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पाषाण कालीन मानव पत्थरों आदि के औजार बना कर अपना जीवनयापन करता था। मानव का शुरूआती जीवन यायावरी में गुजरा लेकिन धातु की खोज ने इसके जीवन को एक नयी दिशा प्रदान की। सर्वप्रथम मानवों ने कांसे के बारे में जाना, जिसके बाद हमारे द्वारा लोहे की खोज की गई। लोहे की खोज ने मानव जीवन को एक नया आयाम दे दिया। जौनपुर के आस-पास के क्षेत्रों में हुई विभिन्न पुरातात्विक खुदाइयों में इसके ठोस प्रमाण मिले हैं। उत्तर प्रदेश पुरातत्त्व विभाग ने चंदौली, सोनभद्र आदि जिलों में खुदाइयां कर के दो प्रमुख पुरास्थल खोज निकाले, जहाँ पर लोहे के खोज या प्रयोग के प्राचीन साक्ष्य प्राप्त होते हैं। ये पुरातात्त्विक स्थल हैं राजा नल का टीला और मल्हार। इन पुरातात्त्विक स्थलों की खुदाई तत्कालीन निदेशक उत्तर प्रदेश पुरातत्त्व विभाग डॉ राकेश तिवारी के नेतृत्व में की गयी थी। राजा नल के टीले और इससे प्राप्त अवशेषों (अवशेष यहाँ के दूसरी अवधि के भंडार से मिले हैं।) में चित्रित काले और लाल मृद्भांड मिले हैं, जो कि शुरूआती लौह युग से सम्बंधित हैं।
राजा नल के टीले पर पुरातात्विक उत्खनन से लगभग 3200 ईसा पूर्व के लोहे की उपस्थिति का पता चला है, जो इस बात का संकेत है कि लौह युग के शुरू होने से कम से कम 400 साल पहले शुरू हुआ था। राजा नल का टीला, हाल ही में धारावाहिक चंद्रकांता के माध्यम से टेलीविजन दर्शकों को परिचित कराया गया था। यह क्षेत्र न केवल राजपूत राजकुमारों की वीरता के लिए प्रसिद्ध है, बल्लियों के साथ लड़ाई और प्रेम कथाओं के बारे में, बल्कि सांस्कृतिक विरासत के उपचार के लिए भी प्रसिद्ध है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, शिव लिंग, जो अभी भी नालेश्वर-महादेव मंदिर में पूजा जाता है, राजा नल द्वारा स्थापित किया गया था। पुरातत्वविदों द्वारा इस मंदिर में पत्थर की कलाकृतियों और मिट्टी के पात्र और तल्ला गाँव में बारिश से खराब हो चुके जलमार्ग पाए। सूत्रों के अनुसार खोदने के दौरान, ऊपर की परतों से चिकने किए गए मिट्टी के बर्तनों के अलावा हड्डी के तीर और पत्थर के निहाई का पता लगाया। चित्रित काले और लाल बर्तनों और धूसर मृदभांड के बर्तन के पहले हिस्से के लगभग 1.50 मीटर नीचे लोहे को दूसरे स्तर पर पाया गया।
भारत में लोहे की कलाकृतियों और लोहे की शुरूआत की तारीख और उत्पत्ति एक बहुत ही विवादित शोध समस्या बनी हुई है, ऐसा माना जाता है कि यह पश्चिम से आप्रवासियों के दूसरे सहस्राब्दी ईसा पूर्व में लाया गया था। पिछली शताब्दी के मध्य में, भारत में लोहे के कार्य की उत्पत्ति लगभग 700-600 ईसा पूर्व बताई गई। कालान्तर में चित्रित धूसर मृद्भांड परंपरा के अवशेष मिलने के बाद ये तिथियाँ करीब दूसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व तक चली गयी। रेडियो कार्बन तिथि के अनुसार जो कि अतरंजिखेडा, हल्लूर, कौशाम्बी, जाखेरा और नागदा से लोहे के जो स्तरीकृत अवशेष प्राप्त हुए उनकी तिथियों को देखते हुए मध्य भारत के एरण आदि को 1000 ईसा पूर्व का माना गया। लोहे को लेकर सदैव से ही भारतीय विद्वानों में मतभेद रहा था। ऐसा माना जाता है कि भारत प्रारम्भिक लोहे का निर्माण करने वाला एक स्वतंत्र केंद्र था। ताम्रपाषाण काल से सम्बंधित पुरास्थल अहाड़ से उस काल की जमाव में लोहे की उपस्थिति ने एक अलग ही तथ्य प्रस्तुत कर दिया और यह सुझाव प्रस्तुत कर दिया की हो ना हो भारत में एक शताब्दी ईसा पूर्व में लोहे के गलाने का कार्य शुरू हो चुका था। इसके बाद चित्रित धूसर मृदभांड और रेडिओ कार्बन (Radiocarbon) दिनांकन के आगमन ने इस तिथि को दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व की ओर धकेलना शुरू कर दिया।
इलाहाबाद के समीप झूसी से मिले लोहे के अवशेष को 1107 से 844 ईसा पूर्व तक माना गया है। इस तिथि ने मध्य गंगा घाटी में लोहे के इतिहास के नए दरवाजों को खोलने का कार्य किया। राजा नल के टीले के पहली अवधि के भंडार में किसी भी प्रकार के धातु के अवशेष नहीं प्राप्त हुए थे। दूसरी अवधि के मृद्भांड के सम्बन्ध में देखा जाए तो यहाँ चित्रित उत्तरी काली मृद्भांड अवशेष 1.5 से 2 मीटर मोटी परत या जमाव में मिलते हैं। इसी जमाव में लोहा प्राप्त हुआ था। यहाँ से लोहे की तिथियाँ करीब 1400 ईसा पूर्व तक की मापी गयी है। यहाँ से मिले अवशेषों में कील, तीर, चाक़ू, छेनी, पिघले हुए लोहे के अवशेष आदि प्राप्त हुए हैं। यहाँ से प्राप्त इन अवशेषों ने मध्य गंगा घाटी में लौह युग की तिथियों को एक नया आयाम दे दिया। इन तिथियों से यह तो सिद्ध हो गया की सम्पूर्ण भारत भर में लोहे का कार्य नहीं ज्यादा तो 1600 से 1400 ईसा पूर्व के काल में होता रहा था। इसके अलावा, साक्ष्य ने देश के अन्य क्षेत्रों में लोहे के शुरुआती उपयोग को मंजूरी दी और यह पुष्टि करता है कि भारत वास्तव में लोहे के काम के विकास के लिए एक स्वतंत्र केंद्र रहा था।
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