टीपू सुल्तान का पहला युद्ध रॉकेट, कैसे बन गया कांग्रीव रॉकेट?

हथियार व खिलौने
11-01-2023 12:05 PM
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टीपू सुल्तान का पहला युद्ध रॉकेट, कैसे बन गया कांग्रीव  रॉकेट?

तकनीक का इस्तेमाल हमेशा युद्ध के बेहतर उपकरणों के निर्माण के लिए किया जाता रहा है। आधुनिक युग में, विज्ञान में व्यवस्थित अनुसंधान ने सैन्य और नागरिक उपयोग दोनों के लिए नई तकनीक और नवाचारों के विकास को सक्षम बनाया है। मानव जाति ने धनुष और तीर से लड़ने से लेकर राइफल, बंदूक, टैंक, विमान, रॉकेट और मिसाइल तक क्रमिक रूप से प्रगति की है। इन तकनीकों ने न केवल नागरिक क्षेत्र में असंख्य गतिविधियों को छुआ है बल्कि सैन्य वायुसेना में भी एक क्रांति की शुरुआत की है। इसी श्रंखला में कांग्रीव रॉकेट का नाम अविस्मरणीय है। कांग्रीव रॉकेट(Congreve rocket), 1806 में ईस्ट इंडिया कंपनी के एक आविष्कारक सर विलियम कांग्रीव (SIR WILLIAM CONGREVE ) द्वारा डिजाइन किया गया था। उन्हें रॉकेट बनाने का विचार तब आया, जब सन् 1806 से 26 साल पहले 1780 में टीपू सुल्तान ने इन रॉकेट का इस्तेमाल उन्हीं की ब्रिटिश सरकार में हमला करने के लिए किया था। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में जब ब्रिटिश फ्रांस के खिलाफ नेपोलियन के युद्धों में फंस गए थे, तो उन्होंने एक सैन्य हथियार पेश किया, जो था कांग्रीव रॉकेट। यह रॉकेट अब तक यूरोपीय महाद्वीप में पहले कभी किसी भी देश ने इस्तेमाल नहीं किया था। कांग्रीव रॉकेट को, 1800 के दशक की शुरुआत में बहुत प्रयोग के बाद फ्रांसीसी सैनिकों के खिलाफ तैनात किया गया था। 
इन रॉकेट की ताकत और प्रभावशीलता ऐसी थी कि इन्होंने तुरंत सभी देशों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया एवं जल्द ही डेनमार्क (Denmark)मिस्र, (Egypt,) फ्रांस ( France), रूस (Russia)और कई अन्य देशों के सैन्य इंजीनियरों ने ब्रिटिश इंजीनियरों का अनुसरण करना शुरू कर दिया। हालाँकि, 19वीं शताब्दी के मध्य में, इतिहासकारों ने ब्रिटिश सैनिकों के अतीत के बारे में पता लगाया, जिससे उन्हें यह पता चला कि वास्तव में, कांग्रीव रॉकेट की जड़े भारतीय उपमहाद्वीप में टीपू सुल्तान के राज्य में थी। टीपू सुल्तान, जिसे टीपू साहब या मैसूर के टाइगर के नाम से भी जाना जाता है, दक्षिण भारत में स्थित मैसूर साम्राज्य के शासक और रॉकेट तोपखाने के अग्रणी थे। आपको बता दें कि अमेरिकन स्पेस रिसर्च एजेंसी नासा ( National Aeronautics and Space Administration (NASA) के रिसेप्शन लॉबी में एक पेंटिंग है जिसमें लड़ाई का एक दृश्य दिखाया गया है और साथ में यह बताने की कोशिश की गई है कि कैसे रॉकेट के इतिहास से एक योद्धा ने विशाल ब्रिटिश सेना को हराया था और यह योद्धा कोई और नहीं टीपू सुल्तान था। जी हाँ, इस बात से हम अंदाजा लगा सकते हैं कि रॉकेट के इतिहास में टीपू सुल्तान का क्या महत्व है? लगभग 300 साल पहले टीपू सुल्तान ने एक ऐसा हथियार बनाया था , जो दुश्मनों पर भारी पड़ गया था।
टीपू सुल्तान का नाम उन स्वतंत्रता सेनानियों में लिया जाता है, जिन्होंने 18वीं सदी में अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था। अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान के साथ मित्रता करने की बहुत कोशिश की, लेकिन टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों से कभी हाथ नहीं मिलाया। इसलिए अंग्रेज और टीपू सुल्तान एक दूसरे के दुश्मन बन गए । इसी दुश्मनी में टीपू सुल्तान एवं उसके पिता हैदर अली ने चार लड़ाइयाँ लड़ी थी, जिनको आज आंग्ल-मैसूर युद्ध (Anglo-Mysore Wars) के नाम से जाना जाता है। जब इस लड़ाई में अंग्रेजों के गोला बारूद टीपू सुल्तान की तलवार पर हावी होने लगे, तब टीपू सुल्तान ने अपनी सेना को एक ऐसा हथियार दिया, जिसे इतिहास में मैसूरियन रॉकेट के नाम से जाना जाता है। मैसूरियन रॉकेट भारतीय सैन्य हथियार थे, जो कि लोहे के आवरण से बने थे तथा उन्हें सफलतापूर्वक सैन्य उपयोग के लिए तैनात किया गया था ।हैदर अली और टीपू सुल्तान के नेतृत्व में मैसूर की सेना ने 1780 और 1790 के दशक के दौरान ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ प्रभावी ढंग से इन रॉकेट का इस्तेमाल किया।  इस अवधि के मैसूर रॉकेट मुख्य रूप से प्रणोदक धारण करने के लिए लोहे की ट्यूबों के उपयोग के कारण अंग्रेजों की तुलना में कहीं अधिक उन्नत थे ।
रॉकेट यूरोप में भी मौजूद थे, लेकिन वे लोहे के आवरण वाले नहीं थे । 1792 और 1799 में श्रीरंगपट्टम में लड़ाई में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ इन रॉकेट का काफी प्रभाव के साथ इस्तेमाल किया गया था। इन युद्धों के कारण अंग्रेजों को इस तकनीक के बारे में पता चला, जिसका उपयोग बाद में 1805 में कांग्रीव रॉकेट के विकास के साथ यूरोपीय रॉकेटरी को आगे बढ़ाने के लिए किया गया था। मैसूरियन रॉकेट के साथ अनुभव ने अंततः रॉयल वूलविच आर्सेनल (Royal Woolwich Arsenal) को मैसूरियन प्रौद्योगिकी के आधार पर 1801 में एक सैन्य रॉकेट अनुसंधान और विकास कार्यक्रम शुरू करने के लिए प्रोत्साहित किया। मैसूर से कई रॉकेट आवरण एकत्र किए गए और विश्लेषण के लिए ब्रिटेन भेजे गए। ठोस-ईंधन वाले रॉकेट का ब्रिटिश द्वारा पहला प्रदर्शन 1805 में हुआ और उसके बाद शस्त्रागार के कमांडेंट के बेटे विलियम कांग्रीव (William Congreve) द्वारा 1807 में ’रॉकेट सिस्टम की उत्पत्ति और प्रगति के संक्षिप्त विवरण’ (A Concise Account of the Origin and Progress of the Rocket System) का प्रकाशन किया गया। 
नेपोलियन युद्धों और 1812 के युद्ध के दौरान अंग्रेजों द्वारा कांग्रीव रॉकेट का व्यवस्थित रूप से उपयोग किया गया था। उनका उपयोग 1814 की बाल्टीमोर की लड़ाई (Battle of Baltimore) में भी किया गया था, और संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रगान "द स्टार-स्पैंगल्ड बैनर" (The Star -Spangled Banner ) में भी इसका उल्लेख किया गया।

संदर्भ
shorturl.at/fvCMT
shorturl.at/xFIUY
shorturl.at/qCK79

चित्र संदर्भ

1. कांग्रीव रॉकेट को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. कांग्रेव रॉकेट पैच 1832 को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. टीपू सुल्तान, जिसे टीपू साहब या मैसूर के टाइगर के नाम से भी जाना जाता है, दक्षिण भारत में स्थित मैसूर साम्राज्य के शासक और रॉकेट तोपखाने के अग्रणी थे। को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. त्रावणकोर लाइन किलेबंदी (29 दिसंबर 1789) पर मैसूरी सैनिकों द्वारा हमले में रॉकेट के उपयोग को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. पुनर्जागरण में आविष्कारक और प्रौद्योगिकी - छाता और कांग्रेव रॉकेट को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)

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