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अवधी भाषा हिंदी क्षेत्र की एक उपभाषा है। उत्तर प्रदेश में जौनपुर, लखनऊ, रायबरेली, सुल्तानपुर, उन्नाव, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर, फैजाबाद, प्रतापगढ, फतेहपुर, मिर्जापुर आदि स्थानों पर अवधी भाषा का प्रयोग किया जाता है। यह भाषा हिंदी की एक उपभाषा है तथा अवधी नाम अवध क्षेत्र के कारण पड़ा। अवधी भाषा भक्तिकाल में अपने पराकाष्ठा पर पहुँची जब तुलसीदास का रामचरित मानस, मलिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत, अमीर खुसरो के दोहे, कबीर के दोहे व विभिन्न सूफी गीत आदि की रचना हुई। यदि अवधी भाषा की मिठास व इसकी महत्ता की बात की जाये तो साहित्यिक दृष्टि से पूर्वी हिन्दी की बोली अवधी बहुत महत्वपूर्ण रही है। मध्यकालीन साहित्य में अवधी के तीन रूप निखर कर सामने आये हैं- (1) मलिक मुहम्मद जायसी, कुतुबन, मंझन, आलम, नूर मुहम्मद, निसार आदि सूफियों की ठेठ अवधी, जिसमें अरबी-फारसी के प्रचलित शब्द और मुहावरे बड़े स्वाभाविक रूप से आये हैं। (2) पहुकर, नरपति व्यास, गोवर्धनदास, दुखहरन आदि प्रेमाख्यानकार हिन्दू कवियों की पश्चिमी परम्परा से सम्पृक्त अवधी, जिसमें अप्रभंश का क्षीण होता हुआ और संस्कृत का बढ़ता हुआ प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है और (3) गोस्वामी तुलसीदास, अग्रदास, लालदास आदि राम-कवियों की साहित्यिक अवधी जो अपनी प्राञ्जलता और सुन्दरता के कारण तत्कालीन ब्रजभाषा से बराबरी कर सकती है। स्पष्ट है कि उत्तरी भारत के हिन्दी सूफी प्रेमाख्यानों की भाषा प्रायः सर्वत्र अवधी दिख पड़ती है और उसमें भी प्रायः ठेठ रूप का ही प्रयोग हुआ है। सूफी कवियों ने प्रायः तद्भव-बहुला अवधी भाषा का प्रयोग किया है। यद्यपि सूफी काव्यों में प्रयुक्त अवधी संस्कृत के तत्सम शब्दों और उसकी कोमल-कान्त-पदावलियों से अलंकृत नहीं है, तथापि वह तत्कालीन शिष्टजन-समादृत बोलचाल की अवधी भाषा की स्वाभाविक विशेषताओं से मंडित है। उनकी अवधी स्वाभाविक एवं श्रुति-मधुर है। जायसी, कुतुबन आदि सूफियों की विशेषता यह है कि उन्होंने बोल-चाल की अवधी में मिष्ट-मधुर, सहज-सरल, किन्तु गुढ़-गम्भीर, अर्थपूर्ण और समर्थ व्यन्जनाएँ की हैं। सूफी कवियों द्वारा स्थानीय भाषा अवधी में रचना करना अकारण नहीं था। मैथिल-कोकिल विद्यापति के अनुसार देसिल बयना सब जन मिट्ठा। कबीर की मान्यता है कि संस्कीरत है कूप जल भाषा बहता नीर। जायसी ने स्पष्ट लिखा है कि आदि अंत जस गाया अहै लिखि भाखा चौपाई कहै। इस प्रकार, जैसी कि भक्त कवियों की मान्यता रही है, हिन्दी के सूफी कवियों ने जनता में अपना सन्देश सुनाने के लिये अपनी स्थानीय भाषा अवधी का ही चुनाव सर्वोत्तम समझा। यह भक्त कवियों की विशेषता है कि वे प्रायः स्थानीय भाषाओं-लोकभाषा में ही अपनी मनोरम अभिव्यक्तियाँ करते रहे हैं। भाषा शास्त्री डॉ. सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन के भाषा सर्वेक्षण के अनुसार अवधी बोलने वालों की कुल आबादी 1615458 थी जो सन् 1971 की जनगणना में 28399552 हो गई। मौजूदा समय में शोधकर्ताओं का अनुमान है कि 6 करोड़ से ज्यादा लोग अवधी बोलते हैं। उत्तरप्रदेश के अलावा बिहार के 2 जिलों के साथ पड़ोसी देश नेपाल के 8 जिलों में यह भाषा प्रचलित है। इसी प्रकार दुनिया के अन्य देशों- मॉरिशस, त्रिनिदाद एवं टुबैगो, फिजी, गयाना, सूरीनाम सहित आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड व हॉलैंड में भी लाखों की संख्या में अवधी बोलने वाले लोग हैं। चित्र में रामायण धारावाहिक से प्रेरित रामायण का अंकन किया गया है। तुलसीदास कृत रामचरित मानस के सबसे सुन्दर खण्ड सुन्दरकाण्ड में अवधी भाषा की खूबसूरती दिखाई देती है- जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥ तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥ जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥ यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा। चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥ सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥ बार बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥ जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥ जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना॥ जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रमहारी॥ दो0- हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम। राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥1॥ 1. अवधी ग्रंथावलीः खण्ड-3: जगदीश पियूष, वाणी प्रकाशन, 2008 2. अवधी लोकगीत विरासत, ज्ञान विज्ञान एजूकेयर, 2016 3. https://goo.gl/RcdpaX
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