लखनऊ - नवाबों का शहर












अगर आप उगाना चाहते हैं खूबसूरत गुलाब, तो इन ज़रूरी बातों का रखें ध्यान !
बागवानी के पौधे (बागान)
Flowering Plants(Garden)
01-04-2025 09:41 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ के नागरिकों, यह एक तथ्य है कि हममें से हर कोई गुलाब देखते ही आकर्षित हो जाता है, क्योंकि गुलाब केवल एक खूबसूरत फूल ही नहीं हैं, बल्कि इनका सांस्कृतिक, सजावटी और यहां तक कि औषधीय महत्व भी है। भारत में गुलाब की कई किस्में पाई जाती हैं, जिनमें से प्रत्येक को अपनी अनूठी खुशबू और जीवंत रंगों के लिए जाना जाता है। गुलाब का उपयोग इत्र, गुलाब जल, यहां तक कि पारंपरिक मिठाइयां बनाने में भी किया जाता है। तो आइए, आज भारत में गुलाब के उत्पादन के बारे में समझते हुए शीर्ष गुलाब उत्पादक राज्यों के बारे में जानते हैं। इसके साथ ही, हम वैश्विक फूलों के बाज़ार में भारत से गुलाब के निर्यात के आंकड़ों को समझेंगे। हम भारत में पाए जाने वाली देशी और संकर गुलाब की विविध प्रजातियों पर भी प्रकाश डालेंगे। अंत में, हम भारत में गुलाब उगाने के बारे में आवश्यक सुझाव साझा करेंगे।
भारत में गुलाब उत्पादन:
2020-21 में, भारत में गुलाब का अनुमानित उत्पादन लगभग 465.98 हज़ार टन था। भारत में कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, गुजरात और तमिलनाडु गुलाब उत्पादन के शीर्ष पांच राज्य हैं। 'राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड' द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार, 2021-22 में शीर्ष पांच राज्यों में कुल उत्पादन नीचे दी गई तालिका में सूचीबद्ध है:
राज्य | उत्पादन (हज़ार टन) |
कर्नाटक | 171.88 |
पश्चिम बंगाल | 65.92 |
उत्तर प्रदेश | 63.23 |
गुजरात | 38.76 |
तमिलनाडु | 33.89 |
भारत से गुलाब का निर्यात:
नवंबर 2023 में, भारत से लगभग 22 करोड़ रुपए मूल्य के गुलाब का निर्यात किया गया, और 2024 में इसके 65 करोड़ रुपए से अधिक होने की उम्मीद है। हालांकि, भारत से ऑस्ट्रेलिया और जापान में गुलाब के फूलों के निर्यात में गिरावट आई है, लेकिन सिंगापुर, न्यूजीलैंड और मलेशिया में इनके निर्यात में बढ़ोतरी दर्ज़ की गई हैं।
भारत में पाए जाने वाली गुलाब की प्रजातियां:
- हाइब्रिड टी गुलाब (Hybrid Tea rose): यह गुलाब की सबसे लोकप्रिय किस्मों में से एक है। इसके फूलों में 30-50 पंखुड़ियाँ होती हैं। इसे सुंदर एवं शानदार कटे फूल और गुलदस्ते बनाने में उपयोग किया जाता है।। यह गहरी सुगंध और सूक्ष्म आकर्षण वाली दोहरे फूलों वाली किस्म है। डबल डिलाइट, इवनिंग स्टार, दिल-की-रानी, हैप्पीनेस, गोल्डन जॉइंट, लव, डिस्को, किस ऑफ फायर, सी पर्ल और पैराडाइज हाइब्रिड टी गुलाब की किस्मों में से कुछ नाम हैं।
- पोलिएंथस गुलाब (Polyanthas Rose): इस गुलाब को कम रखरखाव की आवश्यकता होती है और यह रोगों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता रखता है। जब आप इसे बाड़ों के किनारे या गमलों की कतार में उगाते हैं, तो यह एक आकर्षक दृश्य प्रदान करता है। इसके लाल, गुलाबी और सफ़ेद रंग के फूल आपके बगीचे में एक परी-कथा जैसा दृश्य बनाते हैं। स्नीज़ी, रश्मि, पिंक स्प्रे, और फ़ेयरी रोज़ इसकी किस्मों के कुछ नाम हैं।
- फ्लोरिबंडा गुलाब Floribunda Rose): यह गुलाब पोलिएंथस और हाइब्रिड टी गुलाब का मिश्रण है। इसके पौधे पर पीले, सफ़ेद, गुलाबी, बैंगनी और नारंगी रंग के सुंदर बड़े फूलों के घने गुच्छे होते हैं। महक, कुसुम, प्रेमा, राजमणि, सिंदूर, चंद्रमा, गोल्डन, किरणें, समर स्नो, फ्लोरिबुंडा गुलाब की प्रसिद्ध किस्में हैं।
- ग्रैंडिफ़्लोरा गुलाब (Grandiflora Rose): यह गुलाब फ्लोरिबुंडा और हाइब्रिड टी गुलाब का मिश्रण है। इसके पौधे पर एक ही तने पर फूलों का एक गुच्छा आता है। इस गुलाब की खासियत इसकी पीली, नारंगी, लाल, गुलाबी और बैंगनी रंग की मनमोहक छटा है। अर्थ सॉन्ग और पिंक परफ़ेट ग्रैंडिफ़्लोरा गुलाब के दो उदाहरण हैं।
- लैंडस्केप गुलाब (Landscape Rose): यह गुलाब साल भर बढ़ता है और इनमें फैलने की प्रवृत्ति होती है, जिससेयह किसी भी बगीचे में खाली स्थान भरने के लिए एक बेहतरीन विकल्प हैं। गुलाब की इस किस्म को कम रखरखाव की आवश्यकता होती है। फ़्लावर कार्पेट कोरल और फ़्लावर कार्पेट स्कारलेट इस गुलाब के दो उदाहरण हैं।
- झाड़ीदार गुलाब (Shrub Rose): यह गुलाब पारंपरिक और आधुनिक गुलाब की विशेषताएं प्रदर्शित करता है। इसके फूलों में दोहरी पंखुड़ियाँ होती हैं, जो एक-दूसरे से सटी होती हैं। हरे और नीले रंग को छोड़कर, ये गुलाब इंद्रधनुष के अन्य सभी में पाए जाते हैं। आइसबर्ग और बीच झाड़ीदार गुलाब के दो उदाहरण हैं।
- बॉरबॉन रोज़ (Bourbon Rose): यह गुलाब पुराने ब्लश चाइना गुलाब और डैमस्क गुलाब का मिश्रण है। भारत में यह गुलाब हल्दीघाटी और पुस्कर क्षेत्र में उगाया जाता है। इस किस्म का उपयोग इसकी सुखद सुगंध के कारण गुलाब के तेल का उत्पादन करने के लिए किया जाता है। इसके फूल बर्फ़ के समान सफ़ेद या गहरे गुलाबी रंग के हो सकते हैं। गुलकंद बनाने में भी इसका उपयोग किया जाता है। ज़ेफिरिन ड्रोहिन बोरबॉन गुलाब का एक उदाहरण है।
- दमिश्क गुलाब (Damask Rose): यह गुलाब रोज़ा मोस्काटा और रोज़ा गैलिका का मिश्रण है। इस किस्म में गहरे गुलाबी से लेकर हल्के गुलाबी रंग तक के फूल होते हैं। भारत में, इसका उपयोग इत्र बनाने के लिए किया जाता है। इसकी पंखुड़ियाँ खाने योग्य होती हैं और इनका उपयोग हर्बल चाय बनाने, व्यंजनों को स्वादिष्ट बनाने या गुलकंद तैयार करने में किया जाता है। नूरजहाँ, हिम ज्वाला, और हिम हिमरोज़ दमिश्क गुलाब के उदाहरण हैं।
- कश्मीरी गुलाब (Kashmiri Rose): इस गुलाब में हल्की खुशबू और आकर्षक चमकीले लाल फूल होते हैं। यह किस्म हाइब्रिड टी से मिलती जुलती है। इसके फूलों की पंखुड़ियाँ छूने में मखमली मुलायम होती हैं।
गुलाब उगाने के लिए आवश्यक सुझाव:
गुलाब उगाने के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए:
- गुलाब के लिए खुली धूप वाली जगह की आवश्यकता होती है। हालाँकि, गर्मियों में, आंशिक छाया उपयुक्त हो सकती है।
- यदि गुलाब को गमलों में उगाया जाता है, तो उसे 12-16 इंच चौड़े गमले की आवश्यकता होगी। गुलाब के पौधे से हर साल पुरानी और मृत जड़ों को हटाने के बाद दोबारा गमले में लगाना अच्छा होता है।
- गुलाब को अच्छी, उपजाऊ, नमी बनाए रखने की क्षमता वाली और अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी में लगाया जाना चाहिए। मिट्टी के मिश्रण में 1 भाग फ़ार्म यार्ड खाद (Farmyard Manure) और 1 भाग जैव-खाद भी मिलाना चाहिए।
- भारत में गुलाब की विभिन्न किस्मों को तने या बीज बोने के बजाय ग्राफ्टिंग (grafting) और बडिंग विधि से उगाया जाता है। आई बडिंग (टी-आकार की बडिंग) (Eye budding (T-shaped budding)) विभिन्न गुलाब संकरों को उगाने के लिए सबसे आम विधि है।
- गुलाब अन्य रंगों या पौधों के साथ स्वतंत्र रूप से मिश्रित नहीं होता है। इसलिए, गुलाब को अन्य फूलों वाले पौधों से दूर एक विशेष क्षेत्र में अलग से उगाया जाता है।
- गमले में लगे गुलाबों को गर्मियों में एक दिन छोड़कर या हर दिन भी पानी दिया जा सकता है।
- गुलाब जलभराव के प्रति संवेदनशील होते हैं। यदि गमलों में उचित जल निकासी नहीं है, तो गमले में लगे गुलाब की पत्तियाँ पीली हो जाती हैं।
- गुलाब के पौधों की छंटाई साल में दो बार जून के अंत और दिसंबर की शुरुआत में की जानी चाहिए। कमज़ोर और मृत शाखाओं एवं पत्तियों को हटाने के अलावा, पुराने पौधों की प्रत्येक शाखा की लगभग आधी वृद्धि तक काट-छाँट करें।
- रासायनिक खादों की अपेक्षा जैविक खादों को प्राथमिकता दें। प्रत्येक छंटाई के बाद पौधे को साल में दो बार बायो-कम्पोस्ट (Bio Compost), वर्मीकम्पोस्ट (Vermicompost) या गोबर की खाद दें।
- गुलाब को रेड स्केल्स (Red Scales) और डाईबैक फंगस (Dieback Fungus) नाम की दो प्राथमिक बीमारियाँ होती हैं। इसलिए अपने बगीचे में कीटों के प्रकारों के बारे में जानकारी प्राप्त करें।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Pexels
लखनऊ, चलिए इस ईद को मनाते हैं, हम अपने देश के अलग अलग राज्यों की विभिन्न प्रथाओं के साथ !
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
31-03-2025 09:00 AM
Lucknow-Hindi

हमारे शहर लखनऊ में, ईद को एक विशेष तरीके से मनाया जाता है। स्थानीय लोग इस दिन ऐशबाग ईदगाह और लोकप्रिय आसिफ़ी मस्जिद में प्रार्थना करते हैं। यह त्योहार, रमज़ान माह के हर्षित अंत के उत्सव का संकेत है। लेकिन, क्या आपने कभी सोचा है कि, यह त्योहार कैसे शुरू हुआ? इसलिए आज, यह समझने की कोशिश करते हैं कि, पहली बार ईद-अल-फ़ितर कब मनाया गया था। इसके अलावा, हम इस्लाम में इस त्योहार के महत्व के बारे में पता लगाएंगे। फिर हम इस बात पर कुछ प्रकाश डालेंगे कि, लखनऊ में ईद को कैसे मनाया जाता है। अंत में, हम यह पता लगाएंगे कि केरल, बिहार, पश्चिम बंगाल, जम्मू और कश्मीर व तमिलनाडु जैसे विभिन्न राज्यों में ईद के दिन क्या कियाजाता है।
पहली बार ईद–अल–फ़ित्र का त्योहार कब मनाया गया था?
ईद-अल-फ़ित्र का पहला उत्सव 624 ईस्वी में हुआ था, जो मोहम्मद पैगंबर द्वारा किए गए मक्का (Mecca) से मदीना (Medina) के प्रवास के दूसरे वर्ष में था। यह विशेष रूप से, ‘बदर की लड़ाई’ से भी संबंधित है, जहां मुसलमानों ने उसी वर्ष रमज़ान के दौरान, कुरैश जनजाति की सेना को हराया।
पैगंबर मोहम्मद के साथियों में से एक – हज़रत अनास इब्न मलिक द्वारा सुनाई गई एक हदीस, ईद की उत्पत्ति का वर्णन करती है। इस हदीस के अनुसार: “जब अल्लाह के दूत मदीना आए, तो लोगों के पास दो दिन थे, जब वे खेल खेलने में लगे हुए थे। उन्होंने पूछा: ये दो दिन क्या हैं ( इनका क्या महत्व है)? तब उन्होंने कहा: हम पूर्व-इस्लामिक काल में ये खेल खेलते थे। तब अल्लाह के दूत ने कहा: अल्लाह ने उनके लिए उनसे बेहतर, ‘बलिदान का दिन’ और ‘उपवास छोड़ने का दिन’ प्रतिस्थापित किया है। यहां संदर्भित ‘बलिदान का दिन’ और ‘उपवास छोड़ने का दिन’ वे दिन हैं, जो आज ईद-अल-आज़हा और ईद-अल-फ़ित्र के रूप में मनाए जाते हैं।
इस्लाम में ईद-अल-फ़ित्र का महत्व:
ईद-अल-फ़ित्र रमज़ान के पवित्र महीने के अंत को चिह्नित करता है। वैसे तो, यह रमज़ान के अंत का जश्न नहीं मनाता है, क्योंकि, यह इस्लाम में एक महत्वपूर्ण दायित्व की उपलब्धि का जश्न मनाता है। उपवास इस्लाम के पांच स्तंभों में से एक है। इसलिए, उपवास का निरीक्षण करना और इस धन्य महीने को इसी तरह पूरा करना, मुसलमानों का एक कर्तव्य है। यह इस पवित्र महीने को पूरा करने में सक्षम होने के लिए ताकत और अवसर प्रदान करने हेतु, अल्लाह को धन्यवाद देने का भी दिन है।
ईद-अल-फ़ितर आमतौर पर लगातार तीन दिनों में मनाया जाता है। इस दिन मुसलमान लोग, मण्डली (जमात) में एकजुट होते हैं और साथ में नमाज़ पढ़ते हैं। प्रार्थनाओं के सभी महत्वपूर्ण पाठ के बाद, वे अपने परिवार और दोस्तों के साथ उत्सव मनाते हैं। परंपरागत रूप से, एक दावत तैयार की जाती है, और इसका एक साथ आनंद लिया जाता है।
ईद-अल-फ़ितर, दान देने के लिए एक महत्वपूर्ण दिन है, और उन लोगों को याद करता है, जो हमारी तुलना में बहुत कम भाग्यशाली हैं।
इस दिन, ज़कात-अल-फ़ितर भी दान किया जाता है, जो बच्चों के लिए भी अनिवार्य है। यह घर के मुखिया की ज़िम्मेदारी होती है कि, इसका तदनुसार भुगतान किया जाए। यह आमतौर पर ईद की नमाज़ से पहले दिया जाता है। इसका महत्व, यह सुनिश्चित करना है कि, यह मदद की आवश्यकता वाले लोगों को प्रदान किया जाए, और उन्हें भी ईद को मनाने का अवसर दिया जाए।
लखनऊ में ईद कैसे मनाया जाता है?
•लखनऊ चौक
लखनऊ चौक, इसकी छोटी गलियों, पुरानी दुनिया की लालित्य और ऐतिहासिक महत्व के लिए मान्यता प्राप्त है। यह चौक ईद में कई गतिविधियों के एक जीवंत केंद्र में विकसित होता है। इसकी सड़कों को रंगीन रोशनी से सजाया जाता है, और यहां की हवा, मनोरम भोजन और मिठाइयों की सुगंध से भरी होती है। ईद के दौरान, खरीदारी का अनुभव, इस चौक के सबसे बड़े आकर्षणों में से एक है। यहां के बाज़ार में पारंपरिक कपड़े, आभूषण, जूते और अन्य सामान बेचने वाले स्टालों और दुकानों में काफ़ी भीड़ होती है। लोग नए कपड़े, विशेष रूप से पारंपरिक लखनवी आइटम जैसे कि – चिकनकरी कपड़े, कशीदाकारी कुर्ते, और नाज़ुक दुपट्टे खरीदने के लिए, यहां आते है। यह बाज़ार, अपनी उत्कृष्ट ज़रदोज़ी कलात्मकता और पारंपरिक इत्र के लिए भी, ग्राहकों के बीच अत्यधिक लोकप्रिय है।
•अमीनाबाद
अमीनाबाद, अपने जीवंत वातावरण और पारंपरिक खरीदारी के अनुभव के लिए जाना जाता है। यह कपड़ों और अन्य सामान से लेकर, घर की वस्तुओं एवं प्रौद्योगिकी तक, विभिन्न प्रकार के उत्पादों की पेशकश करता है। यह बाज़ार, विशेष रूप से, अपने चिकन कशीदाकारी काम के लिए प्रसिद्ध है, और पर्यटक विभिन्न प्रकार की दुकानों और बुटीक के माध्यम से इन्हें देख सकते हैं।
घरों और मस्ज़िदों में होने वाले समारोहों के साथ, लखनऊ में ईद को सांप्रदायिक सद्भाव और एकता की भावना द्वारा भी चिह्नित किया गया है। कई धर्मों के लोग, हमारे शहर की बहुसांस्कृतिक पृष्ठभूमि को उजागर करते हुए, इस त्योहार का आनंद लेने के लिए यहाँ इकट्ठा होते हैं। गैर-मुस्लिम मित्र और पड़ोसी भी, अक्सर अपने मुस्लिम सहयोगियों को अभिवादन करके और हर्षित दावतों को साझा करके यह त्योहार मनाते हैं। पूरे शहर में, कई कव्वालियां, सांस्कृतिक और कविता कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।
भारत के विभिन्न राज्यों में ईद कैसे मनाई जाती है?
1.) केरल:
केरल में, ईद–अल-फ़ितर को स्थानीय रूप से ‘रमज़ान पेरुनल’ (Ramadan Perunnal) के रूप में जाना जाता है। यह त्योहार, मस्जिदों में विशेष प्रार्थनाओं के साथ मनाया जाता है, एवं इसके बाद एक भव्य दावत – जिसे ‘साध्यत’ के रूप में जाना जाता है – खाई जाती है। पारंपरिक मलयाली व्यंजन, जैसे कि – बिरयानी, समोसा और मिठाई भी इस अवसर पर तैयार की जाती हैं।
2.) उत्तर प्रदेश और बिहार:
हमारे उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में, ईद का उत्सव, चंद्रमा को देखने के साथ शुरू होता है। मस्जिदों में विशेष प्रार्थनाएं की जाती हैं, इसके बाद अभिवादन और मिठाइयों का आदान-प्रदान होता है। नए कपड़ों में पोशाक और सेवइयां जैसे स्वादिष्ट व्यंजन भी उत्सव के भोजन के लिए तैयार किए जाते हैं।
3.) पश्चिम बंगाल:
पश्चिम बंगाल में, ईद–अल-फ़ितर या ‘चांद रात’ को उत्साह के साथ मनाया जाता है। मुसलमान विशेष प्रार्थनाओं के लिए मस्जिद का दौरा करते हैं, और बाज़ार कपड़े, आभूषण और पारंपरिक वस्तुओं के साथ जीवित हो जाते हैं। ‘संदेश’ और ‘रसगुल्ला’ जैसी बंगाली मिठाईयां, त्योहारी दावत के लिए तैयार की जाती हैं।
4.) जम्मू और कश्मीर:
जम्मू और कश्मीर में, ईद–अल–फ़ितर, जिसे स्थानीय रूप से ‘मीठी ईद’ के रूप में जाना जाता है, को पारंपरिक उत्साह के साथ मनाया जाता है। लोग मस्ज़िदों में प्रार्थना के लिए इकट्ठा होते हैं, और इसके बाद ‘रोगन जोश’, ‘वज़वान,’ और ‘खीर’ जैसी कश्मीरी व्यंजनों की पेशकश होती है।
5.) आंध्र प्रदेश और तेलंगाना:
आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में, इस ईद को मस्ज़िदों में प्रार्थना के साथ मनाया जाता है, इसके बाद पारिवारिक समारोह और दावत होती है। पारंपरिक हैदराबादी व्यंजन जैसे ‘बिरयानी’, ‘हलीम’ और ‘शीर खुरमा’ तैयार किए जाते हैं, और परिवार अक्सर मनोरंजन के लिए लोकप्रिय स्थलों और पार्कों का दौरा करते हैं।
6.) तमिल नाडु:
तमिल नाडु में, मुख्य प्रार्थना के अलावा, पारंपरिक तमिल व्यंजन – ‘बिरयानी’ और ‘सांभर’ तैयार किए जाते हैं। साथ ही, विशेष मिठाइयां जैसे कि, ‘पेसम’ और ‘हलवा’ भी बनाया जाता है।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: ताज महल के सामने पढ़ी जा रही ईद की नमाज़ (प्रारंग चित्र संग्रह)
आइए देखें, कैसी बनती हैं अमीनाबाद और हज़रतगंज के बाज़ारों में बिकने वालीं जींस
वास्तुकला 2 कार्यालय व कार्यप्रणाली
Architecture II - Office/Work-Tools
30-03-2025 09:17 AM
Lucknow-Hindi

हमारे लखनऊ में रहने वाले कई लोग, ‘जींस’ (Jeans) पहनना बहुत पसंद करते हैं। कॉलेज के छात्रों से लेकर पेशेवरों तक, हर कोई अपने फ़ैशन और आराम के लिए जींस या डेनिम (denim) को अपनाता है। अमीनाबाद और हज़रतगंज जैसे स्थानीय बाज़ारों में इनकी कई किस्में मौजूद हैं, जिन्हें दैनिक रूप से, आकस्मिक सैर और यहाँ तक कि त्यौहारों पर भी पहनने के लिए उपयोग किया जा सकता है। वर्तमान समय में जींस, युवाओं, छोटे-बड़े सभी लोगों के लिए एक पसंदीदा विकल्प बन गईं हैं । गुजरात में अहमदाबाद (जिसे "भारत की डेनिम राजधानी" कहा जाता है) और सूरत, भारत में डेनिम जींस निर्माण के लिए प्रमुख केंद्र हैं। जींस विनिर्माण प्रक्रिया में मुख्य रूप से तीन चरण होते हैं। पहला चरण, इनका डिज़ाइन और विकास है, जिसमें एक डिज़ाइनर जींस निर्माण से पहले इस पर शोध करता है और फिर एक तकनीकी स्केच तैयार करता है। इसके बाद वह एक ट्रीटमेंट डिज़ाइन तैयार करता है। दूसरा चरण कटिंग और सिलाई है, जिसमें विभिन्न प्रकार की स्टाइल वाली जींसों को बनाने के लिए कपड़े को अनेक टुकड़ों में काटा जाता है। जींस विनिर्माण का अंतिम चरण, प्री-वॉशिंग (Pre-washing) है, जिससे आप पुरानी दिखने वाली जींस को नए जैसा बना सकते हैं। यह तीसरा चरण वास्तव में वैकल्पिक है। इसमें 'प्री-डिस्ट्रेसिंग' (pre-distressing), 'लॉन्ड्रिंग' (laundering) या 'गारमेंट फ़िनिशिंग' (garment finishing) जैसी प्रक्रियाएँ शामिल हैं। तो आइए, आज कुछ चलचित्रों के ज़रिए जींस विनिर्माण प्रक्रिया को समझने की कोशिश करें। ऊपर वर्णित शहरों के अलावा, हम देखेंगे कि दिल्ली की फ़ैक्ट्रियों में जींस कैसे बनती है। फिर हम, कुछ वीडियो क्लिप्स के माध्यम से देखेंगे कि कोई व्यक्ति, भारत में अपना खुद का जींस निर्माण व्यवसाय कैसे शुरू कर सकता है। इसके अलावा, हम जींस निर्माण के लिए आवश्यक कच्चे माल, समय, श्रम और निवेश, लाभ मार्जिन और अन्य महत्वपूर्ण विवरणों के बारे में भी जानेंगे।
संदर्भ:
आज लखनऊ जानेगा, प्रकृति के एक नायाब खज़ाने - लेडीज़ स्लिपर ऑर्किड के संरक्षण के बारे में
निवास स्थान
By Habitat
29-03-2025 09:20 AM
Lucknow-Hindi

साइप्रिपेडियोइडी (Cypripedioideae), ऑर्किड (Orchids) के एक उपपरिवार का नाम है, जिसे आमतौर पर "लेडीज़ स्लिपर ऑर्किड" (Lady's slipper orchid) कहा जाता है। इस फूल को अपने खास आकार की वजह से अलग पहचान हासिल है। इनका निचला हिस्सा चप्पल जैसी एक छोटी थैली की तरह दिखता है, जो कीटों को आकर्षित करता है। जब कीट इस थैली में फंसते हैं, तो वे बाहर निकलने के लिए एक खास रास्ते से गुज़रते हैं। इसी प्रक्रिया में वे पराग इकट्ठा करते हैं या उसे दूसरे फूलों तक पहुँचाते हैं, जिससे परागण होता है। अब सवाल यह उठता है कि यह पौधा क्यों खास है? दरअसल, लेडीज़ स्लिपर ऑर्किड की कई प्रजातियाँ लुप्त होने की कगार पर हैं। आई यू सी एन (International Union for Conservation of Nature (IUCN)) की रेड लिस्ट (Red List) में इनकी कई प्रजातियों को संकटग्रस्त या गंभीर रूप से संकटग्रस्त के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।
इसलिए, आज के इस लेख में हम इस अनोखे पौधे को विस्तार से समझने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले, हम इसकी शारीरिक बनावट और विशेषताओं को जानेंगे। फिर हम भारत में इसके वितरण और प्राकृतिक आवास पर चर्चा करेंगे। इसके बाद, हम उन बड़े खतरों पर नज़र डालेंगे, जो इसके अस्तित्व के लिए चुनौती बने हुए हैं। अंत में, हम उन उपायों को समझेंगे, जिनसे भारत में इस दुर्लभ और संकटग्रस्त ऑर्किड को बचाने की कोशिश की जा रही है। इनमें इन-सीटू संरक्षण (In-Situ Conservation), संरक्षित जैवमंडल (Biosphere Reserves), जीन अभयारण्य (Gene Sanctuary) जैसे महत्वपूर्ण प्रयास शामिल हैं।
लेडीज़ स्लिपर का नाम, इसकी खास थैलीनुमा बनावट से आया है, जो लेडीज़ स्लिपर जूते जैसी दिखती है। इसकी थैली कीटों को फँसाने का काम करती है, जिससे वे मजबूर होकर इसके स्टेमिनोड (staminode) तक चढ़ते हैं। इस प्रक्रिया में, वे पराग इकट्ठा करते हैं या जमा कर देते हैं। ये सिम्पोडियल ऑर्किड होते हैं, लेकिन इनमें स्यूडोबल्ब नहीं पाए जाते। इसके बजाय, ये मजबूत अंकुर विकसित करते हैं, जिनमें कई पत्तियाँ होती हैं। ये पत्तियाँ कभी छोटी और गोल होती हैं, तो कभी लंबी और संकरी भी हो सकती हैं। आमतौर पर, इन पर एक खास धब्बेदार पैटर्न होता है। जब पुराने अंकुर खत्म हो जाते हैं, तो नए अंकुर उनकी जगह ले लेते हैं।
हर नया अंकुर सिर्फ एक बार खिलता है, जब वह पूरी तरह विकसित हो जाता है। तब यह मांसल, रसीली पत्तियों के बीच एक रेसमी बनाता है। इसकी जड़ें मोटी और मांसल होती हैं। गमले में लगे पौधे जड़ों की एक घनी गांठ बना लेते हैं, जो उलझने पर 1 मीटर तक लंबी हो सकती है। पैफ़ियोपेडिलम ऑर्किड (Paphiopedilum Orchids), अपनी खूबसूरती और अनोखी बनावट के कारण सबसे ज्यादा उगाए और संकरित किए जाने वाले ऑर्किड में से एक है।
हाल ही में उत्तराखंड के चमोली ज़िले के औली के पास 50 लेडीज़ स्लिपर ऑर्किड पाए गए हैं। इससे पहले, 2012 में चकराता के नाग टिब्बा क्षेत्र में भी इनकी मौजूदगी दर्ज की गई थी। इन दो स्थानों के अलावा, पिथौरागढ़ और नैनीताल के कुछ हिस्सों में भी यह प्रजाति देखी गई है। यह ऑर्किड, खासतौर पर हिमालयी इलाकों में पाया जाता है। इसके कुछ सीमित रिकॉर्ड हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, सिक्किम, पाकिस्तान, नेपाल और तिब्बत से भी मिले हैं।
चमोली में इनकी आबादी सड़क के करीब है, जिससे इसके अस्तित्व को ख़तरा है। सड़क चौड़ीकरण, लापरवाह पर्यटकों और स्थानीय गतिविधियों के कारण इसका नुकसान हो सकता है। इसे बचाने के लिए वन विभाग ने क्षेत्र में दबाव कम करने और संरक्षण की योजना बनाई है।
लेडीज़ स्लिपर, ऑर्किड के लिए सबसे बड़ा खतरा ?
कई प्रजातियाँ बहुत सीमित क्षेत्रों में पाई जाती हैं, और यही वजह है कि वे विलुप्त होने के सबसे बड़े खतरे में हैं। उदाहरण के लिए, लुप्तप्राय सी. डिकिंसोनियानम (Cypripedium dickinsonianum) केवल मेक्सिको (Mexico), ग्वाटेमाला (Guatemala) और होंडुरास (Honduras) में कुछ ही स्थानों पर पाया जाता है। इसकी प्राकृतिक आबादी पहले से ही बहुत कम है।
समस्या यह है कि इसका वन्य आवास लगातार नष्ट हो रहा है। खेती के लिए जंगलों को काटा जा रहा है, जिससे इन ऑर्किड्स के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ बदल रही हैं। इसके अलावा, पेड़ों की कटाई के कारण पर्यावरण असंतुलित हो रहा है, जिससे न सिर्फ ये ऑर्किड, बल्कि अन्य छोटे पौधों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया है।
भारत में ऑर्किड की संकटग्रस्त प्रजातियों का संरक्षण कैसे किया जाता है ?
भारत में ऑर्किड की कई प्रजातियाँ लुप्त होने की कगार पर हैं। इन्हें बचाने के लिए अलग-अलग स्तरों पर प्रयास किए जाते हैं। आइए जानते हैं कि इन्हें कैसे संरक्षित किया जाता है:
1) इन-सीटू संरक्षण (In Situ Conservation) : इस विधि में ऑर्किड्स को उनके प्राकृतिक आवास में ही बचाने की कोशिश की जाती है। ये पौधे खास तरह के पर्यावरण, मिट्टी, कवक और परागणकों पर निर्भर होते हैं। अगर इन्हें जबरदस्ती किसी नए स्थान पर लगाया जाए, तो इनके जीवित रहने की संभावना बहुत कम हो जाती है। इसलिए, इनके मूल स्थान को बचाना सबसे अच्छा तरीका माना जाता है।
2) संरक्षित जैवमंडल (Biosphere Reserves): ये ऐसे संरक्षित क्षेत्र होते हैं, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त होती है। इनका मकसद जैव विविधता को बनाए रखना है। भारत में कुल 17 संरक्षित जैवमंडल हैं, जहाँ दुर्लभ और संकटग्रस्त ऑर्किड प्रजातियों की सुरक्षा की जाती है।
3) राष्ट्रीय उद्यान (National Parks) : राष्ट्रीय उद्यान, सरकार द्वारा संरक्षित क्षेत्र होते हैं, जहाँ वन्यजीवों के साथ-साथ जैव विविधता को भी बचाया जाता है। इनमें वैज्ञानिक अनुसंधान, शिक्षा और पर्यावरण संरक्षण से जुड़ी गतिविधियाँ होती हैं। फिलहाल भारत में 98 राष्ट्रीय उद्यान हैं, जो ऑर्किड संरक्षण में भी मददगार साबित हो सकते हैं।
4) पवित्र उपवन (Sacred Groves): भारत के कई इलाकों में कुछ खास वन क्षेत्रों को धार्मिक मान्यताओं के कारण संरक्षित किया जाता है। इन क्षेत्रों को पवित्र खांचे कहा जाता है, जहाँ कुछ समुदाय या जनजातियाँ पारंपरिक रूप से वनस्पतियों की रक्षा करती हैं। भारत में 13,270 से ज्यादा पवित्र खांचे हैं, जो ऑर्किड जैसी दुर्लभ प्रजातियों को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
5) जीन अभयारण्य (Gene Sanctuary): ये खास इलाके होते हैं, जहाँ अलग-अलग पौधों और जीवों के अनुवांशिक गुणों को सुरक्षित रखा जाता है। भविष्य में इनका उपयोग नई प्रजातियाँ विकसित करने और जैव विविधता को बनाए रखने के लिए किया जाता है। भारत में फ़िलहाल 480 जीन अभयारण्य हैं। अरुणाचल प्रदेश में स्थित सेसा ऑर्किड अभयारण्य में लगभग 200 ऑर्किड प्रजातियाँ संरक्षित की जाती हैं।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/235nlw35
https://tinyurl.com/2yhx54o9
https://tinyurl.com/2bdf3x2g
https://tinyurl.com/2y3cwkrt
मुख्य चित्र: उष्णकटिबंधीय लेडीज़-स्लिपर ऑर्किड (Tropical lady's slipper orchid) का एक पौधा (Wikimedia)
क्या लखनऊ वासी जानना चाहेंगे कि दुनिया की मिलियनों टन चॉकलेट, कौन खा जा रहा है ?
स्वाद- खाद्य का इतिहास
Taste - Food History
28-03-2025 09:28 AM
Lucknow-Hindi

अगर आप लखनऊ में रहते हैं, तो बचपन से ही चॉकलेट (chocolate) का स्वाद आपकी यादों का हिस्सा रहा होगा! लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि सिर्फ़ भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया चॉकलेट की दीवानी है? आश्चर्यजनक रूप से, साल 2022 में दुनियाभर में 8.13 मिलियन टन चॉकलेट खाई गई! इसका मतलब है कि हर व्यक्ति ने औसतन 1 किलोग्राम चॉकलेट का आनंद लिया। लेकिन क्या आपने कभी यह जानने की कोशिश की कि इस मीठे जादू के पीछे सबसे बड़ा योगदान किसका है? आज के इस दिलचस्प लेख में हम दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में चॉकलेट खाने के पैटर्न को विस्तार से समझेंगे! इस संदर्भ में, हम संयुक्त राज्य अमेरिका (USA), यूरोप (Europe), मध्य पूर्व (Middle East) और एशिया प्रशांत (Asia Pacific) क्षेत्रों में चॉकलेट की खपत के रुझान और पैटर्न के बारे में जानेंगे। आखिर में, हम उन कंपनियों पर नज़र डालेंगे जो वैश्विक चॉकलेट बाज़ार में अग्रणी हैं। इनमें नेस्ले, मार्स इनकॉर्पोरेटेड, मोंडेलज़ यूनाइटेड किंगडम, फ़ेरेरो जैसी कंपनियां शामिल हैं, जो दुनिया भर में चॉकलेट का व्यापार करती हैं और करोड़ों लोगों तक इसकी मिठास पहुंचाती हैं।
क्या आपने कभी सोचा है कि जिस चॉकलेट को आप बड़े शौक से खाते हैं, उसका कच्चा माल यानी कोको (Cocoa) कहाँ से आता है ? दुनिया में कई देश कोको का उत्पादन करते हैं, लेकिन कुछ देश इस उद्योग में सबसे आगे हैं। आइए जानते हैं, किन देशों का इस बाज़ार पर दबदबा है।
देश | 2022 उत्पादन (टन में) |
आइवरी कोस्ट | 2.2M |
घाना | 1.1M |
इंडोनेशिया | 667K |
इक्वाडोर | 337K |
कैमरून | 300K |
नाइजीरिया | 280K |
ब्राजील | 274K |
पेरू | 171K |
डोमिनिकन गणराज्य | 76K |
अन्य | 386K |
सबसे बड़े कोको उत्पादक देश:-
साल 2022 में, आइवरी कोस्ट (Ivory Coast) ने 2.2 मिलियन टन कोको का उत्पादन किया, जिससे यह दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक बना। यह अकेले ही वैश्विक उत्पादन का लगभग एक-तिहाई हिस्से उत्पादित करता है। इसके बाद घाना (1.1 मिलियन टन) और इंडोनेशिया (Indonesia (667,000 टन)) का नंबर आता है। दक्षिण अमेरिका (South America) में, इक्वाडोर (Ecuador (337,000 टन)) और ब्राज़ील (274,000 टन) प्रमुख उत्पादक हैं।
इस क्रम को आप नीचे दी गई तालिका से समझ सकते हैं:
हालांकि आइवरी कोस्ट और पश्चिमी अफ्रीका में कोको उत्पादन लंबे समय से विवादों में रहा है। दरअसल जो किसान मूल रूप से इसकी खेती करते हैं, उन्हें इसका बहुत कम लाभ मिलता है। एक साधारण चॉकलेट बार की कीमत में से किसान को सिर्फ़ 5% हिस्सा ही मिलता है। ज़्यादातर किसान प्रतिदिन केवल $1.20 (करीब 100 रुपये) कमाते हैं। साथ ही, लगभग एक-तिहाई कोको उत्पादन उन जंगलों में होता है, जिन्हें संरक्षित किया जाना चाहिए। इसका मतलब यह है कि कोको खेती के कारण वनों की कटाई हो रही है, जिससे पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा है। इंडोनेशिया, जो दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कोको उत्पादक है, 2022 में 667,000 टन कोको उगाया। यहाँ कोको का 95% उत्पादन छोटे किसानों के द्वारा किया जाता है।
लेकिन इन किसानों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जैसे –
- उनका कम वेतन कम होता है!
- जलवायु परिवर्तन में वृद्धि होती है!
- इनके पेड़ पुराने यानी बूढ़े हो रहे हैं, जिससे उत्पादन घट रहा है
इन सभी कारणों से इंडोनेशिया में कोको खेती पहले की तुलना में कम लाभदायक होती जा रही है।
इक्वाडोर और ब्राजील दक्षिण अमेरिका के सबसे बड़े कोको उत्पादक देश रहे हैं। 1900 के दशक की शुरुआत में इक्वाडोर (Ecuador) दुनिया का सबसे बड़ा कोको उत्पादक था। लेकिन फसल की बीमारियों और वैश्विक बाज़ार में बदलाव के कारण इसका दबदबा कम हो गया।
आज, इक्वाडोर अपने "सिंगल-ओरिजिन (Single Origin) हाई-क्वालिटी चॉकलेट के लिए मशहूर है। इसके कोको खेत, अमेज़न (Amazon) के घने वर्षावनों में देखे जा सकते हैं, जहाँ बेहतरीन चॉकलेट बनाने के लिए उन्नत किस्म के कोको की खेती होती है।
पूरी दुनिया में लोग चॉकलेट को अलग-अलग वजहों से पसंद करते हैं।
आइए जानते हैं कि किन देशों में चॉकलेट की खपत सबसे ज़्यादा होती है और इसके पीछे क्या कारण हैं?
1. अमेरिका (USA): चॉकलेट का दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता:- स्विट्ज़रलैंड (Switzerland) के बाद, अमेरिका दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा चॉकलेट उपभोक्ता है। यहां एक औसत व्यक्ति सालाना करीब 19.8 पाउंड चॉकलेट खा जाता है, यानी हर हफ़्ते लगभग तीन बार चॉकलेट का सेवन करता है।
अमेरिका में सबसे ज़्यादा पसंद की जाने वाली चॉकलेट:
- मिल्क चॉकलेट (सबसे लोकप्रिय)
- डार्क चॉकलेट (धीरे-धीरे लोकप्रिय हो रही है)
- व्हाइट चॉकलेट (कम लेकिन एक खास वर्ग में पसंद की जाती है)
चॉकलेट से जुड़े अन्य पसंदीदा उत्पादों में शामिल हैं:
- आइसक्रीम
- कुकीज़
- केक
जानकार मानते हैं कि भविष्य में चॉकलेट की खपत और अधिक बढ़ेगी, इसके प्रमुख कारणों में शामिल हैं:-
- डार्क चॉकलेट की बढ़ती लोकप्रियता – सेहत के लिए फायदेमंद मानी जाती है।
- हिस्पैनिक आबादी में वृद्धि – इस समुदाय में चॉकलेट खाने का ट्रेंड ज़्यादा है।
- प्रीमियम चॉकलेट की मांग बढ़ रही है – लोग अब बेहतर क्वालिटी वाली चॉकलेट पसंद कर रहे हैं।
चॉकलेट की सबसे ज़्यादा खपत यूरोप में होती है। यहां हर व्यक्ति औसतन 5 किलोग्राम चॉकलेट सालाना खाता है, जो वैश्विक औसत 0.9 किलोग्राम से काफ़ी ज़्यादा है।
यूरोप में चॉकलेट खाने वाले टॉप 3 देश:
1. स्विट्ज़रलैंड – 11 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष
2 . जर्मनी – 9.1 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष
3. एस्टोनिया – 8.3 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष
यूरोप में चॉकलेट सिर्फ़ खाने की चीज़ नहीं, बल्कि एक संस्कृति का हिस्सा बन चुकी है। साथ ही यूरोप के अलावा मध्य पूर्व में भी चॉकलेट का बाज़ार बहुत तेजी के साथ बढ़ रहा है। 2022 में इसकी कुल कीमत 13.8 बिलियन अमेरिकी डॉलर थी! 2028 तक इसकी कीमत बढ़कर 14.07 बिलियन अमेरिकी डॉलर होने का अनुमान है।
इस बढ़त के पीछे मुख्य कारणों में शामिल हैं:
- चॉकलेट के स्वास्थ्य लाभों को लेकर जागरूकता बढ़ रही है।
- शहरीकरण तेज़ी से हो रहा है, जिससे पश्चिमी जीवनशैली को अपनाया जा रहा है।
आइए अब मध्य पूर्व में चॉकलेट के सबसे बड़े बाज़ारों पर एक नज़र डालते हैं:
1. यू ए ई (संयुक्त अरब अमीरात (UAE)) – यह मध्य पूर्व का सबसे बड़ा बाज़ार है, जहां अंतरराष्ट्रीय चॉकलेट ब्रांडों की बहुत मांग है। यहां बड़ी प्रवासी आबादी रहती है, जो चॉकलेट की खपत को बढ़ा रही है।
2. सऊदी अरब (Saudi Arabia) – बड़ी आबादी और मज़बूत अर्थव्यवस्था के कारण यह बाज़ार तेजी से बढ़ रहा है।
3. इज़राइल (Israel)– इज़राइल छोटा लेकिन तेज़ी से बढ़ता बाज़ार है। यहां लोगों की आय बढ़ रही है और चॉकलेट के स्वास्थ्य लाभों के बारे में जागरूकता बढ़ रही है।
आइए अब एक नज़र एशिया-प्रशांत में चॉकलेट के बढ़ते हुए बाज़ार, उपभोग पैटर्न और रुझानों पर डालते हैं:
1. एशिया-प्रशांत में चॉकलेट की बढ़ती खपत: पश्चिमी देशों की तुलना में एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चॉकलेट की खपत अभी भी सीमित है। लेकिन, हाल के वर्षों में इसमें तेज़ी से बढ़ोतरी हो रही है। पश्चिमी जीवनशैली का प्रभाव और चॉकलेट के स्वास्थ्य लाभों को लेकर बढ़ती जागरूकता इसकी प्रमुख वजहें हैं। खासकर चीन और भारत इस बाज़ार में सबसे तेजी से बढ़ने वाले देशों में शामिल हैं।
2. बदलते रुझान: फेयर ट्रेड और फ्लेवर इनोवेशन:- फ़ेयर ट्रेड चॉकलेट (fair trade chcolates) की मांग और नए-नए फ्लेवर की खोज बाज़ार को आगे बढ़ा रही है। अभी तक मिल्क चॉकलेट सबसे ज़्यादा पसंद की जाती थी, लेकिन डार्क और कंपाउंड चॉकलेट की लोकप्रियता भी तेजी से बढ़ रही है। डार्क चॉकलेट का स्वाद लंबे समय तक बना रहता है, जिससे यह लोगों की पहली पसंद बनती जा रही है।
कई एशियाई देशों में चॉकलेट को अब भी एक लक्ज़री प्रोडक्ट माना जाता है। इसका मुख्य कारण उत्पादन में इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल की ऊंची कीमतें हैं, जिनकी वजह से चॉकलेट के दाम बढ़ जाते हैं। इस बाज़ार में एक सामान्य चॉकलेट बार की कीमत 2 से 20 अमेरिकी डॉलर तक होती है, जो इसे आम लोगों की पहुंच से थोड़ा दूर कर सकती है। डार्क चॉकलेट को सेहत के लिए फ़ायदेमंद माना जाता है, इसलिए लोग इसे कन्फेक्शनरी प्रोडक्ट्स (confectionary products) में हेल्दी विकल्प के तौर पर देखने लगे हैं। भारत इस क्षेत्र में चॉकलेट का सबसे बड़ा उपभोक्ता बनता जा रहा है। 2022 में, लगभग 44% भारतीय उपभोक्ता हेल्दी चॉकलेट के लिए ज़्यादा पैसे खर्च करने को तैयार थे।
अगर आप चॉकलेट पसंद करते हैं, तो आपने भी किटकैट, स्निकर्स, कैडबरी या नुटेला जैसे ब्रांड जरूर खाए होंगे। लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये सभी चॉकलेट किन बड़ी कंपनियों के प्रोडक्ट हैं?
आगे हम दुनिया की टॉप 5 चॉकलेट कंपनियों के बारे में जानेंगे, जो सालाना अरबों डॉलर की कमाई करती हैं:
1. नेस्ले (Nestle (वार्षिक राजस्व: $102.59 बिलियन)):- नेस्ले, जो एक स्विस कंपनी है, 1866 से चॉकलेट मार्केट में टॉप पर बनी हुई है। किटकैट, एयरो और मिल्कीबार जैसे पॉपुलर ब्रांड इसी के प्रोडक्ट हैं। ये कंपनी सिर्फ़ स्वाद ही नहीं, बल्कि क्वालिटी और इनोवेशन पर भी पूरा ध्यान देती है। इसके अलावा, नेस्ले टिकाऊ खेती और स्वस्थ प्रोडक्ट ऑप्शन पर भी ध्यान केंद्रित करती है, ताकि बदलते कस्टमर की ज़रूरतों को पूरा कर सके।
2. मार्स इनकॉर्पोरेटेड (वार्षिक राजस्व: $45 बिलियन):- मार्स एक अमेरिकन कंपनी है, जिसने 1911 में अपनी शुरुआत की थी। इसके फेमस ब्रांड्स में स्निकर्स, मार्स बार और M&M's शामिल हैं। कंपनी ने मिल्की वे और स्निकर्स जैसे प्रोडक्ट लॉन्च करके बाज़ार में बड़ी पहचान बनाई। मार्स की खासियत है कि यह अपनी कोको सप्लाई चेन में क्वालिटी और इथिकल सोर्सिंग को बनाए रखती है, ताकि उपभोक्ताओं को बेस्ट चॉकलेट मिल सके।
3. मोंडेलेज़ यू के (Mondelez United Kingdom (वार्षिक राजस्व: $36.016 बिलियन)):- मोंडेलेज़ यू के, मोंडेलेज़ इंटरनेशनल की सहायक कंपनी है और इसकी शुरुआत 1824 में कैडबरी के साथ हुई थी। कैडबरी, टोबलरोन और मिल्का इसके सबसे लोकप्रिय ब्रांड्स हैं। यह सिर्फ़ चॉकलेट ही नहीं, बल्कि बिस्किट, गम और कैंडी के प्रोडक्शन में भी आगे है। कंपनी लगातार नए फ्लेवर्स और बेहतर टेक्सचर के साथ इनोवेटिव प्रोडक्ट्स लाने पर काम कर रही है।
4. क्राफ़्ट हाइन्ज़ (Kraft Heinz (वार्षिक राजस्व: $26.64 बिलियन)):- क्राफ़्ट हेंज़ दुनिया की सबसे बड़ी फूड कंपनियों में से एक है। यह कैडबरी, मिल्का, टोबलरोन, लिंड्ट और घिरार्देली जैसे ब्रांड्स की मालिक है। इस कंपनी का ध्यान हेल्दी चॉकलेट ऑप्शन्स और सस्टेनेबिलिटी इनिशिएटिव्स पर है। अपनी रणनीतियों की वजह से यह घरेलू और इंटरनेशनल दोनों मार्केट में मज़बूती से टिकी हुई है।
5. फ़ेरेरो (Ferrero (वार्षिक राजस्व: $17 बिलियन)):- फ़ेरेरो एक इटैलियन कंपनी है, जिसे 1946 में शुरू किया गया था। यह अपने नुटेला, फ़ेरेरो रोचर और किंडर चॉकलेट के लिए मशहूर है। इस ब्रांड की खासियत है कि यह प्रीमियम इंग्रीडिएंट्स और अच्छी पैकेजिंग पर पर अपना ध्यान केंद्रित करता है। फ़ेरेरो ने अपने प्रोडक्ट्स में नए फ्लेवर और वेराइटी जोड़कर मार्केट में अपनी मज़बूत पकड़ बनाई है। साथ ही, यह टिकाऊ सोर्सिंग और क्वालिटी को लेकर भी पूरी तरह कमिटेड है।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/2ynz4aw4
https://tinyurl.com/2868degr
https://tinyurl.com/22m4jd4s
https://tinyurl.com/254qjfg7
मुख्य चित्र स्रोत : Wikimedia
लखनऊ आइए समझें, हमारे शहर में किन वजहों से वेपिंग को प्रतिबंधित किया गया है ?
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
27-03-2025 09:35 AM
Lucknow-Hindi

हाल के वर्षों में लखनऊ सहित हमारे देश के कई शहरों में 'खासकर युवाओं के बीच' ई-सिगरेट (e-cigarette) यानी वेप्स(vapes) का चलन तेज़ी के साथ बढ़ा है। लोग इसे पारंपरिक सिगरेट का एक मॉडर्न और "कम नुकसानदायक" विकल्प मान रहे हैं। लेकिन यह वही बात हो गई कि आसमान से गिरे और खजूर में अटके। कई शोध बताते हैं कि "वेपिंग न सिर्फ़ फेफड़ों की समस्याएं पैदा कर सकता है, बल्कि निकोटीन (nicotine) की लत को भी बढ़ा सकता है।" इससे युवाओं के स्वास्थ्य पर गंभीर असर पड़ सकता है, और यही वज़ह है कि इसे लेकर चिंता लगातार बढ़ रही है।
इस खतरे को भांपते हुए, भारत सरकार ने 2019 में इलेक्ट्रॉनिक सिगरेट निषेध अधिनियम(Prohibition of Electronic Cigarettes Act, 2019) के तहत, ई-सिगरेट के उत्पादन, बिक्री और उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया।। इस फैसले का मुख्य मकसद लोगों की सेहत की सुरक्षा और खासतौर पर किशोरों में बढ़ती निकोटीन की लत को रोकना था। लखनऊ में अधिकारी इस प्रतिबंध को सख्ती से लागू कर रहे हैं, ताकि ई-सिगरेट की बिक्री और इस्तेमाल पर पूरी तरह रोक लगाई जा सके और शहर में एक स्वस्थ माहौल बना रहे। आज के इस लेख में हम इस प्रतिबंध के पीछे की वजहों को विस्तार से समझेंगे। हम जानेंगे कि कैसे निकोटीन की लत युवाओं के दिमाग और शरीर पर असर डालती है। साथ ही, वेपिंग से होने वाले संभावित नुकसान, जैसे फेफड़ों की बीमारियां, हृदय संबंधी खतरे और दीर्घकालिक निर्भरता के मुद्दों पर भी चर्चा करेंगे।
पहली पीढ़ी की ई-सिगरेट जो तंबाकू सिगरेट जैसी दिखती है, जिसमें बैटरी वाला हिस्सा होता है जिसे USB पावर चार्जर का उपयोग करके डिस्कनेक्ट और रिचार्ज किया जा सकता है! |
वेपिंग क्या है?
वेपिंग(vaping) के दौरान, एक इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस की मदद से धुंध ("वाष्प") को अपने फेफड़ों में सांस के साथ अंदर लिया जाता है। इस प्रक्रिया में ई-सिगरेट, वेप पेन या अन्य इलेक्ट्रॉनिक निकोटीन डिलीवरी सिस्टम (Electronic Nicotine Delivery System (ENDS)) का उपयोग किया जाता है। ये डिवाइस (device) निकोटीन (nicotine), फ़्लेवरिंग, प्रोपाइलीन ग्लाइकोल (propylene glycol) और अन्य रसायनों को गर्म करके एरोसोल (aerosol) में बदलते हैं। इसे माउथपीस (mouthpiece) के ज़रिए अंदर लिया जाता है। हालांकि, वेपिंग स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। इससे सांस लेने में समस्या, अंगों को नुकसान और लत जैसी गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं भी हो सकती हैं।
क्या निकोटीन की लत युवाओं के लिए ख़तरनाक हो सकती है?
निकोटीन की लत युवाओं के लिए गंभीर समस्याएँ खड़ी कर सकती है। सबसे पहले, यह उनकी जेब पर बोझ डालता है, क्योंकि इसे बार-बार खरीदने में लगातार पैसा खर्च होता है । पढ़ाई पर भी इसका नकारात्मक असर पड़ता है—ध्यान भटकता है और एकाग्रता कमज़ोर हो जाती है। कुछ छात्र तो वेपिंग के लिए अपनी क्लास तक छोड़ देते हैं, जिससे उनकी शिक्षा भी प्रभावित होती है।
शारीरिक फ़िटनेस भी इससे खराब हो सकती है। खेल-कूद में भागीदारी कम हो जाती है, जिससे शरीर की क्षमता घटने लगती है। अगर स्कूल में पकड़े गए, तो निलंबन जैसी सख़्त सज़ा मिल सकती है। यह उनके भविष्य के लिए नुकसानदायक हो सकता है। माता-पिता से भी अनबन होने लगती है, क्योंकि वे इस आदत को लेकर चिंतित रहते हैं।
नींद पर भी इसका असर पड़ता है, जिससे रोज़मर्रा की जिंदगी प्रभावित होती है। आत्म-सम्मान भी गिर सकता है, क्योंकि समाज में इसे एक "कमज़ोरी" के रूप में देखा जाता है। इसके अलावा, चिंता और मूड स्विंग जैसी मानसिक समस्याओं का खतरा बढ़ जाता है।
निकोटीन का असर सिर्फ़ आदत तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह दिमाग की कार्यक्षमता को भी प्रभावित करता है। इससे ध्यान, स्मरणशक्ति और सोचने-समझने की क्षमता कमज़ोर हो सकती है, जिससे शैक्षणिक प्रदर्शन पर नकारात्मक असर पड़ता है। यही वजह है कि वेपिंग और निकोटीन से जुड़ी आदतों के दूरगामी प्रभावों को समझना बेहद ज़रूरी है।
वेपिंग के ख़तरों में शामिल हैं:
1. फेफड़ों और अन्य अंगों को नुकसान: वेपिंग से आपके फेफड़ों और शरीर के अन्य अंगों को नुकसान हो सकता है। यह सांस लेने में कठिनाई पैदा कर सकता है और धीरे-धीरे आपके फेफड़ों की कार्यक्षमता को प्रभावित करती है।
2. अस्थमा और श्वसन संबंधी समस्याएँ: वेपिंग अस्थमा और अन्य फेफड़ों से जुड़ी बीमारियों के जोखिम को बढ़ा सकता है। यदि पहले से अस्थमा है, तो वेपिंग से इसकी गंभीरता और जटिलताएँ बढ़ सकती हैं ।
3. फेफड़ों पर स्थायी निशान (पॉपकॉर्न लंग) (Popcorn Lung): कुछ फ़्लेवरिंग में "डायसिटाइल" (Diacetyl) नामक रसायन होता है, जो ब्रोंकियोलाइटिस ओब्लिटरन्स (Bronchiolitis Obliterans) (पॉपकॉर्न लंग) नामक बीमारी का कारण बन सकता है। यह बीमारी फेफड़ों में स्थायी निशान छोड़ती है और साँस लेने की क्षमता को कम कर देती है।
4. हृदय और मस्तिष्क पर प्रभाव: ई-लिक्विड (E-liquid) में मौजूद निकोटीन और अन्य रसायन रक्तचाप बढ़ाने, धमनियों को संकीर्ण करने और मस्तिष्क के कार्य को बाधित करने का कारण बन सकते हैं।
5. ई वी ए एल आई (EVALI) – वेपिंग से जुड़ी फेफड़ों की गंभीर बीमारी: EVALI (ई-सिगरेट या वेपिंग के कारण होने वाली फेफड़ों की चोट) अत्यंत खतरनाक बीमारी हो सकती है। यह फेफड़ों को व्यापक रूप से नुकसान पहुँचाती है, जिसके लक्षणों में खांसी, सांस लेने में तकलीफ़ और सीने में दर्द शामिल हैं। गंभीर मामलों में यह जानलेवा भी साबित हो सकता है।
6. लत (निकोटीन की आदत): निकोटीन एक अत्यधिक नशे की लत वाला पदार्थ है, जो मस्तिष्क में बदलाव लाता है जिससे व्यक्ति को बार-बार निकोटीन की आवश्यकता महसूस होती है। समय के साथ,, वेपिंग छोड़ना कठिन हो जाता है और स्वास्थ्य पर इसके नकारात्मक प्रभाव बढ़ने लगते हैं। यहाँ तक कि वे ई-लिक्विड, जो निकोटीन मुक्त होने का दावा करते हैं, उनमें भी थोड़ी मात्रा में निकोटीन मौजूद हो सकती है।
7. सिगरेट की लत लगने का खतरा: कई लोग वेपिंग को धूम्रपान छोड़ने का एक सुरक्षित विकल्प मानते हैं, लेकिन शोध बताते हैं कि वेपिंग करने वाले लोग बाद में पारंपरिक सिगरेट पीने की आदत विकसित कर सकते हैं। सिगरेट में मौजूद अत्यधिक हानिकारक रसायन गंभीर स्वास्थ्य जोखिम पैदा कर सकते हैं, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकती हैं।
8. सेकेंड-हैंड एक्सपोजर (दूसरों को खतरा): वेपिंग करने पर पारंपरिक धुएँ जैसा कुछ दिखाई नहीं देता, लेकिन इसके एरोसोल में निकोटीन और अन्य हानिकारक रसायन मौजूद होते हैं। वेपिंग के दौरान ये रसायन हवा में फैलते हैं,, जोआसपास के लोगों के संपर्क में आ सकते हैं, जिससे उनके स्वास्थ्य को भी नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
9. बैटरी विस्फ़ोट और दुर्घटनाएँ: वेपिंग डिवाइस (vaping device) में बैटरी का उपयोग होता है, जो कई बार फट सकती है। इससे गंभीर जलने और चोट लगने जैसी घटनाएँ हो चुकी हैं।
10. कैंसर का खतरा: ई-लिक्विड में मौजूद कुछ तत्व कैंसर का कारण बन सकते हैं। लंबे समय तक वेपिंग करने से कैंसर होने की संभावना बढ़ सकती है।
साल 2019 में भारत सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए इलेक्ट्रॉनिक सिगरेट (ई-सिगरेट) पर प्रतिबंध लगाने का कानून बनाया। इस कानून का नाम इलेक्ट्रॉनिक सिगरेट (उत्पादन, निर्माण, आयात, निर्यात, परिवहन, बिक्री, वितरण, भंडारण और विज्ञापन) निषेध अधिनियम, 2019 है। इसे 18 सितंबर, 2019 को लागू किया गया। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य ई-सिगरेट और इसी तरह के उपकरणों से होने वाले स्वास्थ्य संबंधी खतरों को रोकना और उनके उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना है।
कानून के प्रमुख प्रावधान निम्नवत दिए गए हैं:
1. उत्पादन और बिक्री पर रोक:
- कोई भी व्यक्ति या संस्था ई-सिगरेट का उत्पादन, निर्माण, आयात, निर्यात, परिवहन, बिक्री या वितरण नहीं कर सकती।
- इसमें ई-सिगरेट के संपूर्ण उत्पाद और उसके अलग-अलग हिस्सों दोनों पर लागू होता है।
2. ई-सिगरेट की परिभाषा:
- इस अधिनियम के अनुसार, ई-सिगरेट वे उपकरण हैं जो निकोटीन या फ्लेवर्ड लिक्विड (flavoured liquid) को गर्म करके साँस लेने योग्य एरोसोल बनाते हैं।
- इसमें इलेक्ट्रॉनिक निकोटीन डिलीवरी सिस्टम, ई-हुक्का और इसी तरह के अन्य उत्पाद भी शामिल हैं।
3. बिक्री और वितरण पर प्रतिबंध:
- कोई भी व्यक्ति ई-सिगरेट को बेच या वितरित नहीं कर सकता।
- यदि किसी के पास पहले से ई-सिगरेट का स्टॉक है, तो उसे सरकार द्वारा तय प्रक्रिया के अनुसार नष्ट करना होगा।
4. कानून का उल्लंघन करने पर दंड:-
पहली बार अपराध करने पर:
- एक वर्ष तक की जेल या
- ₹1 लाख तक का जुर्माना या दोनों हो सकते हैं।
बार-बार अपराध करने पर:
- तीन वर्ष तक की जेल और पाँच लाख रुपये तक का जुर्माना।
प्रवर्तन और कानूनी कार्रवाई: -
जाँच और जब्ती के अधिकार: पुलिस और अन्य अधिकृत अधिकारी उन स्थानों पर जा सकते हैं जहाँ ई-सिगरेट का उत्पादन, बिक्री या विज्ञापन हो रहा है। वे रिकॉर्ड और संपत्ति ज़प्त कर सकते हैं। यदि कोई कंपनी इस अधिनियम का उल्लंघन करती है, तो कंपनी और उसके ज़िम्मेदार अधिकारी दोषी माने जाएंगे। यदि किसी अधिकारी की अनदेखी या सहमति से अपराध हुआ, तो उसे भी उत्तरदायी ठहराया जाएगा।
कानूनी कार्यवाही:-
- केवल अधिकृत अधिकारी की शिकायत पर ही कानूनी कार्यवाही शुरू की जा सकती है।
- यह अपराध संज्ञेय (Cognizable) है, यानी पुलिस बिना वारंट के भी गिरफ़्तारी कर सकती है।
- यदि कोई सरकारी अधिकारी इस कानून को लागू करने के लिए ईमानदारी से कार्य करता है, तो उसके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती।
- यह अधिनियम भारत में ई-सिगरेट पर प्रतिबंध को और मज़बूत करता है और किसी अन्य विरोधाभासी कानून को निष्प्रभावी कर देता है।
संक्षेप में वेपिंग को सुरक्षित विकल्प मानना एक बड़ी ग़लतफ़हमी है। यह न केवल निकोटीन की लत को बढ़ाता है, बल्कि फेफड़ों, हृदय और दिमाग को भी गंभीर नुकसान पहुंचा सकता है। भारत सरकार ने ई-सिगरेट पर प्रतिबंध लगाकर युवाओं और समाज के स्वास्थ्य की रक्षा का कदम उठाया है। अब हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम इस कानून का पालन करें और जागरूकता फैलाकर एक स्वस्थ भविष्य की ओर बढ़ें। सही जानकारी और समझदारी से ही हम अपने और अपनों की भलाई सुनिश्चित कर सकते हैं।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/yowgfoyh
https://tinyurl.com/292ljta2
https://tinyurl.com/2878cxqv
मुख्य चित्र: अपने हाथ में वेप लिया एक व्यक्ति और वेपिंग का फेफड़ों पर हानिकारक प्रभाव (Wikimedia)
आइए जानें, कैसे शुरू करें, लखनऊ में एरोपॉनिक तकनीक से केसर की खेती
भूमि प्रकार (खेतिहर व बंजर)
Land type and Soil Type : Agricultural, Barren, Plain
26-03-2025 09:23 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ के कई लोगों के लिए यह चौंकाने वाली बात हो सकती है कि हमारे शहर में केसर उगाया जा सकता है, और वो भी बिना मिट्टी के। इसे एरोपॉनिक्स (Aeroponics) कहते हैं, जो एक नई खेती की तकनीक है। इस तकनीक से लखनऊ में पहली बार केसर का फूल खिला है। तो आज हम जानेंगे कि भारत में किस तरह के एरोपॉनिक सिस्टम का इस्तेमाल होता है। फिर हम यह समझेंगे कि इस तरह की खेती लखनऊ में कैसे शुरू की जा सकती है। हम यह भी जानेंगे कि लखनऊ में एरोपॉनिक फ़ार्म सेटअप करने में कितना खर्च आता है।
इसके साथ ही, हम यह देखेंगे कि एरोपॉनिक सिस्टम के जरिए केसर की खेती में नई तकनीक कैसे मदद करती है। इसमें कुछ तकनीकें हैं, जैसे स्वचालित पोषक तत्व देना, आई ओ टी सेंसर (IoT sensors) और ए आई (AI) की मदद से फ़सल का विश्लेषण। अंत में, हम यह समझेंगे कि भारत में एरोपॉनिक तरीके से केसर उगाकर कितनी कमाई की जा सकती है।
भारत में एरोपॉनिक सिस्टम के विभिन्न प्रकार
- एरोपॉनिक टॉवर सिस्टम (Aeroponic Tower Systems): एरोपॉनिक टॉवर सिस्टम, जैसे कि एरोपॉनिक टॉवर गार्डन और एरोपॉनिक वर्टिकल टॉवर, ऊंचे ढांचे होते हैं जिनमें पौधे कई परतों में लगाए जाते हैं। ये सिस्टम, शहरी इलाकों और छोटे स्थानों के लिए बेहतरीन होते हैं।
- इनडोर एरोपॉनिक्स सिस्टम (Indoor Aeroponics Systems): इनडोर एरोपॉनिक्स में ग्रीनहाउस या घरों जैसी नियंत्रित जगहों में सिस्टम स्थापित किया जाता है। ये सेटअप उन लोगों के लिए अच्छे हैं जो घर पर एरोपॉनिक खेती करना चाहते हैं या इनडोर एरोपॉनिक बागवानी शुरू करना चाहते हैं।
- वाणिज्यिक एरोपॉनिक खेत (Commercial Aeroponic Farms) : बड़े पैमाने पर एरोपॉनिक टॉवर खेत या एरोपॉनिक वर्टिकल फ़ार्मिंग सिस्टम का उपयोग करके फसलें उगाई जाती हैं। ये खेत, विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों या उन देशों में फ़ायदेमंद होते हैं जहाँ सीमित कृषि भूमि है, जैसे कि यू ए ई (UAE)।
लखनऊ में एरोपॉनिक खेत कैसे लगाएं?
- सिस्टम चुनें: पहले यह सोचना ज़रूरी है कि आपको टॉवर गार्डन, इनडोर सिस्टम या बड़ा खेत लगाना है।
- ज़रूरी सामान: एरोपॉनिक किट या खेती का सामान लें, जैसे पानी छिड़कने वाला सिस्टम, पोषक तत्व का टैंक और इनडोर खेती के लिए लाइट्स।
- पोषक घोल तैयार करें: जो फ़सल आप उगाने वाले हैं, उसके लिए अच्छा पोषक घोल तैयार करें।
- सेटअप लगाएं: सिस्टम को ऐसी जगह रखें जहाँ सूरज की रोशनी मिले, या फिर लाइट्स लगाएं।
- देखभाल करें: समय-समय पर सिस्टम, पानी और पौधों की हालत चेक करते रहें।
लखनऊ में एरोपॉनिक फ़ार्म सेटअप करने की लागत
यहाँ 1 एकड़ में एरोपॉनिक फ़ार्म सेटअप करने की लागत का विवरण दिया गया है:
- इन्फ़्रास्ट्रक्चर (Infrastructure): एरोपॉनिक फ़ार्म के इन्फ़्रास्ट्रक्चर में एल ई डी लाइट्स, पंप, मिस्टिंग नोज़ल्स, हाइड्रोपॉनिक नेट पॉट्स (Hydroponic net pots) और अन्य जरूरी उपकरण शामिल हैं। इनकी लागत फ़ार्म की विशेष आवश्यकताओं के आधार पर बदल सकती है। अनुमानित लागत ₹50,00,000 से ₹2,00,00,000 तक हो सकती है।
- भूमि की तैयारी (Land Preparation): इसमें भूमि को एरोपॉनिक सिस्टम के लिए तैयार करना शामिल है, जैसे भूमि को समतल करना, ड्रेनेज सिस्टम लगाना और एरोपॉनिक सिस्टम सेटअप करना। इसकी लागत ₹5,000 से ₹15,000 प्रति एकड़ हो सकती है।
- पौधों की सामग्री (Planting Material): यह उस फ़सल के बीज या पौधों की कीमत है, जिसे आप उगाना चाहते हैं। फ़सल के प्रकार और उपलब्धता के आधार पर यह खर्च बदल सकता है। औसतन, इसकी लागत ₹20,000 से ₹50,000 तक हो सकती है।
- पोषक घोल (Nutrient Solution): एरोपॉनिक्स में पोषक घोल का सही प्रबंध बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें पोषक तत्वों का सही संतुलन बनाए रखना और सही पावर ऑफ़ हाइड्रोजन (pH) स्तर बनाए रखना शामिल है। इस घोल की लागत ₹40,000 से ₹70,000 तक हो सकती है, जो फ़सल के प्रकार, आवश्यक खनिजों और घोल की स्थिरता पर निर्भर करती है।
- रखरखाव और संचालन की लागत (Maintenance and Operation Costs): इसमें बिजली, पानी, श्रम और अन्य संचालन खर्च शामिल हैं। हाल ही में किए गए आंकड़ों के अनुसार, एरोपॉनिक शहरी खेती उद्योग में उपकरण और संरचना के रखरखाव की वार्षिक लागत ₹5,00,000 से ₹10,00,000 तक हो सकती है।
- विपणन और बिक्री (Marketing and Sales): इसमें पैकेजिंग, परिवहन और उत्पादन की मार्केटिंग की लागत शामिल है। यह लागत आपके विपणन और बिक्री रणनीतियों के आधार पर बहुत बदल सकती है।
इस प्रकार, एरोपॉनिक फ़ार्म को सेटअप करने और चलाने की कुल लागत लगभग ₹60 लाख से ₹2.2 करोड़ तक हो सकती है। यह भूमि, उपयोग की गई सामग्री, बाज़ार की कीमतों आदि के आधार पर बदल सकती है।
लखनऊ में एरोपॉनिक सिस्टम से केसर की खेती में तकनीकी मदद
- स्वचालित पोषक तत्व आपूर्ति (Automated Nutrient Delivery): ये सिस्टम यह सुनिश्चित करते हैं कि केसर के पौधों को सही समय पर सही पोषक तत्व मिलें।
- आई ओ टी सेंसर (Iot Sensors): ये डिवाइस फ़सल के आसपास की हालत (जैसे तापमान, नमी) को वास्तविक समय में मापते हैं और ज़रूरत पड़ी तो बदलाव करते हैं।
- ए आई-आधारित विश्लेषण (AI Powered Analytics): ए आई (AI), यह मदद करता है कि कब फ़सल को काटना सही रहेगा और अगर कोई समस्या हो तो उसे पहले ही पहचान लिया जाता है।
- एल ई डी लाइटिंग (LED Lighting): खास एल ई डी लाइट्स, केसर के सही से बढ़ने और फूलने के लिए ज़रूरी रोशनी देती हैं।
भारत में एरोपॉनिक तरीके से केसर की खेती से होने वाली कमाई
अक्षय होले और उनकी बैंकर पत्नी दिव्या लोहरके होले ने 2020 में लखनऊ के लोक सेवा नगर में अपनी छत पर 80 वर्ग फ़ुट का एरोपॉनिक सिस्टम लगाकर केसर उगाने की शुरुआत की। पहले उन्होंने कश्मीर में दो साल बिताए, जहां उन्होंने पारंपरिक केसर खेती के बारे में सीखा।
शुरुआत में, उन्होंने 100 बीज (लगभग 1 किलोग्राम) लाकर कुछ ग्राम केसर उगाया। फिर उन्होंने अपने काम को बढ़ाकर 350 किलोग्राम बीज लगाए और करीब 1,600 ग्राम केसर उगाया। अब उनकी खेती का आकार 480 वर्ग मीटर हो गया है, जिसमें 400 वर्ग फ़ुट का एक यूनिट हिंगना में भी है।
इस जोड़े की मेहनत ने अच्छा फ़ल दिया। पिछले दो सालों में उन्होंने हर साल ₹40 लाख से ₹50 लाख तक की कमाई की। 100 वर्ग फ़ुट के यूनिट की शुरुआत करने की लागत लगभग ₹10 लाख होती है, और इससे हर साल ₹5 लाख का केसर मिल सकता है।
केसर की फ़सल साल में एक बार अगस्त से दिसंबर के बीच होती है। बाकी समय में बीजों की खेती होती है। मशीनें 20 से 25 साल तक चल सकती हैं।
अब तक, इस जोड़े ने ₹55 लाख का निवेश किया है और 5 साल में ₹1.3 करोड़ कमाए हैं। उनका केसर ₹630 प्रति ग्राम बिकता है।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: एरोपॉनिक प्रणाली और केसर के फूल (Wikimedia)
योग के यम: जीवन में नकारात्मकता और दुख से मुक्ति का श्रेष्ठ उपाय
य़ातायात और व्यायाम व व्यायामशाला
Locomotion and Exercise/Gyms
25-03-2025 09:26 AM
Lucknow-Hindi

संस्कृत में "यम" का अर्थ होता "संयम" या "नियमों का पालन करना" होता है! योग दर्शन में, यम ऐसे गुणों को कहा जाता है, जिन्हें अपनाने की हमें हमेशा कोशिश करनी चाहिए। ये गुण, न केवल हमें ईमानदारी से जीवन जीने में मदद करते हैं, बल्कि दूसरों के साथ बेहतर संबंध बनाने में भी सहायता करते हैं।
यम हमें यह सिखाते हैं कि, दुनिया में सही तरीके से कैसे जिया जाए। इसे योग के आठ अंगों में पहला और बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। आज के इस लेख में, हम यम का अर्थ और इसका महत्व समझने की कोशिश करेंगे। इसके साथ ही, हम योग के पांच यमों के बारे में जानेंगे और यह भी समझेंगे कि, इन्हें अपने जीवन में कैसे अपनाया जाए।
ये पांच यम हैं:
अहिंसा (हिंसा से बचना)
सत्य (सच बोलना)
अस्तेय (चोरी न करना)
ब्रह्मचर्य (संयम रखना)
अपरिग्रह (अधिक संचय न करना)
अंत में, हम यम का अभ्यास शुरू करने से पहले ध्यान देने योग्य कुछ सुझावों और गतिविधियों पर विचार करेंगे।
योग के आठ अंगों में, यम पहला और अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है। इसका वर्णन प्राचीन भारतीय दार्शनिक ग्रंथ ‘पतंजलि के योग सूत्र’ में मिलता है। हर अंग योग अभ्यास के एक विशिष्ट पहलू को दर्शाता है, और इनका उद्देश्य स्वतंत्रता और सच्चे ज्ञान की ओर ले जाना है। यम, मुख्य रूप से हमारे आस-पास की दुनिया और उसके साथ हमारे संबंधों से जुड़े होते हैं। योग का अभ्यास करते समय, यम के इन सिद्धांतों पर ध्यान देना ज़रुरी है। ऐसा करने से हमारे निर्णय और कार्य अधिक जागरूक, विचारशील और ऊंचे आदर्शों से प्रेरित होते हैं। यह प्रक्रिया हमें खुद के प्रति और दूसरों के प्रति अधिक प्रामाणिक और ईमानदार बनने में मदद करती है।
आइए अब योग के 5 यम और उन्हें अभ्यास करने के तरीके को समझते हैं:
1. अहिंसा (हिंसा न करना): अहिंसा का मतलब 'शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से किसी को नुकसान न पहुँचाना' होता है। यह सिर्फ़, दूसरों के प्रति ही नहीं, बल्कि अपने प्रति भी हिंसा से बचने का संदेश देती है। इसमें केवल शारीरिक नुकसान ही नहीं, बल्कि विचारों और भावनाओं से होने वाले नुकसान भी शामिल हैं।
अहिंसा का अभ्यास कैसे करें: हमारे जीवन में हिंसा, कई रूपों में दिखती है। इसका अभ्यास करने का पहला कदम यह पहचानना है कि हम कहाँ, किसे और कैसे नुकसान पहुँचा रहे हैं ? सभी नुकसानों से बचना हमेशा संभव नहीं होता, जैसे सफ़ाई के दौरान सूक्ष्मजीवों को नष्ट करना। लेकिन, हमें एक संतुलन बनाना चाहिए ताकि हमारा जीवन उत्पादक और स्वस्थ हो, और नुकसान कम से कम हो।
2. सत्य (सच बोलना): सत्य का अर्थ है, अपने और दूसरों के प्रति ईमानदार रहना। इसकी विशेषता केवल झूठ न बोलने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह अपने जीवन में सार्वभौमिक सत्य को पहचानने और अपनाने की बात करता है।
सत्य का अभ्यास कैसे करें: सत्य को पहचानने और स्वीकारने की कोशिश करें। यह समझें कि, आपकी धारणाएँ आपकी भावनाओं, इच्छाओं और सीमाओं से प्रभावित हो सकती हैं। उदाहरण के लिए, अगर कोई संदेश भेजने पर जवाब न मिले, तो यह सच है कि जवाब नहीं आया। लेकिन इसे अपने मन में गलत अर्थ देना - जैसे "वे मुझे अनदेखा कर रहे हैं" - सत्य नहीं है। सत्य को समझें और जब तक सुरक्षित हो, उसे बोलने का साहस रखें।
3. अस्तेय (चोरी न करना): अस्तेय का मतलब है, किसी ऐसी चीज़ को न लेना जो आपकी नहीं है। यह केवल भौतिक वस्तुओं तक सीमित नहीं है, बल्कि अनुचित लाभ उठाने, काम में लापरवाही, या दूसरों के विचार चुराने जैसे कार्यों को भी शामिल करता है।
अस्तेय का अभ्यास कैसे करें: अस्तेय का पालन करने के लिए, जागरूकता ज़रूरी है। कभी-कभी, हम काम में ढिलाई करके या दूसरों की खुशी छीनने वाली टिप्पणियाँ करके भी चोरी करते हैं। यह आदत, अक्सर आंतरिक असंतोष या ईर्ष्या से पैदा होती है। इसे कम करने के लिए, आत्म-जागरूक बनें और संतोष पाने के स्वस्थ तरीके खोजें।
4. ब्रह्मचर्य (इंद्रिय सुखों पर नियंत्रण): ब्रह्मचर्य का अर्थ है, अपनी इच्छाओं और इंद्रिय सुखों पर नियंत्रण रखना। अत्यधिक भोग, हमारे जीवन में समस्याएँ और दुख पैदा कर सकता है।
ब्रह्मचर्य का अभ्यास कैसे करें: ऐसे कार्यों और पदार्थों से बचें, जो नशे की लत जैसे हों। खाने-पीने, मनोरंजन और अन्य इंद्रिय सुखों में संतुलन बनाएँ। अपनी ज़रूरतों और इच्छाओं का विश्लेषण करें और उन पर नियंत्रण रखें।
5. अपरिग्रह (संपत्ति न जोड़ना): अपरिग्रह का मतलब है, ज़रूरत से ज़्यादा भौतिक चीज़ों की लालसा से बचना। यह हमें सिखाता है कि चीज़ों और लोगों के प्रति, अधिकार की भावना छोड़कर, एक साधारण और संतोषजनक जीवन जियें।
अपरिग्रह का अभ्यास कैसे करें: अपने पास मौजूद चीज़ों पर ध्यान दें और सोचें कि आप उनसे क्यों जुड़े हुए हैं। अगर आप उन्हें खोने के डर से सहमे रहते हैं, तो यह आपके जीवन में नई और ज़रूरी चीज़ों को आने से रोक सकता है। सरल जीवन जीने की आदत डालें और संतोष पाना सीखें।
योग के ये पाँच यम, हमारे जीवन को अधिक संतुलित, सादा और शांतिपूर्ण बना सकते हैं। इनका अभ्यास हमें न केवल खुद के प्रति, बल्कि दूसरों के प्रति भी ईमानदार और दयालु बनने में मदद करता है।
आइए, अब यम का अभ्यास करने से पहले ध्यान रखने योग्य बातों पर एक नज़र डालते हैं:
केवल एक यम से शुरुआत करें: पाँचों यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) को धीरे-धीरे समझने और उन पर विचार करने की प्रक्रिया शुरू करें। जब आप इनके बारे में गहराई से सोचेंगे, तो समझ पाएंगे कि, हर यम, आपके जीवन में कैसे प्रकट हो सकता है। अपने विचारों और भावनाओं पर ध्यान दें और जानें कि, कौन-सा यम, आपके लिए अधिक महत्वपूर्ण है। शुरुआत में केवल एक या दो यम पर ध्यान केंद्रित करें।
योग अभ्यास में यम का समावेश करें: जिस यम को आपने चुना है, उसे अपने योग अभ्यास का हिस्सा बनाएं। इसे अपने इरादे या संकल्प के रूप में लें। जब आप एक आसन से दूसरे में जाएं, तो अपने श्वास, शरीर और मन को इस यम के प्रति सजग रखें। असफल होने पर खुद को दोष न दें। इसके बजाय, दोबारा प्रयास करने का संकल्प लें। धैर्य, करुणा और दृढ़ निश्चय के साथ अपने अभ्यास को आगे बढ़ाएं।
प्रगति को लिखें और समझें: अपनी यात्रा और अनुभवों को लिखने के लिए एक जर्नल रखें। ऐसा करना, न केवल आपके विचारों को स्पष्ट करेगा, बल्कि आपके अनुभवों को गहराई से समझने में भी मदद करेगा। अपने यम के अभ्यास से प्राप्त अंतर्दृष्टियों को लिखना, आपके योग अभ्यास और जीवन में और अधिक आत्मसात करने में सहायक साबित हो सकता है।
अवलोकन और गहराई से आत्मनिरीक्षण करें: योग और ध्यान के दौरान, अपने विचारों और भावनाओं के पैटर्न को ध्यान से देखें। यह समझने की कोशिश करें कि ये आदतें या प्रतिक्रियाएं कहाँ से आती हैं। अपने अंदर की गहराई को समझने के लिए, समय निकालें और इन पैटर्न को पहचानने की कोशिश करें। इससे आपको अपने यम को और अधिक अच्छे से अपनाने में मदद मिलेगी।
अगले यम पर ध्यान दें: जब आपको लगे कि आप पहले यम का अभ्यास अच्छी तरह से कर रहे हैं, तब दूसरे यम पर काम शुरू करें। जैसे-जैसे, आपकी आंतरिक जागरूकता बढ़ेगी, आप एक साथ एक से अधिक यम पर भी ध्यान दे सकेंगे। लेकिन, इस प्रक्रिया में जल्दबाज़ी न करें। हर नए यम को अपनाने से पहले, अपने पिछले अनुभवों पर विचार करें और अपनी रणनीति में आवश्यक बदलाव करें। इन सुझावों का पालन करके आप यम को अपने जीवन और योग अभ्यास में प्रभावी रूप से शामिल कर सकते हैं।
संदर्भ
https://tinyurl.com/2apqeckh
https://tinyurl.com/2aw7l4oq
https://tinyurl.com/23h58qhg
मुख्य चित्र का स्रोत : Rawpixel
लखनऊ के प्रसिद्ध मलाई पनीर का स्वाद, इन शानदार सूक्ष्मजीवों के बिना फ़ीका ही रह जाता !
कीटाणु,एक कोशीय जीव,क्रोमिस्टा, व शैवाल
Bacteria,Protozoa,Chromista, and Algae
24-03-2025 09:30 AM
Lucknow-Hindi

गर्मियां शुरू होते ही नवाबों के शहर लखनऊ में छाछ और लस्सी जैसे कई अन्य किण्वित उत्पादों की माँग कई गुना बढ़ जाती है! इसके अलावा लखनऊ में पनीर से बनने वाले कई व्यंजन तो शहर की पहचान माने जाते हैं! इसलिए हम सभी को उन सूक्ष्मजीवों से ज़रूर अवगत होना चाहिए जिनकी बदौलत, किण्वित खाद्य और पेय पदार्थों का निर्माण संभव हो पाता है। ये छोटे-छोटे जीव हमारी रोज़मर्रा के कई पसंदीदा खाद्य पदार्थों के उत्पादन में मदद करते हैं। जैसे कि बैक्टीरिया (bacteria) और यीस्ट (yeast) का उपयोग दही और पनीर से लेकर ब्रेड (bread) और अचार का स्वाद, बनावट और गुणवत्ता को सुधारने के लिए किया जाता है। ये जीव, भोजन के किण्वन में भी सहायक होते हैं।
पेय उद्योग में भी इनकी भूमिका अहम साबित होती है। छाछ, सिरका और दूसरे किण्वित पेय बनाने में ये नन्हे जीव महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। इस प्रकार सूक्ष्मजीव न केवल स्वाद बढ़ाते हैं, बल्कि भोजन को संरक्षित करने और उसके पोषण मूल्य को बेहतर बनाने में भी सहायक होते हैं। इसलिए आज के इस लेख में हम डेयरी किण्वन में लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया (Lactic Acid Bacteria) की भूमिका पर चर्चा करेंगे। ये बैक्टीरिया दही, पनीर और अन्य किण्वित डेयरी उत्पादों के उत्पादन में मदद करते हैं। इसके बाद, हम सोया सॉस (soy sauce) के निर्माण में किण्वन की प्रक्रिया को समझेंगे और जानेंगे कि सूक्ष्मजीव सोयाबीन को किस तरह तोड़कर उसमें गहरा स्वाद विकसित करते हैं। अंत में, हम यीस्ट की भूमिका पर नज़र डालेंगे। यीस्ट, वाइन (wine) और ब्रेड उत्पादन में महत्वपूर्ण होता है। यह शर्करा को किण्वित कर वाइन में अल्कोहल(alcohol) बनाता है और ब्रेड को फूलने में मदद करता है।
आइए शुरुआत, डेयरी किण्वन (दही, पनीर) के निर्माण में लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया की भूमिका को समझने के साथ करते हैं:
डेयरी उत्पाद, प्रोटीन के प्रमुख स्रोत माने जाते हैं। किण्वन (fermentation) एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, जो दूध को संरक्षित करने में मदद करती है। बिना किण्वन के दूध जल्दी खराब हो सकता है।
लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया, दूध में मौजूद शर्करा ( लैक्टोज़) (lactose) को लैक्टिक एसिड में बदल देते हैं। इस प्रक्रिया में कार्बन डाइऑक्साइड (Carbon dioxide) एक उप-उत्पाद के रूप में बनता है। बैक्टीरिया के विकास और विभाजन के लिए दूध को हल्के तापमान (लगभग 25 डिग्री सेल्सियस) पर गर्म किया जाता है।
पनीर बनाने के लिए दूध में 'रेनेट' (Rennet) नामक एंज़ाइम (enzyme) मिलाया जाता है। यह दूध को जमाने और एक साथ चिपकाने में मदद करता है। इसके बाद अतिरिक्त तरल को अलग कर दिया जाता है। इस चरण में पनीर या क्वार्क (Quark) जैसे ताज़े पनीर ठंडा करके खाने के लिए तैयार किए जाते हैं।
कुछ पनीर को और अधिक समय तक सूखने दिया जाता है। पकने की प्रक्रिया से गुज़रने से उनका स्वाद और बनावट विकसित होती है। कुछ पनीर को लंबे समय तक पकने दिया जाता है, जिससे उनमें विशिष्ट गंध और स्वाद आ जाता है।
बड़े पैमाने पर पनीर उत्पादन में 'स्टार्टर कल्चर' (Starter culture) का उपयोग किया जाता है। स्टार्टर कल्चर दूध में विशेष बैक्टीरिया मिलाने की एक विधि होती है। हालांकि, कई पनीर ऐसे भी होते हैं जो दूध में स्वाभाविक रूप से मौजूद बैक्टीरिया पर निर्भर करते हैं। बैक्टीरिया का प्रकार जानवरों की नस्ल और क्षेत्र के अनुसार अलग-अलग होता है, जिससे विभिन्न प्रकार के पनीर को उनकी विशेष पहचान मिलती है।
लंबे समय तक पकने वाले पनीर में एक 'द्वितीयक सूक्ष्मजीव समुदाय' विकसित होता है। यह समुदाय पनीर के प्रोटीन पर जैव रासायनिक प्रक्रियाएँ करता है, जिससे स्वाद और बनावट में विशेष बदलाव आते हैं। उदाहरण के लिए, 'ब्लू चीज़' (Blue Cheese) को एक विशेष प्रकार की फफूंदी (मोल्ड) से पकाया जाता है, जिस कारण इस में नीला रंग आता है। कुछ यूरोपीय देशों में पनीर को 'चूना पत्थर की गुफ़ाओं' में पकाया जाता है। इन गुफ़ाओं में मौजूद प्राकृतिक सूक्ष्मजीव पनीर को विशिष्ट स्वाद और गंध प्रदान करते हैं।
आइए, अब दही बनाने की प्रक्रिया को समझते हैं:
- दही बनाने की प्रक्रिया भी पनीर के समान ही होती है। लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया दूध के लैक्टोज को एसिड में बदल देते हैं। इससे दूध का पी एच (pH) कम हो जाता है, और वह गाढ़ा होकर दही में बदल जाता है।
- ' योगर्ट ' (Yogurt) शब्द की उत्पत्ति तुर्की भाषा के एक शब्द से मानी जाती है, जिसका अर्थ 'गाढ़ा करना या जमाना' होता है। इतिहासकार मानते हैं कि भारत में '6000 ईसा पूर्व' से दही बनाई जा रही है।
- पनीर की तरह ही, अलग-अलग प्रकार के दूध में मौजूद बैक्टीरिया दही को उसका विशिष्ट स्वाद देते हैं। इस कारण विभिन्न स्थानों पर बनने वाला दही थोड़ा अलग स्वाद और बनावट का हो सकता है।
आइए, अब सोया सॉस बनाने की किण्वन प्रक्रिया को समझते हैं:
पारंपरिक सोया सॉस बनाने के लिए चार मुख्य सामग्री (सोयाबीन, गेहूं, नमक और पानी) की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा ‘किण्वन’ होता है। सोया सॉस जितनी अधिक अवधि तक किण्वित होता है, उसका स्वाद उतना ही गहरा और समृद्ध हो जाता है। उच्च गुणवत्ता वाला सोया सॉस तैयार करने में कई महीनों या वर्षों तक का समय लग सकता है।
प्रारंभिक चरण: सबसे पहले, सोयाबीन को भाप में पकाया जाता है। गेहूं को भूनने के बाद उसे कुचला जाता है। फिर इन दोनों को मिलाकर एक मिश्रण तैयार किया जाता है। इस मिश्रण में एक विशेष प्रकार का मोल्ड (आमतौर पर Aspergillus oryzae या Aspergillus sojae) मिलाया जाता है। इस चरण में मिश्रण को "कोजी" कहा जाता है।
कोजी को लकड़ी की ट्रे पर फैलाकर 2-3 दिनों के लिए किण्वन के लिए छोड़ दिया जाता है। इस दौरान स्टार्च (starch) सरल शर्करा में, प्रोटीन अमीनो एसिड (Amino acid) में और तेल फ़ैटी एसिड (Fatty acid) में परिवर्तित हो जाते हैं। इन्हीं अमीनो एसिड में से एक ग्लूटामिक एसिड(Glutamic acid) होता है, जो परमेसन चीज़ (Parmesan cheese) और मशरूम में भी पाया जाता है और सोया सॉस को उसका विशिष्ट उमामी स्वाद देता है।
किण्वन के दौरान मिश्रण से गर्मी उत्पन्न होती है, जिसे नियंत्रित करना आवश्यक होता है। इसलिए, कोजी को समय-समय पर मिलाया जाता है ताकि तापमान संतुलित बना रहे। पारंपरिक शराब बनाने वाली कुछ ब्रुअरीज(Brewery) में तापमान और नमी को नियंत्रित करने के लिए एयर वेंट, हीटर और वॉटर बॉइलर का उपयोग किया जाता था।
ब्राइन किण्वन (अगला चरण): इसके बाद कोजी में नमक और पानी मिलाकर मोरोमी नामक मिश्रण तैयार किया जाता है। इसमें स्टार्टर कल्चर भी मिलाया जाता है, जिसमें लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया और खमीर होते हैं। ये सूक्ष्मजीव किण्वन के दूसरे चरण को पूरा करने में मदद करते हैं।
पुरानी और स्थापित ब्रुअरीज़ में लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया और खमीर के विशेष स्ट्रेन विकसित किए जाते हैं, जो सोया सॉस को उसकी अनूठी सुगंध और स्वाद प्रदान करते हैं। यही कारण है कि वाइन और पनीर की तरह, हर सोया सॉस का स्वाद इस बात पर निर्भर करता है कि वह कहाँ और किस वातावरण में बना है।
परिष्करण ( अंतिम चरण): कई महीनों या वर्षों के किण्वन के बाद, मोरोमी एक गाढ़े, चिपचिपे मिश्रण में बदल जाता है, जिसमें खमीरी और तीखी सुगंध होती है। फिर इस मिश्रण को कपड़े से ढके कंटेनरों में दबाकर छाना जाता है, जिससे कच्चा सोया सॉस प्राप्त होता है।
बोतल में भरने से पहले, कच्चे सोया सॉस को उच्च तापमान पर गर्म करके पाश्चुरीकृत किया जाता है। यह प्रक्रिया इसे सुरक्षित बनाती है और इसके स्वाद को संतुलित करती है। इसके बाद, इसे बोतलबंद कर बाज़ार में बेचा जाता है।
इस तरह, महीनों या वर्षों की मेहनत और प्राकृतिक किण्वन से उच्च गुणवत्ता वाला सोया सॉस तैयार होता है, जो स्वाद में गहरा, सुगंध में समृद्ध और उपयोग में बहुपयोगी होता है।
आइए, अब एक नज़र वाइन और ब्रेड उत्पादन में यीस्ट की भूमिका पर भी डालते हैं:
बीयर, वाइन और ब्रेड बनाने में यीस्ट (खमीर) बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह न केवल शर्करा को अल्कोहल और कार्बन डाइऑक्साइड में बदलता है, बल्कि इसके स्वाद, सुगंध और बनावट को भी प्रभावित करता है। इन उत्पादों की गुणवत्ता में यीस्ट का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है।
वाइन बनाने में यीस्ट का कार्य बीयर उत्पादन से मिलता-जुलता है, लेकिन इसमें कुछ अलग विशेषताएँ भी होती हैं। अंगूर में स्वाभाविक रूप से शर्करा होती है, जो यीस्ट की सहायता से किण्वित होकर वाइन में बदल जाती है। वाइन निर्माण में मुख्य रूप से सैकरोमाइसिस सेरेविसी (Saccharomyces cerevisiae) यीस्ट का उपयोग किया जाता है, हालांकि अन्य प्राकृतिक यीस्ट भी इस प्रक्रिया में योगदान देते हैं।
वाइन बनाने की प्रक्रिया अंगूर को कुचलने और उनका रस निकालने से शुरू होती है। इस रस को "मस्ट" कहा जाता है। इसके बाद इसे किण्वन टैंकों में रखा जाता है, जहाँ यीस्ट सक्रिय होता है। यीस्ट, चाहे स्वाभाविक रूप से अंगूर की खाल पर मौजूद हो या अलग से जोड़ा गया हो, वह मस्ट में मौजूद शर्करा का उपभोग ज़रूर करता है। इस प्रक्रिया में अल्कोहल, कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य स्वाद देने वाले तत्व उत्पन्न होते हैं।
वाइनमेकर किण्वन की प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं। वे तापमान और ऑक्सीजन स्तर को संतुलित रखते हैं, क्योंकि ये कारक वाइन के स्वाद और गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं। किण्वन पूरा होने के बाद, वाइन को परिपक्व होने के लिए रखा जाता है, जिससे उसका स्वाद और विशेषताएँ और निखरती हैं।
ब्रेड उत्पादन में यीस्ट की क्या भूमिका होती है ?
ब्रेड बनाने में भी यीस्ट की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है, लेकिन इसकी प्रक्रिया वाइन उत्पादन से अलग होती है। ब्रेड में यीस्ट एक उठाने वाले एजेंट के रूप में कार्य करता है, जो आटे को फूलाने और उसकी बनावट को हल्का व नरम बनाने में मदद करता है।
ब्रेड निर्माण में सबसे अधिक सैकरोमाइसिस सेरेविसी (Saccharomyces cerevisiae) यीस्ट का उपयोग किया जाता है। जब यीस्ट को आटे में मिलाया जाता है, तो यह आटे में मौजूद शर्करा को खाकर कार्बन डाइऑक्साइड उत्पन्न करता है। यह गैस आटे के अंदर छोटे-छोटे बुलबुले बनाती है, जिससे ब्रेड हल्की और फूली हुई बनती है। इस प्रक्रिया को "प्रूफिंग" कहा जाता है, और यह ब्रेड की सही बनावट के लिए आवश्यक होती है।
ब्रेड बनाने में तापमान और समय का विशेष ध्यान रखा जाता है। बेकर (बेकरी में काम करने वाले) यीस्ट की गतिविधि को नियंत्रित करने के लिए तापमान को संतुलित रखते हैं। जब आटा पूरी तरह फूल जाता है, तो इसे ओवन में बेक किया जाता है। उच्च तापमान के कारण यीस्ट नष्ट हो जाता है, और ब्रेड की संरचना स्थायी रूप से सेट हो जाती है। इस प्रक्रिया के दौरान ब्रेड का सुनहरा कुरकुरा क्रस्ट बनता है।
यीस्ट का योगदान केवल ब्रेड को फूलाने तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि यह स्वाद और सुगंध में भी योगदान देता है। किण्वन के दौरान उत्पन्न होने वाले अल्कोहल और अन्य कार्बनिक यौगिक ब्रेड को उसका विशिष्ट स्वाद और मनमोहक खुशबू देते हैं।
चाहे वाइन हो या ब्रेड, यीस्ट इन दोनों के उत्पादन में एक अदृश्य लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह केवल किण्वन प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है, बल्कि स्वाद, सुगंध और बनावट को भी प्रभावित करता है। इस कारण, वाइनमेकर और बेकर दोनों ही यीस्ट की गतिविधियों को नियंत्रित करते हैं, ताकि उच्च गुणवत्ता वाले उत्पाद तैयार किए जा सकें।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: मलाई पनीर और उनमें मौजूद सूक्ष्मजीव (flickr, wikimedia)
आइए आज देखें, धरती पर सबसे तेज़ दौड़ने वाले जानवरों को
व्यवहारिक
By Behaviour
23-03-2025 09:17 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ के कई नागरिक इस तथ्य से अवगत हैं कि अफ़्रीकी चीता (African cheetah) जिसे वैज्ञानिक तौर पर एसिनोनिक्स जुबेटस (Acinonyx jubatus) कहा जाता है, धरती पर दौड़ने वाला सबसे तेज़ प्राणी है। यह साबित हो चुका है कि ये जीव, अधिकतम 104.2 किलोमीटर प्रति घंटे (64.8 मील प्रति घंटे) की गति से दौड़ सकते हैं। वहीं दूसरी ओर, शुतुरमुर्ग जो सबसे तेज़ दौड़ने वाले पक्षी के रूप में जाने जाते हैं, छोटी दूरी के लिए 43 मील प्रति घंटे (69 किलोमीटर प्रति घंटा) और लंबी दूरी के लिए 30-37 मील प्रति घंटे (48-60 किलोमीटर प्रति घंटा) की गति से दौड़ सकते हैं। चीता, जो कि बिल्लियों के परिवार से संबंधित हैं, उनकी प्रमुख विशेषता यह है कि उनका शरीर बहुत हल्का होता है, जो उन्हें तेज़ी से दौड़ने में मदद करता है। इसके अलावा, उनका छोटा सिर और लंबे पैर भी उन्हें अधिक गति प्रदान करते हैं। साथ ही, उनकी रीढ़ की हड्डी भी बहुत लचीली होती है, जो उन्हें तेज़ दौड़ने का एक और कारण बनती है। गति बढ़ाने के लिए, वे एक समय में केवल एक पैर ही ज़मीन पर रखते हैं। शक्तिशाली पंजे, चौड़ी नाक, हृदय और मांसपेशियों को अधिक ऑक्सीजन देने के लिए मौजूद बड़े फेफड़े आदि उन्हें स्फूर्ति के साथ भागने में मदद करते हैं। तो आइए, आज हम, इन चलचित्रों के माध्यम से धरती पर सबसे तेज़ दौड़ने वाले कुछ जानवरों के बारे में जानते हैं। उपरोक्त वर्णित जानवरों के अलावा, हम ज़ेबरा (Zebra), ब्लू विल्डेबीस्ट (Blue wildebeest), ग्रेहाउंड (Greyhound), स्प्रिंगबोक (Springbok), क्वॉर्टर हॉर्स (Quarter horse) जैसे जानवरों को दौड़ते हुए देखेंगे और इनकी गति का आंकलन करने की कोशिश करेंगे। इसके अलावा, हम यह समझेंगे कि चीता इतना तेज़ कैसे दौड़ता है। अंत में हम, एक अन्य वीडियो क्लिप के माध्यम से, दौड़ते समय, चीते की गतिविधियों का विश्लेषण करने का प्रयास करेंगे।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/4596hr3e
https://tinyurl.com/y7tarn7t
https://tinyurl.com/5n6uyvht
https://tinyurl.com/ymrwyh4r
https://tinyurl.com/mvp8ku8u
https://tinyurl.com/2p9zsxbd
लखनऊ की बढ़ती बिजली आपूर्ति हेतु बांधों का, नदियों व् संवेदनशील गंगा डॉल्फ़िन पर हुआ असर
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
22-03-2025 09:14 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ विद्युत आपूर्ति प्रशासन (Lucknow Electricity Supply Administration) के अनुसार, लखनऊ में बिजली की मांग 1688.93 मेगावाट दर्ज की गई। इसमें सबसे ज़्यादा लोड, गोमती नगर के 220 के वी (kV) सब-स्टेशन पर था, जहां 183.40 मेगावाट बिजली की जरूरत पड़ी। इसके बाद मेहताब बाग के 132 केवी सब-स्टेशन की मांग 130 मेगावाट और कानपुर रोड के 220 केवी सब-स्टेशन की मांग 113 मेगावाट रही। इसमें कोई शक नहीं कि इस बिजली का एक हिस्सा बांधों से पैदा हुआ था।
इसी से जुड़ी बात करें, तो आज हम भारत में जलविद्युत उत्पादन के ऐतिहासिक विकास के बारे में जानेंगे। फिर, हम समझेंगे कि इस तरह की बिजली उत्पादन प्रणाली के क्या नुकसान होते हैं। इसके अलावा, हम यह भी जानने की कोशिश करेंगे कि भारत की नदियों की जैव विविधता पर बांधों का क्या असर पड़ता है। खासतौर पर, हम देखेंगे कि गंगा नदी में पाए जाने वाले डॉल्फिन पर इसका क्या प्रभाव होता है। अंत में, हम बड़े बांधों के अलावा बिजली उत्पादन के अन्य विकल्पों पर भी चर्चा करेंगे।
भारत में जलविद्युत उत्पादन का ऐतिहासिक विकास
साल 1947 से 1967 के बीच, भारत में जलविद्युत क्षमता में 13% से अधिक की वृद्धि हुई और जलविद्युत संयंत्रों से बिजली उत्पादन 11% बढ़ा। इस समय में सरकार ने बड़े बहुउद्देशीय बांधों के निर्माण को बढ़ावा दिया। इन बांधों को ‘भारत के मंदिर’ कहा गया क्योंकि ये न केवल सिंचाई बल्कि बिजली उत्पादन के लिए भी बनाए गए थे।
इसके बाद के दो दशकों (1967-87) में जलविद्युत क्षमता 18% बढ़ी, लेकिन उत्पादन केवल 5% ही बढ़ सका। इस दौरान, कोयले से बनने वाली बिजली का उत्पादन (Thermal Power Production) तेज़ी से बढ़ने लगा, जिससे जलविद्युत उत्पादन को पीछे हटना पड़ा। अधिकतर बड़े बांधों का उपयोग नहर आधारित सिंचाई के लिए किया जाने लगा। इस समय, देशभर में बिजली की सरकारी सब्सिडी के कारण भूजल पंपिंग (पानी खींचने) में भी इज़ाफ़ा हुआ, लेकिन इस प्रक्रिया में मुख्य रूप से कोयले से बनने वाली बिजली का उपयोग किया गया।
1987 से 2007 के बीच जलविद्युत उत्पादन में गिरावट आई और इसकी वृद्धि दर केवल 3% रह गई। 1980 के दशक में बड़े बांधों के सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों का विरोध शुरू हुआ, जो इस दौर में और तेज़ हो गया। हालांकि, निजी क्षेत्र (Private Sector) को भी जलविद्युत उत्पादन की अनुमति दी गई, फिर भी 2007 से 2019 के बीच जलविद्युत क्षमता और उत्पादन, दोनों की वृद्धि दर घटकर सिर्फ़ 1% रह गई।
भारत में जलविद्युत ऊर्जा के नुकसान
1. मछलियों को नुकसान - बांध बनने से नदियों का बहाव रुक जाता है, जिससे मछलियाँ अपने अंडे देने की जगह तक नहीं पहुँच पातीं। इससे वे जीव भी प्रभावित होते हैं जो मछलियों को खाते हैं। इसके अलावा, नदी किनारे रहने वाले जानवरों को भी पानी मिलना बंद हो सकता है।
2. कम जगहों पर ही बन सकते हैं - जलविद्युत संयंत्र बनाने के लिए बहुत कम जगहें उपयुक्त होती हैं। कई बार ये जगहें बड़े शहरों से दूर होती हैं, जिससे वहाँ की बिजली का सही उपयोग नहीं हो पाता।
3. बनने में ज़्यादा पैसा लगता है - कोई भी बिजली घर बनाना आसान नहीं होता, लेकिन जलविद्युत संयंत्र के लिए बांध भी बनाना पड़ता है। इससे इसकी शुरुआती लागत ज़्यादा होती है। हालाँकि, बाद में इसे ईंधन खरीदने की ज़रूरत नहीं होती, जिससे पैसे की बचत होती है।
4. प्रदूषण हो सकता है - बिजली बनाने के दौरान जलविद्युत संयंत्र खुद कोई धुआँ नहीं छोड़ते, लेकिन जहाँ पानी जमा होता है, वहाँ नीचे दबे पौधे सड़ने लगते हैं। इससे कार्बन और मीथेन जैसी हानिकारक गैसें निकल सकती हैं।
5. सूखे में काम नहीं करता - अगर किसी जगह पर बारिश कम हो जाए या सूखा पड़ जाए, तो जलविद्युत संयंत्र से बिजली नहीं बन पाएगी। जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाले समय में सूखा ज़्यादा हो सकता है।
6. बाढ़ का खतरा - अगर कोई बांध, ऊँचाई पर बनाया गया हो और वह टूट जाए, तो नीचे के गाँवों और शहरों में बाढ़ आ सकती है। इतिहास में सबसे बड़ा बांध हादसा, चीन में ‘बानकियाओ बांध’ (Banqiao Dam) का था, जिसमें 1,71,000 से ज़्यादा लोग मारे गए थे।
भारत में बांधों का नदी जैव विविधता पर प्रभाव
थोड़े समय पहले यह देखा गया कि ब्रह्मपुत्र नदी में गंगा नदी की कुछ मादा डॉल्फ़िन बहुत कमज़ोर होकर धीरे-धीरे तैर रही थीं। पहले ये डॉल्फ़िन काफी फुर्तीली और स्वस्थ होती थीं, लेकिन अब उनकी चमकदार त्वचा मुरझा गई है, पेट पिचक गए हैं, और वे मुश्किल से पानी की सतह पर आकर सांस ले पा रही थीं। यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि भारत में गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों पर लगातार बांध बनाए जा रहे हैं, जिससे इन नदियों का प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र और जीवन प्रभावित हो रहा है।
मछलियों और अन्य जीवों पर असर
बांध बनाने से नदी का बहाव रुक जाता है, जिससे मछलियों का प्रवास मार्ग कट जाता है और वे अंडे नहीं दे पातीं। जब मछलियाँ नहीं मिलतीं, तो उन्हें खाने वाले गंगा डॉल्फ़िन जैसे जीव भी भूख से मरने लगते हैं। इसके अलावा, रॉयल बंगाल टाइगर, भारतीय गेंडा, इरावदी डॉल्फ़िन, साइबेरियन सारस और कई अन्य जीव भी ऐसे प्रभावित होते हैं। ये सभी जीव एक स्वस्थ नदी पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर होते हैं, जो बांधों की वजह से नष्ट हो रहा है।
पोषक तत्वों की कमी
नदी में पानी के साथ पोषक तत्व जैसे कार्बन, नाइट्रोजन, सिलिकॉन और फॉस्फोरस भी बहते हैं, जो नदी के किनारे और समुद्र में मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं। लेकिन जब बांध बनाए जाते हैं, तो ये तत्व उपरी हिस्से में जमा हो जाते हैं और नीचे नहीं बह पाते। इससे खेती और समुद्र में शैवाल की वृद्धि पर असर पड़ता है, जो जलवायु परिवर्तन को और बढ़ावा देता है।
भूकंप और बाढ़ का खतरा
कुछ बांध भूकंप संभावित इलाकों में बनाए जाते हैं, जैसे हिमालय में। अगर वहां कोई भूकंप आता है और बांध टूटता है, तो नीचे के इलाके में बाढ़ आ सकती है। इससे लाखों लोगों की जान जा सकती है। चीन के जिन्शा नदी (Jinsha River) पर बने शिलुओडू बांध (Xiluodu Dam) का उदाहरण देखा गया, जहां बड़े पैमाने पर भू-स्खलन हुआ और घाटी के आकार में बदलाव आया।
क्या बांध पानी बचाते हैं?
बांधों के समर्थक कहते हैं कि ये पानी को संग्रहीत करके उसका उपयोग करते हैं, जिससे पानी की कमी दूर होती है। लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है। दरअसल, बांधों में जमा पानी सूर्य की गर्मी से वाष्पित हो जाता है और बड़ी मात्रा में पानी की बर्बादी होती है। दुनियाभर में जलाशय हर साल करीब 170 घन किलोमीटर पानी वाष्पित कर देते हैं, जो 7% मीठे पानी के बराबर है।
जलविद्युत ऊर्जा कितनी स्वच्छ है ?
हमें लगता है कि जलविद्युत ऊर्जा कोयला और पेट्रोलियम से बनी बिजली से साफ होती है, लेकिन यह भी सही नहीं है। बांधों में जमा जलाशयों में सड़े हुए पौधे और मलबा ग्रीनहाउस गैसों (GHG) जैसे मीथेन और कार्बन डाइऑक्साइड को छोड़ते हैं, जो जलवायु परिवर्तन में योगदान करते हैं। पर्यावरण समूह इंटरनेशनल रिवर्स (International Rivers) की निदेशक केट हॉर्नर (Kate Horner) ने इसे लेकर चेतावनी दी थी कि, “यह गलत होगा कि हम बांधों को जलवायु संकट का समाधान मान लें।”
खतरनाक अपशिष्ट भंडारण
कुछ बांधों का उपयोग, खतरनाक खनन कचरे (toxic mining waste) को संग्रहित करने के लिए किया जाता है। हालांकि, इन बांधों के टूटने का खतरा ज़्यादा होता है। जब ये बांध टूटते हैं, तो ज़हरीले पदार्थ मिट्टी में समा जाते हैं और इससे पर्यावरण को बहुत नुकसान होता है। बांधों का विफल होना एक सामान्य समस्या बन चुकी है।
भारत में बड़े बांधों के कुछ वैकल्पिक तरीके
1.) पानी का पुनः उपयोग/पुनर्चक्रण: पानी को पुनः उपयोग या पुनर्चक्रित करने का एक तरीका है सीवेज का उपचार। सीवेज ट्रीटमेंट संयंत्र (Sewage Treatment Plants) गंदे पानी (सीवेज) या ग्रे पानी को साफ कर सकते हैं और इसे फिर से औद्योगिक प्रक्रियाओं, सिंचाई, शौचालयों आदि के लिए उपयोग में ला सकते हैं। इससे पानी की कमी को कम किया जा सकता है।
2.) भूमिगत जल पुनर्भरण: यह प्रक्रिया, वर्षा के पानी को जमीन में समाने की होती है, ताकि भूजल स्तर बढ़ सके। यदि मृदा रेत वाली हो, तो पानी 2 दिन में मिट्टी में समा जाता है और यह सबसे तेज़ तरीका है।
3.) मौजूदा बांधों का पुनर्निर्माण: नए बांध बनाने के बजाय, हम पुराने बांधों की क्षमता बढ़ा सकते हैं। नए चैनल खोल सकते हैं और उन्हें नए कामों के लिए उपयोग कर सकते हैं। यह तरीका, नए बांध बनाने से सस्ता और आसान है, और इससे पर्यावरण और समाज पर कम असर पड़ता है।
4.) बाढ़ प्रबंधन के अन्य तरीके: बांध बाढ़ के नियंत्रण में मदद करते हैं, लेकिन इसके अलावा भी कई तरीके हैं जैसे - पानी के बहाव को कम करना, नदी किनारे और नदी के अंदर बाढ़ प्रबंधन करना, और लोगों को खतरे से दूर रखना आदि।
5.) ऊर्जा उत्पादन के वैकल्पिक तरीके: बांधों का मुख्य काम जल विद्युत (हाइड्रो पावर) उत्पादन होता है, लेकिन इससे होने वाली समस्याओं के कारण हमें दूसरे तरीके भी सोचने चाहिए। कुछ विकल्प हैं - ऊर्जा के सही इस्तेमाल की तकनीकें, सौर ऊर्जा, थर्मल ऊर्जा आदि का उपयोग।
इन विकल्पों से हम बड़े बांधों से होने वाली समस्याओं को कम कर सकते हैं और पर्यावरण के अनुकूल तरीके से पानी और ऊर्जा का उपयोग कर सकते हैं।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: श्रीनगर में अलकनंदा जलविद्युत परियोजना (Wikimedia)
लखनऊ, अपने शारीरिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए रखें अपने मानसिक स्वास्थ्य का ख्याल !
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
21-03-2025 09:16 AM
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आप इस बात से अवश्य सहमत होंगे कि हमारा मानसिक स्वास्थ्य बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह हमारे सोचने, महसूस करने और व्यवहार करने के तरीके को प्रभावित करता है। इसके साथ ही, हमारे मानसिक स्वास्थ्य और शारीरिक स्वास्थ्य परस्पर संबंधित हैं। हमारे मानसिक स्वास्थ्य का प्रभाव शारीरिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। अच्छे मानसिक स्वास्थ्य से हमें तनाव से निपटने, रिश्ते बनाने और समग्र कल्याण में योगदान करने में मदद मिलती है। तो आइए, आज मानसिक स्वास्थ्य के घटकों के बारे में विस्तार से समझते हुए यह जानते हैं कि हमारा मानसिक स्वास्थ्य हमारे शारीरिक स्वास्थ्य से कैसे संबंधित है। इसके साथ ही, हम मानसिक स्वास्थ्य के कारकों के बारे में समझेंगे। अंत में, हम भारत में मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए कुछ उपाय जानेंगे।
मानसिक स्वास्थ्य के घटक:
- संज्ञानात्मक स्वास्थ्य (Cognitive Health): हमारे विचार, लगातार पृष्ठभूमि में चलते रहते हैं। वास्तव में, एक अध्ययन से पता चला है कि हमारे मन में प्रति दिन औसतन 6,000 से अधिक विचार आते हैं! लेकिन परेशानी तब खड़ी होती है, जब हम अपने विचारों को परिकल्पना के बजाय, तथ्यों के रूप में सत्य मानने लगते हैं, क्योंकि हमारे विचारों का हमारी भावनाओं और व्यवहार पर प्रभाव पड़ता है। दूसरे शब्दों में, हम कैसा महसूस करते हैं और कैसे कार्य करते हैं, इसके लिए हमारे सोचने का तरीका मायने रखता है। उदाहरण के लिए, जब आपको अपने पर्यवेक्षक से कुछ आलोचनात्मक प्रतिक्रिया प्राप्त होती है, तो इस प्रतिक्रिया के जवाब में आप जो निष्कर्ष निकालेंगे, वह इस बात को प्रभावित करेगा कि आप कैसा महसूस करते हैं और आप कैसे प्रतिक्रिया देने का निर्णय लेते हैं। यदि आपके मन में यह विचार आता है, "मैं असफ़ल हूँ", तो आप शर्मिंदा और निराश महसूस कर सकते हैं। आप कम आत्मविश्वासी, कम प्रेरित और कम रचनात्मक महसूस कर सकते हैं, और काम पर आपका कमज़ोर प्रदर्शन, आपको और भी अधिक असफ़ल महसूस कराता है। किसी विचार को पहचानना, कि वह सिर्फ़ एक विचार है, आप जो कुछ भी सोचते हैं उस पर विश्वास करने के जाल से खुद को मुक्त करने के लिए एक महत्वपूर्ण पहला कदम है।
- भावनात्मक स्वास्थ्य (Emotional Health): हमारी भावनाएं, हमें अपने लक्ष्यों और मूल्यों के अनुरूप कार्य करने के लिए प्रेरित करने में मदद करती हैं। लेकिन हमारे विचारों की तरह, भावनाएं भी पक्षपातपूर्ण और भ्रामक हो सकती हैं। जब हम अपनी भावनाओं को आवश्यकता से अधिक महत्व देते हैं, तो हम परेशानी में पड़ सकते हैं। दूसरी ओर, यदि हम अपनी भावनाओं को रोकते हैं, तो हम प्रभावी रूप से जीवन से ही पीछे हट जाते हैं। तो फिर प्रश्न उठता है कि ऐसे में हम क्या करें? इसके लिए आप जो भावना महसूस कर रहे हैं उसे नाम देकर शुरुआत करें। यथासंभव विशिष्ट बनने का प्रयास करें, पहले तो आपको केवल गुस्सा आ सकता है, लेकिन ऐसा करना जारी रखें। भावना का नामकरण आपको उसे महसूस करने की अनुमति देता है। यह भावना का संदर्भ भी देता है कि क्या यह आपके किसी विचार की प्रतिक्रिया है? यदि ऐसा है, तो आप उस विचार को पुनः आकार देने के लिए अपने सटीक सोच कौशल का उपयोग कर सकते हैं।
- व्यवहारिक स्वास्थ्य (Behavioural Health): व्यवहारिक स्वास्थ्य, इस बात पर हो सकता है कि आप अपने आस-पास की दुनिया के साथ कितने जुड़े हुए हैं, आप कितनी अच्छी तरह काम कर रहे हैं, आपके रिश्तों की गुणवत्ता और आप किस हद तक अपनेपन और समुदाय की भावना महसूस करते हैं। अपने विचारों और भावनाओं को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करना सीखने से आपके व्यवहार संबंधी स्वास्थ्य में सुधार होगा। अपने डर को सही आकार देकर और अपनी भावनाओं को नियंत्रित करके, आप नई या चुनौतीपूर्ण स्थितियों से बचने के बजाय अपने आस-पास की दुनिया से जुड़ने में सक्षम हो पाएंगे।
मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य का संबंध:
हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के बीच एक अनोखा परस्पर संबंध है। जो व्यक्ति तनावग्रस्त या चिंतित रहते हैं या अपनी भावनाओं के बारे में बात नहीं कर हैं पाते हैं, उन्हें शारीरिक या दैहिक समस्या हो सकती है। यह अक्सर सिरदर्द, अल्सर या शारीरिक बीमारियों के रूप में प्रकट हो सकती है। अवसाद और चिंता जैसी कुछ मानसिक से बीमारियों से मधुमेह, स्ट्रोक और हृदय रोग जैसी गंभीर शारीरिक बीमारियों का खतरा बढ़ सकता है। वहीं, पुरानी शारीरिक स्वास्थ्य समस्याएं भी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं में योगदान कर सकती हैं।
मानसिक स्वास्थ्य के निर्धारक तत्व:
- हमारे संपर्क में आने वाले कई व्यक्ति, और यहां तक कि सामाजिक और संरचनात्मक संस्थाएं, हमारे मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं।
- भावनात्मक कौशल, मादक द्रव्यों का उपयोग और आनुवंशिकी जैसे व्यक्तिगत मनोवैज्ञानिक और जैविक कारक लोगों को मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के प्रति अधिक संवेदनशील बना सकते हैं।
- गरीबी, हिंसा और असमानता सहित प्रतिकूल सामाजिक, आर्थिक, भू-राजनीतिक और पर्यावरणीय परिस्थितियों के संपर्क में आने से लोगों में मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों का अनुभव होने का खतरा बढ़ जाता है।
- हमारे जीवन के सभी चरणों में हानिकारक कारक प्रकट हो सकते हैं, लेकिन विकास की दृष्टि से, विशेष रूप से प्रारंभिक बचपन के दौरान होने वाले जोखिम विशेष रूप से हानिकारक होते हैं। उदाहरण के लिए, कठोर पालन-पोषण और शारीरिक सज़ा बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है।
- इसी तरह हमारे पूरे जीवन में सुरक्षात्मक कारक भी घटित होते हैं। इनमें हमारे व्यक्तिगत, सामाजिक और भावनात्मक कौशल एवं विशेषताओं के साथ-साथ सकारात्मक सामाजिक संपर्क, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, सभ्य कार्य, सुरक्षित पड़ोस और सामुदायिक एकजुटता आदि शामिल हैं।
- हानिकारक और सुरक्षात्मक दोनों कारक समाज में विभिन्न स्तरों पर पाए जा सकते हैं। वैश्विक स्तर पर, आर्थिक मंदी, बीमारी का प्रकोप, मानवीय आपात स्थिति और जबरन विस्थापन और बढ़ते जलवायु संकट मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक कारकों में शामिल हैं।
मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता कैसे बढ़ाएं:
मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता बढ़ने और इसका समर्थन करने के लिए आप कर सकते हैं:
- मानसिक स्वास्थ्य के बारे में स्वयं को शिक्षित करें: आप विशिष्ट मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों के बारे में जितना अधिक सीखेंगे, आपके लिए दूसरों के साथ बातचीत के लिए समय और स्थान बनाना उतना ही आसान होगा।
- उपचार के बारे में मिथकों और तथ्यों की खोज करें: शारीरिक बीमारियों का आमतौर पर, नियमित और विशिष्ट उपचार होता है। एक मानसिक बीमारी, किसी शारीरिक बीमारी से कहीं अधिक जटिल होती है। कुछ लोगों के लिए मनोचिकित्सा प्रभावी हो सकती है, वहीं दूसरों को मनोचिकित्सा और चिकित्सकीय दवाओं के संयोजन से राहत मिल सकती है। मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की देखभाल के बारे में अधिक जानकर, आप जरूरतमंद लोगों को मार्गदर्शन करने में मदद कर सकते हैं।
- बीमारी को संबोधित करें: कुछ लोग मानसिक बीमारी को कलंक मानते हैं, इसलिए मानसिक रोगियों को सहायक, विचारशील और तथ्यात्मक शिक्षा प्रदान करने के लिए बीमारी को संबोधित करें। मानसिक स्वास्थ्य उपचार को शारीरिक स्वास्थ्य उपचार के बराबर करने पर विचार करें और दूसरों को इसे समझने में मदद करें। इसके अलावा, मानसिक स्वास्थ्य के प्रति अपने स्वयं के अंतर्निहित पूर्वाग्रहों का निरीक्षण करें और उन्हें दूर करने के लिए काम करें।
- अपनी कहानी साझा करें: 2020 के एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार, अवसाद (Depression) के बारे में ऑनलाइन जानकारी चाहने वाले चार में से तीन युवा किशोर अन्य लोगों की कहानियाँ सुनना चाहते हैं। यदि आपके पास मानसिक बीमारी का व्यक्तिगत अनुभव है, तो अपनी कहानी साझा करने से उन लोगों को आशा मिल सकती है, जो पीड़ित हैं।
- मानसिक स्वास्थ्य के लिए उत्साही अधिवक्ताओं से जुड़ें: अपने समुदाय में ऐसे कार्यक्रम खोजें, जो मानसिक बीमारी के बारे में जागरूकता बढ़ाते हैं।
संदर्भ:
मुख्य चित्र स्रोत : pexels
संस्कृति 2001
प्रकृति 687