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राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (National Judicial Data Grid (NJDG) पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, 1 फरवरी, 2023 तक देश भर के उच्च न्यायालयों में 59,87,477 मामले लंबित या विचाराधीन थे, जिनका कोई भी नतीजा नहीं आया हैं। इन मामलों में ऐसे कैदी शामिल हैं, जिन्हें गंभीर अपराधों में संलिप्त पाया गया है, और जो वास्तव में जल्द से जल्द दंड के अधिकारी हैं। लेकिन इससे भी गंभीर समस्या यह है कि, इन मामलों में ऐसे कैदी भी गेहूं में घुन की भांति पिस रहे हैं, जिन्हे झूठे मामलों में फंसाया गया है, और जो पैसा, परिवार तथा इज्जत को ताक में रखकर अदालत में अपने मुकदमे की बारी का इंतज़ार कर रहे हैं।
भारत में अदालती मामलों की लंबितता तथा न्यायिक अदालतों द्वारा मामलों के निपटान में देरी, एक बेहद गंभीर समस्या है। भारत में अदालतों के तीन स्तर (संघीय या सर्वोच्च न्यायालय, राज्य या उच्च न्यायालय और जिला अदालतें) होते हैं। कोर्ट केस (Court Case) दो प्रकार के (सिविल और क्रिमिनल (Civil And Criminal) होते हैं। यह बड़े दुःख की बात है कि वर्तमान में, सभी प्रकार और सभी स्तरों पर तकरीबन 50 मिलियन या 5 करोड़ से अधिक अदालती मामले लंबित हैं। इनमें से अधिकांश 85% से अधिक मामले, जिला अदालतों में लंबित हैं, जिनमें 169,000 से अधिक अदालती मामले 30 से अधिक वर्षों से लंबित हैं। इन सभी लंबित मामलों की संख्या भारतीय न्यायपालिका के लिए एक बड़ी चुनौती मानी जा रही है।
यदि मामलों के निपटान की प्रचलित दर यही रही तो, भारतीय अदालतों में मुकदमों के ढेर को निपटाने में 324 वर्ष से अधिक का समय लग जायेगा। अदालतों में लगने वाले इस लंबे समय के कारण पीड़ित और अभियुक्त दोनों को न्याय मिलने में बहुत अधिक देरी हो जाती है। कुछ मामलों में, यह देरी बेहद गंभीर साबित हो जाती है, क्यों कि अंतिम निर्णय में कई कैदियों को निर्दोष पाए जाने से पहले बिना किसी जुर्म के कई साल जेल में बिताने पड़ते हैं। इससे भी बड़े दुःख की बात तो यह है कि बेकुसूर पाए गए कुछ कैदियों की, अंतिम निर्णय आने से पहले ही मृत्यु भी हो गई थी।
अदालतों में लंबित मामलें आर्थिक तौर पर भी बड़े झटके देते हैं, और आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इस प्रकार अदालतों में मामलों के लंबित रहने के कारण भारत की सकल घरेलू उत्पाद Gross Domestic Product (GDP) पर 1.5% से 2% का अतिरिक्त खर्च या बोझ चढ़ जाता है।
यदि हम लंबित मामलों के कारणों की जांच करें तो, न्यायाधीशों और गैर-न्यायिक कर्मचारियों की संख्या में कमी इस देरी का एक मुख्य कारण है। 2022 में, भारत में प्रति मिलियन लोगों पर केवल 21.03 न्यायाधीश थे, जबकि प्रति मिलियन जनसंख्या पर न्यायाधीशों की अनुशंसित शक्ति न्यूनतम 50 होनी ही चाहिए। यह भी माना जाता है कि न्यायाधीशों की कमी के बावजूद भारत में अदालतों ने अक्सर अपनी पूरी क्षमता से काम नहीं किया है। 2022 में, भारत में प्रति मिलियन जनसंख्या पर न्यायाधीशों की कार्य क्षमता 14.4 न्यायाधीश थी।
न्यायाधीशों की नियुक्ति एक लंबी और जटिल प्रक्रिया है, जिससे रिक्तियों को भरने में देरी हो सकती है। उच्च न्यायालय के कॉलेजियम (Collegium) द्वारा नियुक्ति के लिए उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सिफारिश की जाती है, जिसमें उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और उच्च न्यायालय के दो शेष वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं। वहीं किसी राज्य में जिला या निचली अदालत के न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधित उच्च न्यायालय, राज्यपाल और राज्य लोक सेवा आयोग द्वारा की जाती है। जिला न्यायाधीशों और सिविल न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए परीक्षा आयोजित की जाती है। माना जाता है कि परीक्षा और नियुक्ति प्रक्रिया भी कुशल नहीं है। 2018 में, भारत के उच्चतम न्यायालय ने पाया कि निचली अदालतों में रिक्त पदों की संख्या और चल रही भर्ती में कोई तालमेल ही नहीं था। भारत के सर्वोच्च न्यायालय में तकरीबन 73,000 मामले लंबित हैं। हालांकि कई न्यायाधीश एक वर्ष में 193 दिन काम करते हैं, फिर भी उनकी यह मेहनत ऊंट के मुहं में जीरे के बराबर ही साबित होती है। दरअसल, उन्हें छुट्टी के दिन भी काम करना पड़ता है। आपको जानकर हैरानी होगी कि आज तकनीकी विकास के बावजूद सुप्रीम कोर्ट हर साल कागज की 48 मिलियन शीट का उपयोग करता है! इसलिए, भारतीय न्याय प्रणाली को अभी बहुत काम करना है। हालांकि न्यायाधीश इस संदर्भ में अपना सर्वोत्तम प्रयास कर रहे हैं, लेकिन उन्हें भी अधिक संसाधनों और प्रौद्योगिकी दक्षता की आवश्यकता है, ताकि वे मामलों का तेजी से निपटारा कर सकें।
देश में न्यायपालिका की स्थिति के बारे में बात करते हुए भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना (Nv Ramana) ने हाल ही में कहा कि सरकार ही 'सबसे बड़ी मुकदमेबाज' है और अगर वे इतने सारे मामले दर्ज करना बंद कर दें, तो इससे न्यायपालिका की आधी समस्याएँ हल हो सकती हैं। उन्होंने आजादी के 75 साल बाद भी देश में न्यायिक बुनियादी ढांचे की खराब स्थिति के बारे में भी बात करते हुए कहा कि सरकारी विभागों और अधिकारियों के बीच बहुत अधिक विवाद हैं, जिस कारण भी बहुत सारी समस्याएं हो रही हैं। इसके अलावा जब वित्तीय सहायता और नियुक्तियों की बात आती है तो न्यायपालिका की स्वतंत्रता सीमित हो जाती है। उन्होंने कहा कि सरकार के साथ काम करना हमेशा कठिन (रस्सी पर चलने जैसा!) साबित होता है।
मुख्य न्यायाधीश के रूप में न्यायमूर्ति रमना ने सर्वोच्च न्यायालय में 11 न्यायाधीशों की नियुक्ति करने के साथ-साथ विभिन्न उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के लिए 255 लोगों की सिफारिश भी की थी, जिनमें से 233 पहले ही नियुक्त किए जा चुके हैं।
कुल मिलाकर जस्टिस रमना चाहते हैं कि सरकार इतने सारे मामले दर्ज करना बंद करे और देश में न्यायिक ढांचे में सुधार करे। उनका मानना है कि ये बदलाव न्यायपालिका की समस्याओं को हल करने में मददगार साबित होंगे।
न्यायमूर्ति रमना की तर्ज पर ही भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी वाई चंद्रचूड़ (DY Chandrachud) ने भी लंबित मामलों की गंभीरता के मद्देनजर हाल ही में घोषणा की कि अब से सर्वोच्च न्यायालय में वार्षिक शीतकालीन अवकाश के दौरान अवकाश पीठ नहीं होगी। उनका यह बयान केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू द्वारा लंबित मामलों के बावजूद लंबी छुट्टियां लेने के लिए न्यायपालिका की आलोचना करने के बाद आया है।
सुप्रीम कोर्ट आमतौर पर अपनी वार्षिक गर्मी की छुट्टी के लिए सात सप्ताह, दशहरा और दिवाली के लिए एक-एक सप्ताह और दिसंबर के अंत में दो सप्ताह का अवकाश या ब्रेक लेता है। हालांकि जैसा कि हमने बताया कि कुछ न्यायाधीश अवकाश के दौरान भी अत्यावश्यक मामलों की सुनवाई करते हैं।
सन 2000 में, न्यायमूर्ति मालिमथ समिति ने मामलों की लंबी लंबितता को ध्यान में रखते हुए छुट्टी की अवधि को 21 दिनों तक कम करने का सुझाव दिया था। भारत के विधि आयोग ने 2009 में प्रणाली में सुधार का आह्वान किया, जिसमें कहा गया कि उच्च न्यायपालिका में छुट्टियों को कम से कम 10 से 15 दिनों तक कम किया जाना चाहिए और अदालत के काम के घंटों को कम से कम आधा घंटा बढ़ाया जाना चाहिए। हालांकि इस संदर्भ में कानूनी बिरादरी का तर्क है कि एक पेशे में वकीलों और न्यायाधीशों से बौद्धिक कठोरता तथा नए मामले को समझने के लिए लंबे ब्रेक जरूरी हैं। कुल मिलाकर भारत में अदालती मामलों की लंबितता वास्तव में एक गंभीर समस्या है, जो न्याय पद्धति, कैदी के जीवन तथा देश की जीडीपी को प्रभावित करती है। न्यायाधीशों और गैर-न्यायिक कर्मचारियों की संख्या में कमी, लंबी छुट्टियां और संघ और राज्य सरकारों के बीच समन्वय और सहयोग की कमी इस समस्या के कुछ प्रमुख कारण हैं। अतः इस मुद्दे को हल करने के लिए, भारत सरकार को न्यायाधीशों और गैर-न्यायिक कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि करनी चाहिए, संघ और राज्य सरकारों के बीच समन्वय और सहयोग में सुधार करना चाहिए और न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना भी जरूरी है।
संदर्भ
https://bit.ly/3USSXKz
https://bit.ly/41k2ixk
https://bit.ly/3GUq62R
https://bit.ly/41BC1KH
चित्र संदर्भ
1. अदालती कार्यवाही को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
2. भारत के सुप्रीम कोर्ट को दर्शाता एक चित्रण (wikipedia)
3. अदालत को दर्शाता एक चित्रण (NewsClick)
4. सुप्रीम कोर्ट प्रांगण को दर्शाता एक चित्रण (wikipedia)
5. भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी वाई चंद्रचूड़ (DY Chandrachud) को संदर्भित करता एक चित्रण (wikipedia)
6. सेलुलर जेल, पोर्ट ब्लेयर को संदर्भित करता एक चित्रण (wikipedia)
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