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शहर जौनपुर अपनी इमारतों की अद्भुद वास्तुकला के संदर्भ में विश्व पटल पर अपनी अलग
पहचान रखता है। स्वाभाविक रूप से आकृतियां हमेशा से इंसानों को आकर्षित करती रही हैं, जिस
प्रकार इंसान केवल ईंट पत्थरों के ढांचों में न रहकर सुंदर वास्तुकला से निर्मित इमारतों में रहना
पसंद करता है, ठीक उसी तर्ज पर पहनावे के संदर्भ में भी मानव सभ्यता समय-समय पर नए-नए
प्रयोग करती रही है, जिसने इंसानी पहनावे को समय दर समय और भी अधिक सुंदर तथा टिकाऊ
बना दिया है। हमारे शरीर की बाहरी सुंदरता के साथ ही घरों की आतंरिक खूबसूरती बढ़ाने के लिए
कपड़ों की सिलाई करके सुंदर आकृतियों का निर्माण किया जाता है।
हालांकि सिलाई करने के कई तरीके हैं, जिनसे कपड़ो के विभिन्न प्रकार के डिजाइन बनाये जा
सकते हैं। परंतु सलाई का एक तरीका क्रोशिया (Crochet) सबसे प्रचलित तकनीकों में से है, जिससे
हमारे पहनने तथा घरों की सजावट हेतु सुंदर आकृतियां बनाई जाती हैं।
दरसल क्रोशिया (Crochet) क्रोकेट हुक (crochet hook"बुनने हेतु प्रयुक्त उपकरण") का प्रयोग
करके धागों या अन्य सामग्रियों को आपस में गूथकर (interlock) लंबी लेस या झालर, गोल
मेजपोश तथा चौकोर पर्दे आदि घरों में दैनिक रूप से प्रयोग होने वाली आकृतियां बनाई जाती हैं।
इस काम में धागे को सुइयों या हुक पर लपेटते और मरोड़ी (गाँठे) बनाते चलते हैं, जिससे अनुभवी
बुनकर रेशमी, सूती और ऊनी कपड़े को मनचाहा आकार देते हैं। क्रोशिया अथवा Crochet नाम
फ्रांसीसी शब्द क्रोकेट से लिया गया है, जिसका अर्थ है 'छोटा हुक'। इन आकृतियों को बनाने में
प्रयोग होने वाले हुक (crochet hook) का निर्माण धातु, लकड़ी, बांस, हाथी दांत या प्लास्टिक
जैसी विभिन्न सामग्रियों से किया जाता है। क्रोशिया सिलाई से ज्यामितिक आकार, फूल पत्ती, पशु
पक्षी, टोपी, पर्स (purses) और मनुष्याकृतियाँ भी बनाई जा सकती हैं। इसकी डिजाइन को घना
और जालीदार बुना जाता है, जिससे इस प्रकार आकृतियाँ बहुत स्पष्ट और उभरी दिखाई देती हैं।
क्रोशिए का काम वैसे तो बड़ा कष्टसाध्य (जिसे पूरा करने में कठनाई हो) है। एक अच्छी आकृति
बनाने में काफी समय लग जाता है। यही कारण है कि आजकल समय के अभाव में और बदलते
फैशन के कारण इसका चलन बहुत कम हो गया है।
हालांकि बुना हुआ कपड़ा 11वीं शताब्दी ईस्वी पूर्व से उपयोग में हैं, लेकिन क्रोशियेटेड (crocheted)
कपड़े का पहला वास्तविक प्रमाण 15 वीं शताब्दी के दौरान यूरोप में सामने आया। जिसके बाद
फ्रांस (France) और आयरलैंड (Ireland) में भी इस कला की काफी प्रगति हुई। रूस में इसका
विकास 16वीं सदी से शुरू हुआ।
भारत में यह कला को यूरोपीय मिशनरियों (European missionaries) अवगत कराया गया। डच
(Dutch) और पुर्तगालियों (Portuguese) ने इस काम को सर्वप्रथम दक्षिण भारत में क्विलन
(Quilon) तथा दक्षिण तिरु वांकुर में, श्रीमती माल्ट (Mrs. Malt) द्वारा 1818 ई. में शुरू कराया
गया, और जहाँ से यह तिनेवेली और मबुराई तक फैल गया। इसके अलावा आंध्र प्रदेश, हैदराबाद,
पालकोल्लु और नरसापुर; उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर तथा दिल्ली में भी बुनाई की इस शानदार कला से
घरेलु आकृतियों का निर्माण होता आ रहा है। आज से लगभग 20 वर्ष पूर्व तक उत्तर भारत के
लगभग सभी घरों में लड़कियाँ क्रोशिए कला से सुंदर घरेलु आकृतियों के निर्माण में निपूर्ण थी।
राजस्थान और गुजरात में वल्लभ संप्रदाय के अनुयायी परिवार मंदिरों में सजाने के लिये
कृष्णलीला की दीर्घाकार पिछवाइयाँ भी क्रोशिए से बनाते थे। शुरुआत में जहां इसके उद्पाद गिने
चुने परिवारों , कानवेंट स्कूलों (convent schools) में निर्मित किये जाते थे, परंतु समय के साथ
इसकी लोकप्रियता तेज़ी से बड़ी और बाद में यह दक्षिण भारत में एक प्रकार का कुटीर शिल्प ही बन
गया। दक्षिण भारत की अनेक ग्रामीण महिलाएँ इसे बनाकर उत्तर भारत तथा विदेशों में इसे भेजती
थीं। सस्ती होने के कारण इनकी बिक्री विदेशों में खूब होती थीं। परंतु दुर्भाग्य से दूसरे विश्वयुद्ध के
बाद से इसका निर्यात धीरे धीरे कम होता जा रहा है। भारतीयों ने इस यूरोपियन कला पर कई
प्रयोग किये और अपना कीमती समय देते हुए मोर, हंस, हाथी, हिरन और घोड़े आदि पशुपक्षियों
जैसी जटिल आकृतियों का निर्माण करना भी सीख गए। साथ ही मुस्लिम समुदाय में प्रार्थना के
समय आमतौर पर पहनी जाने वाली कुछ जालीदार टोपियां भी सिलाई की इस अद्भुद कला का
शानदार उदाहरण हैं।
सिलाई की कला न केवल सुंदर आकृतियों का निर्माण करती है, बल्कि हम इंसानों को भी मानसिक
तौर पर स्वस्थ रखती है। वैज्ञानिकों के अनुसार क्रोशिया और अन्य प्रकार के सुईक्राफ्ट
(needlecraft) या हस्तशिल्प हमारे मन में चल रही चिंता और तनाव को काफी हद तक कम कर
सकते हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि हाथ की गति की निरंतर पुनरावृत्ति मन को शांत रखने में
मदद करती है, और मस्तिष्क तनाव मुक्त रखती हैं। बुनाई करते समय हमारा मस्तिष्क
सेरोटोनिन (Serotonin) छोड़ता है, जो मन को शांत करने और मनोदशा में सुधार करने में मदद
करता है। क्रोशिया और इसी तरह की गतिविधियों से अल्जाइमर रोग, अनिद्रा और अवसाद में भी
सुधार देखा गया है। साथ ही धागे के रंग और बनावट आमतौर पर इंद्रियों को बहुत पसंद होते हैं,
और यदि आप कठिन परिश्रम करके और अपना समय देकर सुंदर आकृतियां बनाते हैं, तो यह
आपके दिमाग को कुछ प्राप्त करने की भावना से भर देता है।
पिछले दो वर्षों के दौरान कोरोना महामारी ने भले ही दूसरे सभी व्यवसायों और कला क्षेत्रों को दुखद
स्तर तक प्रभावित किया है, किंतु सूती कपड़े और ऊन से आकृति बनाने की कला क्रोशिया
(Crochet) के संदर्भ में महामारी का सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। जैसा की हमने पढ़ा "सिलाई की
कला कठिन परिश्रम और बेहद लंबे समय की मांग करती है" चूँकि महामारी के दौरान लोगों के पास
भरपूर समय था, साथ ही हमारी भारतीय महिलायें पहले से ही धागे या ऊन की गेंद आकृतियां
बनाना पसंद करती हैं, जिस कारण लॉकडाउन के दौरान जैसे-जैसे लोग घर पर अधिक रहे, उनके
दिमाग में नए शौक पनपने लगे। जिससे देशभर में क्रोकेट परियोजनाओं में भी अभूतपूर्व वृद्धि
देखी गई। साथ ही यह आमदनी का भी अच्छा स्त्रोत साबित हुई हैं, ऑनलाइन ट्यूटोरियल और
मंचों की व्यापक उपलब्धता ने युवा कामकाजी महिलाओं के बीच इसकी लोकप्रियता को कई गुना
बढ़ा दिया है।
संदर्भ
https://bit.ly/3zLvaB7
https://bit.ly/2Yf5FKr
https://bit.ly/3kEjAkD
https://en.wikipedia.org/wiki/Crochet
चित्र संदर्भ
1. सुंदर क्रोशिया (Crochet) आकृतियों एक चित्रण (flickr)
2. क्रोशिया (Crochet) बैग और हैकी सैक टेपेस्ट्री (Hacky Sack Tapestry) का एक चित्रण (wikimeida)
3. क्रोशिया (Crochet) बुनाई दो या दो से अधिक सीधी सुइयों का उपयोग करती है जिनमें कई टांके लगे होते हैं जिसका एक चित्रण (wikimedia)
4. क्रोशिया (Crochet) बुनाई द्वारा चिड़ियाघर के जानवरों के निर्माण का एक चित्रण (flickr)
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