने के लिए अपनी वार्षिक आय से आठ आना दान करने का फैसला किया, जिसके परिणाम स्वरूप, दो साल बाद, कैनिंग हाई स्कूल (Canning High School) की स्थापना हुई। ख़यालीगंज, अमीनाबाद की संकरी गलियों में एक हवेली के दो कमरों में 200 से अधिक छात्रों के साथ शुरू हुआ यह विश्वविद्यालय आज देश के सबसे पुराने आवासीय विश्वविद्यालयों में से एक है। 1920 में औपचारिक रूप से एक विश्वविद्यालय बना लखनऊ विश्वविद्यालय हसनगंज में 225 एकड़ में फैला है और आज इसमें और संबद्ध कॉलेजों में 1.5 लाख से अधिक छात्र हैं।
1906 के एक दस्तावेज़ के अनुसार, जहांगीराबाद अवध (अब बाराबंकी ज़िला) के राजा मोहम्मद तसद्दुकी खान कैसरबाग में एक भूखंड पर लॉर्ड कैनिंग के सम्मान में एक कॉलेज बनाना चाहते थे जो कि वायसराय ने उन्हें एक बार उपहार में दिया था। 1 मई, 1864 को वर्तमान अमीनाबाद में अमीनुद्दौला पैलेस में उन्होंने एक स्कूल खोला। इसमें दसवीं कक्षा तक, 200 छात्र पढ़ते थे। 1866 में, इस हाई स्कूल को कैनिंग कॉलेज में बदल दिया गया। शुरुआती दिनों में, इस कॉलेज की अपनी कोई इमारत नहीं थी और यह लाल बारादरी सहित एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित होता था। इसके बाद, कैसरबाग (वर्तमान में, राय उमानाथ बली ऑडिटोरियम और भातखंडेय संगीत संस्थान) में इसे स्थापित किया गया, लेकिन जगह की बढ़ती मांग के परिणामस्वरूप इसे पुनः स्थानांतरित किया गया। 1878 में, कैनिंग कॉलेज को अंततः बादशाह बाग, हसनगंज में स्थायी रूप से स्थापित किया गया, जहां यह आज भी मौजूद है। इस नई इमारत की आधारशिला 13 नवंबर 1867 को सर जॉन लॉरेंस (Sir John Lawrence) ने रखी थी, लेकिन इसे तैयार होने में लगभग 11 साल लग गए। इसका औपचारिक उद्घाटन, 15 नवंबर, 1878 को उत्तर-पश्चिमी प्रांतों के तत्कालीन लेफ़्टिनेंट-गवर्नर और अवध के मुख्य आयुक्त सर जॉर्ज कूपर (Sir George Cooper) द्वारा किया गया। कैनिंग कॉलेज 1867 से लेकर 1888 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय (University of Allahabad) के अधिकार क्षेत्र में आने तक 20 वर्षों तक कलकत्ता विश्वविद्यालय (University of Calcutta) के तहत, एक मान्यता प्राप्त संस्थान बना रहा। 12 अगस्त 1920 को, लखनऊ विश्वविद्यालय (University of Lucknow) विधेयक विधान परिषद में पेश किया गया और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (Banaras Hindu University) के तत्कालीन प्रति-कुलपति जीएन चक्रवर्ती को 16 दिसंबर, 1920 को लखनऊ विश्वविद्यालय का पहला कुलपति बनाया गया। इसका पहला शैक्षणिक सत्र, जुलाई 1921 में शुरू हुआ और पहला दीक्षांत समारोह अक्टूबर 1922 में आयोजित किया गया।
संदर्भ:
मुख्य चित्र : एक पोस्टकार्ड में छपे लखनऊ में स्थित कैनिंग कॉलेज का दृश्य (Wikimedia)
रात्रि में चमकते हुए सुंदर जुगनुओं को हमेशा देखते रहने हेतु, लखनऊ करेगा उनका संरक्षण
तितलियाँ व कीड़े
Butterfly and Insects
17-03-2025 09:30 AM
Lucknow-Hindi

हम सभी ने अपने बचपन में, जुगनू और उनकी मंत्रमुग्ध करने वाली सुंदर रोशनी देखी है। हालांकि, लखनऊ में पिछले कुछ वर्षों से, ये जुगनू या फ़ायरफ़्लाइज़ (Fireflies) गायब होने लगे हैं। तेज़ शहरीकरण, वनों की कटाई, प्रदूषण और अत्यधिक कृत्रिम प्रकाश ने उनके प्राकृतिक आवासों को अस्तव्यस्त कर दिया है, जिससे उनके लिए जीवित रहना कठिन हो गया है। फ़ायरफ़्लाइज़, केवल देखने में सुंदर ही नहीं हैं, बल्कि, ये अन्य कीटों को नियंत्रित करके पारिस्थितिकी तंत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनकी संख्या में गिरावट एक चेतावनी है, जो हमें प्रकृति की रक्षा करने की आवश्यकता की याद दिलाती है। आज, हम भारतीय फ़ायरफ़्लाइज़ अर्थात जुगनू और पारिस्थितिकी तंत्र में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका का पता लगाएंगे। फिर हम भारतीय फ़ायरफ़्लाइज़ पर करीब से नज़र डालेंगे। इसके बाद, हम इनकी घटती आबादी के पीछे मौजूद कारणों पर चर्चा करेंगे। अंत में, हम फ़ायरफ़्लाइज़ के संरक्षण प्रयासों पर ध्यान केंद्रित करेंगे।
| चित्र स्रोत : Wikimedia
भारतीय फ़ायरफ़्लाइज़ और पारिस्थितिकी तंत्र में उनका महत्व-
फ़ायरफ़्लाइज़ या जुगनू, लैम्पिरिडे परिवार(Lampyridae family) से संबंधित कीड़ों का एक समूह है, जो दुनिया के विभिन्न हिस्सों में पाया जाता है। इसमें उत्तर और दक्षिण अमेरिका, यूरोप और एशिया के क्षेत्र शामिल हैं। इन कीड़ों को उनके बायोलुमिनसेंट लाइट डिस्प्ले (Bioluminescent light display) अर्थात, चमक (रोशनी प्रदर्शन) के लिए जाना जाता है। वे इस चमक का उपयोग, संचार एवं शिकारियों को दूर करने के लिए करते हैं। हालांकि, फ़ायरफ़्लाइज़, विभिन्न पारिस्थितिक प्रणालियों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, और परागण, कीट नियंत्रण और चिकित्सा अनुसंधान में उनके योगदान के लिए मान्यता प्राप्त है। पारिस्थितिक तंत्र में जुगनुओं का महत्व-
•परागण:
जुगनू, विभिन्न फूलों और पौधों के अमृत और पराग से आकर्षित होते हैं, और इस प्रक्रिया में, वे पराग को एक पौधे से दूसरे पौधे में स्थानांतरित करते हैं। यह प्रक्रिया पौधे के प्रजनन के लिए महत्वपूर्ण है, और कई पौधों की प्रजातियों के अस्तित्व के लिए आवश्यक है। संयुक्त राज्य अमेरिका (USA) में किए गए एक अध्ययन में पाया गया है कि, फ़ायरफ़्लाइज़ पौधों की कई प्रजातियों के परागण के लिए ज़िम्मेदार थे। इनके बिना, कुछ पौधों की प्रजातियां, प्रजनन करने के लिए संघर्ष कर सकती हैं, जिससे उनकी आबादी में गिरावट हो सकती है।
•कीट नियंत्रण:
जुगनू लार्वा, घोंघे, स्लग (Slug) और अन्य कीड़ों को खाते हैं, जो फ़सलों और अन्य पौधों के जीवन के लिए हानिकारक हो सकते हैं। यह फ़ायरफ़्लाइज़ को, प्राकृतिक कीट नियंत्रण प्रणालियों का एक अनिवार्य हिस्सा बनाता है, और हानिकारक कीटनाशकों के उपयोग को कम करने में मदद कर सकता है। इसके अलावा, ये मच्छरों की आबादी को भी नियंत्रित करने में मदद कर सकते हैं।
•चिकित्सा अनुसंधान:
चिकित्सा अनुसंधान में उनके संभावित योगदान के लिए, जुगनुओं को मान्यता दी गई है। इनके बायोलुमिनसेंस (Bioluminescence) के लिए ज़िम्मेदार रसायन – लूसिफ़ेरिन (Luciferin) का, चिकित्सा इमेजिंग (imaging) और अन्य नैदानिक उपकरणों में इसके संभावित उपयोगों के लिए, बड़े पैमाने पर अध्ययन किया गया है। इसने नए चिकित्सा उपचारों का विकास किया है, जो विभिन्न बीमारियों और स्थितियों का पता लगाने तथा इलाज़ करने में मदद कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, लूसिफ़ेरिन (Luciferin) का उपयोग, इमेजिंग तकनीकों को विकसित करने के लिए किया गया है। यह कैंसर कोशिकाओं का पता लगा सकते हैं, अल्ज़ाइमर (Alzheimer) जैसी बीमारियों की निगरानी कर सकते हैं और नई दवाओं के विकास में सहायता भी कर सकते हैं।
भारतीय जुगनू-
लैम्पिरिडे (Lampyridae), 2,000 से अधिक वर्णित प्रजातियों के साथ, एलेटेरॉइड बीटल (Elateroid beetles) का एक परिवार है, जिनमें से कई प्रकाश उत्सर्जक हैं। वे नरम-शरीर वाले बीटल (beetle) होते हैं, जिन्हें आमतौर पर फ़ायरफ़्लाइज़, लाइटनिंग बग्स (Lightning bugs), या ग्लोवर्म्स (Glowworms) कहा जाता है। ये प्रकाश मुख्य रूप से संध्याकाल के दौरान, साथियों को आकर्षित करने के लिए, उत्पन्न किया जाता है। यह भी माना जाता है कि, लैम्पिरिडे कीड़ों में प्रकाश उत्पादन को एक चेतावनी संकेत के रूप में उत्पन्न किया गया था कि, उनके लार्वा (Larva) शिकार के तौर पर अरुचिकर थे। प्रकाश बनाने की इस क्षमता को, बाद में एक मिलन संकेत के रूप में चुना गया था। उनके विकास में, जीनस (Genus) फ़ोटुरिस (Photuris) की वयस्क मादा जुगनुओं ने, नर जुगनुओं को शिकार के रूप में फ़ंसाने के लिए, फ़ोटिनस बीटल (Photinus beetle) के फ़्लैश या प्रकाश पैटर्न की नकल की है।
जुगनू, समशीतोष्ण और उष्णकटिबंधीय जलवायु में पाए जाते हैं। कई जुगनू दलदल या गीले, लकड़ी के क्षेत्रों में रहते हैं, जहां उनके लार्वा के लिए प्रचुर मात्रा में भोजन उपलब्ध होता हैं। जबकि सभी ज्ञात जुगनू, लार्वा के रूप में चमक बनाते हैं, केवल कुछ प्रजातियां अपने वयस्क चरण में प्रकाश का उत्पादन करती हैं। शरीर में प्रकाश अंग का स्थान भी, प्रजातियों के बीच और एक ही प्रजाति के लिंगों के बीच, भिन्न होता है। उनकी उपस्थिति को विभिन्न मानवीय संस्कृतियों में विभिन्न प्रकार की स्थितियों को इंगित करने के लिए जाना जाता है।
जुगनुओं की घटती आबादी के कारण-
•निवास स्थान की गिरावट और हानि, तथा जलवायु परिवर्तन-
अधिकांश जुगनू प्रजातियां और उनके शिकार, आर्द्रभूमि, धाराओं और नम क्षेत्रों सहित आर्द्र आवासों पर निर्भर करती हैं। जलीय आवासों का मानवीय परिवर्तन, जैसे कि – बांध और चैनल सिंचाई योजनाएं, जुगनू आबादी को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकते हैं। अधिक शहरीकृत क्षेत्रों में, लार्वा जीवन चरणों के दौरान, आवश्यक आवासीय विकास और पत्ती-कूड़े के आवास का नुकसान भी एक चिंता का विषय है। आवास हानि विशेष रूप से उड़ान रहित मादाओं के साथ, अन्य प्रजातियों के लिए हानिकारक हो सकती है, क्योंकि ये मादाएं अपने जन्मस्थान से दूर नहीं जा सकती हैं।
•प्रकाश प्रदूषण-
प्रकाश प्रदूषण कई रूपों में आता है, जिसमें स्काईग्लो (Skyglow) – अत्यधिक आबादी वाले क्षेत्रों पर चमकते हुए धुंध; प्रकाश अतिचार – प्रकाश जो कि इच्छित या आवश्यक क्षेत्र से परे पहुंचता है; और चकाचौंध – प्रकाश जो अत्यधिक क्षेत्रों या वस्तुओं को रोशन करता है; शामिल है। रात में कृत्रिम प्रकाश के सभी स्रोत, जुगनू आबादी में गिरावट की क्षमता रखते हैं। दुर्भाग्य से इनके और अन्य प्रभावित कीट प्रजातियों के लिए, दुनिया भर में रात के आकाश की चमक की तीव्रता और सीमा में वृद्धि जारी है। सबूतों से पता चलता है कि, सड़क लाइट, निवास और अन्य स्रोतों से आने वाला कृत्रिम प्रकाश, फ़ायरफ़्लाइज़ के प्राकृतिक बायोलुमिनसेंस को अस्पष्ट कर सकता है। इससे साथियों एवं शिकारियों को खोजने की उनकी क्षमता पर प्रभाव पड़ता है।
•कीटनाशक का उपयोग-
अधिकांश जुगनू प्रजातियां, अपने जीवन के अधिकांश हिस्से, लार्वा के रूप में बिताती हैं। ये लार्वा, केंचुआ, स्लग, और घोंघे जैसे खाद्य स्रोतों पर निर्भर होते हैं। अतः कीटनाशक प्रभावों से, जुगनुओं के लिए नकारात्मक परिणाम होने की संभावना है। एक तरफ़, शाकनाशक में उनके आश्रय, चारा, शीतकालीन आश्रय और मिलन के लिए आवश्यक वनस्पति को समाप्त करके, जुगनू आबादी को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने की क्षमता है। लार्वा और उड़ान रहित वयस्क मादाएं, कीटनाशकों के लिए सबसे अधिक असुरक्षित हैं, क्योंकि वे अपेक्षाकृत स्थिर हैं, और उपचारित स्थलों से दूर रहने में असमर्थ हैं।
हम जुगनुओं का संरक्षण कैसे कर सकते हैं?
•अपने बगीचे में पानी की सुविधाएं स्थापित करें।
•लकड़ी को सड़ने दें। क्योंकि, जुगनू अपने जीवन का 95% काल, लार्वा चरणों में बिताते हैं। वे सड़ने वाली लकड़ी, मिट्टी या कीचड़ या पत्ती के कूड़े में भी रहते हैं।
•रात में अपने घर की रोशनी बंद कर दें। क्योंकि, जब वे मिलन करने की कोशिश करते हैं, तो रोशनी उन्हें भ्रमित कर सकती है।
•बाग में प्रयुक्त होने वाले रसायनों का उपयोग करने से बचें।
•बाग लगाएं! बाग जुगनुओं के लिए एक बेहतरीन घर हैं, और उनके खोए हुए निवास स्थान को बदलने में मदद करते हैं। इसलिए, अपनी बागों को ज़्यादा काटें भी नहीं।
•पत्तियों को फ़ेंके या जलाए नहीं, जिससे, जुगनू लार्वा बचे रहेंगे।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: रात में चमकता एक जुगुनू (Wikimedia)
लखनऊ, आज आनंद लेते हैं, 166 साल पुराने सिंगापुर बोटैनिकल गार्डन के दौरे का
बागवानी के पौधे (बागान)
Flowering Plants(Garden)
16-03-2025 09:04 AM
Lucknow-Hindi

हमारे प्रिय शहर वासियों, आपमें से अधिकांश लोगों ने कम से कम एक बार तो हमारे शहर में स्थित वानस्पतिक उद्यान या बोटैनिकल गार्डन (Botanical Garden) का दौरा अवश्य किया होगा। यह उद्यान, अपनी हरियाली और वनस्पतियों की विविधता के लिए बहुत मशहूर है। उद्यानों की बात करें, तो क्या आप जानते हैं कि सिंगापुर बोटैनिक गार्डन (Singapore Botanic Gardens), एक 166 साल पुराना एक उष्णकटिबंधीय (Tropical) उद्यान है? यह उद्यान, सिंगापुर के ऑर्चर्ड रोड शॉपिंग ज़िले (Orchard Road shopping district) में स्थित है। इस एकमात्र उष्णकटिबंधीय उद्यान को यूनेस्को (UNESCO) ने एक विश्व धरोहर स्थल (World Heritage Site) के रूप में सम्मानित किया है। इसके मुख्य उद्यान के भीतर मौजूद राष्ट्रीय ऑर्किड गार्डन (The National Orchid Garden), विभिन्न ऑर्किड प्रजातियों के अध्ययन के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। यहाँ अनेक संकर प्रजातियां उगाई जाती हैं, जिसकी वजह से यह उद्यान, इस प्रकार की प्रजातियों के उत्पादन में, सभी उद्यानों में सबसे आगे है। यहाँ की कई ऑर्किड प्रजातियां, दूसरे देशों में निर्यात की जाती है। भूमध्यरेखीय जलवायु के कारण, यहाँ 1,200 प्रजातियों और 2,000 संकरों का सबसे बड़ा ऑर्किड संग्रह मौजूद है। यह उद्यान, प्रतिदिन सुबह 5 बजे से रात 12 बजे तक खुला रहता है और राष्ट्रीय ऑर्किड उद्यान को छोड़कर अन्य उद्यानों में प्रवेश निःशुल्क है। सिंगापुर बोटैनिक गार्डन, ब्रिटिश उष्णकटिबंधीय औपनिवेशिक वनस्पति उद्यान (Tropical Colonial Botanical Garden) का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जो 19वीं शताब्दी से दक्षिण पूर्व एशिया (Southeast Asia) में पौधों पर किए जाने वाले अनुसंधान का केंद्र रहा है। 20वीं शताब्दी में इस उद्यान ने बागान रबर के उत्पादन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। तो आइए, आज हम, इन चलचित्रों के माध्यम से इस उद्यान की सुंदरता का आनंद लें। फिर हम, इन चलचित्रों के ज़रिए, हम इस उद्यान के विभिन्न बगीचों के बारे में विस्तार से जानेंगे। साथ ही, हम यह भी जानेंगे कि इस उद्यान को यूनेस्को का एक विश्व धरोहर स्थल क्यों माना जाता है। इसके अलावा, अन्य वीडियो क्लिप्स के ज़रिए, हम इन उद्यानों का पूरा दौरा भी करेंगे।
संदर्भ:
अपने अधिकारों और ज़िम्मेदारियों को समझकर मनाएं, इस विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस को
आधुनिक राज्य: 1947 से अब तक
Modern State: 1947 to Now
15-03-2025 09:14 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊवासियों, क्या आप जानते हैं कि उपभोक्ता अधिकारों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए, हर साल 15 मार्च को 'विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस' (World Consumer Rights Day) मनाया जाता है। यह दिन, उपभोक्ता अधिकारों को बढ़ावा देने, उनकी रक्षा करने और बाज़ार द्वारा उपभोक्ताओं के दुरुपयोग के विरुद्ध विरोध करने के रूप में मनाया जाता है। तो आइए, आज इस दिवस की शुरुआत, महत्व और उद्देश्यों के बारे में विस्तार से समझते हैं और देखते हैं कि इस दिन कौन सी गतिविधियाँ करके इसे मनाया जा सकता है। इसके साथ ही, हम भारत में विभिन्न उपभोक्ता अधिकारों पर प्रकाश डालेंगे। अंत में, हम एक उपभोक्ता के रूप में अपनी ज़िम्मेदारियों को समझने का प्रयास करेंगे।
विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस का परिचय:
15 मार्च को, दुनिया भर में हर साल मनाया जाने वाला 'विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस' वैश्विक बाज़ार में हमें हमारे उपभोक्ता अधिकारों के महत्व की याद दिलाने के लिए समर्पित है। यह दिन, वस्तुओं की मात्रा, गुणवत्ता और कीमत के संबंध में पारदर्शिता की आवश्यकता के साथ-साथ, उपभोक्ता अधिकारों की सुरक्षा के महत्व पर जोर देता है। 'विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस' उपभोक्ताओं को उनके अधिकारों और ज़िम्मेदारियों के बारे में शिक्षित और सशक्त बनाने के लिए एक मंच के रूप में कार्य करता है, साथ ही निष्पक्ष और नैतिक व्यापार नीति को भी प्रोत्साहित करता है।
विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस: इतिहास:
विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस की शुरुआत, 15 मार्च, 1962 से मानी जा सकती है, जब पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ़. कैनेडी (John F. Kennedy) ने अमेरिकी कांग्रेस में एक ऐतिहासिक भाषण में उपभोक्ता अधिकारों की समस्याओं को संबोधित किया था। तब पहली बार, किसी विश्व नेता ने वैश्विक मंच पर, उपभोक्ता अधिकारों के महत्व को औपचारिक रूप से स्वीकार किया था। हालांकि, 'विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस' की आधिकारिक शुरुआत 15 मार्च, 1983 को हुई, जब इसे संयुक्त राष्ट्र (United Nations) द्वारा मान्यता और समर्थन दिया गया, जिससे उपभोक्ता संरक्षण की समस्याओं की तरफ़ अंतर्राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित हुआ।
विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस का महत्व:
विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस, उपभोक्ताओं के अधिकारों के बारे में जागरूकता बढ़ाने और अनुचित प्रथाओं, भेदभाव और शोषण के विरुद्ध उनकी रक्षा करने के लिए महत्वपूर्ण है। यह उपभोक्ताओं को अपने अधिकारों के बारे में शिक्षित करने और शिकायतों के समाधान के लिए सक्रिय कदम उठाने के लिए प्रोत्साहित करता है। इस दिन के महत्व को निम्न बिंदुओं में समझा जा सकता है:
- आवश्यकता के लिए: 'विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस', लालची निगमों द्वारा की जाने वाली अनुचित व्यापार प्रथाओं और उपभोक्ता शोषण के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम है।
- सबके लिए: यह दिन, हर किसी के लिए एक उपभोक्ता के रूप में अपने अधिकारों के बारे में अधिक से अधिक जानने का दिन है।
- बदलाव के लिए: हम में से अधिकतर लोग, अपने उपभोक्ता अधिकारों को लेकर निष्क्रिय रहते हैं। अतः इस दिन के रूप में एक दिन निश्चित किया गया है जब हर कोई इन अधिकारों के बारे में कार्य करने और ज्ञान बढ़ाने के लिए मिलकर काम करे।
विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस कैसे मनायें:
- उपभोक्ता अधिकार कार्यक्रमों में शामिल हों: उपभोक्ता, अधिकार कार्यक्रमों में भाग लेकर आप अपने अधिकारों और कंज़्यूमर्स' इंटरनेशनल' (Consumers International), जो उपभोक्ता संगठनों के लिए वैश्विक सदस्यता संगठन है, के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
- दूसरों को उनके उपभोक्ता अधिकारों के बारे में शिक्षित करें: आप अपने दोस्तों, परिवार और सहकर्मियों को उपभोक्ता के रूप में उनके अधिकारों के बारे में बताकर इस दिन को मना सकते हैं।
- अपनी उपभोक्ता अधिकारों की कहानी साझा करें: लोगों को उस समय के बारे में बताएं, जब आपके उपभोक्ता अधिकारों का उल्लंघन हुआ था और आपने स्थिति को हल करने के लिए क्या किया था? आपकी कहानी दूसरों को अपने अधिकारों के लिए खड़े होने के लिए प्रेरित कर सकती है।
भारत में विभिन्न उपभोक्ता अधिकार:
भारत में किसी व्यक्ति के मौलिक उपभोक्ता अधिकार निम्नलिखित हैं:
- सुरक्षा का अधिकार: सुरक्षा का अधिकार, उपभोक्ताओं को उन उत्पादों, वस्तुओं या सेवाओं के विपणन से बचाता है जो संपत्ति और जीवन के लिए खतरनाक हैं। बिजली के उपकरण, गैस सिलेंडर आदि जैसी वस्तुओं में विनिर्माण दोष से उपभोक्ता के स्वास्थ्य, जीवन और संपत्ति को नुकसान हो सकता है। सुरक्षा का अधिकार, उपभोक्ताओं को खरीदने से पहले सामान की गारंटी और गुणवत्ता पर जोर देने का अधिकार देता है। उन्हें एगमार्क (Agmark) या आई एस आई-अनुमोदित (ISI Approved) वस्तु या उत्पाद चुनना चाहिए।
- सूचित होने का अधिकार: उपभोक्ता, उत्पादों के संबंध में सभी आवश्यक विवरण प्राप्त करने पर जोर दे सकता है और खुद को कदाचार से बचा सकता है।
- चुनने का अधिकार: सूचित होने का अधिकार ग्राहकों को अनुचित व्यापार प्रथाओं से बचाने के लिए उत्पादों, वस्तुओं या सेवाओं की मात्रा, गुणवत्ता, मानक, शुद्धता, क्षमता और कीमत के बारे में सूचित करने के बारे में है। विक्रेताओं या निर्माताओं को खरीदारों या उपभोक्ताओं को सभी आवश्यक उत्पाद विवरण प्रदान करना चाहिए ताकि वे सामान खरीदते समय समझदारी से कार्य कर सकें। बाज़ार में उचित मूल्य पर उपलब्ध विभिन्न प्रकार के उत्पादों तक पहुंच प्राप्त करना उपभोक्ता का अधिकार है।
- सुनवाई का अधिकार: सुनवाई का अधिकार, यह आश्वासन देता है कि उपभोक्ता के हितों को उचित मंच पर सुना जाएगा और उन पर विचार किया जाएगा। विक्रेता द्वारा अनुचित व्यापार प्रथाओं के मामले में उपभोक्ता उचित मंचों पर शिकायत दर्ज कर सकते हैं।
- निवारण पाने का अधिकार: उपभोक्ता को शोषण के मामले में निवारण का दावा करने और उचित समाधान की मांग करने का अधिकार है। वे विभिन्न उपभोक्ता संगठनों के सहयोग से भी अपनी समस्याओं का निवारण पा सकते हैं। उपभोक्ता की समस्याओं के अनुसार, मुआवज़े के रूप में पैसा, खराब सामान की मरम्मत या सामान का प्रतिस्थापन प्राप्त कर सकते हैं।
- उपभोक्ता शिक्षा का अधिकार: अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होना उपभोक्ता की ज़िम्मेदारी भी है और इसलिए उपभोक्ता शिक्षा के अधिकार का अर्थ एक सूचित उपभोक्ता होने के लिए आवश्यक प्रासंगिक कौशल और ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार है।
उपभोक्ता की ज़िम्मेदारियां:
- जागरूक रहने की ज़िम्मेदारी: उपभोक्ताओं को उत्पादों और सेवाओं को खरीदने से पहले उनकी सुरक्षा और गुणवत्ता के प्रति सचेत रहना चाहिए। उन्हें विक्रेता पर आंख मूंदकर भरोसा नहीं करना चाहिए और उत्पाद की कीमत, गुणवत्ता, मानक आदि की जानकारी अवश्य लेनी चाहिए।
- स्वतंत्र रूप से सोचने की ज़िम्मेदारी: उपभोक्ताओं को स्वतंत्र विकल्प चुनने और विक्रेताओं के प्रभाव में उत्पाद खरीदने से बचना चाहिए। उन्हें समझदारी से चुनाव करना चाहिए और किसी उत्पाद या सेवा की गुणवत्ता या मानक पर समझौता नहीं करना चाहिए।
- शिकायत करने की ज़िम्मेदारी: उपभोक्ताओं को अपनी शिकायतें व्यक्त करनी चाहिए और दूषित या घटिया उत्पादों के खिलाफ़ शिकायत दर्ज़ करनी चाहिए, भले ही नुकसान छोटा हो। जब उपभोक्ता, अपने नुकसान के खिलाफ़ नहीं बोलते और शिकायत दर्ज़ नहीं करते हैं, तो इससे व्यापारी अनुचित व्यापार प्रथाओं को अपनाने और दोषपूर्ण वस्तुओं की आपूर्ति करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं।
- एक नैतिक उपभोक्ता होने की ज़िम्मेदारी: उपभोक्ताओं को नैतिक और निष्पक्ष होना चाहिए और व्यक्तिगत कारणों से डीलरों या निर्माताओं के खिलाफ़ धोखाधड़ी की शिकायत दर्ज़ नहीं करनी चाहिए। उन्हें भ्रामक गतिविधियों में शामिल नहीं होना चाहिए। उन्हें किसी भी अवैध व्यापार, जमाखोरी, कलाबाज़ारी आदि को हतोत्साहित करना चाहिए।
- गुणवत्ता के प्रति जागरूक रहने की जिम्मेदारी: नकली, मिलावटी और घटिया उत्पादों की समस्या तब हल हो सकती है जब उपभोक्ता वस्तुओं की गुणवत्ता से समझौता करना बंद कर दें। इस प्रकार, उपभोक्ताओं को उत्पाद की गुणवत्ता के बारे में जागरूक होना चाहिए और एगमार्क, आई एस आई मार्क आदि वाले उत्पादों को खरीदना चाहिए।
संदर्भ:
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सिंथेटिक रंगों का प्रयोग, कहीं आपकी होली की रौनक को फीका न कर दे !
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
14-03-2025 09:26 AM
Lucknow-Hindi

पीला, लाल, हरा, गुलाबी,
रंगों से भर गई हर गलियारी।
बच्चे, बूढ़े सब झूमें-गाएं
मस्ती में होली को मनाएं ।
होली को 'रंगों का त्योहार' भी कहा जाता है! रंगों के बिना इस त्योहार की कल्पना करना भी मुश्किल है।लेकिन, ध्यान देने वाली बात यह है कि हमारे द्वारा प्रयोग किए जाने वाले ज़्यादातर रंग सिंथेटिक होते हैं, जो सेहत के लिए हानिकारक हो सकते हैं।इसलिए, आज के इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि, होली के सिंथेटिक रंगों का हमारी सेहत पर कैसा असर पड़ता है।इसके अलावा, हम यह भी जानेंगे कि होली खेलने से हमारे पर्यावरण पर क्या असर पड़ता है।लेकिन केवल खामियों पर ध्यान केंद्रित नहीं करते हुए हम यह भी जानेंगे कि हम होली को कैसे सुरक्षित और पर्यावरण के अनुकूल बना सकते हैं? आखिर में हम यह भी जानेंगे कि हानिकारक रंगों से बचने के लिए होली खेलने से पहले अपनी त्वचा की देखभाल कैसे करें।
चलिए शुरुआत ये समझने के साथ करते हैं कि होली के रंगों का हमारे स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है?
होली के रंगों में मौजूद रासायनिक तत्व, हमारे स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव डाल सकते हैं।रंग हमारी त्वचा, आँखों, श्वसन तंत्र और संपूर्ण शरीर पर नकारात्मक असर डाल सकते हैं।
नीचे कुछ मुख्य समस्याओं को विस्तार से समझाया गया है।
1. त्वचा में जलन और एलर्जी: रासायनिक रंगों के संपर्क में आने से त्वचा में जलन, खुजली और लालिमाहो सकती है। संवेदनशील त्वचा वाले लोगों को यह समस्या अधिक होती है।कुछ मामलों में एलर्जी और रैशेज़ भी विकसित हो सकते हैं, जिससे असहज महसूस होता है।
2. आँखों में जलन: अगर रंग सीधे आँखों में चला जाए, तो आखों में जलन, लालिमा और सूजन हो सकतीहै। कुछ मामलों में अस्थायी रूप से देखने में परेशानी भी हो सकती है।गर्भवती महिलाओं के लिए यह समस्या अधिक गंभीर हो सकती है, क्योंकि उनके शरीर में हो रहे हार्मोनल बदलाव आँखों को अधिक संवेदनशील बना सकते हैं।
3. कैंसर का खतरा: होली के कई रंगों में सीसा, क्रोमियम और अन्य हानिकारक रसायन होते हैं, जो कैंसर पैदा करने वाले (कार्सिनोजेनिक (carcinogenic)) हो सकते हैं।लंबे समय तक इन रसायनों के संपर्क में रहने से कैंसर का ख़तरा बढ़ सकता है।
4. श्वसन संबंधी समस्याएँ: होली के दौरान रंगों के बारीक कण हवा में घुलकर साँस लेने में दिक्कत पैदा कर सकते हैं।इससे खाँसी, छींक आना, और अस्थमा जैसी श्वसन समस्याएँ हो सकती हैं।इस दौरान, गर्भवती महिलाओं को विशेष रूप से सावधान रहने की ज़रूरत होती है, क्योंकि गर्भावस्था केदौरान, उनकी श्वसन प्रणाली अधिक संवेदनशील हो सकती है।
5. विषाक्तता (ज़हर का असर): कई रंगों में सीसा, पारा, क्रोमियम और अमोनिया जैसे ज़हरीले तत्व होते हैं।ये तत्व त्वचा के ज़रिए शरीर में प्रवेश कर सकते हैं और गंभीर स्वास्थ्य समस्याएँ पैदा कर सकते हैं।गर्भवती महिलाओं और उनके गर्भ में पल रहे शिशु के लिए यह विशेष रूप से खतरनाक हो सकता है।इन विषाक्त पदार्थों के कारण गर्भावस्था में विकास संबंधी समस्याएँ और अन्य जटिलताएँ हो सकती हैं।
हमारी सेहत के साथ-साथ होली के रंगों का हमारे पर्यावरण की सेहत पर भी गहरा असर होता है! होली के रंगों को बनाने में इस्तेमाल होने वाले रसायन पर्यावरण के लिए बेहद हानिकारक साबित होते हैं।इन रंगों का बड़ा हिस्सा नदियों, झीलों और अन्य जल स्रोतों में बह जाता है।इससे पानी की संरचना और रंग बदल जाता है, जिससे जल निकायों का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता है।इसके अलावा, ये रसायन पानी में मिलकर जलीय पारिस्थितिकी तंत्र को भी प्रभावित करते हैं।
मिट्टी और जल प्रदूषण का जैव विविधता पर गहरा असर पड़ता है। ऐसे पौधे और जानवर, जो इन संसाधनों पर निर्भर रहते हैं, वे ज़हरीले पदार्थों के संपर्क में आ जाते हैं। इससे उनके जीवन चक्र में बाधा उत्पन्न हो सकती है, प्रजनन क्षमता घट सकती है और कभी-कभी मृत्यु भी हो सकती है। पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन बिगड़ने से कुछ प्रजातियाँ विलुप्त हो सकती हैं, जिससे जैव विविधता को गंभीर नुकसान पहुँचता है।
होली, रंगों और खुशियों का त्योहार है, इसलिए इसे मनाने के दौरान पर्यावरण और स्वास्थ्य का ध्यान रखना भी ज़रूरी है।
नीचे कुछ सरल और प्रभावी तरीके दिए गए हैं, जिनसे आप होली को सुरक्षित और प्रकृति के अनुकूल बना सकते हैं।
1. पर्यावरण के अनुकूल रंग चुनें: होली खेलने के लिए, प्राकृतिक और जैविक रंगों का इस्तेमाल करें। ये रंग पौधों, फूलों और जड़ी-बूटियों से बनाए जाते हैं, जिससे पर्यावरण को नुकसान नहीं होता। हल्दी से पीला, चुकंदर से लाल और पालक से हरा रंग आसानी से बनाया जा सकता है। ये न केवल त्वचा के लिए सुरक्षित हैं, बल्कि पर्यावरण पर भी सकारात्मक प्रभाव डालते हैं।
2. घर पर ही प्राकृतिक रंग बनाएं: आप अपने खुद के होली के रंग बनाकर इस त्योहार को और खास बना सकते हैं। मेंहदी, बेसन, चंदन पाउडर और प्राकृतिक खाद्य रंगों का उपयोग करके, सुंदर और सुरक्षित रंग बनाए जा सकते हैं। परिवार और दोस्तों को इस प्रक्रिया में शामिल करें ताकि होली की तैयारी भी एक मज़ेदार अनुभव बन जाए। इस तरीके से बाजार में मिलने वाले रासायनिक रंगों से बचाव भी होगा और पर्यावरण की सुरक्षा भी सुनिश्चित होगी।
3. जल संरक्षण का ध्यान रखें: होली खेलते समय, पानी की बर्बादी से बचें। सूखी होली मनाने या पानी का सीमित और समझदारी से उपयोग करने की कोशिश करें। यदि पानी का उपयोग किया जाए, तो उसे बर्बाद न होने दें। जल संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए पानी के उपयोग के लिए एक सीमा तय करें और अन्य लोगों को भी इसका पालन करने के लिए प्रेरित करें।
4. होली के बाद सफ़ाई को प्राथमिकता दें: त्योहार के बाद जगह-जगह बचे हुए रंगों को जिम्मेदारी से साफ करें। रंगों को नालियों या जल स्रोतों में बहाने से बचें, क्योंकि इससे जलजीवों और पर्यावरण को नुकसान हो सकता है। त्वचा और कपड़ों से रंग हटाने के लिए नींबू, बेसन और दही जैसे प्राकृतिक उपाय अपनाएं। सामूहिक सफ़ाई अभियान का आयोजन करें और अपने आस-पास के इलाकों को साफ-सुथरा रखने का प्रयास करें।
5. पौधों से बने रंगों को अपनाएं: होली के दौरान पौधे आधारित रंगों का उपयोग करना पर्यावरण के अनुकूल तरीका है। फूलों और पत्तियों से तैयार किए गए ये रंग न केवल जैविक होते हैं बल्कि आसानी से मिट्टी में भी घुल जाते हैं। होली से पहले एक कार्यशाला आयोजित करें, जहां लोग प्राकृतिक रंग बनाने की विधि सीखें। इस तरह, पारंपरिक तरीकों को बढ़ावा दिया जा सकता है और पर्यावरण की रक्षा की जा सकती है।
आइए, अब जानते हैं कि होली के सिंथेटिक रंगों से होने वाले नुक़सान से अपनी त्वचा को कैसे बचाएं?
- होली के रंगों से अपनी त्वचा और बालों को सुरक्षित रखना ज़रूरी है। रंगों के असर से बचने के लिए कुछ आसान उपाय अपनाए जा सकते हैं।
- हर्बल रंगों का करें इस्तेमाल: होली खेलने के लिए हर्बल या प्राकृतिक रंगों का ही चुनाव करें। गहरे और रासायनिक रंग आपकी त्वचा को नुकसान पहुंचा सकते हैं।
- कॉन्टैक्ट लेंस पहनने से बचें: होली खेलते समय, कॉन्टैक्ट लेंस न पहनें। रंग अगर आंखों में चला जाए तो जलन और संक्रमण हो सकता है। आंखों की सुरक्षा के लिए धूप का चश्मा पहनना एक अच्छा विकल्प है।
- शरीर को ढककर रखें: पूरी बाज़ू के कपड़े और पूरी लंबाई का बॉटम पहनें। इससे त्वचा रंगों के सीधे संपर्क में आने से बचेगी और कम नुकसान होगा।
- बालों में तेल लगाएं: बालों और स्कैल्प पर अच्छी मात्रा में तेल लगाएं। जड़ों तक तेल की मालिश करें, जिससे रंग आसानी से छूट जाएं। इससे बाल रूखे और कमजोर होने से बचेंगे।
- त्वचा पर तेल या मॉइस्चराइज़र लगाएं: पूरे शरीर पर नारियल तेल, सरसों का तेल या क्रीमी मॉइस्चराइज़र (creamy moisturizer) लगाएं। यह त्वचा के छिद्रों को बंद कर देता है, जिससे रंग त्वचा में गहराई तक नहीं जाता।
- बालों को बांधें या ढकें: बालों को चोटी या बन में बांध लें ताकि रंग सिर की त्वचा तक न पहुंचे। आप सिर पर स्कार्फ़ भी पहन सकती हैं।
- होंठों और कानों की सुरक्षा: होंठों और कानों के अंदरूनी हिस्से पर पेट्रोलियम जेली (petroleum jelly) लगाएं। इससे ये नमी बरकरार रखते हैं और रंग इन जगहों पर जमता नहीं।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/ysbb7se8
मुख्य चित्र का स्रोत : Wikimedia
लखनऊ के परिदृश्य से भिन्न,आज प्रस्तुत है नज़ारा, भारतीय समुद्री तट के लाइटहाउस टूरिज़म का
समुद्र
Oceans
13-03-2025 09:25 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ के कई लोगों के लिए ‘लाइटहाउस पर्यटन’ (Lighthouse Tourism), एक नया शब्द हो सकता है।इसका मतलब है लाइटहाउस और उसके आसपास के इलाकों को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करना। लाइटहाउस आमतौर पर समुद्र या द्वीपों के पास होते हैं और इन जगहों पर इतिहास, रोमांच और प्राकृतिक सुंदरता का अनोखा मेल देखने को मिलता है।
दिलचस्प बात यह है कि 2014 में जहां भारत के लाइटहाउसों में सिर्फ़ 4 लाख पर्यटक जाते थे, 2024 तक यह संख्या बढ़कर 16 लाख हो गई! यानी लाइटहाउस टूरिज़म में 400% की बढ़ोतरी हुई। तो चलिए, आज जानते हैं कि यह टूरिज़म क्यों खास है, भारत में इसे बढ़ावा देने से क्या फायदे हैं, और कौन-कौन से लाइटहाउस सबसे ज़्यादा मशहूर हैं!
लाइटहाउस टूरिज़म क्या है ?
लाइटहाउस टूरिज़म का मतलब है लाइटहाउस और उनके आस-पास के इलाकों को पर्यटकों के लिए आकर्षक बनाना। ये लाइटहाउस, अक्सर समुद्र के किनारे या द्वीपों पर होते हैं, जहां सुंदर नज़ारे, समुद्री इतिहास और मस्ती करने के मौके मिलते हैं। हमारी सरकार लाइटहाउस टूरिज़म को बढ़ावा दे रही है, ताकि हम अपनी सांस्कृतिक और समुद्री धरोहर को बचा सकें। इसके लिए “मैरीटाइम इंडिया विज़न 2030” (Maritime India Vision 2030) और “अमृत काल विज़न 2047” (Amrit Kaal Vision 2047) जैसी योजनाएं बनाई गई हैं। इन योजनाओं का मकसद, भारत के पर्यटन को बढ़ावा देना, रोज़गार के मौके बनाना और स्थानीय अर्थव्यवस्था को मज़बूत करना है।

भारत में लाइटहाउस टूरिज़म को बढ़ावा देने के क्या फायदे हैं ?
1. सांस्कृतिक धरोहर: लाइटहाउस का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व होता है, जिससे यह शिक्षा का एक बेहतरीन स्रोत बन सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, भारत का पहला लाइटहाउस महोत्सव, “भारतीय प्रकाश स्तंभ उत्सव”, जो गोवा के फ़ोर्ट अगुआडा (Fort Aguada) में हुआ था, भारत की समुद्री धरोहर को मनाता है। इससे हमें ऐतिहासिक लाइटहाउसों के बारे में जानने का मौका मिलता है, जिन्हें पहले ज़्यादा नहीं जाना जाता था। “मरीन एड्स टु नेविगेशन एक्ट 2021” (Marine Aids to Navigation Act, 2021) के तहत, कुछ लाइटहाउसों को धरोहर स्थल के रूप में रखा जा सकता है, ताकि वे न केवल मार्गनिर्देशन के लिए, बल्कि सांस्कृतिक और शैक्षिक उद्देश्यों के लिए भी उपयोग किए जाएं। इनका का दौरा करने से हमें व्यापार, विजय और यात्रा में उनकी भूमिका को समझने का मौका मिलता है।
2. आर्थिक विकास: लाइटहाउस और लाइटशिप्स के महानिदेशालय ने भारत में 75 लाइटहाउसों की पहचान की है, जिनमें पर्यटन विकास के लिए निवेश किया जा सकता है। इससे आसपास के क्षेत्रों को आर्थिक लाभ हो सकता है। इस योजना के तहत, सार्वजनिक-निजी साझेदारी (PPP) के माध्यम से निवेश को बढ़ावा दिया जाएगा, ताकि निजी संस्थाएं, इन लाइटहाउसों को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित कर सकें। इससे समुद्र तटीय क्षेत्रों में स्थानीय व्यापारियों, रेस्तरां और सेवा प्रदाताओं को भी फ़ायदा होगा।
3. पर्यावरणीय जागरूकता: धरोहर लाइटहाउसों (Heritage lighthouses) पर ध्यान केंद्रित करने से पर्यावरण के अनुकूल पर्यटन प्रथाओं को बढ़ावा मिलता है, जो समुद्र तटीय पर्यावरण की सुरक्षा करते हुए पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। इस पहल का उद्देश्य, लाइटहाउसों को एक बहुआयामी पर्यटन स्थल के रूप में बदलना है, जहां पारंपरिक समुद्र तट पर्यटन से अधिक अनुभव मिल सकें।
भारत में लाइटहाउस टूरिज़म को बढ़ावा देने के लिए हाल में शुरू की गईं की पहलें इस क्षेत्र में आया विकास:
1.) फ़रवरी 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 10 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में आधुनिक पर्यटक सुविधाओं वाले 75 लाइटहाउसों का उद्घाटन किया।
2.) ₹60 करोड़ के निवेश से इन लाइटहाउसों में अब संग्रहालय, एम्फ़ीथियेटर, बच्चों के पार्क जैसी सुविधाएं उपलब्ध हैं।
3.) वित्तीय वर्ष 2023-24 में इन लाइटहाउसों ने 16 लाख पर्यटकों को आकर्षित किया, जो 2014 में 4 लाख के मुकाबले 400% की वृद्धि है।
4.) भारतीय लाइटहाउस महोत्सव श्रृंखला: 2023 में “भारतीय प्रकाश स्तंभ उत्सव” के रूप में लॉन्च किया गया।
- पहला महोत्सव: 23 सितंबर 2023 को गोवा के फ़ोर्ट अगुआडा में, केंद्रीय मंत्री और गोवा मुख्यमंत्री द्वारा उद्घाटन।
- दूसरा महोत्सव: ओडिशा में, जहां चॉमुक और धामरा में दो नए लाइटहाउसों का उद्घाटन हुआ।
5.) हितधारक बैठकें: जुलाई 2024 में केरल बैठक में लाइटहाउसों को पर्यटन केंद्रों के रूप में बढ़ावा देने के लिए रणनीतियों पर चर्चा की गई। सागरमाला कार्यक्रम (Sagar Mala project) के तहत, निजी हितधारकों के साथ साझेदारी से अंतर्राष्ट्रीय मानकों और स्थिरता सुनिश्चित की जाएगी।
भारत में पर्यटकों के बीच सबसे प्रसिद्ध लाइटहाउस:
1.) महाबलीपुरम लाइटहाउस, तमिलनाडु (Mahabalipuram Light House, Tamil Nadu): यह लाइटहाउस, 1887 में एक चट्टान पर बनाया गया था और 1904 में पूरी तरह से चालू हुआ। इसकी घुमावदार सीढ़ियों से ऊपर चढ़कर महाबलीपुरम का खूबसूरत दृश्य देखा जा सकता है।
2.) तांगासेरी लाइटहाउस, केरल (Thangassery Light House, Kerala): 1902 से कार्यरत, यह लाल और धारीदार लाइटहाउस केरल का सबसे ऊंचा लाइटहाउस है। ऊंची सीढ़ियों पर चढ़ने के बाद अरब सागर, कोल्लम शहर और आश्तामुदी झील का शानदार दृश्य देखा जा सकता है। जो लोग सीढ़ियां नहीं चढ़ सकते, वे लिफ्ट का इस्तेमाल कर सकते हैं।
3.) बेतुल लाइटहाउस, गोवा (Betul Lighthouse, Goa) : यह एक शांतिपूर्ण लाइटहाउस है, जो पर्यटकों के शोर-गुल से दूर एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। यहां से आसपास की हरियाली और अरब सागर व सह्याद्री पहाड़ियों का अद्भुत दृश्य देखा जा सकता है।
4.) पुराना लाइटहाउस, तमिलनाडु (Old Light House, Tamil Nadu): यह लाइटहाउस, 19वीं शताब्दी में फ़्रांसीसी
शासकों द्वारा बनाया गया था। हालांकि, 20वीं शताब्दी में भारत सरकार ने इसके पास नया लाइटहाउस बनवाया। पुराना लाइटहाउस, अपने फ़्रांसीसी अतीत को दर्शाता है और इतिहास प्रेमियों को बहुत आकर्षित करता है।
5.) कॉप लाइटहाउस, कर्नाटका (Kaup Light House, Karnataka): 1901 में बनाया गया यह लाइटहाउस, कौप बीच (Kaup Beach) का मुख्य आकर्षण है। काले और सफ़ेद रंग का यह लाइटहाउस, पर्यटकों के लिए शाम 5 बजे से 6 :30 तक तक खुला रहता है और सूर्यास्त देखने के लिए यह एक बेहतरीन स्थान है।
6.) वैंगुर्ला प्वाइंट लाइटहाउस, महाराष्ट्र (Vengurla Lighthouse, Maharashtra): यह लाइटहाउस, एक पहाड़ी के किनारे स्थित है और हरियाली से घिरा हुआ है। यहां से समुद्र का शानदार दृश्य देखा जा सकता है। इस लाइटहाउस तक पहुंचने के लिए एक कठिन चढ़ाई करनी होती है और अंदर की सीढ़ियों से ऊपर चढ़कर आप इसके शिखर तक पहुंच सकते हैं। पास में एक सरकारी गेस्ट हाउस भी है, जहां रुकने की व्यवस्था है।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: महाबलीपुरम लाइटहाउस, तमिलनाडु : Wikimedia
संस्कृति 1997
प्रकृति 684