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सर्व भाषाओं की जननी संस्कृत, इंडो-यूरोपीय (Indo-European) भाषा परिवार से संबंधित है। "संस्कृत" शब्द का अर्थ परिष्कृत, सुसज्जित तथा उत्तम रूप में प्रकट होना है। यह पृथ्वी पर अब तक की प्रमाणित सबसे पुरानी भाषा है। संस्कृत निश्चित रूप से कई भाषाओं की जननी है, विशेषकर उत्तरी भारत में बोली जाने वाली भाषाओं की। यहां तक कि द्रविड़ भाषाओं के भी कई शब्द संस्कृत से लिए गए हैं। लगभग सभी प्राचीन साहित्य जैसे वेद, उपनिषद, महाकाव्य, शास्त्र, पुराण और उस समय के चिकित्सा, खगोल विज्ञान, ज्योतिष और गणित पर कई साहित्य संस्कृत में लिखे गए हैं। इसमें अथाह ज्ञान समाहित है। संस्कृत में लैटिन (Latin ) और ग्रीक (Greek) भाषाओं की समानता है। सर विलियम जोन्स (Sir William Jones) के अनुसार, "संस्कृत, ग्रीक की तुलना में परिपूर्ण है, लैटिन की तुलना में अधिक प्रचुर है और दोनों की तुलना में अधिक उत्कृष्ट रूप से परिष्कृत है।"
भारतीय संस्कृति में पवित्रता और दर्शन का सामंजस्यपूर्ण मिश्रण देखा जा सकता है, जिसका मुख्य कारण संस्कृत भाषा है । प्राचीन भारत में संस्कृत-प्राकृत भाषाओं का गौरवशाली संयोजन देखने को मिलता है। प्रारंभ में संस्कृत एक सामान्य बोलचाल की भाषा थी,जिसका उपयोग आधुनिक भारत में भी देखा जा सकता है।संस्कृत जहां सृष्टि की मूल भाषा है तो वहीं विश्व साहित्य का स्रोत भी है। कंबोडिया (Cambodia) में भी संस्कृत सबसे प्राचीन भाषा मानी जाती है, यहां संस्कृत से संबंधित कई सबसे पुराने शिलालेख मिले हैं और कंबोडिया की खमेर भाषा में भी संस्कृत के कई शब्दों का उपयोग होता है ।खमेर एक ऑस्ट्रोएशियाटिक (Austroasiatic) भाषा है और इस परिवार में मोन, वियतनामी और मुंडा भाषाएँ भी शामिल हैं। इस परिवार का विस्तार उस क्षेत्र में हुआ जो मलय प्रायद्वीप से लेकर दक्षिण पूर्व एशिया से होते हुए पूर्वी भारत तक फैला हुआ था। इस प्रकार, खमेर का धार्मिक संघों के अलावा भारत से भौगोलिक संबंध भी था।
अतीत में संस्कृत खमेर विद्वानों के लिए एक बड़ी प्रेरणा का स्त्रोत थी। परिणामस्वरूप, कंबोडिया में संस्कृत और पाली भाषा के कई शब्द स्थानीय भाषा खमेर का हिस्सा बन गये। संस्कृत भाषा की शब्दावली और व्याकरणिक संरचना तथा साहित्य ने भी खमेर भाषा को परिष्कृत किया है। कंबोडिया में संस्कृत भाषा का उपयोग मुख्य रूप से शाही परिवारों द्वारा किया जाता था क्योंकि वे हिंदू परंपराओं का अनुसरण करते थे। आम लोग बौद्ध धर्म का अनुसरण करते थे और उनकी स्थानीय भाषा खमेर थी।चूंकि संस्कृत और पाली के शब्दों को खमेर में लिखने के लिए कोई मानक शब्दावली या लिपि नहीं थी, इसलिए आज भी संस्कृत और पाली की ध्वनियों को खमेर में लिखने के लिए असमंजसता बनी हुयी है।
खमेर में संस्कृत और पाली के कई शब्द मिश्रित हैं जिन्हें पहचानना आसान नहीं है। संस्कृत और पाली भाषाएँ कंबोडिया में कहाँ से आई हैं यह भी एक कठिन प्रश्न है। फिर भी, शिलालेखों के साक्ष्य के आधार पर हम कह सकते हैं कि कम से कम तीसरी शताब्दी ई. से, कंबोडिया में इस भाषा का उपयोग किया जा रहा था और कई शताब्दियों तक जारी रहा। अंगकोर राजवंश (Angkor Dynasty) के बाद, खमेर और थाई के बीच हुए युद्ध के कारण संस्कृत और पाली भाषाओं का उपयोग धीरे-धीरे कम हो गया।
संस्कृत में लिखे गए खमेर शिलालेख अक्सर धार्मिक आह्वान होते हैं जो वैष्णववाद और शैववाद से संबंधित उपनिषद, पुराण और आगम जैसे भारतीय ग्रंथों में निहित दार्शनिक और धार्मिक अवधारणाओं के प्रभाव को प्रकट करते हैं। खमेर शिलालेखों में संस्कृत भाषा का उपयोग देवताओं की भाषा के रूप में भी किया गया है, विशेषकर देवताओं के सम्मान में की जाने वाली कविताओं और प्रार्थनाओं के लिए। उनकी संरचना निश्चित है: जिसमें देवताओं के आह्वान के बाद, धार्मिक स्थल के संस्थापक या दाता की प्रशंसा की जाती है, और इसकी समाप्ति उन लोगों की उलाहना करते हुए की जाती है जो धार्मिक परिसर या मंदिर की रक्षा नहीं करते और उनकी दण्ड कामना की जाती है।
आपको जानकार हैरानी होगी कि कंबोडिया में 'अरुण सुसदै ' सबसे लोकप्रिय अभिवादन है, जिसका अर्थ है 'सुप्रभात'! संस्कृत में अरुण का अर्थ सूर्य है, और खमेर लोग सुबह के लिए इस शब्द का उपयोग करते हैं। इसी प्रकार 'सुसदै' शब्द का अर्थ 'स्वस्ति' है। इस प्रकार संस्कृत का "अरुण स्वस्ति" इस खमेर शब्द का निर्माण करता है, लेकिन खमेर लोग इसे इतनी तेजी से उच्चारित करते हैं, कि हम इस शब्द की समानता संस्कृत से नहीं कर पाते हैं!
खमेर ही नहीं वरन् विश्व की अनेक भाषाओं में संस्कृत भाषा की छवि देखी जा सकती है, जिसका प्रमाण हमें प्राचीन लिखित स्त्रोतों जैसे शिलालेख और प्राचीन साहित्य, से मिलता है।
हमारे जौनपुर में जामी मस्जिद के दक्षिणी द्वार पर पाया गया एक अधूरा संस्कृत शिलालेख, पारंपरिक रूप से कनौज के मौखरी राजा ईश्वरवर्मन (छठी शताब्दी के पूर्वार्ध) का बताया जाता है। एक अन्य मौखरी शिलालेख (इसानवर्मन का हरहा पत्थर शिलालेख) के साथ मिलान करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि जौनपुर शिलालेख उनके पुत्र ईशानवर्मन या उनके उत्तराधिकारियों में से एक ने बनवाया था।
सनातन संस्कृति के पोषक के रूप में, भारत की अग्रण्य संस्थानों में से एक, “तिलकधारी स्नातकोत्तर महाविद्यालय” में संस्कृति साहित्य की शिक्षा देने वाला संस्कृत विभाग का इतिहास वर्षों पुराना है। वर्ष 1948 से यहाँ कला स्नातक तथा 1970 से परास्नातक स्तर की कक्षाएँ संचालित हो रही है। अति दीर्घ काल से संस्कृत की शिक्षा देने वाला संस्कृत विभाग छात्रों को उच्च गुणवत्ता युक्त शिक्षा देने के लिए सदैव प्रतिबद्ध है। महाविद्यालय की समृद्धि और गरिमा में इस विभाग की महती भूमिका हैं।
संदर्भ:
http://surl.li/jtbef
http://surl.li/jtbeh
http://surl.li/jtbek
चित्र संदर्भ
1. कंबोडियाई देवताओं और संस्कृत पाण्डुलिपि को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
2. कई देशों में संस्कृत भाषा की ऐतिहासिक उपस्थिति प्रमाणित हो चुकी है, उन देशों के मानचित्र को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
3. हेनरी मौहोट के संस्कृत, थाई, लाओ और खमेर लिपियों के पत्र को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
4. अंगकोर वाट मंदिर परिसर को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
5. जौनपुर की जामा मस्जिद को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
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