मानसून की शुरुआत होते ही पेडों पर, बगीचों में, कच्चे घरों की छतों आदि जगहों पर फफूंद, कुकुरमुत्ता आदि उगने लगता है। यह देखने में छतरी नुमा होता है। कुछ कुकुरमुत्ते सफेद रंग के होते हैं, कुछ अन्य काले व चित्तेदार रंग के। कुकुरमुत्ता नाम से एक प्रथा भारत के कई जगहों पर फैली है। लोगों के अनुसार- कुकुर (कुत्ता) मुत्ता (मूत्र) अर्थात् कुत्ता जहाँ मूत्र त्याग करता है वहाँ पर ही कुकुरमुत्ता उगता है।
कुकुरमुत्ता एक प्रकार का कवक है जो सिर्फ मानसून के समय में ही उगता है। कवक या फफूंद एक प्रकार का जीव है जिसके समुदाय में कई प्रकार के पौधे आते हैं। जैसा की कवक पौधे की तरह दिखते हैं तथा एक स्थान पर अपने आप को स्थापित करके रखते हैं तो ये साधारणतया वनस्पतियों की श्रेणी में आते हैं। कवक की पूरी दुनिया में करीब 80 से 90 हजार जातियाँ पायी जाती हैं। यह अपना भोजन सड़े गले मृत कार्बनिक पदार्थों से प्राप्त करते हैं। यह संसार के प्रारंभ से ही जगत में उपस्थित हैं। इनका सबसे बड़ा लाभ इनका संसार में अपमार्जक के रूप में कार्य करना है।
कुकुरमुत्ता मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं। एक वो जो जंगली हैं तथा दूसरे जो कि भोज्य पदार्थ के रूप में प्रयोग में लाए जाते हैं। खाने वाले कुकुरमुत्ते को खुंबी नाम से जाना जाता है। कुकुरमुत्ता अपना खाना स्वयं संश्लेषित नहीं कर पाता। जौनपुर में कई आम, अमरूद आदि के बगीचे हैं जिसमें कुकुरमुत्ते व अन्य कई प्रकार के कवक देखने को मिल जाते हैं। अब से करीब एक दशक पहले तक यहाँ पर खाने वाले कुकुरमुत्ते के बारे में बहुत कम लोग ही जानते थे, परन्तु अब यहाँ पर भारत व विश्व के अन्य कोनों से बड़ी संख्या में इनको मंगाया जाता है। बदलापुर, मछलीशहर, सदर आदि जगह की मंडियाँ खाने वाले कुकुरमुत्तों से भरी पड़ी हैं। वैसे तो इसकी खेती में लागत ज्यादा है परन्तु वर्तमान में माँग को देखकर यह कहना गलत नहीं है कि कुकुरमुत्ते की खेती फायदे का सौदा है। जौनपुर में इसकी खेती की जा सकती है तथा यहाँ के कई किसान इसकी तरफ अपना रुख कर रहे हैं।
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