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चाहे प्रसिद्ध रेशम बुनाई बनारसी रेशम क्लस्टर हो, या भदोही कालीन/धूरी बुनाई क्लस्टर, हमारे शहर
जौनपुर को दोनों ही कौशल विरासत में मिले हैं।हालांकि,हमने अपना खुद का डिजाइन विकसित नहीं
किया है और परिणामस्वरूप जौनपुर पहचान और जौनपुर शिल्प अपना स्वयं का बाजार विकसित नहीं
कर पाया है।डिजाइन कार्यशालाओं और पहचान निर्माण में नए निवेश हमारे लिए इस कार्य में सहायक
सिद्ध हो सकते हैं।इसके लिए कई प्रयास किए जा रहे हैं,जिसके तहत डिजाइन कार्यशालाओं का आयोजन
किया जा रहा है।खुद का डिजाइन और पहचान विकसित करने की प्रेरणा हम बनारसी रेशम उद्योग के
इतिहास से ले सकते हैं।
बनारसी साड़ी, बनारसी रेशम उद्योग का एक महत्वपूर्ण उत्पाद है, जो प्राचीन शहर वाराणसी में बनी एक
साड़ी है तथा भारत की बेहतरीन साड़ियों में से है। यह अपने सोने और चांदी के ब्रोकेड (Brocade) या
ज़री,बढ़िया रेशम और भव्य कढ़ाई के लिए जानी जाती हैं।साड़ियाँ बारीक बुने हुए रेशम से बनी होती हैं
और इन्हें जटिल डिज़ाइन से सजाया जाता है, और साड़ी पर हुई नक्काशी के कारण ये अपेक्षाकृत भारी
होती हैं। इनमें पुष्प,पत्ते,बेल आदि के रूपांकनों को आपस में जोड़ा गया होता है।बाहरी, किनारे पर झालर
नामक सीधी पत्तियों की एक स्ट्रिंग इन साड़ियों की विशेषता है। इसकी अन्य विशेषताएं सोने का काम,
कॉम्पैक्ट बुनाई,धातुदृश्य प्रभाव, पल्ला ,एक जाल जैसा पैटर्न आदि हैं।ये साड़ियाँ अक्सर भारतीय दुल्हन
की पोशाक का हिस्सा होती हैं, तथा ज्यादातर भारतीय महिलाओं द्वारा महत्वपूर्ण अवसरों पर पहनी
जाती हैं।
राल्फ फिच (Ralph Fitch), जो कि एक लंदन (London) के एक सज्जन व्यापारी थे,ने,बनारस को सूती
वस्त्र उद्योग के एक संपन्न क्षेत्र के रूप में वर्णित किया है।बनारस के ब्रोकेड और जरी वस्त्रों का सबसे
पहला उल्लेख 19वीं शताब्दी में मिलता है।1603 के अकाल के दौरान गुजरात से रेशम बुनकरों के प्रवास
के साथ,यह संभावना है कि रेशम ब्रोकेड बुनाई सत्रहवीं शताब्दी में बनारस में शुरू हुई और 18वीं और
19वीं शताब्दी के दौरान अत्यधिक विकसित हुई।14वीं शताब्दी के आसपास मुगल काल के दौरान, सोने
और चांदी के धागों का उपयोग करके जटिल डिजाइन वाले ब्रोकेड की बुनाई बनारस की विशेषता बन
गई।
पारंपरिक बनारसी साड़ी का निर्माण कुटीर उद्योग के तहत किया जा रहा है, तथा वाराणसी के आसपास
के इलाकों तथा गोरखपुर, चंदौली, भदोही, जौनपुर और आजमगढ़ जिले को शामिल करते हुए लगभग 12
लाख लोग क्षेत्र के हथकरघा रेशम उद्योग से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए हैं। पिछले कुछ वर्षों
में, बनारसी साड़ी को पुनर्जीवित करने के लिए विभिन्न प्रकार के स्वतंत्र, वाराणसी-आधारित ब्रांड सामने
आए हैं।वर्षों से, बनारसी रेशम हथकरघा उद्योग को वाराणसी रेशम साड़ियों को तेज दर और सस्ती
कीमत पर बनाने वाली मशीनीकृत इकाइयों से प्रतिस्पर्धा के कारण भारी नुकसान हो रहा है।प्रतिस्पर्धा का
एक अन्य स्रोत रेशम के सस्ते सिंथेटिक विकल्पों से बनी साड़ियाँ हैं।2009 में,उत्तर प्रदेश में बुनकर संघों
ने 'बनारस ब्रोकेड्स और साड़ियों'के लिए भौगोलिक संकेत अधिकार हासिल किए।
भारतीय उपमहाद्वीप में कपड़ों के इतिहास की बात करें, तो यह इतिहास सिंधु घाटी सभ्यता या उससे
पहले का है।भारतीयों ने मुख्य रूप से स्थानीय रूप से उगाए गए कपास से बने कपड़े पहने।भारत उन
पहले स्थानों में से एक था जहाँ कपास की खेती की जाती थी और यहाँ तक कि हड़प्पा युग के दौरान
2500 ईसा पूर्व में भी इसका उपयोग किया जाता था।प्राचीन भारतीय कपड़ों के अवशेष सिंधु घाटी
सभ्यता के पास के स्थलों से खोजी गई मूर्तियों, चट्टानों को काटकर बनाई गई मूर्तियों, गुफा चित्रों और
मंदिरों और स्मारकों में पाए जाने वाले मानव कला रूपों में पाए जा सकते हैं।इन चित्रों और मूर्तियों में
मनुष्य ने ऐसे वस्त्र धारण किए हैं, जिन्हें वह अपने शरीर पर लपेट सकता था, उदाहरण के लिए
साड़ी,पगड़ी और धोती।
जबकि प्राचीन काल हमें वस्त्रों के उत्पादन, उपयोग और व्यापार को दर्शाने के लिए पर्याप्त सबूत प्रदान
करता है, लेकिन यह मध्यकाल था,जब इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण बदलाव होने लगे।मध्ययुगीन काल में
भारत में विशेष रूप से मुगल काल के दौरान,कपड़ा और कपड़े बनाने में इस्तेमाल की जाने वाली
तकनीक,आकृति आदि में फारसी प्रभाव का आगमन भी देखा गया।कपड़े, सजावटी सामान जैसे दीवार के
पर्दे, कालीन, तंबू आदि सहित विभिन्न उपयोगों के लिए वस्त्रों का उत्पादन किया जाता था। इस समय
दो प्रकार के कारखाने या कार्यशालाएँ थीं जहाँ कपड़ा उत्पादन किया जाता था। जहां स्वतन्त्र कारखानों
को कारीगरों द्वारा स्वयं अपनी पूंजी से,काफी छोटे पैमाने पर चलाया जाता था, वहीं शाही कारखाने
(जिन्हें दरबार का संरक्षण प्राप्त था) शाही घराने की जरूरतों को पूरा करने के लिए काम करते
थे।मध्ययुगीन काल के दौरान, विशेष रूप से मुगलों के अधीन सबसे व्यापक रूप से उत्पादित और
व्यापारिक कपड़े कपास थे। दिल्ली, लाहौर, आगरा, पटना, बनारस, अहमदाबाद, बुरचापुर और ढाका सूती
वस्त्र के प्रमुख उत्पादक थे।
रेशम एक अन्य कपड़ा था जिसका उपयोग मध्यकाल में किया जाता था।रेशम उत्पादन और रेशम बुनाई
के दो महत्वपूर्ण केंद्र कश्मीर और बंगाल थे।पश्चिमी भारत में, रेशम ज्यादातर कपास के साथ मिलाया
जाता था। इसका एक उदाहरण अलाचा (Alacha) फैब्रिक है जो गुजरात के कैम्बे (Cambay) में बनाया
गया था।17वीं शताब्दी में भारत आने वाले एक फ्रांसीसी व्यापारी और यात्री टैवर्नियर (Tavernier) ने
उल्लेख किया कि बंगाल में कासिम बाजार रेशम उत्पादन का एक प्रमुख केंद्र था।मुगल काल के दौरान
अहमदाबाद, सूरत, सिंध, दिल्ली, आगरा और मालदा रेशम उत्पादन के अन्य महत्वपूर्ण केंद्र थे।
जौनपुर की यदि बात करें तो यहां रेशम के साथ-साथ चिकनकारी और जरदोजी शिल्प का व्यापक रूप से
उपयोग किया जाता है, जो जौनपुर सहित पूरे उत्तर प्रदेश में बुने जाते हैं और दुनिया भर में काफी
मशहूर हैं।चिकनकारी से बनी साड़ी और कुर्ता जहां गर्मियों के लिए आदर्श माने जाते हैं, वहीं सर्दियों के
दौरान साधारण ऊनी स्वेटर से लेकर कढ़ाई वाले ऊनी कपड़ों तक का उपयोग जौनपुर में व्यापक रूप से
किया जाता है।इसी प्रकार से पारंपरिक तकनीकों का उपयोग करके ऊनी कालीन या दरी बनाने का शिल्प
भी जौनपुर में सदियों से लोकप्रिय रहा है।हाथ से बुने हुए ऊनी कालीनों या दरियों की एक श्रृंखला
स्थानीय कारीगरों द्वारा हाथ से बनाई जाती है, जो अत्यधिक प्रसिद्ध है।
संदर्भ:
https://bit.ly/3Ihv3BM
https://bit.ly/3IgZzff
https://bit.ly/3IiumZ1
https://bit.ly/3okiUnD
https://bit.ly/31lEwaM
https://bit.ly/3lzthlI
चित्र संदर्भ
1. बनारसी साडी के कारीगर को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. सोने के ब्रोकेड के साथ एक पारंपरिक बनारसी साड़ी को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. बनारसी साडी के कारीगर को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
4. बनारस रेलवे स्टेशन को दर्शाता एक चित्रण (prarang)
5. जरदोजी (जरदौजी) कढ़ाई को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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