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हमारे देश भारत में, लगभग 110 मिलियन भैंसों के साथ,दुनिया की सबसे बड़ी भैंस आबादी है। साथ ही, देश में भैंसों की विभिन्न 17 नस्लें पाई जाती हैं। इनकी कुछ लोकप्रिय नस्लें– मुर्रा, सुरती, जाफराबादी, नागपुरी और भदावरी हैं। इन प्रत्येक नस्ल में अद्वितीय विशेषताएं होती हैं, जो उन्हें विभिन्न क्षेत्रों और उद्देश्यों के लिए उपयुक्त बनाती हैं। आइए, आज इनके अलावा, भैंसों की दो अन्य नस्लों के बारे में पढ़ते हैं।
‘नीली-रावी’जल भैंस या वैज्ञानिक तौर पर, बुबलस बुबलिस(Bubalus bubalis) की एक नस्ल है।यह पंजाब राज्य की मूल भैंस प्रजाति है। यह मुख्य रूप से, पाकिस्तान और हमारे देश भारत में वितरित है, जो पंजाब क्षेत्र में केंद्रित है।नीली रावी भैंस को ‘पंच कल्याणी’ के नाम से भी जाना जाता है। इन भैंसों का मुख्य क्षेत्र अविभाजित पंजाब प्रांत की, सतलुज और रावी नदियों के बीच मौजूद क्षेत्र है।शायद,इनका नाम रावी नदी पर रखा गया है।जबकि, माना जाता है कि, नीली यह नाम सतलुज नदी के नीले पानी से लिया गया है। ये नस्ल,अपनी उच्च दूध उपज और उत्तर-पश्चिमी भारतीय जलवायु में अनुकूल होने के लिए जानी जाती है।
नीली–रावी भैंसें, हमारे पंजाब के लगभग सभी ज़िलों में पाई जाती हैं। इनमें, अमृतसर, गुरदासपुर और फिरोजपुर ज़िलें, और पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के लाहौर, शेखूपुरा, फैजाबाद, ओकोरा, साहीवाल, मुल्तान, बोहावलपुर और बहावलनगर ज़िलें शामिल हैं।
नीली-रावी यह नस्ल, भैंस की एक अन्य नस्ल– मुर्रा के समान है।मुर्रा के समान ही,इसे भी, मुख्य रूप से डेयरी उपयोग के लिए पाला जाता है। क्योंकि, इनका औसत दूध उत्पादन लगभग 2000 किलोग्राम प्रति वर्ष है।जबकि, 378 दिनों के स्तनपान में,रिकॉर्ड किया गया,सबसे अधिक उत्पादन, 6535 किलोग्राम है।एक अन्य अनुमान के मुताबिक,नीली-रावी भैंस का औसत दूध उत्पादन 6.8% वसा के साथ 1850 किलोग्राम है।और, इनके दूध में उच्च प्रोटीन भी होता है।
वास्तव में, बहुत पहले नीली और रावी दो अलग-अलग नस्लें थीं, लेकिन, समय बीतने पर और गहन संकर प्रजनन के कारण, दोनों नस्लें नीली–रावी नामक,इस एक नस्ल में ही परिवर्तित हो गई।
इस नस्ल के भैंसों की पहचान करना बहुत आसान है।इन मवेशियों की आंखें बंद होती हैं, और इनके माथे, चेहरे, पैर और पूंछ पर सफेद निशान होते हैं। इन सफेद निशानों से मादा भैंसों को तो,जल्द ही पहचान लिया जा सकता है।
दूसरी ओर, भैंसों की भारतीय नस्लों में, ‘टोडा भैंस’ एक अनोखी नस्ल और आनुवंशिक रूप से पृथक आबादी है।यह नस्ल तमिलनाडु की नीलगिरि पहाड़ियों तक ही सीमित है। इन भैंसों को मुख्य रूप से, टोडा जनजातियों द्वारा पाला जाता है, जो हमारे देश के सबसे प्राचीन आदिवासी निवासियों में से हैं।टोडा भैंसों की विशेषता, अर्धचंद्राकार सींग और छोटे पैर हैं।
टोडा नस्ल की भैंस अपने मज़बूत शरीर के लिए जानी जाती है, और पहाड़ी इलाकों के लिए अच्छी तरह से अनुकूलित होती है।इसलिए, वे पहाड़ी और जंगली इलाकों में काम के लिए उपयुक्त हैं।इन भैंसों के बाल हल्के भूरे रंग के होते हैं।जबकि, उनका दूध उत्पादन कुछ अन्य नस्लों की तुलना में, प्रति स्तनपान लगभग 500 किलोग्राम तक कम है।इसलिए, यह पारंपरिक डेयरी उत्पादों के लिए उपयुक्त है।
परंतु,आज टोडा जनजाति के गांवों में, टोडा भैंसों की मूल आबादी का दसवां हिस्सा कम हो गया हैं। 2013 के पशुधन नस्ल अध्ययन से पता चला है कि, शुद्ध नस्ल– टोडा भैंस की कुल संख्या तब, केवल 3,003 थी।यहां तक कि, इनकी दूध उपज, जो पहले प्रति भैंस प्रति दिन 5 लीटर थी, आज, घटकर प्रति दिन केवल, 1 लीटर हो गई है। इसका मुख्य कारण यह है कि, उनकी चरागाह भूमि में भारी कमी आई है।
नीलगिरि में टोडा समुदाय, ‘मुंड’ नामक बस्तियों में रहते हैं। प्रत्येक मुंड में लगभग 4-10 घर, एक या दो मंदिर और उनके निवास के पास एक भैंस बाड़ा होता है।अब, केवल ऐसे 65 मुंड ही बचे हैं। वर्तमान समय में, एक मुंड में उनकी संख्या केवल 50 के करीब है।
टोडा भैंसों की संख्या में भारी गिरावट का मतलब,सिर्फ इस समुदाय की आजीविका का नुकसान नहीं है। टोडा भैंस, उनकी संस्कृति का एक अनिवार्य हिस्सा हैं। वे लोग पारंपरिक रूप से, अपनी भैंसों को पवित्र और धर्मनिरपेक्ष मानते हैं, और उनके पास अपनी पवित्र भैंसों के विशिष्ट मंदिर भी हैं।
साथ ही,टोडा प्रकृति से बहुत जुड़े हुए हैं।और, टोडा जल भैंसें वह आधार हैं, जिसके चारों ओर उनका जीवन घूमता है। वे उनके मंदिर तभी खोलते हैं, जब ये पवित्र भैंसें बछड़े को जन्म देती हैं। इनके दूध का उपयोग,वे मक्खन और घी बनाने हेतु करते हैं। फिर बाद में, इस घी का उपयोग,मंदिरों में दीपक जलाने के लिए किया जाता है। अत: टोडा भैंसों के लुप्त होने से, सीधे तौर पर, इस जनजाति की प्राचीन संस्कृति के नष्ट होने का भी खतरा है।
नीलगिरि में भैंसों के पारंपरिक चरागाहों की जगह, अब बागानों और खेतों द्वारा ले ली गई है।इसलिए,ये भैंसें जंगलों में चली जाती हैं, जहां वे तेजी से बाघों का शिकार बन जाती हैं।
इसलिए, नीलगिरी में देशी घास के मैदानों को बढ़ाना, शेष भैंसों की रक्षा करने का एकमात्र तरीका होगा।
संदर्भ
https://tinyurl.com/nryp8p6d
https://tinyurl.com/ycyawy8t
https://tinyurl.com/474e8vwt
https://tinyurl.com/494jsjrb
https://tinyurl.com/mrsrp7m3
https://tinyurl.com/23fux8d8
चित्र संदर्भ
1. नीली-रावी भैंस को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. खेत के पास बंधी हुई नीली रावी भैंस को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. टोडा भैंस को संदर्भित करता एक चित्रण (youtube)
4. एक भैंस के बछड़े को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
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