लखनऊ - नवाबों का शहर












नवाबी ज़ायके में विदेशी रंग: लखनऊ की ज़मीन पर बदलती खेती की कहानी
फल-सब्ज़ियां
Fruits and Vegetables
02-07-2025 09:26 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ के निवासियों, कभी आपने गौर किया है कि अब चौक की गलियों, अमीनाबाद की सब्ज़ी मंडी या गोमती नगर के ठेले पर सिर्फ परवल, बैगन और टमाटर नहीं, बल्कि ब्रोकोली, लेट्यूस, जुकीनी और बेल पेपर जैसी विदेशी सब्ज़ियाँ भी दिखने लगी हैं? ये वही सब्ज़ियाँ हैं जिन्हें कभी सिर्फ बड़े रेस्टोरेंट के मेन्यू में देखा करते थे या मॉल की एयर-कंडीशंड सब्ज़ी शेल्फ़ पर। लेकिन अब ये स्वाद और दृश्य बदल रहे हैं — और इस बदलाव की जड़ें लखनऊ की मिट्टी में ही हैं। आज लखनऊ के आसपास के किसान परंपरागत खेती से आगे बढ़कर विदेशी फल और सब्ज़ियों की खेती की ओर रुख कर रहे हैं। मलिहाबाद, बीकेटी, मोहनलालगंज जैसे इलाकों में युवा किसान अब ब्रोकोली और लेट्यूस जैसे उत्पाद उगाकर शहर के नए स्वाद और सेहत दोनों की ज़रूरतें पूरी कर रहे हैं। यह सिर्फ खेती नहीं, एक नई सोच है — जहाँ लखनऊ का किसान अब न सिर्फ मंडी, बल्कि मेट्रो शहरों की डिमांड से भी जुड़ने लगा है। ये बदलाव केवल थाली तक सीमित नहीं, यह लखनऊ की बदलती अर्थव्यवस्था, खानपान की संस्कृति और स्थानीय किसान की पहचान से गहराई से जुड़ा हुआ है। अब जब अगली बार आप सब्ज़ी खरीदने जाएँ, तो ज़रा रुककर सोचिए — ये जुकीनी शायद उसी खेत से आई है, जो गोमती किनारे किसी किसान ने बड़े सपने लेकर सींचा था।
इस लेख में हम पाँच मुख्य पहलुओं को विस्तार से समझेंगे। पहले, हम जानेंगे कि उपभोक्ताओं के स्वाद और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता ने विदेशी फल और सब्ज़ियों की लोकप्रियता को कैसे बढ़ावा दिया। फिर बात करेंगे लखनऊ और देशभर में किसानों द्वारा इन फसलों की ओर बढ़ते रुझान की। तीसरे भाग में भारत की जलवायु में विदेशी फलों के उत्पादन की संभावनाओं का विश्लेषण करेंगे। चौथे उपविषय में जानेंगे इनसे होने वाले आर्थिक लाभ और ग्रामीण क्षेत्रों में इसके प्रभाव के बारे में। और अंत में, विदेशी खाद्य पदार्थों के आयात बनाम घरेलू उत्पादन की प्रवृत्ति को आत्मनिर्भर भारत की दृष्टि से देखेंगे।
विदेशी सब्जियों और फलों की बढ़ती लोकप्रियता: उपभोक्ता आदतों में बदलाव
बीते कुछ वर्षों में भारतीय उपभोक्ताओं का स्वाद और खानपान की आदतें तेजी से बदली हैं। अब लोग सिर्फ स्वाद नहीं, सेहत और पोषण पर भी ध्यान देने लगे हैं। ऐसे में ब्रोकोली, लेट्यूस, एवोकैडो, कीवी जैसे विदेशी फल-सब्ज़ियाँ उनके भोजन का हिस्सा बन रही हैं। इनमें मौजूद विटामिन्स, फाइबर और एंटीऑक्सिडेंट जैसे पोषक तत्व शरीर के लिए फायदेमंद माने जाते हैं। स्वस्थ जीवनशैली को लेकर बढ़ती जागरूकता और सोशल मीडिया पर हेल्थ डाइट ट्रेंड्स ने विदेशी उत्पादों की मांग को और तेज कर दिया है। लोग अब घर पर ही 'सैलड बाउल', 'ग्रीन स्मूदी', और 'बेक्ड वेजिटेबल्स' जैसे व्यंजन बना रहे हैं, जिनमें इन विदेशी सामग्री की भूमिका अहम होती है। इससे स्थानीय मंडियों में इनकी माँग पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ी है।
साथ ही, महानगरों के रेस्टोरेंट्स और कैफे में भी अब विदेशी सब्ज़ियों और फलों से बने व्यंजनों की मांग तेज़ी से बढ़ी है, जिससे इनके उपयोग को लोकप्रियता मिली है। स्कूलों और जिम संस्थानों द्वारा हेल्दी फूड पर बल दिए जाने से युवाओं के बीच भी यह प्रवृत्ति गहराई है। इसके अलावा, कोरोना महामारी के बाद लोगों ने रोग प्रतिरोधक क्षमता को लेकर सजगता अपनाई है, जिससे ऐसे पोषक तत्वों से भरपूर फलों और सब्ज़ियों की मांग और बढ़ गई है। खास बात यह है कि अब छोटे शहरों और कस्बों में भी इन विदेशी खाद्य पदार्थों को अपनाने की रुचि बढ़ रही है, जिससे इसका सामाजिक दायरा भी विस्तार पा रहा है।
लखनऊ और भारत में विदेशी सब्जियों की खेती की ओर किसानों का रुझान
लखनऊ के किसान अब पारंपरिक फसलों के साथ-साथ विदेशी सब्जियों की खेती में भी हाथ आज़मा रहे हैं। ब्रोकोली, जुकीनी, बोक चॉय, पार्सले और लेट्यूस जैसी सब्जियाँ अब लखनऊ के आस-पास के खेतों में उगाई जा रही हैं। कृषि विज्ञान केंद्र (ICAR-IISR) द्वारा वर्ष 2010-11 में शुरू किए गए प्रशिक्षण कार्यक्रमों ने किसानों को इस दिशा में प्रोत्साहित किया। इसके अलावा, किसानों को उच्च गुणवत्ता वाले बीज, वैज्ञानिक मार्गदर्शन और खेती की आधुनिक तकनीकों की जानकारी भी दी गई। इससे किसानों को विदेशी फसलों की बेहतर उपज मिली और बाजार में सीधा संपर्क भी बना। सरकारी योजनाओं और निजी क्षेत्र के सहयोग से अब यह रुझान व्यापक होता जा रहा है, जिससे इन सब्जियों की कीमतें भी कम हो रही हैं।
लखनऊ के मलिहाबाद, गोसाईंगंज, मोहनलालगंज जैसे इलाकों में अब विदेशी सब्ज़ियों के खेतों का दायरा बढ़ा है। कई किसान समूह बनाकर सामूहिक खेती कर रहे हैं, जिससे लागत घट रही है और लाभ बढ़ रहा है। किसान मेलों, कृषि प्रदर्शनियों और डिजिटल प्लेटफॉर्मों के ज़रिए भी किसान नई किस्मों की जानकारी पा रहे हैं। इनमें से कई किसान अब सीधे रेस्तरां, होटल और ऑर्गेनिक स्टोर्स को आपूर्ति करने लगे हैं। इसके चलते किसानों की आय में स्थायित्व आया है और उन्हें बाजार में एक नई पहचान भी मिली है।

भारत में विदेशी फलों का उत्पादन और जलवायु अनुकूलता
भारत की विविध जलवायु विदेशी फलों की खेती के लिए एक उपयुक्त अवसर प्रदान करती है। हिमाचल प्रदेश में एवोकैडो, नीलगिरी में लेट्यूस, और महाराष्ट्र व तेलंगाना में ड्रैगन फ्रूट की सफल खेती इसका उदाहरण है। जहां पहले कीवी, खजूर, जापानी सेब जैसे फल केवल आयात किए जाते थे, वहीं अब भारत में भी इनका उत्पादन शुरू हो चुका है। मिट्टी, तापमान और वर्षा जैसे कारकों की समझ ने किसानों को यह विश्वास दिलाया है कि ये फल हमारे देश में भी गुणवत्ता सहित उगाए जा सकते हैं। जलवायु-आधारित अनुसंधान और स्थानीय अनुकूलन के कारण उत्पादन की लागत भी कम होती जा रही है, जिससे इन फलों का व्यावसायिक उत्पादन संभव हो पाया है।
इसके अलावा, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थानों द्वारा इन फलों के लिए उन्नत किस्में विकसित की गई हैं जो भारतीय वातावरण में अधिक अनुकूल होती हैं। फल संरक्षण और कोल्ड स्टोरेज तकनीकों की प्रगति ने भी इनके परिवहन और भंडारण को आसान बना दिया है। कई राज्य सरकारें ड्रैगन फ्रूट और एवोकैडो को प्रोत्साहित करने के लिए सब्सिडी और प्रशिक्षण कार्यक्रम भी चला रही हैं। इससे किसानों को जोखिम कम होने का विश्वास मिला है और वे इन फसलों को दीर्घकालिक निवेश के रूप में देखने लगे हैं।
आर्थिक लाभ और स्थानीय किसानों के लिए अवसर
विदेशी सब्जियों की खेती से किसानों को पारंपरिक फसलों की तुलना में कहीं अधिक आर्थिक लाभ मिल रहा है। उदाहरण के तौर पर, वर्ष 2011-12 में लखनऊ के किसानों ने 0.5 हेक्टेयर ज़मीन पर विदेशी सब्जियाँ उगाकर लगभग ₹3.36 लाख का सकल लाभ अर्जित किया, जिसमें शुद्ध लाभ ₹3.10 लाख रहा। इससे स्पष्ट होता है कि यह खेती न केवल फायदे की है, बल्कि किसानों के जीवन स्तर को भी ऊंचा उठा सकती है। इसके अतिरिक्त, निर्यात की संभावनाओं, ऑनलाइन बिक्री और प्रोसेसिंग यूनिट्स की स्थापना से भी ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के नए अवसर पैदा हो रहे हैं। इस बदलाव से लखनऊ के आसपास के गांवों में युवाओं की खेती में रुचि बढ़ी है।
कई युवा अब पारंपरिक नौकरी के स्थान पर आधुनिक खेती को विकल्प के रूप में चुन रहे हैं। फार्म-टू-टेबल मॉडल के चलते छोटे पैमाने के किसानों को भी सीधे उपभोक्ताओं तक पहुँचने का अवसर मिला है। शहरी क्षेत्रों में बढ़ती जैविक और विदेशी उत्पादों की माँग के कारण किसानों को प्रीमियम मूल्य मिल रहा है। महिलाओं और स्वयं सहायता समूहों की भागीदारी भी इस क्षेत्र में बढ़ रही है, जिससे सामाजिक समावेशन को बल मिल रहा है। इसके साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में कच्चे माल की प्रोसेसिंग इकाइयाँ खुल रही हैं, जो रोजगार सृजन में सहायक सिद्ध हो रही हैं।

विदेशी खाद्य पदार्थों का आयात बनाम घरेलू उत्पादन: आत्मनिर्भर भारत की दिशा में एक कदम
वर्ष 2018 में भारत ने लगभग 3 बिलियन डॉलर के फलों और सब्जियों का आयात किया था, लेकिन 2019 में यह घटकर 1.2 बिलियन डॉलर रह गया। यह बदलाव घरेलू उत्पादन में वृद्धि और आत्मनिर्भरता की दिशा में एक बड़ा कदम है। अब देश भर में विदेशी फसलों की खेती की जा रही है और इनकी मांग को भारतीय किसान ही पूरा कर रहे हैं। सरकार द्वारा बीज वितरण, तकनीकी प्रशिक्षण और समर्थन मूल्य जैसी योजनाएँ इस प्रक्रिया को और मजबूत कर रही हैं। इससे न केवल विदेशी मुद्रा की बचत हो रही है, बल्कि यह 'मेक इन इंडिया' और 'वोकल फॉर लोकल' जैसे अभियानों को भी बल दे रहा है। यह रुझान भारत को वैश्विक खाद्य बाजार में प्रतिस्पर्धी बनाने की दिशा में एक सकारात्मक संकेत है।
इन प्रयासों का असर यह है कि अब भारत अपने उपभोग के लिए आवश्यक विदेशी खाद्य उत्पादों की पूर्ति आंतरिक रूप से करने में सक्षम हो रहा है। इससे सप्लाई चेन अधिक मज़बूत और लचीली बन रही है। नीति आयोग, कृषि मंत्रालय और राज्य सरकारें भी इस दिशा में सामंजस्यपूर्ण नीति बना रही हैं। निर्यात में भी भारत की भागीदारी धीरे-धीरे बढ़ रही है, जिससे हमारा वैश्विक खाद्य व्यापार में योगदान सशक्त हो रहा है। ये सभी प्रयास भारत को कृषि में आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में ठोस आधार प्रदान कर रहे हैं।
लखनऊ की मिट्टी में संजोई विरासत: चिनहट के बर्तनों की अमर कारीगरी
म्रिदभाण्ड से काँच व आभूषण
Pottery to Glass to Jewellery
01-07-2025 09:21 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ की पहचान सिर्फ नवाबों की नफ़ासत, इमामबाड़ों की भव्यता या चिकनकारी की नज़ाकत भर नहीं है। इस शहर की मिट्टी में भी एक गहरा इतिहास दफ़न है — एक ऐसा इतिहास जो हज़ारों साल पुरानी सभ्यताओं की कहानियाँ आज भी कानों में फुसफुसाता है। जब आप चिनहट की गलियों से गुजरते हैं और किसी कुम्हार को चाक पर मिट्टी को जीवन देते देखते हैं, तो वह दृश्य सिर्फ एक बर्तन बनने का नहीं होता, वह दरअसल लखनऊ की जड़ों से जुड़ने का एक अनुभव होता है। यह वही मिट्टी है, जिसने प्राचीन काल में चित्रित धूसर मृद्भांडों को जन्म दिया, जिनकी झलक आज भी पुरातात्त्विक खुदाइयों में मिलती है। गोमती के किनारे बसी यह धरती सिर्फ ज़रूरतों की नहीं, सभ्यता की भी साक्षी रही है। यहाँ की मिट्टी ने बर्तनों को केवल उपयोग की चीज़ नहीं, बल्कि समय की भाषा बना दिया — ऐसी भाषा जिसे पढ़कर इतिहास समझा जा सकता है। गोमती के किनारे बसी इस ऐतिहासिक ज़मीन ने न सिर्फ संगीत, साहित्य और कला को जन्म दिया, बल्कि मृद्भांडों यानी मिट्टी के बर्तनों की एक ऐसी परंपरा को भी संजोकर रखा है जो आज भी चिनहट जैसे क्षेत्रों में जीवंत है।
पुरातात्त्विक खोजों में मिले चित्रित धूसर मृद्भांड (Painted Grey Ware) हों या सदियों पुरानी खुदाइयों से निकले मिट्टी के पात्र – ये सिर्फ वस्तुएं नहीं, बल्कि समय के गवाह हैं। लखनऊ की उपजाऊ और ऐतिहासिक मिट्टी ने न जाने कितने कालखंडों की कहानियाँ अपने भीतर समेट रखी हैं। यही कारण है कि यहाँ मिट्टी के बर्तनों को केवल उपयोगी वस्तु नहीं, बल्कि संस्कृति की ज़मीन पर उगते साक्ष्य की तरह देखा जाता है।
आज हम जानेंगे कि मिट्टी के बर्तन इतिहास को समझने में कैसे मदद करते हैं और ये कैसे पुरातत्वविदों के लिए समय काल का निर्धारण करने में सहायक होते हैं। फिर हम देखेंगे कि मृद्भांड किन-किन ऐतिहासिक कालों से जुड़े रहे हैं और किस तरह से एक छोटा-सा टुकड़ा किसी बड़े पुरास्थल की कहानी कह सकता है। इसके बाद हम मिट्टी के बर्तनों के निर्माण की विधियों को समझेंगे और जानेंगे कि किस तरह चाक और कलाकृतियों ने इन बर्तनों को एक कला में बदला। अंत में, हम देखेंगे कि कैसे लखनऊ, विशेषकर चिनहट क्षेत्र, आज भी इस प्राचीन परंपरा को जीवित रखे हुए है।

इतिहास को जानने में मृद्भांडों की भूमिका
मिट्टी के बर्तन या मृद्भांड प्राचीन सभ्यताओं की जीवनशैली, रहन-सहन, खान-पान, धार्मिक आस्थाओं और तकनीकी विकास के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्रदान करते हैं। एक पुरातत्वविद किसी भी स्थल पर पाए गए मृद्भांडों के आकार, निर्माण विधि, अलंकरण, रंग और बनावट के आधार पर उस स्थल के काल, संस्कृति और जनजीवन का निर्धारण कर सकता है। उदाहरण के तौर पर, यदि किसी स्थान पर चित्रित मृद्भांड पाए जाते हैं तो वह उस क्षेत्र की सांस्कृतिक उन्नति को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त, मिट्टी के बर्तनों पर बनी आकृतियाँ जैसे मानव, पशु-पक्षी, ज्यामितीय डिजाइन आदि उस युग की कलात्मक अभिव्यक्ति का प्रमाण होती हैं। यही नहीं, इन बर्तनों की भट्ठी तकनीक, जलने की डिग्री और उनके टूटने के तरीके से भी उस सभ्यता की तकनीकी जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
इन बर्तनों के अवशेषों के माध्यम से यह भी ज्ञात होता है कि लोग किस प्रकार के अनाज, फल, मांस या तरल पदार्थों का उपभोग करते थे। कुछ बर्तनों में अन्न, बीज या मसालों के अवशेष आज भी परीक्षण द्वारा पहचाने जा सकते हैं। मृद्भांडों की मदद से उन समाजों की व्यापारिक आदान-प्रदान प्रणाली का भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है—जैसे किसी स्थल पर बाहरी क्षेत्र की मिट्टी के बर्तन मिलना इस ओर संकेत करता है कि उस स्थान का अन्य सभ्यताओं से संपर्क था। यही कारण है कि ये मृद्भांड केवल घरेलू उपयोग के साधन न होकर ऐतिहासिक दस्तावेज़ के रूप में कार्य करते हैं। ये न केवल अतीत की झलक हैं, बल्कि मानवीय सभ्यता के क्रमिक विकास की मूक गवाही भी हैं।

प्रमुख ऐतिहासिक काल और उनसे जुड़े मृद्भांड
प्राचीन भारतीय इतिहास को मुख्यतः पाषाणकाल, प्राचीन काल, मध्यकाल और आधुनिक काल में बाँटा गया है। हर काल की अपनी विशेषताएँ हैं, लेकिन मृद्भांड विशेषकर नवपाषाण काल से प्रचुर मात्रा में मिलने लगते हैं। मृद्भांडों की उपलब्धता से यह भी स्पष्ट होता है कि मानव जीवन में बर्तनों का प्रयोग कब और कैसे शुरू हुआ। उदाहरण के तौर पर, उत्तर पाषाण काल तक हमें मुख्यतः पत्थर के औजार ही मिलते हैं जबकि नवपाषाण काल में मृद्भांडों की मात्रा बढ़ जाती है। इसी प्रकार, ताम्रपाषाण काल में धातु और मिट्टी के मिश्रित प्रयोग का प्रमाण मिलता है। प्राचीन सभ्यताओं जैसे सिन्धु, जोर्वे, बनास और अहाड़ संस्कृति में मृद्भांडों की विविधता उस समय की तकनीकी और कलात्मक दृष्टि से समृद्धता को दर्शाती है। इसके अलावा, लौह युग में उत्तरी कृष्णलेपित मृद्भांडों का प्रचलन देखने को मिलता है, जो विशेष रूप से भारत के उत्तरी भागों में पाए गए हैं।
सिन्धु घाटी सभ्यता के मृद्भांडों में लाल रंग की पृष्ठभूमि पर काले रंग की चित्रकारी विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन पर बने बैल, मछली, पत्तियाँ और पूजा से जुड़ी आकृतियाँ धार्मिक मान्यताओं की ओर संकेत करती हैं। जोर्वे और बनास संस्कृतियों में पाए गए मोटे किनारों वाले बर्तन दैनिक उपयोग की वस्तुओं को रखने हेतु बनाए जाते थे, जो उस समय की व्यावहारिकता को दर्शाते हैं। मध्यकालीन भारत में भी राजवंशों की कला का प्रभाव बर्तनों के अलंकरणों में देखा जा सकता है, जैसे महलों के दरबारों में उपयोग किए जाने वाले विशेष बर्तन। आधुनिक काल में भी काँच मिश्रित मृद्भांडों और पोर्सलीन जैसी शैलियाँ लोकप्रिय हुईं, जो तकनीकी और व्यापारिक परिवर्तन के प्रतीक हैं।

मृद्भांड निर्माण की विधियाँ और तकनीक
मृद्भांडों का निर्माण समय के साथ लगातार विकसित हुआ। प्रारंभ में जब चाक की खोज नहीं हुई थी, तो मनुष्य हाथों से मिट्टी को गोल आकृति देकर बर्तन बनाता था, जिसे बाद में धूप में सुखाया और आग में पकाया जाता था। यह प्रक्रिया सरल होते हुए भी श्रमसाध्य होती थी और हर बर्तन में अद्वितीयता होती थी। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा, नवपाषाण काल में चाक का आविष्कार हुआ, जिससे बर्तन अधिक समान और परिष्कृत बन पाए। चाक की सहायता से बर्तनों के आकार में एकरूपता आई और इनपर चित्रांकन, उभार, नक्काशी जैसी कलात्मक सजावट की जा सकी। कुछ सभ्यताओं में बर्तनों को फूस या बाँस के सांचे पर मिट्टी चढ़ाकर भी बनाया जाता था, जिससे बर्तन के अंदर और बाहर दोनों ओर एक जैसी मजबूती मिलती थी। यह भी उल्लेखनीय है कि बर्तन पकाने की भट्ठियाँ भी समय के साथ तकनीकी रूप से अधिक प्रभावशाली होती गईं।
समय के साथ-साथ मिट्टी को छानने, गूंथने और संपीड़ित करने की तकनीक भी विकसित हुई। विशेषकर सिंधु घाटी जैसी उन्नत सभ्यताओं में बर्तन पकाने के लिए भूमिगत भट्ठियों का प्रयोग होता था, जिससे तापमान को नियंत्रित किया जा सकता था। कुछ सभ्यताओं में दोहरा परत वाला बर्तन बनाने की तकनीक भी विकसित हुई, जिससे वह गर्मी को अधिक समय तक बनाए रख सके। रंगाई की प्रक्रिया में प्राकृतिक तत्वों जैसे लौह ऑक्साइड, मैंगनीज़ आदि का प्रयोग किया जाता था, जो जलने के बाद स्थायी रंग प्रदान करते थे। यह सब दर्शाता है कि मृद्भांड निर्माण मात्र उपयोगिता नहीं, बल्कि एक उच्च कोटि की शिल्पकला थी।
मृद्भांडों की तिथि निर्धारण की विधियाँ
किसी मृद्भांड की तिथि का निर्धारण एक अत्यंत जटिल और वैज्ञानिक प्रक्रिया है। इसके लिए आजकल थर्मोल्यूमिनेसेन्स (thermoluminescence) तकनीक का प्रयोग किया जाता है, जिसमें यह पता लगाया जाता है कि वह मिट्टी कितनी बार और कितने तापमान पर जली है। इसके आधार पर उसकी उम्र का अनुमान लगाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, विभिन्न कालों में प्रयोग किए गए मृद्भांडों की विशिष्ट शैली भी एक संकेत देती है कि वह बर्तन किस युग से संबंधित हो सकता है। उदाहरण स्वरूप, उत्तरी कृष्णलेपित मृद्भांड सामान्यतः 800 ईसा पूर्व के माने जाते हैं और इन्हें देखते ही पुरातत्वविद उस स्थल की कालगणना कर सकते हैं। कुछ मृद्भांडों की गर्दन, तली या रंगत भी विशिष्ट होती है जो एक विशेष समय की पहचान होती है। इससे जुड़े संदर्भ अन्य खोजों जैसे औज़ारों, हड्डियों, मुद्रा आदि से मिलाकर तिथि को और अधिक सटीकता से तय किया जा सकता है।
कुछ मृद्भांडों में जलने के कारण उत्पन्न रेडियोएक्टिव तत्वों की मात्रा को भी मापा जाता है, जिससे काल निर्धारण और अधिक वैज्ञानिक हो जाता है। इसके अतिरिक्त, कार्बन डेटिंग जैसी विधियाँ, यदि बर्तन के साथ जैविक अवशेष मिले हों, तो उसकी उम्र बताने में सहायक होती हैं। पुरातत्वविद इन विधियों के साथ-साथ स्थल की खुदाई की परतों (stratigraphy) का भी अध्ययन करते हैं, जिससे यह जानना संभव हो सके कि मृद्भांड किस सांस्कृतिक परत से संबंधित है। इस प्रकार, तिथि निर्धारण केवल तकनीक का नहीं बल्कि संदर्भ और तुलनात्मक अध्ययन का भी समन्वय है।

लखनऊ में चिनहट और चीनी मिट्टी के बर्तनों की परंपरा
लखनऊ के चिनहट क्षेत्र में आज भी पारंपरिक मिट्टी के बर्तन बनाए जाते हैं। यह परंपरा न केवल सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण है, बल्कि स्थानीय लोगों के लिए रोज़गार का भी बड़ा स्रोत बन चुकी है। यहाँ के कारीगरों ने पीढ़ियों से चली आ रही तकनीकों को आधुनिक उपकरणों से जोड़कर मिट्टी के बर्तनों को एक नया रूप दिया है। मिट्टी, चाक, भट्ठी और रंगाई का संयोजन आज भी वैसा ही है, जैसा सदियों पहले हुआ करता था। इसके साथ ही, लखनऊ में मध्यकाल के दौरान चीनी मिट्टी के बर्तनों का आगमन भी हुआ, जिन्हें पोर्सलीन कहा जाता है। ये बर्तन विदेशों से मंगाए जाते थे और लखनऊ के राजघरानों में इनका उपयोग उच्च वर्ग की प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता था। नीले और सफेद रंग के ये चिकने बर्तन आज भी लखनऊ के संग्रहालयों की शोभा बढ़ाते हैं। केओलिनाइट नामक विशेष मिट्टी से बने ये पोर्सलीन बर्तन लखनऊ के शाही इतिहास से गहरे जुड़े हुए हैं।
चिनहट की पहचान केवल मिट्टी के बर्तनों तक सीमित नहीं है, बल्कि यहाँ की मिट्टी की गुणवत्ता इतनी उच्च कोटि की है कि यह देशभर में प्रसिद्ध है। स्थानीय मेले और हाटों में आज भी पारंपरिक लाल मृत्तिका के बर्तन बिकते हैं, जिनमें दही जमाने के मटके, पानी रखने के घड़े, और पूजा सामग्री रखने के पात्र शामिल होते हैं। चिनहट के कुम्हारों की कारीगरी को सरकार ने कई बार सम्मानित भी किया है। आज कई आधुनिक स्टूडियो और डिजाइनर भी इन्हीं कारीगरों के साथ मिलकर मिट्टी के बर्तनों को नया आयाम दे रहे हैं, जिससे पारंपरिक कला आधुनिक बाज़ार में भी स्थान पा रही है। इस प्रकार, चिनहट केवल अतीत का स्मृति स्थल नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक धरोहर है।
संदर्भ-
https://www.prarang.in/post-summary/Lucknow/3981/Lucknow-has-a-unique-art-of-making-pottery
https://www.prarang.in/post-summary/Lucknow/9358/One-of-the-main-types-of-terracotta-art-is-Chinhat-Kumbhkari-of-Lucknow
लखनऊ की मिट्टी से झलकता उत्तर प्रदेश का इतिहास, संस्कृति और उभरता कल
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
30-06-2025 09:18 AM
Lucknow-Hindi

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ, सिर्फ नवाबी तहज़ीब और अदब के लिए ही नहीं, बल्कि अपने ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व के लिए भी जानी जाती है। इसकी हवेलियाँ, इमामबाड़े, बावड़ियाँ और प्राचीन खंडहर इतिहास के साथ आज भी संवाद करते प्रतीत होते हैं। लखनऊ की गलियाँ जैसे एक जीवित संग्रहालय बन गई हैं, जहाँ हर मोड़ पर कोई न कोई ऐतिहासिक कथा बिखरी होती है। यह शहर न केवल अतीत का संवाहक है, बल्कि पर्यटन, रोजगार और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के लिए भी एक अनूठा अवसर प्रदान करता है। लखनऊ की मिट्टी अपने भीतर हजारों वर्षों की सभ्यता, संस्कृति और इतिहास की अनमोल परतें समेटे हुए है। इन परतों की झलक हमें देशभर में फैले पुरातात्विक स्थलों, धरोहरों और ऐतिहासिक संरचनाओं में मिलती है — जो न केवल अतीत की गवाही देती हैं, बल्कि हमारी पहचान का हिस्सा भी हैं। आज ज़रूरत इस बात की है कि हम अपनी धरोहरों को केवल अतीत की धरोहर मानने की बजाय उन्हें वर्तमान और भविष्य की सामाजिक-आर्थिक प्रगति का औजार बनाएं। इस लेख में हम उत्तर प्रदेश की पुरातात्विक समृद्धि का ऐतिहासिक दृष्टिकोण से अवलोकन करेंगे — राज्य पुरातत्व विभाग की स्थापना और उसकी भूमिका को समझेंगे, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) की कार्यप्रणाली पर चर्चा करेंगे, और विशेष रूप से लखनऊ की धरोहरों के संरक्षण, पर्यटन व रोजगार में उनके योगदान का मूल्यांकन करेंगे। अंत में, हम यह भी जानेंगे कि आमजन की भागीदारी और जागरूकता इन ऐतिहासिक निधियों को जीवंत बनाए रखने में क्यों निर्णायक भूमिका निभाती है।
इस लेख में हम उत्तर प्रदेश की पुरातात्विक समृद्धि को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करेंगे। हम जानेंगे कि राज्य पुरातत्व विभाग की स्थापना कैसे हुई और उसका विकास किस प्रकार हुआ। हम भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ASI) की कार्यप्रणाली पर भी चर्चा करेंगे। साथ ही, हम लखनऊ की ऐतिहासिक धरोहरों, उनके पर्यटन और रोजगार में योगदान को समझने का प्रयास करेंगे। अंत में, हम यह भी जानेंगे कि संरक्षण में जनभागीदारी और जागरूकता क्यों आवश्यक है।

उत्तर प्रदेश की पुरातात्विक समृद्धि का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
उत्तर प्रदेश, भारत के हृदयस्थल में बसा एक ऐसा प्रदेश है, जिसकी भूमि में न केवल सांस्कृतिक विविधता की खुशबू रची-बसी है, बल्कि पुरातात्विक दृष्टि से भी यह अत्यंत समृद्ध और ऐतिहासिक रूप से बहुपरत है। यह वही धरती है जिसने प्राचीन सभ्यताओं की धड़कनों को सुना है, और जहाँ की मिट्टी में इतिहास के असंख्य स्वर्णिम अध्याय आज भी दफन हैं। सिंधु घाटी सभ्यता के समकालीन या उससे भी पूर्व के साक्ष्य उत्तर प्रदेश के कई स्थलों से प्राप्त हुए हैं, जो इस क्षेत्र को भारत की सबसे पुरातन सभ्यताओं में शामिल करते हैं। वाराणसी, श्रावस्ती, कौशांबी, अहिछत्र, हस्तिनापुर और सोंधी जैसे स्थलों से प्राप्त प्राचीन ईंटें, शिलालेख, मूर्तियाँ और सिक्के यह सिद्ध करते हैं कि यह प्रदेश न केवल शासकीय सत्ता का केंद्र रहा है, बल्कि कला, वास्तुकला और धर्म के क्षेत्रों में भी इसकी भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही है। रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य जिन स्थलों की चर्चा करते हैं, वे आज भी उत्तर प्रदेश की भौगोलिक सीमाओं में जीवित हैं — जो इसकी सांस्कृतिक निरंतरता और ऐतिहासिक प्रामाणिकता को बल प्रदान करते हैं।
यह प्रदेश सदियों से धार्मिक, दार्शनिक और बौद्धिक गतिविधियों का केंद्र रहा है। अयोध्या, मथुरा और वाराणसी जैसे नगरों ने न केवल आध्यात्मिक चेतना को दिशा दी, बल्कि स्थापत्य, मूर्तिकला और साहित्यिक विकास को भी नई ऊँचाइयाँ प्रदान कीं। उत्तर प्रदेश की पुरातात्विक समृद्धि किसी एक समुदाय की धरोहर नहीं, बल्कि यह सम्पूर्ण भारतीय सभ्यता की सांस्कृतिक थाती है — जिसे समझे बिना भारत के इतिहास की कोई भी व्याख्या अधूरी रह जाती है।
उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्व विभाग की स्थापना और विकास
भारत की स्वतंत्रता के बाद, जब देश अपने सांस्कृतिक पुनर्निर्माण की दिशा में कदम बढ़ा रहा था, तभी उत्तर प्रदेश में राज्य स्तरीय पुरातत्व विभाग की स्थापना एक दूरदर्शी निर्णय के रूप में की गई। इसकी नींव 1951 में उस समय के शिक्षा मंत्री डॉ. संपूर्णानंद की अध्यक्षता में गठित एक समिति की सिफारिशों पर रखी गई थी। विभाग की मूल भावना यही थी — राज्य की प्राचीन स्मृतियों, ऐतिहासिक इमारतों और पुरातात्विक स्थलों को न केवल संरक्षित किया जाए, बल्कि उन्हें जनचेतना से भी जोड़ा जाए।
शुरुआत लखनऊ के आर्य नगर की एक किराए की इमारत से हुई, लेकिन जल्द ही इस विभाग को रोशन-उद-दौला कोठी में स्थानांतरित किया गया, जो स्वयं एक गौरवशाली ऐतिहासिक धरोहर है। यह कदम प्रतीक था — कि जो संस्था इतिहास को संजो रही है, उसका खुद का आश्रय भी इतिहास के गर्भ में हो। समय के साथ यह विभाग केवल एक कार्यालय नहीं रहा, बल्कि राज्य की सांस्कृतिक चेतना का केंद्र बन गया। वाराणसी, आगरा, झांसी, गोरखपुर और प्रयागराज जैसे शहरों में क्षेत्रीय इकाइयाँ स्थापित हुईं, जिससे विभाग की पहुँच और भी व्यापक हुई। वर्ष 1996 में इसे एक स्वतंत्र निदेशालय का दर्जा मिला — एक मान्यता, जिसने इसके कार्यों को नई ऊर्जा दी।
आज उत्तर प्रदेश का पुरातत्व विभाग राज्य सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अधीन काम करते हुए न सिर्फ संरक्षित स्मारकों की संख्या बढ़ा रहा है, बल्कि उन्हें संरक्षण, पुनरुद्धार और जन-सहभागिता के ज़रिए फिर से जीवंत भी कर रहा है। धरोहर केवल पत्थर नहीं होती, वह स्मृति होती है — और उत्तर प्रदेश का पुरातत्व विभाग वर्षों से इन स्मृतियों को सहेजने, संवारने और आगे बढ़ाने का काम पूरे समर्पण के साथ कर रहा है।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ASI) और इसकी कार्यप्रणाली
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ASI), भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अधीन कार्यरत वह प्रमुख संस्था है, जो देश की ऐतिहासिक धरोहरों की पहचान, संरक्षण और संवर्धन के लिए समर्पित है। इसकी स्थापना 1861 में अलेक्ज़ेंडर कनिंघम द्वारा की गई थी, जिन्हें भारत का पहला आधिकारिक पुरातत्वविद् माना जाता है। आज यह संस्था पूरे देश में फैली लगभग 3,650 संरक्षित स्मारकों और 46 संग्रहालयों की देखरेख कर रही है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का कार्य केवल खुदाई या मरम्मत तक सीमित नहीं है — यह संस्था प्राचीन ग्रंथों और अभिलेखों का प्रकाशन करती है, पुरातात्विक वस्तुओं का संरक्षण सुनिश्चित करती है, और जनता को भारत की ऐतिहासिक विरासत के प्रति जागरूक बनाने के प्रयासों में भी जुटी रहती है। देशभर में इसकी 30 से अधिक क्षेत्रीय सर्किल्स हैं, जिनके माध्यम से ये कार्य किए जाते हैं। लखनऊ स्थित इसका क्षेत्रीय कार्यालय उत्तर प्रदेश के कई प्रमुख स्थलों जैसे श्रावस्ती, अहिछत्र, संकिसा, और हस्तिनापुर की धरोहरों का संरक्षण करता है।
हालाँकि, इतने विशाल उत्तरदायित्व के लिए विभाग को जो बजट मिलता है, वह अक्सर अपर्याप्त सिद्ध होता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को मात्र ₹924.37 करोड़ का वार्षिक बजट मिलता है, जिसमें पूरे देश की हजारों वर्षों पुरानी धरोहरों की देखभाल करनी होती है। इसकी तुलना में जर्मनी जैसे देश अपने एक-एक संग्रहालय पर ही अरबों रुपये खर्च करते हैं। ऐसे में भारत में धरोहर संरक्षण एक जटिल और चुनौतीपूर्ण कार्य बन जाता है। इन तमाम कठिनाइयों के बावजूद, एएसआई की टीमें तकनीकी विशेषज्ञता, शोध और समर्पण से भरपूर प्रयास कर रही हैं। ये टीमें न केवल ऐतिहासिक स्थलों की मरम्मत में जुटी रहती हैं, बल्कि छात्रों और शोधार्थियों को इंटर्नशिप और प्रशिक्षण जैसी सुविधाएँ भी प्रदान करती हैं, जिससे नई पीढ़ी को पुरातत्व विज्ञान से जोड़ा जा सके।

लखनऊ की धरोहरें: स्थानीय और राष्ट्रीय पहचान
लखनऊ सिर्फ एक शहर नहीं, बल्कि तहज़ीब, इतिहास और विरासत की एक जीवंत धड़कन है। नवाबी अंदाज़ में ढली इसकी गलियाँ, इत्र की भीनी खुशबू, शेरो-शायरी से सजी महफिलें और स्थापत्य के बेमिसाल नमूने — सब मिलकर इसे एक सांस्कृतिक रत्न बना देते हैं। 18वीं शताब्दी में अवध के नवाबों द्वारा संजोया गया यह शहर आज भी अपनी वास्तुकला, संगीत, कला और भोजन के ज़रिए भारत की आत्मा को जीवंत करता है।
लखनऊ में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित 59 और उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित 14 ऐतिहासिक स्मारक हैं, जो इसे विरासत का स्वर्णिम केंद्र बनाते हैं। रूमी दरवाजा, रेज़िडेंसी, भूलभुलैया, शाहनजफ़ इमामबाड़ा, दिलकुशा कोठी, सआदत अली खाँ और बेगम हज़रत महल के मकबरे जैसी इमारतें सिर्फ पत्थर की नहीं, बल्कि इतिहास की सांसें हैं। रूमी दरवाजा तो जैसे लखनऊ की पहचान बन गया है — जिसे प्रेमपूर्वक 'भारत का इस्तांबुल' कहा जाता है। इन इमारतों की वास्तुकला तुर्क, मुग़ल और यूरोपीय शैलियों का ऐसा मेल प्रस्तुत करती है, जो भारत के सांस्कृतिक समागम की जीती-जागती मिसाल है।
लखनऊ की ये धरोहरें सिर्फ पर्यटक स्थलों तक सीमित नहीं, बल्कि शहर के जनजीवन का अहम हिस्सा हैं। हर इमारत में एक कहानी है — कभी प्रेम की, कभी संघर्ष की, तो कभी साम्प्रदायिक सौहार्द की। ये स्मारक न केवल अतीत की परछाइयों को सहेजते हैं, बल्कि आज के युवाओं को अपनी जड़ों से जोड़ने का काम भी करते हैं। सांस्कृतिक मेलों, हेरिटेज वॉक और शैक्षिक यात्राओं के ज़रिए यह विरासत फिर से संवाद करती है — आने वाली पीढ़ियों से, वर्तमान की चेतना से।
धरोहरों का पर्यटन, रोजगार और अर्थव्यवस्था में योगदान
ऐतिहासिक धरोहरें केवल अतीत की गाथा नहीं सुनातीं, बल्कि वर्तमान में भी सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की प्रेरक शक्ति बन सकती हैं। भारत जैसे सांस्कृतिक रूप से समृद्ध देश में, जहाँ हर शहर, हर गली इतिहास की कहानी कहती है — वहां धरोहरों को पर्यटन से जोड़कर व्यापक विकास की संभावनाएँ पैदा की जा सकती हैं।
ताजमहल इसका सशक्त उदाहरण है, जिसने अकेले 2015–16 में ₹23.88 करोड़ की आय अर्जित की और इसके इर्द-गिर्द हजारों लोगों को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिला। यदि इसी प्रकार भारत की अन्य ऐतिहासिक धरोहरों को संरक्षित किया जाए, उनका प्रचार-प्रसार हो, और उन्हें एक व्यवस्थित पर्यटन ढांचे से जोड़ा जाए, तो यह स्थानीय समुदायों के लिए आय और आत्मसम्मान दोनों का स्रोत बन सकता है। लखनऊ, जो अपनी नवाबी विरासत, स्थापत्य कला, तहज़ीब और स्वादिष्ट खानपान के लिए प्रसिद्ध है, इस दिशा में विशेष संभावनाएँ रखता है। भूल-भुलैया, रूमी दरवाज़ा, छतर मंज़िल जैसे ऐतिहासिक स्मारक, स्थानीय हस्तशिल्प जैसे चिकनकारी, और तहज़ीब से भरपूर सांस्कृतिक आयोजन, पर्यटकों को न केवल आकर्षित करते हैं, बल्कि शहर की पहचान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने की क्षमता भी रखते हैं।
यदि इन स्थलों का संरक्षण, संवर्धन और स्मार्ट प्रचार किया जाए, तो लखनऊ को वैश्विक मानचित्र पर एक प्रमुख हेरिटेज-टूरिज़्म डेस्टिनेशन के रूप में उभारा जा सकता है। इसके लिए डिजिटल मीडिया, हेरिटेज वॉक, थीम आधारित टूर पैकेज, और स्थानीय युवाओं को प्रशिक्षित करके टूर गाइड के रूप में जोड़ना आवश्यक है।

संरक्षण में सामुदायिक भागीदारी और जागरूकता का महत्त्व
किसी भी धरोहर का संरक्षण केवल सरकारी बजट और संस्थागत योजनाओं तक सीमित नहीं होना चाहिए। जब तक स्थानीय समुदाय, नागरिक और युवा स्वयं आगे आकर अपनी विरासत की जिम्मेदारी नहीं लेते, तब तक कोई भी धरोहर जीवित नहीं रह सकती। धरोहरें केवल ईंट-पत्थर की इमारतें नहीं होतीं — वे हमारी पहचान, स्मृतियाँ और सांस्कृतिक आत्मा का प्रतिबिंब होती हैं। लखनऊ जैसे शहर में, जहाँ हर मोड़, हर गलियों में इतिहास सांस लेता है — वहां संरक्षण का कार्य जन-सहभागिता के बिना अधूरा है। यदि स्थानीय नागरिक स्वयं यह महसूस करें कि ये इमारतें उनके अपने अतीत का हिस्सा हैं, तो वे इनकी रक्षा और संवर्धन में कहीं अधिक सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं। धरोहरों से भावनात्मक जुड़ाव को स्कूलों की पाठ्य पुस्तकों, मीडिया अभियानों, नुक्कड़ नाटकों और सांस्कृतिक आयोजनों के ज़रिए गहराया जा सकता है।
स्वयंसेवी संस्थाएँ, स्थानीय निकाय, मोहल्ला समितियाँ और युवाओं के विरासत क्लब, यदि मिलकर इन स्मारकों की सफ़ाई, देखरेख और प्रचार-प्रसार में जुट जाएं, तो यह न केवल धरोहरों को संरक्षित करेगा बल्कि एक सामुदायिक चेतना को भी जन्म देगा। इसके अलावा, समुदाय आधारित संरक्षण मॉडल से नागरिकों में स्वामित्व की भावना उत्पन्न होती है। जब लोग महसूस करते हैं कि धरोहर उनकी ज़िम्मेदारी है, तो संरक्षण केवल सरकारी कार्य नहीं रह जाता — वह जनांदोलन बन जाता है। स्थानीय भाषाओं में जानकारी देना, बच्चों और युवाओं को विरासत से जोड़ना, स्मारकों पर पंचायत-स्तरीय निगरानी समितियाँ बनाना, जैसे प्रयास इस दिशा में बेहद उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।
इतिहास, कला और वैभव का संगम: वडोदरा का लक्ष्मी विलास महल
वास्तुकला 1 वाह्य भवन
Architecture I - Exteriors-Buildings
29-06-2025 09:07 AM
Lucknow-Hindi

वडोदरा के हरे-भरे बागों, आम के बागानों और विशाल खेतों के बीच स्थित लक्ष्मी विलास महल भारत के सबसे भव्य राजमहलों में से एक है। 1880 में महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय (Maharaja Sayajirao Gaekwad III) द्वारा बनवाया गया यह महल, आकार में लंदन के बकिंघम पैलेस (Buckingham Palace) से चार गुना बड़ा है। लगभग 1890 में पूरा हुआ यह महल बीते 100 वर्षों से अधिक समय से गायकवाड़ शाही परिवार का निवास रहा है। महल परिसर में बड़ौदा गोल्फ क्लब, मोतीबाग क्रिकेट ग्राउंड और महाराजा फतेहसिंह संग्रहालय जैसी संस्थाएँ भी शामिल हैं। कभी इस विशाल परिसर में एक छोटा चिड़ियाघर और शाही बच्चों को घुमाने के लिए एक रेल लाइन भी थी।
पहले वीडियो में आप लक्ष्मी महल की वास्तुकला, इसके आंतरिक भाग आदि के बारे में देखेंगे।
अगर आप लक्ष्मी महल का खूबसूरत एरियल और ड्रोन व्यू देखना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।
इस महल के मुख्य वास्तुकार मेजर चार्ल्स मैन्ट (Major Charles Mant), अपने समय के प्रसिद्ध आर्किटेक्ट थे। दरभंगा और कोल्हापुर के महलों की रचना कर चुके मैन्ट का यह सबसे महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट था।
महल की वास्तुकला और सुविधाएँ
लगभग 1.8 लाख पाउंड की लागत से बने इस महल में उस समय की आधुनिकतम सुविधाएँ जैसे लिफ्ट (Lift), आंतरिक टेलीफोन नेटवर्क (internal telephone network)और बिजली आपूर्ति मौजूद थीं। महल का निर्माण गीतापूर्ण सौंदर्य से भरपूर इंडो-सारासेनिक शैली (Indo-Saracenic style) में हुआ, जिसमें सोनगढ़ की सुनहरी पत्थर की दीवारें, झरोखे, मेहराब, छतरियाँ और महीन नक्काशी वाले ब्रैकेट्स प्रमुख हैं। एक ऊँचा टावर भी है जिसे घड़ी टावर बनाना था, लेकिन अंततः उस पर एक लाल बत्ती लगाई गई जो राजा की उपस्थिति का संकेत देती थी।
नीचे दिए गए वीडियो के माध्यम से आप लक्ष्मी महल की सुंदर वास्तुकला और खूबसूरत वातावरण को देख सकते हैं।
शाही आंतरिक सजावट
महल के अंदर दो सुंदर आंगनों के चारों ओर नियोजन किया गया है, जिनमें पेड़ और फव्वारे लगे हैं। शाही भव्यता को सजाने के लिए संगमरमर, स्टुको वर्क, विदेशी झूमर, सना हुआ कांच, वेनेशियन फर्श, और प्रसिद्ध इटालियन मूर्तिकार फेलेची (Felice Casorati) की मूर्तियाँ लगाई गईं। लगभग 170 कक्षों में से हर एक अपने अलग रंग या सजावट की थीम में बना है — जैसे सिल्वर रूम और गुलाबी रूम। इन सभी विशेषताओं के बीच सबसे आकर्षक है दरबार हॉल, जिसकी भव्यता के बिना महल की शान अधूरी है। विशाल सीढ़ियाँ, रोशनी से भरे गलियारे, और राजसी फर्श इसे एक ऐतिहासिक धरोहर बनाते हैं।
नीचे दिए गए लिंक के माध्यम से आपको लक्ष्मी विलास के बारे में संक्षिप्त जानकारी मिलेगी — इसकी भव्य वास्तुकला, स्वादिष्ट भोजन, समृद्ध इतिहास और अन्य कई रोचक पहलुओं के बारे में। यह वीडियो महल की खूबसूरती और सांस्कृतिक विरासत को करीब से जानने का बेहतरीन माध्यम है।
संदर्भ-
लखनऊवासियों, जानिए कैसे रेशम मार्ग बना भारतीय धर्मों का वैश्विक वाहक!
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
28-06-2025 09:18 AM
Lucknow-Hindi

रेशम मार्ग, जिसे हम 'सिल्क रूट' के नाम से जानते हैं, सिर्फ व्यापार का रास्ता नहीं था, बल्कि यह एक ऐसी जीवंत सांस्कृतिक धारा थी जिसने महाद्वीपों को आपस में जोड़ा। यह मार्ग न केवल वस्त्र और मसालों का लेन-देन करता था, बल्कि विचारों, विश्वासों और परंपराओं का भी आदान-प्रदान करता था। भारत की धार्मिक और बौद्धिक संपदा—बौद्ध और हिंदू दर्शन, ग्रंथ, कला, योग, आयुर्वेद—इसी ऐतिहासिक रास्ते से होते हुए चीन, तिब्बत, कोरिया, मंगोलिया और दक्षिण-पूर्व एशिया तक पहुँची।
प्राचीन विश्वविद्यालयों से निकले विचार, भिक्षुओं की यात्राएँ, और स्थापत्य कला की मिसालें इस बात का प्रमाण हैं कि रेशम मार्ग ने भारत की पहचान को वैश्विक बनाया। इस लेख में हम रेशम मार्ग के माध्यम से भारतीय धर्म, संस्कृति और ज्ञान की वैश्विक यात्रा का विश्लेषण करेंगे, यह समझने की कोशिश करेंगे कि कैसे यह मार्ग न केवल वस्तुओं का, बल्कि विचारों, विश्वासों और सांस्कृतिक सम्पदाओं का भी आदान-प्रदान करने वाला एक महत्वपूर्ण माध्यम था।
भारतीय धर्म, संस्कृति और ज्ञान का रेशम मार्ग के माध्यम से प्रसार
रेशम मार्ग भारत के धार्मिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक विचारों के अंतरराष्ट्रीय प्रचार का एक महत्वपूर्ण माध्यम रहा है। यह मार्ग केवल व्यापारिक गतिविधियों तक सीमित नहीं था, बल्कि भारतीय दर्शन, धार्मिक आस्थाओं और शास्त्रीय साहित्य के प्रसार का भी एक प्रभावशाली सेतु था। वेदों, उपनिषदों, और बौद्ध त्रिपिटक जैसे ग्रंथों की गूढ़ शिक्षाएं इसी मार्ग के माध्यम से दूर-दराज़ के क्षेत्रों—विशेष रूप से पूर्वी एशिया—तक पहुँचीं। वैदिक यज्ञ परंपराएँ, आत्मा और परमात्मा की उपनिषदिक अवधारणाएँ, तथा बौद्ध धर्म की करुणा और निर्वाण की संकल्पनाएँ मध्य एशिया, चीन, जापान और कोरिया जैसे देशों में गहराई से समाहित हो गईं।
भारत के बौद्ध भिक्षुओं—जैसे कुमारजीव, बोधिधर्म और धर्मरक्षिता—ने न केवल इन क्षेत्रों की यात्रा की, बल्कि वहाँ की भाषाओं और संस्कृतियों में भारतीय विचारधारा का समावेश भी किया। कुमारजीव ने अनेक बौद्ध ग्रंथों का संस्कृत से चीनी में अनुवाद कर बौद्ध त्रिपिटक को जनसाधारण तक पहुँचाया। बोधिधर्म ने चीन में ध्यान योग की परंपरा की नींव रखी, जो आगे चलकर ज़ेन बौद्ध धर्म का मूल आधार बनी। इन संतों का प्रभाव इतना गहरा था कि उनकी शिक्षाएं आज भी इन देशों की धार्मिक परंपराओं का अभिन्न हिस्सा हैं।
प्राचीन भारत के शिक्षा केंद्र जैसे नालंदा और तक्षशिला न केवल भारतीय विद्यार्थियों बल्कि तिब्बत, चीन, कोरिया और दक्षिण एशिया के हजारों छात्रों के लिए भी ज्ञान का प्रकाशस्तंभ थे। तक्षशिला विश्वविद्यालय में चिकित्सा, खगोल विज्ञान, व्याकरण और नीतिशास्त्र जैसे विविध विषयों की शिक्षा दी जाती थी, और इस विद्या का प्रचार-प्रसार रेशम मार्ग के माध्यम से कई सभ्यताओं में हुआ। यह केवल ज्ञान का आदान-प्रदान नहीं था, बल्कि संस्कृतियों के परस्पर समृद्धिकरण की प्रक्रिया थी।
धार्मिक ग्रंथों के साथ-साथ भारत की योग परंपरा, आयुर्वेद चिकित्सा प्रणाली और तंत्र विद्या भी इस मार्ग से अन्य संस्कृतियों तक पहुँचीं। योग और ध्यान की भारतीय पद्धतियाँ मध्य एशिया और तिब्बत के साधकों में अत्यंत लोकप्रिय हुईं, जहाँ उन्हें स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप पुनर्विकसित भी किया गया। विशेष रूप से तिब्बत में योग साधना की समृद्ध परंपरा का मूल आधार भारत से आए महायोगियों और विद्वानों का योगदान था।

रेशम मार्ग के माध्यम से कला, शिल्प और लोक परंपराओं का प्रचार
रेशम मार्ग भारत की मूर्तिकला, वास्तुकला और चित्रकला को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने का सशक्त माध्यम बना। भारतीय शिल्प परंपरा की विशिष्ट मथुरा, अमरावती और गांधार शैलियों में निर्मित मूर्तियाँ आज भी मध्य एशिया और चीन के बौद्ध मंदिरों में अपने प्रभाव की छाप छोड़ती हैं। ये कलाकृतियाँ केवल धार्मिक प्रतीक नहीं थीं, बल्कि भारत की सौंदर्य दृष्टि और सांस्कृतिक परिपक्वता की जीवंत अभिव्यक्ति भी थीं।
विशेष रूप से गांधार शैली, जो यूनानी और भारतीय कला का विलक्षण समन्वय थी, तुर्कमेनिस्तान, अफगानिस्तान और पश्चिमी चीन जैसे क्षेत्रों में अत्यंत लोकप्रिय रही। इस शैली में निर्मित बुद्ध की आकृतियाँ, जिनके चेहरे पर यूनानी देवताओं जैसी विशेषताएँ मिलती हैं, इस सांस्कृतिक समन्वय का स्पष्ट प्रमाण हैं। इन मूर्तियों ने न केवल धार्मिक चेतना को प्रभावित किया बल्कि शिल्प की अंतरराष्ट्रीय भाषा का स्वरूप भी गढ़ा।
भारतीय वस्त्रकला जैसे बनारसी, चंदेरी और कांजीवरम रेशमी वस्त्र, रेशम मार्ग के व्यापारी कारवां द्वारा चीन, फारस और रोम तक पहुँचाए जाते थे। ये वस्त्र केवल व्यापारिक वस्तुएँ नहीं थे, बल्कि वहाँ की दरबार संस्कृति और शाही वस्त्रों का हिस्सा बन गए। विशेष रूप से चीनी राजदरबारों में इन वस्त्रों की मांग इतनी बढ़ गई कि भारतीय वस्त्रकला के डिज़ाइन वहाँ की सिल्क पेंटिंग और वस्त्र निर्माण पर गहराई से प्रभाव डालने लगे। भारतीय रंग संयोजन और पारंपरिक बाटिक शैलियाँ इन कलाओं में झलकने लगीं।
भारतीय लोक परंपराओं की विधाएँ जैसे कठपुतली, कीर्तन, और कथा-नाट्य भी रेशम मार्ग के सांस्कृतिक प्रवाह के साथ यात्रा करती रहीं। इन कलात्मक विधाओं की छाया कोरिया और जापान की पारंपरिक "नोह" और "काबुकी" नाट्य परंपराओं में देखी जा सकती है। इन स्थानीय परंपराओं ने भारतीय कला के भाव और मंचीय संरचना को आत्मसात कर नई अभिव्यक्ति दी।
इसके अतिरिक्त, भारतीय संगीत की राग और ताल प्रणाली ने भी एशियाई संगीत परंपराओं को समृद्ध किया। मध्य एशिया और चीन के पारंपरिक संगीत में भारतीय रागों के स्वरों की अनुगूँज आज भी सुनाई देती है। राग यमन, भीमपलासी जैसे रागों की छाया उन क्षेत्रों के लोक और शास्त्रीय संगीत में स्पष्ट पाई गई है। इसी प्रकार, कथक जैसे शास्त्रीय नृत्य, जिसमें नृत्य और कथावाचन का अद्भुत संगम है, ने भी एशियाई लोक नृत्य परंपराओं को भाव-भंगिमा और प्रस्तुति शैली में गहराई से प्रभावित किया।

रेशम मार्ग की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और सांस्कृतिक महत्त्व
रेशम मार्ग का प्रारंभिक उपयोग चीन के हान राजवंश (लगभग 130 ईसा पूर्व) से माना जाता है, किंतु इससे पूर्व भी यह मार्ग प्राचीन सभ्यताओं के मध्य संपर्क का माध्यम रहा था। इस ऐतिहासिक मार्ग के दो प्रमुख भौगोलिक रूप थे—उत्तर रेशम मार्ग, जो चीन से मध्य एशिया होते हुए यूरोप तक विस्तृत था, और दक्षिणी रेशम मार्ग, जो भारत के तटीय नगरों से होकर श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड और आगे दक्षिण-पूर्व एशिया तक फैलता था।
इस मार्ग की सबसे महत्वपूर्ण सांस्कृतिक विशेषता यह थी कि यह केवल वस्तुओं का आदान-प्रदान करने वाला व्यापारिक मार्ग नहीं था, बल्कि यह विचारों, मान्यताओं और जीवन दृष्टियों के संप्रेषण का सेतु था। भारत की समावेशी और समन्वयवादी सोच—जो “वसुधैव कुटुम्बकम्” और “सर्वे भवन्तु सुखिनः” जैसे मंत्रों में अभिव्यक्त होती है—रेशम मार्ग के माध्यम से पूरे एशिया में संवाद, सौहार्द और सहअस्तित्व का प्रतीक बनकर फैली।
भारतीय खगोलविदों द्वारा रचित ग्रंथ जैसे आर्यभट्टीय और सूर्य सिद्धांत का अरबी व फ़ारसी में अनुवाद हुआ, जो आगे चलकर यूरोपीय पुनर्जागरण की वैज्ञानिक चेतना को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण स्रोत बने। इसी प्रकार आयुर्वेद के ग्रंथ — चरक संहिता और सुश्रुत संहिता — तिब्बत और चीन के चिकित्सा पद्धतियों में सम्मिलित होकर वहाँ की औषधीय परंपराओं को समृद्ध करने का आधार बने।
रेशम मार्ग के व्यापारिक संपर्क में मसाले, कागज़, औषधियाँ, धातु शिल्प और अन्य कलात्मक वस्तुएँ भी प्रवाहित होती रहीं, जो न केवल भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती थीं, बल्कि विभिन्न सभ्यताओं की जीवनशैली और तकनीकी विकास में गहरा योगदान देती थीं।
यह मार्ग समय के साथ एक धार्मिक और सांस्कृतिक संगम बन गया, जहाँ बौद्ध, हिंदू, ज़ोरास्ट्रियन, इस्लामी और ईसाई धर्मों के विचार, प्रतीक और रीति-रिवाज एक-दूसरे से संवाद करते रहे। इस प्रकार रेशम मार्ग केवल व्यापार नहीं, बल्कि वैश्विक सहिष्णुता, सांस्कृतिक विविधता और परस्पर सम्मान का प्रतीक बनकर मानव सभ्यता को समृद्ध करता रहा।

गायत्री मंत्र और हिंदू ग्रंथों की एशियाई लिपियों में उपस्थिति
गायत्री मंत्र, जो ऋग्वेद में उल्लिखित है, भारतीय आध्यात्मिक चेतना का अत्यंत गूढ़ और पवित्र सार है। इसकी ध्वनि, लयात्मकता और गूढ़ार्थ इतने प्रभावशाली रहे कि इसका अनुवाद और लिप्यंतरण तिब्बती, चीनी, जापानी और मंचूरियन जैसी विविध भाषाओं और लिपियों में भी किया गया। तिब्बती बौद्ध ग्रंथों में इस मंत्र की गूँज “ओं भूर्भुवः स्वः…” की समानांतर ध्वनियों के रूप में आज भी प्रतिध्वनित होती है, जो इस मंत्र की व्यापक आध्यात्मिक स्वीकार्यता को दर्शाता है।
प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग द्वारा भारत से लाए गए ग्रंथों में प्रज्ञापारमिता सूत्र, धम्मपद, और ललितविस्तर जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथ शामिल थे, जो आगे चलकर तिब्बती और चीनी भाषाओं में अनूदित हुए। इन ग्रंथों में कई स्थानों पर वैदिक मंत्रों का प्रयोग बुद्ध की स्तुतियों और बोधि-सत्त्वों के स्तवन में किया गया है, जो दर्शाता है कि वैदिक परंपरा और बौद्ध धर्म में दार्शनिक समन्वय भी विद्यमान था।
इसके अतिरिक्त, रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों के विविध प्रसंग जापान के “रामेयान” और इंडोनेशिया के “काकाविन रामायण” जैसे ग्रंथों में पाए जाते हैं। इंडोनेशिया की रामलीला परंपरा, जो नृत्य, छाया-चित्र और अभिनय का अद्भुत समन्वय है, आज भी सांस्कृतिक जीवंतता के साथ संरक्षित है।

मध्य एशिया के मर्व और निशापुर में भारतीय प्रभाव के प्रमाण
मर्व और निशापुर, प्राचीन रेशम मार्ग पर स्थित, अत्यंत महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक और बौद्धिक केंद्र रहे हैं। मर्व, जिसे प्राचीन ग्रंथों में ‘मरु’ भी कहा गया है, एक समय बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र था जहाँ भव्य बौद्ध विहार, स्तूप और विश्वविद्यालय स्थापित थे। यहाँ के पुरातात्विक अवशेषों में ब्राह्मी लिपि में शिलालेख, बुद्ध एवं बोधिसत्व की मूर्तियाँ, तथा संस्कृत में लिखी पांडुलिपियाँ प्राप्त हुई हैं, जो भारत से सीधे सांस्कृतिक संपर्क का प्रमाण देती हैं।
वहीं निशापुर, जो उस समय का एक समृद्ध ईरानी नगर था, वहाँ के प्राचीन खंडहरों में भारतीय प्रतीक चिह्न—जैसे स्वस्तिक, पद्म और चक्र—उत्कीर्ण मिले हैं। यह प्रतीक केवल धार्मिक नहीं, बल्कि दार्शनिक और सांस्कृतिक अंतर्संबंधों की स्पष्ट अभिव्यक्ति हैं। निशापुर के विद्वानों ने भारतीय गणितज्ञों जैसे भास्कराचार्य और आर्यभट्ट के ग्रंथों का गहन अध्ययन किया और उनके कार्यों का अरबी भाषा में अनुवाद किया, जिससे ये ग्रंथ इस्लामी जगत तक पहुँचे।
निशापुर और मर्व के पुस्तकालयों में वैदिक ज्योतिष, भारतीय तंत्र ग्रंथों, और औषध शास्त्र से संबंधित प्रतियाँ संरक्षित थीं। इस्लामी गोल्डन एज के प्रमुख वैज्ञानिकों — जैसे अल-ख्वारिज्मी (Al-Khwarizmi) और अल-राजी (Al-Razi) — पर इन भारतीय ग्रंथों का गहरा प्रभाव देखा गया, विशेषतः खगोलशास्त्र, गणित और चिकित्सा के क्षेत्र में।
प्राचीन गुफा मंदिरों और मठ परिसरों में भारतीय चित्रण और प्रतीक
कुचा, कुज़िल, कुमतुरा, तुरफान और बेज़ेकलीक जैसे स्थानों पर स्थित प्राचीन गुफाओं में भारतीय कला और शैली के स्पष्ट प्रभाव देखे जा सकते हैं। इन गुफाओं की भित्तिचित्रों में बुद्ध के जीवन प्रसंग, जातक कथाएँ और साथ ही हिंदू देवी-देवताओं के प्रतीक चित्रित हैं। इन चित्रों की रंग-संरचना और शैली में अजंता की भित्तिचित्र परंपरा की स्पष्ट झलक मिलती है, जो भारत से इन दूरस्थ क्षेत्रों तक कला के प्रसार को दर्शाती है।
कुज़िल की गुफाओं में एक प्रमुख भित्ति पर ‘शिव नटराज’ की आकृति अंकित है, जो यह इंगित करती है कि बौद्ध विहारों में भी हिंदू प्रतीकों का समावेश सहज रूप से स्वीकार किया गया था। यह भारत की समन्वयवादी धार्मिक दृष्टि का प्रमाण है। इन स्थलों पर सक्रिय सोग्दियन व्यापारी, जो भारत से गहरे सांस्कृतिक रूप से जुड़े थे, धर्म और कला के प्रसार में पुल की भूमिका निभाते रहे।
इन गुफाओं में ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों में अंकित संस्कृत श्लोक जैसे “नमो बुद्धाय” और “नमो नारायणाय” प्राप्त हुए हैं, जो वहाँ की बहुधार्मिक सहिष्णुता और भारत से सांस्कृतिक आदान-प्रदान का साक्ष्य देते हैं। यह गुफाएँ केवल साधना या उपासना का स्थल नहीं थीं, बल्कि सक्रिय ज्ञान केंद्र थीं, जहाँ अनुवाद, लेखन, चित्रण और विद्वत्चर्चा की परंपराएँ विकसित हुईं।
लखनऊ संग्रहालय में रखे अभिलेख बताते हैं ब्राह्मी लिपि की अनसुनी कहानी
ध्वनि 2- भाषायें
Sound II - Languages
27-06-2025 09:16 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊवासियो, क्या आप जानते हैं कि हमारे अपने शहर के उत्तर प्रदेश राज्य संग्रहालय में संरक्षित शिलालेख हमें उस समय की सैर कराते हैं जब भारत में पहली बार लिपियों का उद्भव हुआ था? इन अभिलेखों में जो लिपि प्रयुक्त हुई है, वह है ब्राह्मी लिपि, जिसे भारत की सबसे प्राचीन और प्रभावशाली लिपि माना जाता है। ब्राह्मी लिपि केवल एक लेखन प्रणाली नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान की नींव है। यही लिपि बाद में भारत की प्रमुख लिपियों, जैसे देवनागरी और तमिल ब्राह्मी, का आधार बनी। लखनऊ के उत्तर प्रदेश राज्य संग्रहालय में रखे ब्राह्मी अभिलेख केवल पत्थरों पर खुदे अक्षर नहीं, बल्कि अतीत की उन आवाज़ों का प्रमाण हैं जिन्होंने आज के भारत को आकार दिया। आइए, इस लेख के माध्यम से इस विलुप्त होती लिपि की यात्रा को फिर से जीवंत करें। इस लेख में हम सबसे पहले ब्राह्मी लिपि के ऐतिहासिक उद्भव और विकास की विस्तृत चर्चा करेंगे। फिर हम देखेंगे कि इसकी उत्पत्ति को लेकर कौन-कौन से सिद्धांत विद्वानों द्वारा प्रस्तावित किए गए हैं। इसके बाद, हम जानेंगे कि ब्राह्मी लिपि का दक्षिण और पूर्वी एशियाई भाषाओं और लिपियों पर क्या प्रभाव पड़ा। फिर हम यह समझेंगे कि ब्राह्मी से कौन-कौन सी अन्य प्रमुख लिपियाँ विकसित हुईं जैसे देवनागरी, तमिल-ब्राह्मी आदि। अंत में हम लखनऊ सहित भारत के अन्य क्षेत्रों में पाए गए अभिलेखों और पुरातात्विक साक्ष्यों की मदद से यह विश्लेषण करेंगे कि ब्राह्मी लिपि किस प्रकार इतिहास को जीवंत करती है और भारतीय पहचान का महत्वपूर्ण स्तंभ है।
ब्राह्मी लिपि का इतिहास और विकास
ब्राह्मी लिपि को भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे प्राचीन और प्रभावशाली लेखन प्रणाली माना जाता है, जिसकी उत्पत्ति लगभग तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास मानी जाती है। यह लिपि, सिंधु घाटी की रहस्यमयी लिपि के बाद भारत में लेखन परंपरा की पहली स्पष्ट और व्यवस्थित कड़ी के रूप में उभरती है। लखनऊ के उत्तर प्रदेश राज्य संग्रहालय में संजोए गए दान-पत्र और शिलालेख इस बात का प्रमाण हैं कि ब्राह्मी लिपि न केवल मौर्यकालीन शासन के दौरान, बल्कि उससे पहले भी प्रचलन में थी। हालांकि, इसका सबसे व्यापक उपयोग सम्राट अशोक (273–232 ई.पू.) के शासनकाल में देखने को मिलता है, जब इस लिपि को प्रशासनिक आदेशों और बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए पूरे उपमहाद्वीप में इस्तेमाल किया गया।
ब्राह्मी लिपि की विशेषता इसकी सरल, सुव्यवस्थित और लचीली संरचना थी, जिसने इसे आसानी से सीखने योग्य बना दिया और यही कारण है कि यह विभिन्न क्षेत्रों में तेजी से लोकप्रिय हुई। इसके अक्षरों की गोलाकार और रेखीय बनावट इसे उस समय की अन्य लिपियों से अलग और विशिष्ट बनाती थी। ब्राह्मी में लिखे गए अभिलेखों में प्राकृत और संस्कृत की प्रारंभिक भाषाई छवियाँ देखी जा सकती हैं, जो इस लिपि को भाषाई इतिहास का भी एक अमूल्य स्रोत बनाती हैं।
समय के साथ, जैसे-जैसे भारत में राजनीतिक सत्ता और सांस्कृतिक विविधता का विस्तार हुआ, ब्राह्मी लिपि भी अनेक रूपों में ढलती चली गई। मौर्य साम्राज्य के पश्चात् कई अन्य राजवंशों ने इस लिपि को अपनाया और इसे अपनी क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों के अनुरूप ढालने लगे। यही कारण है कि ब्राह्मी लिपि एक आधारशिला बन गई, जिससे आगे चलकर नागरी, तमिल-ब्राह्मी, गुप्त, शारदा, और तिब्बती जैसी कई महत्वपूर्ण लिपियाँ विकसित हुईं। प्राचीन ग्रंथों, सिक्कों, प्रशासनिक आदेशों और धार्मिक शिलालेखों में ब्राह्मी का प्रयोग इसकी ऐतिहासिक, भाषाई और सांस्कृतिक विरासत को आज भी जीवंत बनाए हुए है।
ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति के सिद्धांत
ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों में आज भी गहरी बहस जारी है। इसके विकास को लेकर कई सिद्धांत सामने आए हैं, जो इस प्राचीन लिपि की जटिलता और ऐतिहासिक महत्व को और भी रोचक बना देते हैं। एक प्रमुख विचारधारा यह मानती है कि ब्राह्मी लिपि का जन्म प्राचीन सेमिटिक लिपियों—विशेष रूप से अरामाइक और उत्तर सेमिटिक स्क्रिप्ट—के प्रभाव से हुआ। माना जाता है कि जब छठी शताब्दी ईसा पूर्व में फारस के अकेमेनिड साम्राज्य ने सिंधु घाटी पर नियंत्रण स्थापित किया, तो वहाँ अरामाइक भाषा और लिपि का प्रभाव पहुंचा। भारतीय ब्राह्मणों और विद्वानों ने संभवतः इन लिपियों को स्थानीय भाषाओं—संस्कृत और प्राकृत—के अनुरूप ढालकर एक नई लिपि का निर्माण किया, जिसे हम आज ब्राह्मी के रूप में जानते हैं।
वहीं दूसरी ओर, एक समूह यह मानता है कि ब्राह्मी पूरी तरह भारत में ही विकसित हुई स्वदेशी लिपि है, जिसकी जड़ें सिन्धु घाटी की अज्ञात लिपि में छिपी हो सकती हैं। हालांकि सिन्धु लिपि को अब तक पूरी तरह पढ़ा नहीं जा सका है, लेकिन कुछ प्रतीकों की बनावट ब्राह्मी के अक्षरों से मिलती-जुलती प्रतीत होती है, जो इस सिद्धांत को बल देती है।
तीसरा दृष्टिकोण दक्षिण भारत की ओर इशारा करता है, विशेषकर तमिलनाडु के प्राचीन शैलचित्रों और भित्तिलिपियों में मिले ब्राह्मी अक्षरों की उपस्थिति से। इससे यह संकेत मिलता है कि ब्राह्मी लिपि का विकास एक क्षेत्रीय प्रक्रिया भी हो सकता है, जिसमें दक्षिण भारत की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही हो।
इन विभिन्न सिद्धांतों के बीच कोई अंतिम सहमति नहीं बन सकी है, लेकिन एक बात स्पष्ट है—ब्राह्मी लिपि भारत में लेखन की परंपरा की नींव बनकर उभरी और इसके विकास में कई ऐतिहासिक, भाषाई और सांस्कृतिक परतें जुड़ी हुई हैं। कुछ आधुनिक विद्वान यह भी मानते हैं कि ब्राह्मी का उद्भव किसी एक स्रोत से नहीं बल्कि स्थानीय चित्रलिपियों, सांस्कृतिक प्रभावों और प्रतीकात्मक संकेतों के समन्वय से हुआ, जिसने इसे एक व्यापक और समृद्ध लिपि प्रणाली का रूप दिया।

ब्राह्मी लिपि का सांस्कृतिक विस्तार और क्षेत्रीय प्रभाव
ब्राह्मी लिपि का प्रभाव किसी एक भाषा या क्षेत्र तक सीमित नहीं रहा—यह भारत की सीमाओं को पार कर पूरे दक्षिण एशिया में ज्ञान, संस्कृति और शासकीय व्यवस्था की पहचान बन गई। मौर्य सम्राट अशोक द्वारा खुदवाए गए शिलालेख इस लिपि के प्रभाव और प्रसार का सबसे जीवंत प्रमाण हैं। इन अभिलेखों के माध्यम से न केवल तत्कालीन धार्मिक और नैतिक मूल्यों की झलक मिलती है, बल्कि यह भी समझ आता है कि प्रशासन, संचार और जनहित के लिए ब्राह्मी लिपि कितनी अनिवार्य बन चुकी थी।
लखनऊ के राज्य संग्रहालय (State Museum, Lucknow) समेत उत्तर और मध्य भारत के कई पुरातात्विक स्थलों पर प्राप्त ब्राह्मी शिलालेख इस बात की गवाही देते हैं कि यह लिपि हमारे क्षेत्रीय इतिहास का अहम हिस्सा रही है। इन अभिलेखों से यह स्पष्ट होता है कि ब्राह्मी लिपि का उपयोग मंदिरों, दान-पत्रों, सार्वजनिक घोषणाओं और शासकीय आदेशों तक में किया जाता था—यानी यह लिपि आम जन और शासन, दोनों की ज़रूरतों को पूरा करती थी।
समय के साथ ब्राह्मी लिपि ने विभिन्न भाषाओं और बोलियों के अनुरूप अपने रूप बदले—उत्तर भारत में प्राकृत और संस्कृत से लेकर दक्षिण भारत में तमिल तक, इस लिपि ने भाषाई अभिव्यक्ति के नए रास्ते खोले। इसकी सरलता और लचीलेपन ने इसे पूरे उपमहाद्वीप में लोकप्रिय बना दिया।
ब्राह्मी का प्रभाव केवल भारत तक ही नहीं रुका; यह दक्षिण-पूर्व एशिया के कई देशों—जैसे श्रीलंका, थाईलैंड, म्यांमार और इंडोनेशिया—की लिपियों की नींव बन गई। वहाँ की पुरानी लिपियाँ जैसे सिंहल, खमेर, और बर्मी लिपियाँ, ब्राह्मी से ही जन्मी मानी जाती हैं। इस प्रकार, ब्राह्मी लिपि न केवल लखनऊ और भारत, बल्कि पूरे एशियाई सांस्कृतिक और भाषाई विकास की एक अदृश्य रीढ़ साबित हुई है।
आज जब हम लखनऊ के संग्रहालय में ब्राह्मी अभिलेखों को देखते हैं, तो यह सिर्फ इतिहास के अवशेष नहीं, बल्कि उस महान परंपरा की झलक हैं जिसने भाषा, संचार और संस्कृति को नई दिशा दी।
ब्राह्मी लिपि से उत्पन्न लिपियाँ और उसका प्रभाव
ब्राह्मी लिपि को भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं, बल्कि पूरे एशिया की अनेक प्रमुख लिपियों की जननी माना जाता है। इसकी संरचना, स्पष्टता और अनुकूलनशीलता ने इसे उस समय की सबसे शक्तिशाली लेखन प्रणाली बना दिया, जिससे अनेक लिपियाँ विकसित हुईं। श्रीलंका की सिंहल लिपि, दक्षिण भारत की तेलुगु और कन्नड़, हिमालयी क्षेत्र की तिब्बती लिपि, उत्तर भारत की गुरुमुखी, और दक्षिण-पूर्व एशिया की थाई और खमेर लिपियाँ—सभी का मूल ब्राह्मी में निहित है।
ब्राह्मी की यह भाषाई विरासत महज़ अक्षरों की श्रृंखला नहीं थी, बल्कि यह एक ऐसा सेतु थी, जिसने संस्कृतियों को जोड़ा, संवाद को दिशा दी और ज्ञान को स्थायित्व प्रदान किया। इसकी सरल और वैज्ञानिक संरचना ने विभिन्न भाषाओं और उच्चारणों के अनुरूप अपने रूप को ढालने में सक्षम बनाया—यही इसकी सबसे बड़ी शक्ति और सफलता रही।
हालाँकि समय के साथ इन लिपियों ने अपनी-अपनी विशिष्टताएँ विकसित कर लीं, फिर भी उनकी जड़ें ब्राह्मी की वर्णमाला, उच्चारण नियमों और लिप्यंतरण प्रणाली में आज भी महसूस की जा सकती हैं। इस ऐतिहासिक संबंध ने भारत ही नहीं, बल्कि पूरे एशिया में धार्मिक ग्रंथों, साहित्यिक कृतियों, प्रशासनिक आदेशों और ऐतिहासिक दस्तावेजों के रक्षण और संप्रेषण को एक सशक्त माध्यम दिया।

ब्राह्मी लिपि के अभिलेख और पुरातात्विक साक्ष्य
लखनऊ के उत्तर प्रदेश राज्य संग्रहालय में संरक्षित अनेक प्राचीन अभिलेख न केवल ब्राह्मी लिपि की ऐतिहासिक महत्ता को उजागर करते हैं, बल्कि वे हमें उस युग की सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना से भी परिचित कराते हैं। संग्रहालय में रखा गया एक विशेष दान अभिलेख, जिसमें साका संवत के नवम वर्ष का उल्लेख मिलता है, इस लिपि के प्रमाणिक उपयोग का सजीव उदाहरण है। यह अभिलेख एक महिला 'गहतपाल' द्वारा दिए गए उपहार का वर्णन करता है—जो उस समय महिलाओं की धार्मिक और सामाजिक भागीदारी को भी दर्शाता है।
ब्राह्मी लिपि के महत्व को केवल भारत तक सीमित करना उचित नहीं होगा। श्रीलंका के अनुराधापुरा क्षेत्र में मिले 450–350 ईसा पूर्व के मिट्टी के पात्रों पर खुदे ब्राह्मी अक्षर इस लिपि की प्राचीनता और अंतरराष्ट्रीय विस्तार का प्रमाण हैं। वहीं, तमिलनाडु के चट्टानों और भित्तिचित्रों पर खुदी हुई ब्राह्मी लिपि इस बात की पुष्टि करती है कि यह लेखन प्रणाली दक्षिण भारत में भी गहराई से प्रचलित थी।
पत्थर, तांबे, सिक्के, हड्डी और हाथीदांत जैसी विविध सामग्रियों पर खुदे ब्राह्मी शिलालेख इस बात की गवाही देते हैं कि यह लिपि केवल धार्मिक या प्रशासनिक उद्देश्यों तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह जनजीवन के हर पहलू में गहराई से रची-बसी थी। इन अभिलेखों से न केवल भाषाशास्त्रियों को ज्ञान मिलता है, बल्कि इतिहासकारों को भी तत्कालीन समाज, आस्था और शासन की संरचना को समझने में सहायता मिलती है।
लखनऊ और उसके आसपास के क्षेत्रों—जैसे श्रावस्ती, कौशांबी और अयोध्या—में हुई पुरातात्विक खुदाइयों में भी ब्राह्मी लिपि में लिखे कई शिलालेख प्राप्त हुए हैं। ये अभिलेख दर्शाते हैं कि यह क्षेत्र न केवल ब्राह्मी लिपि के प्रचार-प्रसार का केंद्र था, बल्कि उस युग में यह ज्ञान, धर्म और प्रशासन का एक महत्वपूर्ण स्थल भी रहा होगा।
हरियाली से सरसब्ज़ लखनऊ: उत्तर प्रदेश के जंगलों की संपदा और संरक्षण का संकल्प
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26-06-2025 09:22 AM
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उत्तर प्रदेश, भारत का सबसे अधिक जनसंख्या वाला राज्य है, जो सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टिकोण से अत्यंत समृद्ध है। परंतु राज्य की बढ़ती जनसंख्या, औद्योगीकरण और शहरीकरण ने इसके पर्यावरण विशेषतः वनों पर गंभीर प्रभाव डाला है। वनों का न केवल पारिस्थितिकीय महत्व है बल्कि यह जैव विविधता, जलवायु नियंत्रण, औषधीय उपयोग, कृषि सहायता और आजीविका का भी प्रमुख आधार हैं। वर्तमान समय में जब जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक असंतुलन जैसी वैश्विक समस्याएं हमारे सामने खड़ी हैं, वनों का संरक्षण और पुनर्स्थापन अत्यंत आवश्यक हो गया है। इस लेख में हम उत्तर प्रदेश के वन क्षेत्रों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से लेकर वर्तमान स्थिति तक का विश्लेषण करेंगे। हम यह जानेंगे कि ये वन क्षेत्र कैसे समय के साथ बदलते गए, इनके क्या-क्या उपयोग रहे हैं, वर्तमान में ये किन संकटों का सामना कर रहे हैं, और इन्हें संरक्षित करने के लिए कौन-कौन से प्रयास किए जा रहे हैं।

उत्तर प्रदेश के वन क्षेत्र की स्थिति और ऐतिहासिक परिवर्तन
उत्तर प्रदेश का कुल भौगोलिक क्षेत्र 2,40,928 वर्ग किलोमीटर है, लेकिन वन आवरण लगभग 21,720 वर्ग किलोमीटर (9.01%) ही है। 1951 में अविभाजित उत्तर प्रदेश में कुल वन क्षेत्र 30,245 वर्ग किलोमीटर था, जो 1998-99 तक बढ़कर 51,428 वर्ग किलोमीटर हो गया। लेकिन 2000 में उत्तराखंड के पृथक होने के बाद यह क्षेत्र 16,888 वर्ग किलोमीटर रह गया।
वन क्षेत्रों में गिरावट का मुख्य कारण अतिक्रमण, विकास परियोजनाएँ, कृषि विस्तार और संसाधनों का अत्यधिक दोहन है। 2011 में वन क्षेत्र घटकर 16,583 वर्ग किलोमीटर हो गया था। उपग्रह आधारित 2009 के आकलन अनुसार केवल 1,626 वर्ग किलोमीटर में अत्यधिक घने वन पाए गए, जबकि अधिकांश क्षेत्र मध्यम और खुले वन के रूप में रह गया।
भारत सरकार के वन सर्वेक्षण (FSI) के अनुसार, राज्य के वन क्षेत्र में बहुत धीमी गति से वृद्धि हो रही है। उत्तर प्रदेश के वन तीन प्रमुख प्रकार के हैं – ऊष्ण कटिबंधीय पर्णपाती वन, बाढ़ मैदान के वन, और झाड़ियों वाले वन। इन वनों में साल, शीशम, बबूल, सागौन, अर्जुन आदि प्रमुख वृक्ष प्रजातियाँ पाई जाती हैं। राज्य में 8264 वर्ग किलोमीटर में आरक्षित वन हैं, जो वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।
वन सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक वन क्षेत्र सोनभद्र, लखीमपुर खीरी और चंदौली जिलों में पाया जाता है। उत्तर प्रदेश में वनों का वितरण असमान है – तराई क्षेत्र में वन अपेक्षाकृत घने हैं, जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वन आवरण न्यूनतम है। 2019 के आंकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश का हरित आवरण (वन + वृक्ष क्षेत्र) मिलाकर लगभग 13% तक पहुँच चुका है। “मिशन वृक्षारोपण” जैसी सरकारी योजनाओं ने इस वृद्धि में योगदान दिया है।
वनों की पारिस्थितिकीय भूमिका और पर्यावरणीय महत्व
वन पारिस्थितिक तंत्र का आधार हैं। यह कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर ऑक्सीजन छोड़ते हैं, जिससे वायु शुद्ध होती है। वर्षा चक्र को नियंत्रित करना, जल स्रोतों को संचित करना, और मिट्टी के कटाव को रोकना इनकी प्रमुख भूमिकाएं हैं।
वनों में रहने वाले वन्यजीव पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखते हैं। मधुमक्खियाँ, कीट, पक्षी आदि परागण द्वारा कृषि उत्पादन में सहायता करते हैं। वन मिट्टी को उपजाऊ बनाए रखते हैं और जैविक कचरे को विघटित कर पोषक तत्वों में परिवर्तित करते हैं। बिना वनों के पृथ्वी की पारिस्थितिक संरचना पूर्णतः असंतुलित हो जाएगी।
वनों के कारण स्थानीय और वैश्विक जलवायु दोनों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। वनों में उपस्थित माइकोराइज़ल फंगी और नाइट्रोजन-स्थिर करने वाले जीवाणुमिट्टी की उर्वरता बढ़ाते हैं। जंगलों की छांव और पत्तियों की मोटी परत स्थानीय तापमान को नियंत्रित रखती है, जिससे शहरी प्रभावों (urban heat islands) में कमी आती है। वनों में ग्लोबल कार्बन स्टॉक का लगभग 80% संरक्षित रहता है, जो जलवायु परिवर्तन की गति को कम करने में सहायक है।

वनों की कटाई: कारण, परिणाम और जोखिम
वनों की कटाई के मुख्य कारण हैं –
- कृषि विस्तार: बढ़ती जनसंख्या के लिए खाद्य उत्पादन हेतु भूमि की आवश्यकता।
- औद्योगिकीकरण और शहरीकरण: फैक्ट्रियाँ, सड़कें और आवासीय निर्माण हेतु भूमि अधिग्रहण।
- ईंधन और लकड़ी की मांग: ग्रामीण क्षेत्रों में लकड़ी पर निर्भरता।
- अवैध कटाई और अतिक्रमण।
इसका परिणाम है –
- जैव विविधता में गिरावट, कई प्रजातियाँ विलुप्ति के कगार पर हैं।
- जलवायु असंतुलन: वर्षा में अनियमितता और तापमान में वृद्धि।
- भूमि क्षरण: मिट्टी की गुणवत्ता में गिरावट और बंजर भूमि का विस्तार।
- पारिस्थितिक आपदाएं: बाढ़, सूखा और भूस्खलन जैसी घटनाओं में वृद्धि।
खाद्य और कृषि संगठन (FAO) की रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक स्तर पर हर साल लगभग 1 करोड़ हेक्टेयर वन नष्ट हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश में वनों की कटाई के कारण कई स्थानीय नदियाँ जैसे सई, गोमती और तमसा में जलस्तर घटा है। मध्यम हिमालय क्षेत्र में वनों की कटाई से न केवल भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी हैं, बल्कि पहाड़ी पारिस्थितिकी तंत्र भी असंतुलित हो रहा है। साथ ही मानव-वन्यजीव संघर्ष भी तेजी से बढ़ रहा है।
सोनभद्र और मिर्जापुर जिलों में खनन गतिविधियों से वनों की कटाई में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। खाद्य और कृषि संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर साल लगभग 2.4 लाख हेक्टेयर वन भूमि अलग-अलग कारणों से नष्ट होती है। उत्तर प्रदेश में मानव-वन्यजीव संघर्ष भी एक गंभीर परिणाम है – विशेष रूप से बाघों और हाथियों के आवास सिमटने से यह टकराव बढ़ा है। साथ ही, नदियों का जलस्तर घटना और भूमिगत जलस्रोतों का सूखना वनों की कटाई के अप्रत्यक्ष प्रभाव हैं।

वनों के औषधीय, कृषि और आर्थिक उपयोग
भारत में हज़ारों वर्षों से वनों का उपयोग औषधियों के निर्माण में होता रहा है।
- औषधीय उपयोग: तुलसी, अश्वगंधा, ब्राह्मी जैसे पौधे कई बीमारियों में लाभकारी हैं। आधुनिक दवाइयाँ जैसे पेनिसिलिन, एस्पिरिन आदि वनस्पतियों से प्राप्त होती हैं।
- कृषि उपयोग: परागण में सहायक मधुमक्खियाँ, कीट और पक्षी कृषि उत्पादकता को बढ़ाते हैं।
- आर्थिक महत्व: लाख, शहद, गोंद, रेज़िन, इंधन, बांस जैसे अनेक उत्पाद ग्रामीण अर्थव्यवस्था के आधार हैं।
- वन आधारित कुटीर उद्योगों को रोज़गार मिलता है, जिससे ग्रामीण आजीविका को सहारा मिलता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, विश्व की लगभग 80% आबादी परंपरागत औषधियों पर निर्भर है, जिनमें से अधिकांश वनस्पतियाँ वनों से प्राप्त होती हैं। उत्तर प्रदेश के जंगलों में गिलोय, सर्पगंधा, वन हल्दी जैसी औषधियाँ पाई जाती हैं। लाक उत्पादन उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र की आर्थिक रीढ़ है। शहद और बांस आधारित उद्योग भी ग्रामीण रोजगार के बड़े स्रोत हैं। औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय औषधीय पौधा बोर्ड (NMPB) कार्यरत है। उत्तर प्रदेश में औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा देने के लिए “राष्ट्रीय आयुष मिशन” के अंतर्गत औषधीय पादप बोर्ड सक्रिय है। वन्य उत्पादों जैसे लाक और रेज़िन का उत्पादन बुंदेलखंड और विंध्य क्षेत्रों में प्रमुख रूप से होता है।
वन संरक्षण के लिए सरकारी और सामाजिक प्रयास
उत्तर प्रदेश सरकार की 'वृक्षारोपण महाअभियान' के अंतर्गत 2020 में 25 करोड़ पौधे एक दिन में लगाए गए थे, जो एक विश्व रिकॉर्ड बना। वन विभाग द्वारा ई-वनीकरण ऐप शुरू किया गया है जिससे पौधारोपण और निगरानी को तकनीकी सहायता मिली है। वन्य जीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो और ग्रीन ट्रिब्यूनल जैसे संस्थानों की भूमिका भी वन संरक्षण में अहम रही है। इको-डेवलपमेंट कमिटियाँ (Eco Development committee) भी सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा देती हैं।
सरकार और समाज दोनों मिलकर वनों के संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
- राष्ट्रीय वन नीति (1988): इसमें वन आवरण को राष्ट्रीय भूमि क्षेत्र के कम-से-कम 33% तक बढ़ाने का लक्ष्य है।
- संयुक्त वन प्रबंधन (JFM): स्थानीय समुदायों को वन प्रबंधन में भागीदार बनाकर संरक्षण को बढ़ावा दिया गया।
- वनीकरण योजनाएँ: बंजर भूमि पर वृक्षारोपण को बढ़ावा देना, विशेष रूप से बांस और औषधीय पौधों का रोपण।
- सामाजिक आंदोलन: 'चिपको आंदोलन' जैसे जन प्रयासों ने वन संरक्षण को जन आंदोलन बनाया।
- प्रदूषण नियंत्रण और पर्यावरण शिक्षा: बच्चों से लेकर वयस्कों तक पर्यावरण शिक्षा को पाठ्यक्रम में जोड़ा जा रहा है।
उत्तर प्रदेश के प्रमुख वन और संरक्षित क्षेत्र
उत्तर प्रदेश में कई महत्वपूर्ण संरक्षित वन और वन्यजीव अभयारण्य हैं जो जैव विविधता संरक्षण का केंद्र हैं:
- कुकरैल वन (लखनऊ): घड़ियालों के संरक्षण के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ मादा मगरमच्छों के अंडे देने के लिए सुरक्षित क्षेत्र बनाए गए हैं।
- चंबल नदी क्षेत्र: यहाँ मगरमच्छ और डॉल्फिन की विशेष प्रजातियाँ पाई जाती हैं।
- दुधवा राष्ट्रीय उद्यान (लखीमपुर खीरी): बाघ, गेंडा, हिरण जैसे वन्यजीवों के लिए प्रसिद्ध।
- कतर्नियाघाट वन्यजीव अभयारण्य: घने साल वनों और सुंदर जलाशयों का संगम।
- सोहागीबरवा अभयारण्य (महराजगंज): पक्षी प्रजातियों का अनूठा आवास।
दुधवा राष्ट्रीय उद्यान भारत के प्रोजेक्ट टाइगर और प्रोजेक्ट राइनो दोनों में शामिल है। यहाँ पाई जाने वाली हिसपिड खरगोश और बारहसिंगा जैसी प्रजातियाँ वैश्विक रूप से संकटग्रस्त हैं। चंबल घाटी में घड़ियालों का सबसे बड़ा प्रजनन केंद्र मौजूद है। बिजनौर का कोरबेट लिंक, चित्रकूट के जंगल, मिर्जापुर के विंध्य क्षेत्र भी विविध पारिस्थितिकी के उदाहरण हैं। रामसर साइट्स में चंद्रा ताल और संजय झील जैसे आर्द्रभूमि क्षेत्र शामिल हैं।
मुद्राओं में छिपा भारत: आइए लखनऊ सिक्कों के ज़रिए जानिए इतिहास और संस्कृति की यात्रा
सिद्धान्त I-अवधारणा माप उपकरण (कागज/घड़ी)
Concept I - Measurement Tools (Paper/Watch)
25-06-2025 09:04 AM
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भारत का प्राचीन इतिहास अपनी सांस्कृतिक धरोहर, व्यापारिक उन्नति, और सामाजिक संरचना के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है। इस इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है सिक्कों का विकास, जो समय के साथ हमारे आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गए। प्रारंभ में, भारतीय समाज में वस्तु विनिमय प्रणाली का प्रचलन था, जिसमें सामान का आदान-प्रदान बिना किसी मान्यता प्राप्त मुद्रा के किया जाता था। हालांकि, जैसे-जैसे व्यापार और अर्थव्यवस्था विकसित हुई, सिक्कों का अस्तित्व एक अत्यधिक आवश्यक और व्यवस्थित रूप में सामने आया। प्राचीन काल में सिक्के केवल व्यापार का साधन नहीं थे, बल्कि वे भारतीय समाज की धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पहचान को भी दर्शाते थे। इस लेख में हम जानेंगे कि भारत में सिक्कों का इतिहास और उत्पत्ति कैसे हुई, और वस्तु विनिमय प्रणाली ने सिक्कों के विकास में क्या भूमिका निभाई। इसके बाद, हम सिक्कों के प्रारंभिक प्रकार, जैसे पंच-मार्क सिक्कों, की चर्चा करेंगे। फिर हम प्राचीन भारतीय सिक्कों और उनकी सांस्कृतिक प्रासंगिकता को देखेंगे, और अंत में सिक्कों के विकास और आधुनिक दौर में उनके स्थान पर विचार करेंगे।

भारत में सिक्कों का इतिहास और उत्पत्ति
भारत में सिक्कों का इतिहास अत्यंत प्राचीन है और इसकी उत्पत्ति वस्तु विनिमय प्रणाली से जुड़ी हुई है। प्राचीन काल में भारतीय उपमहाद्वीप में अधिकांश व्यापार वस्तु विनिमय के रूप में हुआ करता था, लेकिन समय के साथ, इस प्रणाली में कई कठिनाइयाँ उत्पन्न हुईं। व्यापार की सरलता और समग्रता को बढ़ाने के लिए सिक्कों का उपयोग एक स्वाभाविक और आवश्यक कदम बन गया। सिक्कों के प्रयोग की शुरुआत मौर्य साम्राज्य के समय मानी जाती है, जब चंद्रगुप्त मौर्य और उनके उत्तराधिकारी अशोक ने चांदी, ताम्र और सोने के सिक्कों का प्रचलन किया।
मौर्य काल में सिक्के मुख्यतः राजकीय आवश्यकताओं और साम्राज्य के प्रशासनिक कार्यों को पूरा करने के लिए जारी किए गए थे। इन सिक्कों पर राजा के चित्र, राज्य प्रतीक और कभी-कभी धार्मिक संकेतांक अंकित होते थे, जो उस समय की शाही सत्ता और धर्म का प्रतीक होते थे। इस तरह से, सिक्कों का ऐतिहासिक रूप में उत्पन्न होना केवल एक व्यावसायिक आवश्यकता नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और राजनीतिक महत्व का भी प्रतीक था।
वस्तु विनिमय प्रणाली और सिक्कों का विकास
भारत में वस्तु विनिमय प्रणाली का प्रचलन बहुत पुराना था, जहां लोग विभिन्न प्रकार के वस्त्र, अनाज, और अन्य वस्तुओं का आदान-प्रदान करते थे। इस प्रणाली में अक्सर परेशानी होती थी, जैसे कि सामान की सही माप या मूल्य निर्धारण की समस्या। इन समस्याओं के समाधान के रूप में सिक्कों का विकास हुआ, जो एक सामान्य मुद्रा के रूप में मान्यता प्राप्त कर सके। सिक्कों का इस्तेमाल न केवल व्यापार को सुव्यवस्थित करता था, बल्कि इसने राजस्व संग्रहण और प्रशासन को भी सरल बना दिया।
मूल रूप से, सिक्के विभिन्न धातुओं से बनाए गए थे, जिनमें चांदी, ताम्र, सोना, और अन्य धातुएं शामिल थीं। इन सिक्कों पर विभिन्न शाही प्रतीक, जैसे शेर, चंद्रमा, सूरज और धर्मिक चिन्ह अंकित होते थे। व्यापारिक दृष्टि से सिक्कों का मुख्य उद्देश्य उन वस्तुओं का आदान-प्रदान करना था, जो एक-दूसरे से समान रूप से मान्यता प्राप्त थीं। समय के साथ, सिक्कों की स्थिरता और मूल्य ने उन्हें भारत के प्रत्येक हिस्से में एक अहम मुद्रा के रूप में स्थापित कर दिया।

सिक्कों के प्रारंभिक प्रकार: पंच-मार्क सिक्के और अन्य
भारत में सिक्कों का प्रारंभ पंच-मार्क (Punch marked) सिक्कों से हुआ था, जो 6वीं से 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास प्रचलित थे। इन सिक्कों का आकार छोटा और सरल था, और इन सिक्कों को उनकी निर्माण तकनीक के कारण 'पंच-मार्क्ड' सिक्के कहा जाता है। वे अधिकतर चांदी के बने होते थे और उन पर एक अलग पंच से चिन्ह अंकित होते थे। ये चिह्न सिक्कों पर विभिन्न रूपों में अंकित होते थे, जैसे वृत्त, त्रिकोण, चतुर्भुज आदि। पंच-मार्क सिक्के मुख्यतः चांदी के होते थे और इनका उपयोग व्यापार, कर संग्रहण और अन्य प्रशासनिक कार्यों के लिए किया जाता था।
पंच-मार्क सिक्कों के अलावा, और भी प्रारंभिक प्रकार के सिक्के प्रचलित थे, जिनमें विशेष रूप से ताम्र और सोने के सिक्के शामिल थे। इन सिक्कों पर विभिन्न देवताओं और शाही प्रतीकों के चित्र होते थे। मौर्यकाल में सिक्कों पर अशोक का चित्र अंकित था, और यह सिक्का भारतीय उपमहाद्वीप में राजनीति और संस्कृति के प्रतीक के रूप में कार्य करता था।
प्राचीन भारतीय सिक्के और उनकी सांस्कृतिक प्रासंगिकता
प्राचीन भारतीय सिक्के केवल व्यापार के साधन नहीं थे, बल्कि वे भारतीय समाज के धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन को भी दर्शाते थे। इन सिक्कों पर विभिन्न धार्मिक प्रतीक, जैसे बोधि वृक्ष, सूर्य, चंद्रमा, और विभिन्न देवी-देवताओं के चित्र अंकित होते थे। उदाहरण के तौर पर, मौर्य काल के सिक्कों पर बोधि वृक्ष और सिंह के चित्र होते थे, जो बौद्ध धर्म के महत्वपूर्ण प्रतीक थे। इसके अलावा, गुप्तकाल में सिक्कों पर भगवान विष्णु और भगवान शिव के चित्र अंकित होते थे, जो उस समय की धार्मिक विविधता और समाज के सांस्कृतिक आयामों को प्रदर्शित करते थे।
इसके अलावा, सिक्कों पर अंकित राजकीय और धार्मिक प्रतीक यह संकेत करते थे कि एक ही सिक्का विभिन्न क्षेत्रों में एकीकृत व्यवस्था और धर्म का प्रतीक था। ये सिक्के भारतीय समाज की धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विचारधारा को दर्शाते थे और इस तरह से वे केवल आर्थिक वस्तु नहीं, बल्कि सांस्कृतिक धरोहर बन गए थे। सिक्कों पर अंकित चित्र और प्रतीक उस समय के धार्मिक विश्वासों और शासन व्यवस्था को प्रकट करते थे, जो समाज के विभिन्न वर्गों की आदतों और सोच को दर्शाते थे।

सिक्कों का विकास और आधुनिक दौर में उनका स्थान
समय के साथ, सिक्कों का रूप और उपयोग लगातार बदलता रहा। मध्यकाल में, जब भारतीय उपमहाद्वीप में मुघल साम्राज्य का प्रभुत्व था, तब सिक्कों का रूप और तकनीक भी विकसित हुई। मुघल सम्राट अकबर ने एक नई प्रकार की मुद्रा को प्रचलित किया, जिसमें सोने, चांदी और ताम्र के सिक्कों का इस्तेमाल हुआ। इन सिक्कों पर सम्राट का चित्र, शाही संदेश, और विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीकों का चित्रण किया जाता था।
आधुनिक समय में, सिक्के कागजी मुद्रा और डिजिटल भुगतान की ओर बढ़ गए हैं। हालांकि, सिक्कों का सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व अब भी जीवित है। भारत में विभिन्न प्रकार के संग्रहणीय सिक्कों और स्मारक सिक्कों का निर्माण जारी है, जो भारतीय इतिहास और संस्कृति को सहेजने का एक माध्यम बन चुके हैं। इन सिक्कों की कारीगरी और उन पर अंकित चित्र भारतीय धरोहर और शिल्प कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। आजकल, सिक्के संग्रहणीय वस्तुएं बन गए हैं, और इन्हें पुरानी धरोहर और इतिहास से जुड़ी महत्वपूर्ण वस्तु के रूप में माना जाता है।
सिक्कों के संदर्भ में पुरातात्विक और साहित्यिक प्रमाण
भारत में सिक्कों के इतिहास और उनके सांस्कृतिक महत्व को समझने के लिए, पुरातात्विक और साहित्यिक प्रमाणों का महत्व अत्यधिक है। पुरातात्विक खुदाई में प्राप्त सिक्कों से हम यह जान सकते हैं कि उस समय के लोग किस प्रकार के सिक्कों का उपयोग करते थे और उनका रूप क्या था। इसके अलावा, प्राचीन साहित्य में भी सिक्कों का उल्लेख मिलता है, जैसे संस्कृत के ग्रंथों और ताम्रपत्रों में सिक्कों का उपयोग व्यापार और करों के संदर्भ में हुआ है।
पुरातात्विक प्रमाणों से यह भी पता चलता है कि सिक्कों का विभिन्न संस्कृतियों, जैसे हिंदू, बौद्ध, और जैन धर्म, से गहरा संबंध था। इसके अलावा, साहित्यिक प्रमाणों के माध्यम से हम यह जान सकते हैं कि सिक्के केवल व्यापारिक वस्तु नहीं, बल्कि धार्मिक और सामाजिक संवाद का भी एक जरिया थे।
लखनऊ का मछली संग्रहालय: जल जीवन की समझ और संरक्षण की प्रेरणा
मछलियाँ व उभयचर
Fishes and Amphibian
24-06-2025 09:09 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ स्थित राष्ट्रीय मछली संग्रहालय न केवल भारत की जलीय जैव विविधता को संरक्षित करने का एक अभिनव प्रयास है, बल्कि यह देश में जल जीवन, मत्स्य विज्ञान और पर्यावरणीय चेतना को बढ़ावा देने का भी एक महत्वपूर्ण केंद्र बनकर उभरा है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के केंद्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान द्वारा 2022 में स्थापित यह संग्रहालय एक ऐसे समय में आया जब जलवायु परिवर्तन, जल प्रदूषण और जैव विविधता संकट जैसे मुद्दे गंभीर रूप ले रहे हैं। संग्रहालय न केवल वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मछलियों और जल संसाधनों के महत्त्व को दर्शाता है, बल्कि समाज के सभी वर्गों — विशेषकर विद्यार्थियों, शोधकर्ताओं और आम नागरिकों — में जल जीवन के प्रति संवेदनशीलता और भागीदारी विकसित करने का कार्य भी करता है। इस लेख में हम संग्रहालय की स्थापना से लेकर इसके शैक्षणिक, पारिस्थितिकीय, सामाजिक और वैश्विक सरोकारों पर विस्तार से चर्चा करेंगे। इस लेख में हम सबसे पहले जानेंगे कि राष्ट्रीय मछली संग्रहालय की स्थापना क्यों और कैसे की गई होगी। फिर हम भारत की जलीय जैव विविधता और प्रमुख मछली प्रजातियों पर नज़र डालेंगे। इसके बाद हम देखेंगे कि यह संग्रहालय बच्चों और विद्यार्थियों के लिए किस प्रकार शैक्षणिक रूप से उपयोगी बनेगा। आगे हम जल संसाधन प्रबंधन और संरक्षण में इसकी भूमिका को समझेंगे। फिर हम जानेंगे कि यह संग्रहालय जल जीवन मिशन और सतत विकास लक्ष्यों से कैसे जुड़ा रहेगा। अंत में, हम मछलियों की पारिस्थितिक भूमिका को समझते हुए इसके पर्यावरणीय महत्व को देखेंगे।
राष्ट्रीय मछली संग्रहालय की स्थापना और उद्देश्य
लखनऊ का राष्ट्रीय मछली संग्रहालय, उत्तर प्रदेश की राजधानी के चंद्रशेखर आज़ाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय परिसर में वर्ष 2022 में स्थापित किया गया। इसकी स्थापना भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) की एक अग्रणी शाखा — केंद्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान (CIFE), मुंबई द्वारा की गई थी। इसका उद्देश्य केवल एक संग्रहालय बनाना नहीं था, बल्कि भारत के जलीय संसाधनों, मछलियों की विविध प्रजातियों, पारंपरिक मत्स्य ज्ञान, और आधुनिक मछली पालन प्रौद्योगिकियों को एक ही मंच पर लाना था।
यह संग्रहालय विज्ञान, तकनीक, परंपरा और संरक्षण के संयोजन का अद्भुत उदाहरण है। यहाँ की डिज़ाइन और प्रदर्शनी में नवाचार झलकता है — जैसे हॉलोग्राम द्वारा मछलियों की जीवन यात्रा का प्रदर्शन, वर्चुअल रियलिटी आधारित एक्वेरियम अनुभव, और संवेदनशील टचस्क्रीन द्वारा इंटरएक्टिव जानकारी। इस संग्रहालय का एक मुख्य उद्देश्य युवा पीढ़ी में जलीय पारिस्थितिकी, जल जीवन और पर्यावरणीय जिम्मेदारी के प्रति समझ और संवेदना विकसित करना है। यह संस्थान मत्स्य विज्ञान के शोधकर्ताओं, नीति-निर्माताओं, स्कूली बच्चों, पर्यावरण कार्यकर्ताओं और आम नागरिकों के बीच एक संवाद सेतु बनकर कार्य करता है। भविष्य में इसे राष्ट्रीय स्तर की जल जीवन अकादमी के रूप में विकसित करने की योजनाएँ भी जारी हैं।

भारत की जलीय जैव विविधता और प्रमुख मछली प्रजातियाँ
भारत को विश्व के उन कुछ चुनिंदा देशों में गिना जाता है जहां अत्यंत समृद्ध और विविधतापूर्ण जलीय पारिस्थितिकी पाई जाती है। भारत के पास लगभग 2.36 मिलियन हेक्टेयर की अंतर्देशीय जलसंरचना और 8,118 किलोमीटर लंबा समुद्र तट है, जो हजारों प्रजातियों को आश्रय देता है। इनमें से कई प्रजातियाँ केवल भारत में ही पाई जाती हैं और इन्हें 'स्थानिक प्रजातियाँ' (Endemic species) कहा जाता है।
संग्रहालय में प्रदर्शित प्रमुख प्रजातियों में निम्नलिखित शामिल हैं:
- हिल्सा — जिसे बंगाल में 'पद्मा इলिश' के नाम से जाना जाता है, और यह भारत की सर्वाधिक प्रिय खाद्य मछलियों में से एक है।
- महाशीर — यह हिमालय की नदियों में पाई जाने वाली एक बहुचर्चित गेम फिश है, जो तेजी से विलुप्त होती जा रही है।
- मृगल, रोहू, कतला — ये ताजे पानी की अत्यधिक आर्थिक महत्त्व वाली मछलियाँ हैं जिनका उपयोग मत्स्य पालन में बड़े पैमाने पर होता है।
- बैरिकुडा, पफर फिश, सी हॉर्स — ये समुद्री जल की विशिष्ट प्रजातियाँ हैं जिनका प्रदर्शन संग्रहालय में आकर्षक रूप में किया गया है।
- पर्लस्पॉट — केरल के बैकवाटर की यह विशेष मछली पारंपरिक खानपान और संस्कृति से जुड़ी है।
प्रत्येक मछली की प्रजाति के साथ उसकी पारिस्थितिक भूमिका, खाद्य श्रृंखला में स्थान, मानव उपयोग और संरक्षण स्थिति (IUCN Status) को विस्तार से समझाया गया है।
शिक्षा और बच्चों के लिए संग्रहालय का शैक्षणिक महत्व
बच्चों और किशोरों में वैज्ञानिक सोच और पर्यावरणीय संवेदनशीलता विकसित करने के लिए संग्रहालय ने एक विशेष शिक्षण ढांचा अपनाया है। यहाँ बच्चों को जल जीवन और मछलियों की दुनिया से जोड़ने के लिए 3D मॉडल, वर्चुअल रियलिटी टैंक, DIY (Do-It-Yourself) शिक्षण किट्स, और एनिमेटेड वीडियो का सहारा लिया गया है। संग्रहालय में विभिन्न वर्गों के लिए संरचित पाठ्यक्रम आधारित भ्रमण (curriculum-linked visits) आयोजित किए जाते हैं, जिनसे छात्र जलीय जीवों की शारीरिक संरचना, अनुकूलन योग्य व्यवहार और पारिस्थितिकी में उनके महत्व को व्यावहारिक रूप में समझ पाते हैं। यह पहल विद्यार्थियों में जलीय जीवन के प्रति जिम्मेदारी और संरक्षण भावना उत्पन्न करने की दिशा में एक सकारात्मक कदम है। संग्रहालय केवल देखने का स्थल नहीं, बल्कि यह एक अभिनव शिक्षण केंद्र भी है, विशेष रूप से विद्यार्थियों और शोधकर्ताओं के लिए। यहाँ परंपरागत शिक्षा को आधुनिक तकनीकों से जोड़ा गया है ताकि बच्चे और युवा जलीय जीवन के महत्व को ना केवल जानें, बल्कि उसे अनुभव कर सकें।
संग्रहालय में निम्नलिखित शैक्षणिक विशेषताएँ शामिल हैं:
- 3D एनाटॉमिकल मॉडल्स: जिनसे मछलियों के आंतरिक अंगों और कार्यप्रणाली को आसानी से समझा जा सकता है।
- विजुअल रियलिटी फिश टैंक: छात्रों को ऐसा अनुभव देता है जैसे वे समुद्र की गहराइयों में तैर रही मछलियों के साथ हैं।
- इंटरएक्टिव गेम्स और क्विज़: छोटे बच्चों को मछलियों, नदियों और पारिस्थितिक संतुलन के बारे में मजेदार तरीकों से सिखाते हैं।
- शैक्षणिक कार्यशालाएं और स्कूल टूर प्रोग्राम: देशभर के स्कूलों को संग्रहालय की गतिविधियों में शामिल किया जा रहा है।
इसके अतिरिक्त, संग्रहालय बच्चों को जलीय प्रदूषण, प्लास्टिक के प्रभाव, और जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों पर संवेदनशील बनाता है। शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं ताकि शिक्षा व्यवस्था में भी जलीय जीवन पर ध्यान केंद्रित किया जा सके।

जल संसाधन प्रबंधन और संरक्षण में संग्रहालय की भूमिका
भारत जैसे देश में, जहाँ एक ओर जल संसाधनों की उपलब्धता असमान है और दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन व प्रदूषण से संकट गहराता जा रहा है, वहाँ जल प्रबंधन की शिक्षा अत्यंत आवश्यक है। संग्रहालय में दर्शकों को यह समझाया जाता है कि जल स्रोतों का प्रदूषण कैसे मछलियों और जलीय जैव विविधता को प्रभावित करता है। संग्रहालय में वर्षा जल संचयन, जल पुनर्चक्रण तकनीकें और पारंपरिक जल स्रोतों के संरक्षण पर आधारित मॉडल दर्शाए गए हैं। साथ ही, यह संग्रहालय ग्रामीण और शहरी समुदायों के बीच जल संरक्षण के प्रति जागरूकता फैलाने में भी सहायक है। सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से यह प्रयास करता है कि जल स्रोतों की रक्षा केवल नीतिगत पहल न रहकर जनांदोलन बन जाए। बढ़ती जनसंख्या, जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के कारण भारत में जल संसाधनों पर अत्यधिक दबाव बढ़ गया है। संग्रहालय इस गंभीर स्थिति को समझाने और समाधान की दिशा में प्रेरित करने का कार्य करता है। संग्रहालय में यह प्रदर्शित किया गया है कि कैसे जल निकायों का अति दोहन, रासायनिक कचरे का बहाव, और औद्योगिक प्रदूषण सीधे तौर पर मछलियों की जीवन प्रणाली को प्रभावित करता है।
प्रमुख विषयों में शामिल हैं:
- रेन वॉटर हार्वेस्टिंग मॉडल
- जैविक तालाब प्रबंधन तकनीकें
- प्राकृतिक झीलों और जलाशयों की सफाई परियोजनाएँ
- स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर जल संरक्षण कार्यक्रम
इसके अलावा, संग्रहालय यह भी प्रदर्शित करता है कि कैसे ‘एक्वाकल्चर’ और ‘इंटीग्रेटेड फिश फार्मिंग’ जैसी आधुनिक तकनीकों को अपनाकर जल संसाधनों का अधिकतम और टिकाऊ उपयोग किया जा सकता है।
जल जीवन मिशन और सतत विकास लक्ष्यों से समन्वय
राष्ट्रीय मछली संग्रहालय न केवल स्थानीय या राष्ट्रीय बल्कि वैश्विक विकास लक्ष्यों से भी जुड़ा हुआ है। यह भारत सरकार के प्रमुख कार्यक्रमों जैसे ‘जल जीवन मिशन’, ‘स्वच्छ भारत अभियान’ और ‘नील क्रांति योजना’ का एक समर्थक केंद्र है। इसके साथ ही यह संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य (Sustainable Development Goals) के साथ भी सीधा समन्वय रखता है।
मुख्य लक्ष्यों में शामिल हैं:
- SDG 6 – सभी के लिए स्वच्छ जल और स्वच्छता
- SDG 13 – जलवायु परिवर्तन से लड़ाई
- SDG 14 – जलीय जीवन का संरक्षण
यह संग्रहालय नीति निर्माताओं, NGOs, और वैज्ञानिकों के लिए एक प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराता है, जहाँ वे अपने अनुसंधान और नीतियों को सामाजिक संदर्भ में परख सकते हैं और सुधार कर सकते हैं। सतत मत्स्य पालन की अवधारणा, समुद्री प्रदूषण नियंत्रण और जल की गुणवत्ता पर आधारित शोध परियोजनाओं के प्रति लोगों को प्रेरित करना इस संग्रहालय के उद्देश्यों में शामिल है। यह न केवल राष्ट्रीय नीति को जनमानस से जोड़ता है, बल्कि पर्यावरणीय सततता को व्यवहारिक रूप में समझाने का कार्य भी करता है। संग्रहालय सतत मत्स्य पालन (Sustainable Fisheries) और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा के लिए भी प्रशिक्षण एवं कार्यशालाएँ आयोजित करता है।
जलीय पारिस्थितिकी में मछलियों की भूमिका
मछलियाँ किसी भी जल निकाय की पारिस्थितिकी का एक अनिवार्य घटक होती हैं। वे जैविक संतुलन बनाए रखने, पोषक तत्त्वों के चक्र को संचालित करने, तथा अन्य जलीय जीवों के लिए जीवनदायी वातावरण तैयार करने में मुख्य भूमिका निभाती हैं। संग्रहालय इस विषय को बेहद रोचक और वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करता है।
प्रमुख बिंदु जो यहां समझाए गए हैं:
- मछलियाँ प्लवक (Plankton) और पौधों को नियंत्रित कर शैवाल वृद्धि को संतुलित करती हैं
- वे अपमार्जक (Scavenger) के रूप में कार्य कर जल को साफ रखने में योगदान देती हैं
- कुछ मछलियाँ जलजनित कीटों के नियंत्रण में सहायक होती हैं
- वे ऊपरी शिकारी प्रजातियों (Top predators) के लिए आहार के रूप में पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखती हैं
यह संग्रहालय यह भी बताता है कि मछलियों के बिना एक जल निकाय धीरे-धीरे प्रदूषित, रोगग्रस्त और मृत क्षेत्र (Dead zone) बन सकता है। इसी वजह से मछलियों का संरक्षण किसी भी जलीय पारिस्थितिकी की दीर्घकालिक स्थिरता के लिए आवश्यक है।
तबले की थाप में लखनऊ की रूह: सुरों से सजी एक सांस्कृतिक विरासत
ध्वनि 1- स्पन्दन से ध्वनि
Sound I - Vibration to Music
23-06-2025 09:30 AM
Lucknow-Hindi

भारतीय उपमहाद्वीप की सांगीतिक परंपरा अत्यंत समृद्ध और विविधतापूर्ण है। इसी परंपरा में तबले को ताल और लय का राजा कहा जाता है। यह वाद्ययंत्र केवल संगत का माध्यम नहीं है, बल्कि इसकी लयात्मकता, विविध गतियाँ, और बौद्धिक गहराई इसे एक स्वतंत्र वादन विधा भी बनाती हैं। तबला शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत, सूफी, भक्ति और नृत्य शैलियों में अपनी विशेष पहचान रखता है। इसकी ध्वनि सजीवता, भावना और अनुशासन का अद्भुत संगम है। यह एक ऐसा ताल वाद्य है जिसे न केवल शास्त्रीय संगीत में बल्कि लोक, सूफी, भक्ति और फिल्मी संगीत में भी प्रमुखता से इस्तेमाल किया जाता है। तबला न केवल संगत का माध्यम है बल्कि एकल वादन में भी इसकी विशिष्ट पहचान है।
इस लेख में हम तबले के नाम की उत्पत्ति से लेकर इसकी गूढ़ ऐतिहासिक परंपरा, शास्त्रीय ग्रंथों में उल्लेख, निर्माण की पेचीदगियाँ, वादन की सूक्ष्मता और लखनऊ घराने की उत्कृष्ट परंपरा तक के हर पहलू को विस्तारपूर्वक जानेंगे।
तबले का परिचय और भारतीय संगीत में उसका स्थान
तबला एक प्रमुख ताल वाद्य है, जो दो भागों – दायां (दयां) और बायां (बायां) – में विभाजित होता है। दायां हिस्सा आमतौर पर शीशम या आम की लकड़ी से बनाया जाता है, जबकि बायां हिस्सा मिट्टी, पीतल या तांबे का होता है। इस वाद्य यंत्र की सबसे खास बात यह है कि इसे अंगुलियों और हथेली के सहारे बजाया जाता है, जिससे अनेक प्रकार की जटिल और सूक्ष्म ध्वनियाँ उत्पन्न की जाती हैं। तबले का इस्तेमाल केवल संगत के लिए नहीं होता, बल्कि इसे एकल वादन में भी अत्यंत सम्मान प्राप्त है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में तबले का प्रयोग खयाल, ठुमरी, तराना, दादरा, ध्रुपद, भजन, और विशेषतः कथक नृत्य के साथ किया जाता है। यह केवल ताल का वाहक नहीं, बल्कि प्रस्तुति को भावनात्मक और बौद्धिक रूप से समृद्ध बनाने वाला यंत्र है। तबले के माध्यम से कलाकार ‘लेयकारी’, ‘गति’, ‘उथान’, ‘परन’, ‘कायदा’, ‘रिला’ और ‘तिहाई’ जैसे तत्वों की रचना करता है, जिससे श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।

तबले के नाम की व्युत्पत्ति और विवादास्पद उत्पत्ति सिद्धांत
‘तबला’ शब्द की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों में लंबे समय से बहस होती रही है। अधिकांश विद्वान इसे अरबी शब्द 'तबल' (ṭabl) से निकला मानते हैं, जिसका अर्थ है ढोल या ड्रम। यह शब्द मध्यकालीन मुस्लिम सेनाओं के युद्ध वाद्य 'तबल-नक्कारे' से जुड़ा माना जाता है, जो भारत में सल्तनत काल के दौरान प्रचलित हुए।
सबसे चर्चित किंवदंती के अनुसार 13वीं शताब्दी में अमीर खुसरो ने पखावज को दो भागों में विभाजित करके तबले का आविष्कार किया। हालाँकि यह मत अत्यंत लोकप्रिय है, परंतु इसे ऐतिहासिक रूप से पूर्ण समर्थन नहीं मिला है, क्योंकि न तो अमीर खुसरो के ग्रंथों में ऐसा कोई उल्लेख मिलता है और न ही उस काल की कलाकृतियों में स्पष्ट रूप से तबले के चित्र हैं।
वैकल्पिक सिद्धांत यह भी प्रस्तुत करते हैं कि तबला किसी एक व्यक्ति द्वारा नहीं बल्कि विभिन्न सांस्कृतिक वाद्य परंपराओं और तकनीकी विकासों के सम्मिलन से विकसित हुआ। यह भी संभव है कि प्राचीन भारतीय वाद्य: ढोलक और पुष्कर; और पश्चिम तथा मध्य एशियाई ड्रम परंपराओं के परस्पर संपर्क से तबले का वर्तमान स्वरूप विकसित हुआ हो।
भारतीय उपमहाद्वीप में तबले की प्राचीन जड़ें और पुष्कर वाद्य से संबंध
प्राचीन भारतीय वाद्य परंपराओं में 'पुष्कर' नामक वाद्य को तबले का पूर्वज माना जाता है। नाट्यशास्त्र में इसे 'अवनद्ध वाद्य' के रूप में वर्णित किया गया है। इसमें दो भाग होते थे – एक बड़ा और एक छोटा, जिनकी ध्वनि-प्रणाली, रूप-रेखा और वादन तकनीक तबले से मेल खाती है। मतंग मुनि की रचना 'बृहत्देशी' और शार्ङ्गदेव की 'संगीत रत्नाकर' में पुष्कर की चर्चा विस्तार से की गई है।
यह दर्शाता है कि भारतीय संगीत में दोहरे ड्रम वाद्य की परंपरा काफी प्राचीन है। जब विदेशी सांस्कृतिक प्रभावों के साथ भारतीय परंपरा का मिलन हुआ, तो संभवतः तबले का आधुनिक स्वरूप आकार लेने लगा। इसलिए, तबले को केवल एक मध्यकालीन आविष्कार कहना इसकी समृद्ध भारतीय जड़ों को नज़रअंदाज़ करना होगा।

शास्त्रीय ग्रंथों और कलाकृतियों में तबले जैसे वाद्ययंत्रों के प्रमाण
तबले जैसे वाद्ययंत्रों के प्रमाण हमें कई प्राचीन भारतीय कलात्मक स्रोतों में मिलते हैं। अजंता-एलोरा की गुफाओं की चित्रकारी में वादकों को दोहरे ड्रम बजाते हुए दिखाया गया है। मध्यकालीन मंदिरों की मूर्तिकला, जैसे कोणार्क सूर्य मंदिर और होयसलेश्वर मंदिर, में भी ऐसे वाद्य यंत्रों के दृश्य मिलते हैं जो तबले के पूर्ववर्ती रूप प्रतीत होते हैं।
संगीत शास्त्रों में 'पुष्कर', 'मुरज', और 'दुंदुभि' जैसे अवनद्ध वाद्ययंत्रों का उल्लेख मिलता है। ये सभी या तो एकल या द्वैत ड्रम रूप में उपयोग होते थे, जिनमें से कई की वादन शैली और बनावट तबले से मिलती-जुलती है। इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि तबला भारतीय वाद्य परंपरा का एक सहज विकास है और इसकी जड़ें हजारों वर्ष पुरानी सांस्कृतिक विरासत में हैं।
तबले की संरचना, निर्माण तकनीक और वादन शैली
तबले की संरचना अत्यंत वैज्ञानिक और कलात्मक होती है। दायां (दयां) लकड़ी का होता है और बायां (बायां) धातु या मिट्टी का। दोनों के सिरों पर बकरी की खाल के टुकड़े चढ़ाए जाते हैं, जिन्हें 'पुरी' कहते हैं। मध्य भाग में काले घेरे, जिन्हें 'स्याही' कहते हैं, लोहे के चूर्ण, मैदा, चावल की लेई और गोंद से बनाए जाते हैं। यही स्याही तबले की अनूठी ध्वनि और नाद-संपन्नता का मूल स्रोत होती है।
तबले के वादन में अंगुलियों, हथेली और कलाई के संयुक्त संचालन से स्वर निकाले जाते हैं। विभिन्न 'बोल' जैसे — ‘धा’, ‘धिन’, ‘ना’, ‘तिन’, ‘तेत’, ‘गें’, ‘के’ आदि — प्रत्येक का अपना स्थान, उच्चारण तकनीक और ध्वनि विशेषता होती है। तबले की विभिन्न वादन शैलियाँ 'घरानों' द्वारा विकसित की गई हैं — जैसे दिल्ली घराना अपने स्पष्ट बोलों के लिए, बनारस घराना पखावज प्रभाव वाली गतों के लिए, और लखनऊ घराना अपनी कोमलता और नफासत के लिए प्रसिद्ध है।

लखनऊ के प्रमुख तबला उस्ताद और उनकी विरासत
लखनऊ घराना तबला वादन की सबसे कोमल और मोहक शैली का प्रतिनिधित्व करता है। इसकी स्थापना उस्ताद मोदू खां और बख्शू खां ने 18वीं सदी में अवध दरबार में की थी। इस घराने की शैली में नाजाकत, नफासत और लय की अत्यंत सूक्ष्म प्रस्तुति होती है, जो कथक नृत्य की ताल संरचना को सजीव बनाती है।
लखनऊ घराने के प्रमुख उस्तादों में उस्ताद आबिद हुसैन खां, वाजिद हुसैन खलीफा, और उस्ताद ताफ़्फ़ु खां का योगदान उल्लेखनीय है। उन्होंने न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी लखनऊ की ताल परंपरा का प्रचार किया। इस घराने की शैली को 'हथेली का बाज' कहा जाता है, जिसमें अंगुलियों की बजाय हथेली के प्रयोग से कोमल और गंभीर ध्वनियाँ निकाली जाती हैं।
विदेशी विद्वान डॉ. जेम्स किपेन की पुस्तक द तबला ऑफ़ लखनऊ (The Tabla of Lucknow) में लखनऊ घराने की वंशावली, तकनीकी विशिष्टता और सामाजिक परिप्रेक्ष्य को प्रमाणिक रूप से दर्ज किया गया है। आज भी लखनऊ में संगीत संस्थानों, महोत्सवों और गुरुकुल परंपरा के माध्यम से यह घराना जीवित है और युवा पीढ़ी में इसे सहेजने का कार्य जारी है।
भारत से प्रेरित सुर: एलानिस मोरिसेट और स्टीवी वंडर की आत्मिक संगीत यात्रा
ध्वनि 1- स्पन्दन से ध्वनि
Sound I - Vibration to Music
22-06-2025 09:07 AM
Lucknow-Hindi

20वीं सदी के सबसे प्रभावशाली संगीतकारों में गिने जाने वाले स्टीवी वंडर (Stevie Wonder), जिनका जन्म 13 मई 1950 को स्टेवलैंड हार्डअवे मॉरिस (Stevland Hardaway Morris) के रूप में हुआ था, न केवल अमेरिका बल्कि घाना (Ghana) के भी प्रतिष्ठित गायक, गीतकार, संगीतकार और रिकॉर्ड निर्माता हैं। उन्होंने आर एंड बी (R&B), पॉप (pop), सोल (soul), गॉस्पेल (gospel), फंक (funk) और जैज़ (jazz) जैसे कई संगीत शैलियों को अपने अद्वितीय अंदाज़ से समृद्ध किया है। वंडर को ‘वन मैन बैंड’ की संज्ञा दी जाती है, क्योंकि उन्होंने 1970 के दशक में सिंथेसाइज़र और अन्य इलेक्ट्रॉनिक वाद्ययंत्रों का जिस तरह प्रयोग किया, उसने समकालीन आर एंड बी की परंपराओं को ही नया रूप दे दिया।
1979 में स्टीवी वंडर ने एक असामान्य लेकिन अत्यंत रचनात्मक प्रोजेक्ट पर काम किया—जर्नी थ्रू द सीक्रेट लाइफ़ ऑफ प्लांट्स (Journey Through The Secret Life Of Plants)। यह एल्बम 30 अक्टूबर 1979 को टामला मोटाउन (Tamla Motown) लेबल के अंतर्गत रिलीज़ हुआ और यह एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म द सीक्रेट लाइफ़ ऑफ प्लांट्स (The Secret Life of Plants) का साउंडट्रैक था।
स्टीवी वंडर के जर्नी थ्रू द सीक्रेट लाइफ़ ऑफ प्लांट्स एल्बम में एक खास वाद्य गीत वॉयज टू इंडिया (Voyage to India) भी शामिल है। यह ट्रैक उनकी सांगीतिक विविधता और वैश्विक दृष्टिकोण को दर्शाता है।
पॉप संगीत की दुनिया के दो दिग्गज कलाकार — स्टीवी वंडर और एलानिस मोरिसेट (Alanis Morissette)— ने अपने गीतों के माध्यम से भारत के प्रति गहरी आस्था, कृतज्ञता और आध्यात्मिक सम्मान व्यक्त किया है।
पहले लिंक के माध्यम से आप स्टीवी वंडर के मशहूर गीत वॉयज टू इंडिया की मधुर संगीतमय यात्रा का आनंद ले सकते हैं।
नीचे दिए गए लिंक पर जाकर आप थैंक यू(Thank U) गीत के मनमोहक वीडियो का आनंद ले सकते हैं।
थैंक यू(Thank U) एलानिस मोरिसेट (Alanis Morissette) और ग्लेन बैलार्ड (Glen Ballard) द्वारा लिखा और निर्मित किया गया एक शक्तिशाली रॉक गीत है। इस गीत की प्रेरणा एलानिस की भारत यात्रा से प्राप्त हुई, जहाँ उन्होंने गहरे आध्यात्मिक अनुभव और आत्मिक शांति का अनुभव किया। इस गीत में “Thank you India” जैसी पंक्तियाँ इस यात्रा की आंतरिक गहराई और उनके मन की सच्ची कृतज्ञता को दर्शाती हैं। गीत के बोल एलानिस की आत्मिक जागृतियों, शारीरिक और आंतरिक यात्राओं को दर्शाते हैं। यह केवल एक गीत नहीं बल्कि एक भावनात्मक यात्रा है, जो आत्ममंथन, स्वीकार्यता और करुणा से भरी हुई है। एलानिस ने इसमें उस दौर के अपने अनुभवों और परिवर्तन को बेहद व्यक्तिगत अंदाज़ में प्रस्तुत किया है।
एलानिस नादीन मोरिसेट (Alanis Nadine Morissette), एक प्रसिद्ध कनाडाई-अमेरिकी गायिका, गीतकार, संगीतकार और अभिनेत्री हैं, जिन्हें 1990 के दशक के मध्य में वैकल्पिक रॉक की क्वीन ऑफ़ ऑल्ट-रॉक एंगस्ट (Queen of Alt Rock Angst) के रूप में विश्वव्यापी पहचान मिली।
उन्हें ब्रिट अवार्ड (Brit Award), सात ग्रैमी पुरस्कार (Grammy Awards), चौदह जूनो पुरस्कार (Juno Awards), और दो गोल्डन ग्लोब (Golden globes) व एक टोनी अवार्ड (Tony Award) के लिए नामांकित किया जा चुका है। VH1 ने उन्हें रॉक एंड रोल की 53वीं सबसे महान महिला कलाकार माना है और 2005 में उन्हें कनाडा की वॉक ऑफ फेम (Canada's Walk of Fame) में शामिल किया गया।
लखनऊ के बदलते कदम: क्या मन को साधेगा योग या तन को तराशेगा जिम?
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
21-06-2025 09:22 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ सिर्फ़ नवाबी तहज़ीब और सांस्कृतिक धरोहर के लिए ही नहीं, बल्कि योग की समृद्ध परंपरा के लिए भी प्रसिद्ध है। यह शहर सदियों से भारतीय जीवनशैली के स्वास्थ्यवर्धक आयामों का केंद्र रहा है, जिसमें योग एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता आया है। योग, जो कि शारीरिक व्यायाम से कहीं अधिक मानसिक और आत्मिक अनुशासन है, आज न केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में अपने प्रभाव को स्थापित कर चुका है।
इस लेख में हम सबसे पहले यह जानेंगे कि भारत में योग की शुरुआत कैसे हुई और यह कैसे एक साधना से लेकर एक अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य अभ्यास बन गया। इसके बाद हम देखेंगे कि योग हमारे शरीर को किस प्रकार से लाभ पहुंचाता है — जैसे लचीलापन बढ़ाना, हृदय और फेफड़ों को मज़बूत बनाना और रोग प्रतिरोधक क्षमता में सुधार करना। फिर हम समझेंगे कि योग हमारे मानसिक स्वास्थ्य को कैसे संबल प्रदान करता है, जिसमें तनाव, चिंता और अवसाद में कमी और एकाग्रता में वृद्धि शामिल है। हम यह भी जानेंगे कि योग को अपने दैनिक जीवन में कैसे सरलता से जोड़ा जा सकता है ताकि हम शारीरिक और मानसिक दोनों रूपों से स्वस्थ रह सकें। अंत में, हम जिम और योग के बीच अंतर को विस्तार से समझेंगे और यह विचार करेंगे कि किस अभ्यास से हमें दीर्घकालिक और संतुलित लाभ प्राप्त हो सकते हैं।
भारत में योग की शुरुआत कैसे हुई और उसका ऐतिहासिक विकास
भारत में योग की शुरुआत केवल व्यायाम या शारीरिक क्रिया के रूप में नहीं हुई, बल्कि यह आत्मज्ञान की दिशा में एक आध्यात्मिक साधना थी। ऋग्वेद, उपनिषद और भगवद गीता जैसे प्राचीन ग्रंथों में योग का व्यापक वर्णन मिलता है। पतंजलि मुनि ने योगसूत्र में योग को "चित्त वृत्ति निरोधः" कहकर परिभाषित किया, जिसका तात्पर्य है मन की चंचलता पर नियंत्रण। बाद में गोरखनाथ और अन्य हठयोगियों ने इसे शरीर और प्राण की साधना से जोड़ा। योग न केवल भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरोहर बना, बल्कि आज यह वैश्विक स्तर पर जीवनशैली और चिकित्सा प्रणाली का अभिन्न अंग बन गया है। 21 जून को 'अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस' घोषित करना इसी का प्रमाण है।

योग के नियमित अभ्यास से मिलने वाले गहरे शारीरिक लाभ
योग केवल मांसपेशियों को खींचने का नाम नहीं, बल्कि शरीर की आंतरिक प्रणाली को संतुलित करने की क्रिया है। प्रतिदिन योग करने से शरीर में रक्त परिसंचरण सुचारू रहता है, अंगों की कार्यक्षमता बढ़ती है और ऊर्जा का स्तर ऊँचा बना रहता है। यह रीढ़ की हड्डी को सुदृढ़ बनाता है, हॉर्मोन संतुलन को बनाए रखता है, पाचन क्रिया को बेहतर करता है और नींद की गुणवत्ता में सुधार लाता है। सूर्य नमस्कार, त्रिकोणासन, वृक्षासन और भुजंगासन जैसे योगासन शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी मजबूत करते हैं। नियमित योग से न केवल वर्तमान स्वास्थ्य सुधरता है, बल्कि भविष्य की कई बीमारियों से भी सुरक्षा मिलती है।
मानसिक स्वास्थ्य और भावनात्मक संतुलन के लिए योग का प्रभाव
आज की तेज रफ्तार ज़िंदगी में मानसिक तनाव और भावनात्मक असंतुलन आम समस्या बन गई है। योग, विशेषतः ध्यान (Meditation) और प्राणायाम, मन को स्थिर और शांत रखने का सर्वोत्तम उपाय हैं। माइंडफुल योग (Mindfulness Yoga) हमें स्वयं के विचारों और भावनाओं को स्वीकार करना सिखाता है, जिससे हम तनाव, चिंता, अवसाद और क्रोध पर नियंत्रण पा सकते हैं। शोध बताते हैं कि नियमित ध्यान से दिमाग में डोपामिन और सेरोटोनिन जैसे सकारात्मक रसायनों की मात्रा बढ़ती है, जिससे व्यक्ति का मूड और मानसिक स्पष्टता बेहतर होती है। यह एकाग्रता, निर्णय-क्षमता और स्मरण शक्ति को भी तेज करता है।

योग को रोज़मर्रा की दिनचर्या में शामिल करने का महत्व और विधि
योग का असली प्रभाव तभी देखने को मिलता है जब यह केवल एक अभ्यास न रहकर जीवनशैली का हिस्सा बन जाए। सुबह-सुबह खाली पेट 30 मिनट योगासन, 10 मिनट प्राणायाम और 5 मिनट ध्यान करना किसी अमृत तुल्य दिनचर्या जैसा है। इससे दिनभर ऊर्जा बनी रहती है, मन प्रसन्न रहता है और कार्यक्षमता में सुधार होता है। योग को अपनी दिनचर्या में शामिल करने के लिए किसी महंगे साधन या स्थान की जरूरत नहीं होती – केवल एक योग मैट, थोड़ी शांति और समर्पण पर्याप्त है। सप्ताह में 5 दिन नियमित अभ्यास से जीवन में स्थायित्व, अनुशासन और आत्मविश्वास आता है।
जिम और योग के बीच मुख्य अंतर और क्या है आपके लिए उपयुक्त?
हालाँकि जिम और योग दोनों ही स्वास्थ्य के लिए लाभकारी हैं, परंतु उनके उद्देश्य और प्रभाव अलग हैं। जिम शरीर की मांसपेशियों के निर्माण और स्टेमिना बढ़ाने पर केंद्रित होता है, जबकि योग पूरे शरीर, मन और आत्मा के संतुलन पर। जिम में मशीनों और वजन उपकरणों की जरूरत होती है, जबकि योग न्यूनतम साधनों में, किसी भी स्थान पर किया जा सकता है। जिम युवा और सक्रिय लोगों के लिए उपयुक्त है, वहीं योग हर उम्र के व्यक्ति – वृद्ध, महिला, बच्चे और बीमारों के लिए भी सुरक्षित और लाभकारी है। योग शरीर को भीतर से ठीक करता है, जबकि जिम बाहरी सौंदर्य और ताकत पर ध्यान देता है। अगर आप मानसिक शांति और दीर्घकालिक स्वास्थ्य चाहते हैं, तो योग आपके लिए अधिक उपयुक्त मार्ग है।
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