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द्रविड़ वास्तुकला (Dravidian architecture) या दक्षिण भारतीय मंदिर शैली‚ हिंदू मंदिर वास्तुकला में एक स्थापत्य है। यह भारतीय उपमहाद्वीप या दक्षिण भारत के दक्षिणी भाग में तथा श्रीलंका में उभरा‚ जो सोलहवीं शताब्दी तक अपने अंतिम रूप में पहुंचा। मंदिर वास्तुकला की द्रविड़ शैली वास्तुकला की सबसे पुरानी शैली है। इस शैली में उत्तर भारतीय शैलियों से सबसे विशिष्ट अंतर यह है कि‚ जहां उत्तर शैली में ऊंचे मीनार होते हैं‚ जो आमतौर पर ऊपर की ओर झुके हुए होते हैं‚ जिन्हें शिखर (shikharas) कहा जाता है‚ वहीं दक्षिण शैली में ‘गर्भगृह’ या अभयारण्य के ऊपर एक छोटे और अधिक पिरामिडनुमा मीनार का उपयोग होता है‚ जिसे विमान (vimana) कहा जाता है‚ ‘गर्भगृह’ मंदिर का वह स्थान है‚ जहां मंदिर के प्राथमिक देवता की मूर्ति रखी जाती है। बड़े मंदिरों में आधुनिक आगंतुकों के लिए प्रमुख विशेषता‚ परिसर के किनारे पर उच्च गोपुर (gopura) या गेटहाउस है‚ बड़े मंदिरों में कई विमान को बौना बनाया जाता हैं‚ जो बहुत हालिया विकास हैं। अन्य विशिष्ट विशेषताओं में द्वारपालक (dwarapalakas) और गोष्टम (goshtams) शामिल हैं‚ द्वारपालक - मंदिर के मुख्य द्वार तथा आंतरिक गर्भगृह में उकेरे गए दो द्वारपाल हैं‚ तथा गोष्टम - गर्भगृह की बाहरी दीवारों पर उकेरे गए देवी-देवता हैं। प्राचीन पुस्तक वास्तु शास्त्र में द्रविड़ वास्तुकला शैली का मंदिर निर्माण की तीन शैलियों में से एक के रूप में उल्लेख किया गया है‚ मौजूदा संरचनाएं दक्षिणी भारतीय राज्यों आंध्र प्रदेश‚ कर्नाटक‚ केरल‚ तमिलनाडु‚ तेलंगाना‚ महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों‚ ओडिशा तथा श्रीलंका में स्थित हैं। सातवाहन (Satavahanas)‚ चोल (Cholas)‚ चेर (Chera)‚ काकतीय (Kakatiyas)‚ रेड्डी (Reddis)‚ पांड्य (Pandyas)‚ पल्लव (Pallavas)‚ गंगा (Gangas)‚ कदंब (Kadambas)‚ राष्ट्रकूट (Rashtrakutas)‚ चालुक्य (Chalukyas)‚ होयसल (Hoysalas) और विजयनगर साम्राज्य (Vijayanagara Empire) जैसे विभिन्न राज्यों और साम्राज्यों ने द्रविड़ वास्तुकला के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
द्रविड़ शैली कई चरणों में विकसित हुई। पल्लव शासकों के शासनकाल के दौरान द्रविड़ शैली का विकास हुआ‚ जिसकी दो उप शैलियाँ थी‚ नायक शैली (Nayaka Style) तथा विजयनगर शैली (Vijayanagara Style)‚ जो विजयनगर राजाओं के शासनकाल के दौरान विकसित हुई थी। प्रारंभ में दक्षिण भारत में रॉक-कट वस्तुकला (Rock-Cut architecture) मौजूद थी‚ लेकिन बाद में मंदिर अस्तित्व में आने लगे। दक्षिण भारत के शासक मुख्य रूप से हिंदू मूल के थे‚ इसलिए दक्षिण भारत में हिंदू देवी देवताओं के मंदिर ज्यादा पाए गए। भारत की तुलना में दक्षिण भारत‚ सांस्कृतिक रूप से अधिक समृद्ध है‚ और दक्षिण भारतीयों का अपनी संस्कृति से बहुत स्नेह और लगाव रहा है‚ इसलिए वे इसका धार्मिक और दृढ़ रूप से पालन करते हैं। प्रारंभ में मंडप (Mandap) शब्द का उपयोग‚ वास्तुकला की द्रविड़ शैली में मंदिर को इंगित करने के लिए किया जाता था। धीरे-धीरे मंडप‚ रथ (Rathas) में विकसित हो गया‚ जिसमें धर्मराज रथ (Dharamraj Ratha) को सबसे बड़े रथ तथा द्रौपदी रथ (Draupadi Ratha) को सबसे छोटे रथ के रूप में जाना जाता था। दक्षिण भारत में मंदिर निर्माण को पल्लव और चालुक्य (Chalukya) वंश से संरक्षण प्राप्त हुआ। जिनमें प्रारंभिक मंदिरों के सबसे अच्छे उदाहरण ममल्लापुरम का शोर मंदिर तथा कांची का कैलाशनाथ मंदिर है। बाद में दक्षिण भारत के मंदिर वास्तुकला को चोल (Chola) शासकों का संरक्षण प्राप्त हुआ‚ जिसके दौरान मंदिर की वास्तुकला अपने चरम सीमा पर पहुंची। प्रसिद्ध राजराजा और राजेंद्र चोल ने दक्षिण भारत में कई शानदार मंदिरों का निर्माण किया। इन उत्कृष्ट मंदिरों में तंजावुर (Thanjavur) में कुंभकोणम (Kumbhakonam) के पास शिव का प्रसिद्ध मंदिर गंगईकोंडाचोलपुरम (Gangaikondacholapuram) भी शामिल है।
वास्तुकला की द्रविड़ शैली में‚ मंदिर के मुख्य देवी-देवताओं की मूर्ति मंदिर के तीर्थस्थान पर होती है‚ जैसे नागर शैली (Nagara Style) में भी होता है। 12वीं शताब्दी के बाद से यह देखा गया कि मंदिरों को तीन वर्गाकार संकेंद्रित दीवारों तथा चारों ओर द्वारों के साथ किलाबन्द किया गया था। मंदिर का प्रवेश द्वार गोपुरम (Gopuram) था‚ जो विमान (Vimana) की तरह ही एक मीनार था‚ जो मंदिर के मुख्य स्थान के ऊपर बने हुए विमान से छोटा होता था। ऐसा चोल (Cholas) साम्राज्य के बाद पांडियन (Pandyan) साम्राज्य के प्रभाव के कारण था। अब मंदिर और भी शानदार हो गए हैं। उस समय मंदिर धार्मिक सभाओं तथा शिक्षा के केंद्र भी थे‚ इसलिए राज्य के शासकों द्वारा आमतौर पर मंदिरों के लिए भूमि दान दी जाती थी। द्रविड़ वास्तुकला की उप शैलियों में‚ मदुरै (Madurai) का मीनाक्षी मंदिर (Meenakshi Temple)‚ नायक शैली (Nayaka style) का प्रसिद्ध उदाहरण है। इस मंदिर की सभी विशेषताएं द्रविड़ शैली के समान ही है इसके अलावा एक अतिरिक्त विशेषता‚ मंदिर की छत पर चलने वाले मार्गों के साथ बने विशाल गलियारे हैं‚ जिन्हें प्राकर्म (Prakarms) कहा जाता है। इसके अलावा विजयनगर शैली का बेहतरीन उदाहरण हम्पी (Hampi) का विट्ठल मंदिर (Vitthala Temple) है। 16वीं शताब्दी में विजयनगर शैली अपनी पराकाष्ठा पर पहुंची। इस शैली की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि भगवान की मुख्य पत्नी का तीर्थ स्थल भी वहां मौजूद था।
दक्षिण भारतीय मंदिरों में आमतौर पर कल्याणी (Kalyani) या पुष्कर्णी (Pushkarni) नामक एक तालाब होता है‚ जिसका उपयोग पवित्र प्रयोजनों या पुजारियों की सुविधा के लिए किया जाता है। पुजारियों के सभी वर्गों के आवास इससे जुड़े हुए हैं‚ तथा राज्य या सुविधा के लिए अन्य भवन होते हैं। 5वीं से 7वीं शताब्दी तक‚ मायामाता (Mayamata) तथा मानसरा शिल्प (Manasara shilpa) ग्रंथों के प्रचलन में होने का अनुमान भी है‚ जो वास्तु शास्त्र रूपांकन‚ निर्माण‚ मूर्तिकला और बढ़ईगीरी तकनीक की द्रविड़ शैली पर एक गाइडबुक है। ईशानशिवगुरुदेव पद्धति (Isanasivagurudeva paddhati) 9वीं शताब्दी का एक अन्य ग्रंथ है‚ जिसमें दक्षिण और मध्य भारत में निर्माण की कला का वर्णन किया गया है। उत्तर भारत में‚ वराहमिहिर (Varāhamihira) द्वारा बृहत-संहिता (Brihat-samhita)‚ हिंदू मंदिरों की नागर शैली के रूपांकन तथा निर्माण का वर्णन करने वाली छठी शताब्दी की व्यापक रूप से उद्धृत प्राचीन संस्कृत नियमावली है। पारंपरिक द्रविड़ वास्तुकला तथा प्रतीकवाद आगम (Agamas) पर आधारित हैं। आगम मूल रूप से गैर-वैदिक हैं‚ जिन्हें या तो आगामी-वैदिक ग्रंथों के रूप में या पूर्व-वैदिक रचनाओं के रूप में दिनांकित किया गया है। आगम मुख्य रूप से मंदिर निर्माण‚ मूर्ति रचना‚ देवताओं की पूजा के साधन‚ दार्शनिक सिद्धांत‚ ध्यान अभ्यास‚ छह गुना इच्छाओं की प्राप्ति तथा चार प्रकार के योग के तरीकों का गठन करने वाले तमिल और संस्कृत ग्रंथों का एक संग्रह है।
संदर्भ:
https://bit.ly/3C92PF6
https://bit.ly/30muKUC
https://bit.ly/3CeTKKM
चित्र संदर्भ:
1.तमिलनाडु के तिरुवन्नामलाई में अन्नामलाईयार मंदिर
2.दक्षिणी गोपुरम के ऊपर से उत्तर की ओर देखते हुए मीनाक्षी मंदिर, तमिलनाडु का एक हवाई दृश्य।
3.विजयनगर शैली की वास्तुकला विट्ठल मंदिर, हम्पी में याली स्तंभों की विशेषता है
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