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नए घर की दीवारें शुरू-शुरू में बेहद साफ़, सुंदर और मजबूत होती हैं। किंतु यदि समय-समय पर इनकी सफाई तथा जीर्णोंद्धार न किया जाए, तो इन दीवारों पर धूल जमने लगती है, मकड़ियां अपना जाला बना देती हैं, साथ ही ये अंदर से खोखली भी होने लगती है! ठीक इसी प्रकार हिंदू समाज के भीतर भी, धूल रुपी औपनिवेशिक अधिकारियों और रूढ़िवादी तत्वों द्वारा सनातन धर्म की चमक को धूमिल करने का प्रयास समय समय पर किया जाता रहा है! लेकिन सौभाग्य से सनातन धर्म में जन्मे स्वामी दयानन्द सरस्वती जी जैसे महापुरुषों एवं उनके द्वारा गठित आर्य समाज जैसे अनेक आंदोलनों ने सनातन धर्म की चमक को कभी भी फीका पड़ने ही नहीं दिया है।
आर्य समाज एक हिन्दू सुधार आंदोलन है, जिसकी स्थापना स्वामी दयानन्द सरस्वती ने १८७५ में बंबई (मुंबई) में मथुरा के स्वामी विरजानंद की प्रेरणा से की थी।
आर्य समाज के दस सिद्धांत, आर्य समाज आंदोलन के लिए सैद्धांतिक आधार बन गए थे। इनकी सूची निम्नवत दी गई है-
1.सभी प्रकार के सत्य और पदार्थों का ज्ञान विद्या से प्राप्त होता है , उन सबका आदिमूल परमेश्वर है।
2.ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक,सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, केवल वही उपासना करने योग्य है।
3.वेद सब सत्य विद्याओं से युक्त पुस्तक हैं । वेदों को पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परमधर्म है।
4.सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने के लिए सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।
5.सभी कार्य धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को ध्यान में रखकर ही करने चाहिये।
6.संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है।
7.सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करना चाहिये।
8.अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये।
9.प्रत्येक को अपनी ही उन्नति में संतुष्ट नहीं रहना चाहिये।
10.सब मनुष्यों को सामाजिक एवं सर्वहितकारी नियमों का पालन करने के लिए तत्पर रहना चाहिये।
स्वामी दयानंद सरस्वती, भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता का आह्वान करने वाले पहले व्यक्ति थे और उनके संदेशों ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध राजनीतिक प्रतिरोध को प्रेरित किया। आर्य समाज ने बंगाल के विद्रोह के लिए रास्ता तैयार किया और भारत की राजनीतिक मुक्ति की दिशा में संस्थानों के सुधार, कायाकल्प और पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आर्य समाज ने देश के विभिन्न हिस्सों के राजनीतिक परिदृश्य पर अपनी गहरी छाप छोड़ी।
भारत के प्रमुख सामाजिक-धार्मिक आंदोलनों में से एक आर्य समाज ने, 18वीं से 20वीं शताब्दी तक हैदराबाद में निजाम शासन के बावजूद सामाजिक-राजनीतिक जागरूकता फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हैदराबाद में आर्य समाज आंदोलन की शुरुआत 1892 में हुई और शहर का सुल्तान बाजार आंदोलन का एक सक्रिय केंद्र बन गया। 1905 में ‘हैदराबाद राज्य आर्य समाज’ के अध्यक्ष के रूप में पंडित केशव राव कोराटकर के चुनाव ने निजाम के निरंकुश शासन के खिलाफ राजनीतिक जागरूकता फैलाने में मदद की। 1938 तक, आर्य समाज की हैदराबाद में 250 शाखाएँ स्थापित हो चुकी थीं जिनके द्वारा निज़ाम के शासन की क्रूरता का विरोध कर पुनर्जागरण आंदोलन शुरू किया गया । हैदराबाद राज्य के कई राजनीतिक नेता आर्य समाज की गतिविधियों से प्रभावित थे और गैर-मुस्लिमों के नागरिक तथा धार्मिक अधिकारों का समर्थन करने के लिए इस आंदोलन में शामिल हुए।
दरसल, निज़ाम सरकार द्वारा एक इस्लामिक राज्य स्थापित करने की कोशिश की जा रही थी, जिसने गैर-शासक वर्ग के लोगों को बुनियादी नागरिक और मानवाधिकारों से वंचित कर दिया था ।
लेकिन इसके बावजूद आर्य समाज मूक दर्शक नहीं बना रहा और उसने सरकार के आदेशों का पुरजोर विरोध किया। आर्य समाज ने सभी मनुष्यों में समानता की वकालत की, जाति व्यवस्था की निंदा की, और अपनी पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के माध्यम से “वेदों की ओर वापस लौटो" के संदेश का प्रचार किया।
आर्य समाजियों ने अपना जीवन आर्य-समाज मंदिरों में लोगों को शिक्षित करने के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने अछूतों के लिए कई स्कूल और अस्पताल खोले। हैदराबाद में आर्य समाज के अधिवक्ताओं ने नागरिक और धार्मिक स्वतंत्रता को बहाल करने के लिए अपने संघर्ष में गरीब हिंदुओं को अपनी मुफ्त सेवा समर्पित करने का संकल्प लिया। उन्होंने जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना के लिए भी काफी संघर्ष किया।
निज़ाम प्रशासन ने 1937 में आर्य समाज की सभी वार्षिक बैठकों को रोकने की कोशिश की, लेकिन समाज ने बिना किसी पूर्व स्वीकृति के समारोह आयोजित करके इसका विरोध किया। नतीजतन, हैदराबाद राज्य के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक दंगे भी हुए। लेकिन इसके बावजूद आर्य समाज लोगों के नागरिक और धार्मिक अधिकारों पर जोर देता रहा। जब निजाम ने लोगों की मांगों को अनसुना कर दिया, तो आर्य समाज ने निजाम सरकार के खिलाफ सत्याग्रह करने का फैसला किया । हैदराबाद के आर्य समाजियों ने 1939 में गुलबर्गा में महात्मा नारायण स्वामी और कुंवर चंद्रकरंजी के नेतृत्व में सत्याग्रह में भाग लिया। जब निजाम सरकार ने गैर-हैदराबादियों को राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी, तो आर्य समाजियों ने आदेशों की अवहेलना की और निजाम के खिलाफ आंदोलन का समर्थन करने के लिए शोलापुर, विजयवाड़ा, बरसी, अहमदनगर, मनमाड और पूना के माध्यम से राज्य में प्रवेश किया। उन्हें राज्य की विभिन्न जेलों में गिरफ्तार किया गया और प्रताड़नाएं दी गई। उनमें से कुछ ने तो अपने प्राण तक त्याग दिए।
हैदराबाद के साथ-साथ राजस्थान में भी राजनीतिक चेतना जागृत करने एवं शिक्षा का प्रसार करने में स्वामी दयानंद सरस्वती एवं आर्यसमाज की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। राजस्थान में स्वामी दयानंद का आगमन सर्वप्रथम 1865 ईसवी में करौली में राजकीय अतिथि के रूप में हुआ था। इस दौरान उन्होंने किशनगढ़, जयपुर, पुष्कर एवं अजमेर में अपने व्याख्यान दिए। वहीं दूसरी बार यहां उनका आगमन 1881 ईसवी में भरतपुर में हुआ। जहां से स्वामीजी जयपुर, अजमेर, ब्यावर, मसूदा एवं बनेड़ा होते हुए चित्तौड़ पहुँचे, जहाँ कविराजा श्यामलदास ने उनका स्वागत किया।
महाराणा सज्जनसिंह के आग्रह पर स्वामी दयानंद सरस्वती उदयपुर पहुंचे जहां उन्होंने आर्य समाज का प्रचार किया। मेवाड़ के अनेक सरदार भी उनके उपदेशों को सुनने के लिए नित्य उनकी सभा में आया करते थे। 1882 में जब स्वामी दयानन्द दोबारा उदयपुर पहुँचे, तब उन्होंने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के द्वितीय संस्करण की भूमिका लिखी। उदयपुर में ही फरवरी, 1883 ईसवी में स्वामीजी के सानिध्य में ‘परोपकारिणी सभा’ की स्थापना हुई। उसी साल स्वामीजी जोधपुर भी गए, जहां जोधपुर महाराजा जसवन्तसिंह, प्रतापसिंह तथा रावराजा तेजसिंह पर स्वामीजी के उपदेशों का काफी प्रभाव पड़ा। अपने व्याख्यानों के माध्यम से स्वामीजी ने क्षत्रिय नरेशों के चरित्र संशोधन और गौरक्षा पर विशेष बल दिया। उन्होंने वेश्यागमन के दोष बतलाए और महाराजा जसवन्तसिंह के वेश्या ‘नन्हीजान’ से प्यार करने के कारण उन्हें भी फटकार लगाई। माना जाता है कि वेश्या नन्हीजान ने ही स्वामीजी को विष दिलवा दिया, जिससे उनकी तबीयत बिगड़ गई। हालांकि इसके बाद स्वामीजी को अजमेर ले जाया गया, लेकिन काफी चिकित्सा के उपरान्त भी वह स्वस्थ नहीं हुए और अजमेर में ही 1883 ईसवी में उनका देहान्त हो गया। उन्होंने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ को उदयपुर में ही हिन्दी भाषा में लिखा।
आर्य समाज की स्थापना के तुरंत बाद ही इसने उत्तर भारत में तेजी से लोकप्रियता हासिल कर ली थी। पंजाब आर्य समाज की स्थापना 1877 में हुई थी। उत्तर प्रदेश के बाद दूसरी सबसे बड़ी शाखाओं के साथ, आंदोलन ने पंजाब में तेजी से लोकप्रियता हासिल की। आर्य समाज के प्रमुख नेताओं में लाला लाजपत राय और अजीत सिंह शामिल थे, जिन्होंने 1907 में कृषि विरोध का नेतृत्व किया था। उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के अंत तक, ब्रिटिश शासन ने पूरे पंजाब पर कब्जा कर लिया था। पंजाब में ब्रिटिश प्रशासन, संस्थानों और शिक्षा संस्थानों की स्थापना की गई ,जिनके कारण वहां के लोग जल्द ही इनसे प्रभावित होने लगे। ऐसी स्थिति में आर्य समाज द्वारा समाज में जाति चेतना का उदय करने के लिए शुद्धि आंदोलन चलाया जाता है। शुद्धि आंदोलन के माध्यम से आर्य समाज ने जाति की बाधाओं को दूर करने की कोशिश की। शुद्धि आंदोलन का उपयोग पहली बार दयानंद सरस्वती द्वारा एक शुद्धिकरण समारोह के रूप में किया गया था, जिसमें अन्य धर्मों में खोए हुए हिंदू धर्मान्तरित लोगों को हिंदू धर्म में वापस लाया जा सकता था। 1900 के बाद से आर्य समाज के भीतर निचली जातियों को भी शामिल करने के लिए जागरूक कदम उठाए गए थे।पंजाब में आर्य समाज ने एक भारतीय आंदोलन के रूप में अपनी प्रामाणिकता स्थापित की।
इस बीच, पंजाब में मुस्लिम समुदाय भी बदलते सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य पर अपनी-अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे। उन्होंने अंजुमन, या संघों का गठन किया, जिसका उद्देश्य धार्मिक, भौतिक और सामाजिक तरीकों से अपने समुदाय के सदस्यों का उत्थान करना था। इन अंजुमनों को ईसाई मिशनरी समाजों और हिंदुओं की बढ़ती आर्थिक समृद्धि से चुनौतियों का सामना करना पड़ा। अंजुमनों का उद्देश्य इस्लाम का प्रचार करना, प्रचारक नियुक्त करना, साहित्य प्रकाशित करना और मुस्लिम बच्चों को धार्मिक शिक्षा प्रदान करना था। उन्होंने स्कूलों, अनाथालयों और प्रकाशन गृहों की भी स्थापना की। इन अंजुमनों का नेतृत्व मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग के सदस्यों से बना था, जिनमें अभिजात, वकील और सरकारी अधिकारी शामिल थे। हालाँकि इन अंजुमनों की सदस्यता बहुत बड़ी नहीं थी, फिर भी उन्होंने इस क्षेत्र में मुस्लिम शिक्षा में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
देश के जिन विभिन्न राज्यों में आर्य समाज अपना प्रभाव फैला रहा था, गुजरात भी इन्हीं राज्यों में से एक था। हालांकि दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज की शुरुआत में पंजाब की तुलना में गुजरात में लोकप्रियता कम थी, लेकिन अछूतों के ईसाई धर्म में धर्मांतरण की लहर के बाद इसमें तेजी देखी गई। इस आंदोलन ने शहरी मध्य वर्ग, उच्च कृषक जातियों और कोली जाति के कुलीन वर्ग के अनुयायियों को आकर्षित किया, जिनके पास संगठन को अपनाने के अपने-अपने कारण थे, जिनमें उच्च सामाजिक स्थिति की इच्छा से लेकर धार्मिक सुधार और जाति एकता का निर्माण शामिल था। हालांकि, राजनीतिक परिदृश्य पर गांधी जी के आगमन के बाद आर्य समाज ने अपनी गति खो दी और इसके कई पूर्व अनुयायियों ने गांधीवादी आंदोलन को गले लगा लिया। 1920 के दशक में, गुजरात में सांप्रदायिक तनाव फिर से शुरू हो गया और आर्य समाजियों ने 1928 में गोधरा में एक दंगे में उत्तेजक भूमिका निभाई।
आर्य समाज ने औपनिवेशिक काल में हरियाणा क्षेत्र में भी राजनीतिक जागृति लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हरियाणा को प्रारंभ में बंगाल प्रेसीडेंसी (Bengal Presidency) में शामिल किया गया था, लेकिन बाद में हरियाणा ब्रिटिश शासन के तहत उत्तर पश्चिमी प्रांत और फिर पंजाब का हिस्सा बन गया। पंजाब से भाषाई, सांस्कृतिक और सामाजिक मतभेदों के बावजूद, हरियाणा को भी इसी प्रांत के साथ जोड़ा गया था। आर्य समाज ने इस क्षेत्र में सामाजिक सुधारों को बढ़ावा दिया, विधवा पुनर्विवाह की वकालत की, अस्पृश्यता का विरोध किया और हिंदू समाज के दबे हुए वर्गों की स्थिति में सुधार किया। समाज ने वर्ण व्यवस्था में विकृतियों को सुधारने की भी मांग की और व्याप्त अंधविश्वास और तर्कहीन मान्यताओं के खिलाफ अभियान चलाया।
इन सभी राज्यों से बढ़कर ब्रिटिश उपनिवेशवाद से आजादी पाने के संदर्भ में भी आर्य समाज ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वामी दयानंदजी द्वारा स्थापित यह आंदोलन, आधुनिक समाज में अब तक का सबसे गतिशील सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन था। यद्यपि इस आंदोलन के तहत मुख्य रूप से सामाजिक और धार्मिक सुधारों पर ध्यान केंद्रित किया गया था, लेकिन आर्य समाज का राजनीतिक प्रभाव भी काफी अधिक था। स्वामी दयानंद सरस्वती और आर्य समाज भारत की राष्ट्रीय चेतना का निर्माण करने में सबसे शक्तिशाली कारक रहे थे। स्वतंत्रता के लिए भारत की लड़ाई पर उनके प्रभाव को कम करके नहीं आंका जा सकता है। स्वामी दयानंद का मानना था कि हमारे आपसी झगड़े ही भारत के पतन का कारण थे, इसलिए उन्होंने राष्ट्रीय एकता के महत्व पर जोर दिया। वह बिखरे हुए भारतीय शासकों को एकजुट करना चाहते थे और उनके राज्यों में एक आम राष्ट्रीय भावना और विश्वास पैदा करना चाहते थे। उन्होंने स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग को भी प्रोत्साहित किया। आर्य समाज ने स्वामी दयानंद के स्वदेशी के अधूरे काम को पूरा करने की जिम्मेदारी ली और 1894 में ‘स्वदेशी वस्तु प्रचारिणी सभा’ का गठन किया गया। स्वामी दयानंद ने भारत के गौरव को पुनर्जीवित करने में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के महत्व को पहचाना और कई पाठशालाएँ (स्कूल) भी खोली। उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज ने पूरे भारत में 500 से अधिक शैक्षणिक संस्थान चलाए, जो सरकारी सहायता से स्वतंत्र थे और केवल भारतीयों द्वारा संचालित और वित्तपोषित थे। महात्मा गांधी के आगमन से पहले आर्य समाज को ब्रिटिश सरकार द्वारा भी एक संभावित खतरनाक संगठन माना जाता था। इस समाज ने भारतीय राजनीतिक आंदोलन में कई शक्तिशाली नेताओं का निर्माण किया।
संदर्भ
https://bit.ly/3ZPi160
https://bit.ly/3GpJvIw
https://bit.ly/3Um9sOX
https://bit.ly/3zEiu07
https://bit.ly/3zG3r6c
https://bit.ly/417o86W
https://bit.ly/416sATk
https://bit.ly/40V5JKL
https://bit.ly/40NsLTD
चित्र संदर्भ
1. स्वामी दयानंद सरस्वती एवं आर्य समाज के प्रतीक को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. जनेऊ पहनाने के लिए आर्य समाज की बैठक को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. निज़ाम प्रशासन को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. स्वामी दयानंद सरस्वती को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
5. आर्य समाज को समर्पित डाक टिकटको दर्शाता चित्रण (wikimedia)
6. स्वामी दयानन्द सरस्वती की मुख्य कृतियों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
7. महर्षि दयानन्द का समाज सुधार में व्यापक योगदान को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
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