समयसीमा 237
मानव व उनकी इन्द्रियाँ 948
मानव व उसके आविष्कार 725
भूगोल 236
जीव - जन्तु 275
भारत में मॉरस (Morus) वंश से सम्बंधित अनेकों पेड़ पाये जाते हैं और ऐसा ही चीन और पाकिस्तान के कुछ हिस्सों में भी होता है। एग्रो कॉटेज इंडस्ट्री सेरिकेचर (Agro Cottage Industry Sericature) के अनुसार शहतूत की उत्पत्ति हिमालय की निचली ढलानों के पास हुई। 2800 ईसा पूर्व में, चीन के चांग टोंग प्रांत ने अपने रेशम उद्योग को विस्तारित करने के लिए व्यावसायिक रूप से शहतूत के पेड़ उगाए। माना जाता है कि सफेद रंग के शहतूत पहली बार हिमालय क्षेत्रों में विकसित हुए, जबकि ‘द वर्ल्ड एग्रोफॉर्स्ट्री सेंटर (World AgroForestry Center) के अनुसार काले शहतूत पहली बार फारस (ईरान) में विकसित हुए। इस क्षेत्र से, शहतूत फिर प्राचीन ग्रीस और रोम में फैला और 12वीं शताब्दी तक, यूरोप में सफेद और काले शहतूत दोनों उत्पादित किये जाने लगे। रेशम उत्पादन कई देशों, विशेष रूप से इटली, तुर्की, भारत और चीन के लिए एक बड़ा, लाभदायक उद्योग था और आज भी है। हालांकि रेशम उत्पादन और व्यापार शहतूत के उत्पादन के बिना सम्भव नहीं, क्योंकि रेशम उत्पादित करने वाले सिल्क वॉर्म (Silkworms) भोजन के लिए शहतूत के पेड़ों पर ही निर्भर हैं। शहतूत की अनेक प्रजातियां हैं, जिनमें से दो प्रजातियां मॉरस अल्बा (Morus Alba) और मॉरस नाइग्रा (Morus Nigra) जौनपुर में आसानी से पायी जा सकती हैं। अक्सर लोग शहतूत की प्रजातियों को लेकर भ्रमित हो जाते हैं किंतु ये प्रजातियां अलग-अलग हैं। मॉरस नाइग्रा जहां काले रंग की होती है, वहीं मॉरस अल्बा सफेद रंग की है। मॉरस नाइग्रा, मोरेसी (Moraceae) परिवार से सम्बंधित है तथा दक्षिणपूर्वी एशिया में मूल रूप से उगायी जाती है। मॉरस नाइग्रा की प्रसिद्धि का एक प्रमुख कारण इसमें मौजूद गुणसूत्र हैं, जो बड़ी संख्या (308) में पाये जाते हैं। काले शहतूत की खेती लंबे समय से खाने योग्य फलों के लिए की जा रही है और इसे यूरोप, यूक्रेन, चीन आदि के कुछ भागों में प्राकृतिक रूप से उगाया जाता है। मॉरस नाइग्रा की उत्पत्ति के संदर्भ में यह माना जाता है कि यह मेसोपोटामिया और ईरान के पहाड़ी इलाकों में विकसित हुआ जो अफगानिस्तान, इराक, ईरान, भारत, पाकिस्तान, सीरिया, जॉर्डन, फिलिस्तीन, तुर्की आदि क्षेत्रों में फैला। काले रंग के शहतूतों से अक्सर जैम (Jam) और शर्बत बनाए जाते हैं।
इसी प्रकार से मॉरस अल्बा या सफेद शहतूतों के पेड़ की बात करें तो यह भी मोरेसी परिवार से सम्बंधित है तथा तेजी से बढ़ने वाला पेड़ है, जिसकी लंबाई 10–20 मीटर तक हो सकती है। 17वीं शताब्दी में काले शहतूत को ब्रिटेन में यह सोचकर आयात किया गया था कि यह रेशम के कीड़ों को बढ़ाने में सहायक होगा किंतु ऐसा नहीं हुआ क्योंकि रेशम के कीड़े सफेद शहतूत को पसंद करते हैं। सफेद शहतूत की यह प्रजाति मूल रूप से उत्तरी चीन की है, तथा यहां इसकी खेती रेशम उत्पादन को बढ़ने के लिए व्यापक रूप से की जाती है। संयुक्त राज्य अमेरिका, मेक्सिको, ऑस्ट्रेलिया, किर्गिस्तान, अर्जेंटीना, तुर्की, ईरान, आदि देशों में यह प्राकृतिक रूप से उग जाता है। रेशम के कीड़ों के लिए सफेद शहतूत की खेती चीन में चार हज़ार साल पहले शुरू हुई। शहतूत की पत्तियां रेशम के कीड़ों का पसंदीदा भोजन हैं। रेशमकीट पालन के लिए V1 और S36 किस्म को उच्च उपज देने वाली शहतूत किस्में माना जाता है। इनकी पौष्टिक पत्तियां रेशम कीट के लार्वा (Larvae) की वृद्धि के लिए उपयुक्त हैं। किस्म S36 की पत्तियां दिल के आकार, मोटी और हल्की हरे रंग की होती हैं। प्रजाति V1 1997 के दौरान उत्पादित की गई थी, जिसकी पत्तियां अंडाकार, आकार में चौड़ी, मोटी, रसीली और गहरे हरे रंग की होती हैं। सफेद शहतूत की पत्तियों का उपयोग कोरिया में चाय बनाने के लिए भी किया जाता है। फलों को सुखाकर शराब या शर्बत तैयार किया जाता है। सफेद शहतूत एक जड़ी-बूटी की भांति कार्य करता है। इसकी पत्तियों के चूर्ण से दवाईयों का निर्माण किया जाता है। फल को प्रायः कच्चा या पकाकर भोजन रूप में खाया जाता है। सफेद शहतूत की इस किस्म का उपयोग एक सजावटी पेड़ के रूप में भी किया जाता है, जो मधुमेह के इलाज में काफी प्रभावी माना जाता है।
शहतूत की खेती के लिए तापमान की आदर्श सीमा 24 से 28°C है। शहतूत 600 से 2500 मिलीमीटर तक वार्षिक वर्षा वाले स्थानों में अच्छी तरह से बढ़ता है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में, इसका विकास नमी के कारण सीमित होता है, जिसकी वजह से उत्पादन भी कम होता है। शहतूत वृद्धि के लिए आदर्श वायुमंडलीय आर्द्रता 65-80 प्रतिशत की सीमा में होनी चाहिए। विकास और पत्ती की गुणवत्ता को नियंत्रित करने वाले महत्वपूर्ण कारकों में से एक सूरज की रोशनी भी है। शहतूत की खेती समुद्र तल से 1000 मीटर की ऊंचाई तक की जा सकती है। शहतूत ऐसी मिट्टी में अच्छी तरह से फलता-फूलता है जो समतल, गहरी, उपजाऊ, अच्छी तरह से सूखी, दोमट और अच्छी नमी धारण क्षमता वाली होती है। मिट्टी के pH की आदर्श सीमा 6.2 से 6.8 है, जबकि इष्टतम सीमा 6.5 से 6.8 है। शहतूत की खेती भारत के लगभग सभी राज्यों में होती है तथा इसके फल का प्राथमिक उत्पादक कर्नाटक है, क्योंकि यह शहतूत की खेती के लिए लगभग 160,00 हेक्टेयर (Hectare) क्षेत्र प्रदान करता है। भारत में उगाया जाने वाला प्राथमिक शहतूत का रूप मोरस इंडिका (Indica) है। दूसरा प्रसिद्ध शहतूत का प्रकार है मोरस अल्बा। यह स्वाभाविक रूप से हिमाचल प्रदेश, पंजाब और कश्मीर में पनपता है तथा महाराष्ट्र में भी उगाया जाता है। देश में शहतूत का कुल क्षेत्रफल लगभग 282244 हेक्टेयर है। शहतूत का पेड़ औषधीय गुणों से भरपूर है। आयुर्वेदिक चिकित्सकों ने शहतूत के पत्तों को कई रोगों के इलाज के लिए उपयोग किया है। यह जोड़ों के दर्द जैसे गठिया, कब्ज़, चक्कर आना, बालों का झड़ना, कोलेस्ट्रॉल (Cholesterol) के उच्च स्तर, उच्च रक्तचाप, मांसपेशियों का दर्द आदि को कम करने में भी प्रभावी है। सफेद शहतूत में मौजूद रसायन जहां मधुमेह के उपचार हेतु दवाओं के निर्माण में उपयोगी हैं, वहीं काले शहतूत का उपयोग कैंसर (Cancer) के उपचार के दौरान हुए मुंह के घावों के लिए किया जाता है। इसमें मौजूद पेक्टिन (Pectin) औषधि निर्माण में प्रयोग में लाया जाता है।
A. City Subscribers (FB + App) - This is the Total city-based unique subscribers from the Prarang Hindi FB page and the Prarang App who reached this specific post.
B. Website (Google + Direct) - This is the Total viewership of readers who reached this post directly through their browsers and via Google search.
C. Total Viewership — This is the Sum of all Subscribers (FB+App), Website (Google+Direct), Email, and Instagram who reached this Prarang post/page.
D. The Reach (Viewership) - The reach on the post is updated either on the 6th day from the day of posting or on the completion (Day 31 or 32) of one month from the day of posting.