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रसों के माध्यम से भावों की अभिव्यक्ति कला का प्रमुख गुण है, फिर चाहे वह संगीत हो, नृत्य हो या फिर साहित्य। नृत्य वह कला है, जिससे बिना कुछ कहे सभी भाव अभिव्यक्त किए जा सकते हैं। हिंदुस्तान में नृत्य का विशेष महत्व है, यहां भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में नृत्य के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। नृत्य कला में हाथों द्वारा की जाने वाली भाव-भंगीमाओं की विशेष भूमिका होती है, जिसे मुद्रा कहा जाता है। मुद्रा शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा के ‘मुद’ शब्द से हुई है, जिसका अर्थ होता है ‘प्रसन्नता’ या ‘खुशी’। इसमें ‘द्र’ प्रत्यय जोड़कर मुद्रा बनाया गया है, ‘द्र’ का अर्थ होता है ‘मुख्य आकर्षण’। सबसे प्राचीन मुद्राएं अजंता की गुफाओं के भित्ति चित्रों और खजुराहों की मूर्तियों में पायी गयी थी। मुद्रा का सर्वप्रथम उल्लेख मंत्र शास्त्र में देखने को मिलता है। भारतीय नृत्य कला में प्रत्येक हस्त क्रिया का एक प्रतीकात्मक मूल्य और एक सटीक अर्थ होता है। हाथों के माध्यम से इन मुद्राओं का उपयोग भारतीय नृत्य और नाटकीय अभिव्यक्ति की विशेषता रही है।
सभी प्रदर्शन कला रूपों के लिए नाट्य शास्त्र पवित्र ग्रन्थ माना जाता है। इसकी रचना भरत मुनि द्वारा की गयी थी। नाट्य शास्त्र के मुख्य पहलू अभिनय, सुशोभित शरीर की हलचल और हाथों द्वारा की जाने वाली मुद्राएं हैं। एक कलाकार मुद्राओं का उपयोग विचारों को व्यक्त करने और दर्शकों के बीच भावनाओं को जगाने के लिए करता है। मुद्राएं हाथ के इशारों के माध्यम से भारतीय नृत्य और नाटकीय शास्त्र में अभिव्यक्ति की विशेषता है। प्राचीन वेद और अनुष्ठानों में मुद्राएं सबसे अधिक विकसित हुईं है।
अधिकांश मुद्राएं संभवतः प्राचीन वैदिक अनुष्ठानों के दौरान की जाने वाली हस्त क्रियाओं के माध्यम से विकसित हुईं होंगी। भारतीय रंगमंच और नृत्य में, मुद्राओं के विभिन्न संयोजन के माध्यम से नर्तक और नर्तिका स्पष्ट और सूक्ष्म भाषा में स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं, किंतु यह मुद्राएं मात्र भारतीय कला का रूप नहीं हैं। इसे जैन धर्म, बौध धर्म में भी अपनाया गया है। यह मुद्राएं योगा (Yoga), मार्शल आर्ट (Martial Arts) जैसी कलाओं का भी हिस्सा हैं।
यह मुद्राएं हाथ और अंगुलियों द्वारा बनायी जाती हैं। हिन्दू धर्म में विभिन्न आसनों में इन मुद्राओं का नित्य अभ्यास किया जाता है। थाईलैंड (Thailand), लाओस (Laos) जैसे देशों की बौध मूर्तिकला में उपयोग की गयी मुद्राएं काफी हद तक हिन्दू धर्म की मुद्राओं से समानता रखती हैं। बौद्ध की मूर्तियों में उपयोग की जाने वाली विभिन्न मुद्राओं में से कुछ उनके जीवन से जुड़ी घटनाओं को अभिव्यक्त करती हैं, इनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं:
अभयमुद्रा:
अभय का अर्थ है भय मुक्त अर्थात भय रहित मुद्रा। यह मुद्रा संरक्षण, शांति, परोपकार और अभय के फैलाव का प्रतिनिधित्व करती है। बौद्ध धर्म के थेरवाद में इस मुद्रा का विशेष महत्व है। सामान्यत: इस मुद्रा में दाहिना हाथ कंधे की ऊंचाई तक उठा होता है, भुजाएं मुड़ी होती है और हथेली बाहर की ओर होती है और अंगुलियां ऊपर की ओर तनी तथा एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं और बायां हाथ खड़े रहने पर नीचे की ओर लटका होता है। एक बार हाथी के हमला करने पर बुद्ध द्वारा इस मुद्रा का प्रयोग करके उसे शांत किया गया था, विभिन्न भित्तिचित्रों और आलेखों में इसे दिखाया गया है।
भूमिस्पर्श मुद्रा:
इस मुद्रा में बुद्ध की ज्ञान प्राति की अवस्था को दिखाया गया है। इसमें बुद्ध ध्यान मुद्रा में बैठे हैं, जिसमें उनका बांयी हथेली उनकी गोद पर रखी है और दाहिना हाथ भूमि को स्पर्श कर रहा है। इस मुद्रा में भूमि को साक्ष्य माना गया है।
धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा:
यह मुद्रा बुद्ध के ज्ञानोदय के बाद सारनाथ के हिरण पार्क में दिए गए पहले उपदेश का समर्थन करती है। इस मुद्रा में दोनों हाथ छाती के सामने वितर्क में जुड़े होते हैं, दायीं हथेली आगे और बायीं हथेली ऊपर की ओर होती है।
ध्यान मुद्रा:
यह मुद्रा अच्छी भावना और एकाग्रता की प्रतीक होती है। इस मुद्रा में दायां हाथ बांए हाथ के ऊपर होता है और अंगुलियां सीधी होती हैं फिर दोनों हाथों की अंगुलियों को धीरे-धीरे मोड़कर एक साथ स्पर्श किया जाता है, जिससे अंगूठे के पास एक त्रिभुजाकार बनता है। अंत में आंखे बंद कर के ध्यान लगाया जाता है।
योग में की जाने वाली मुद्राओं का शास्त्रीय स्रोत घेरंड संहिता और हठ योग प्रदीपिका हैं। हठ योग प्रदीपिका योग अभ्यास में मुद्राओं के महत्व को बताता है। योग में इन मुद्राओं का उपयोग शरीर को स्वस्थ एवं सुडोल बनाने के लिए किया जाता है। योग में प्रयोग की जाने वाली मुद्रा एक स्थिर मुद्रा है, जिसका लक्ष्य ध्यान के दौरान मानसिक शांति को प्राप्त करना है: महा मुद्रा (संपूर्ण शरीर स्थिर), या एक अवस्था, सामान्यत: हाथ: ज्ञान मुद्रा है। कमियों और बीमारियों को दूर करने के लिए मुद्रा को एक थेरेपी के रूप में उपयोग किया जाता है। मुद्रा की शक्ति उसके सूक्ष्म ऊर्जावान प्रभाव द्वारा दिखाई देती है। चक्रों (रीढ़ के साथ स्थित ऊर्जा केंद्र) से जुड़ी मुद्राएं मनुष्य में सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करती हैं, यिन और यांग ऊर्जा को सामंजस्य और संतुलित करती हैं, जो जीवन प्रवाह को सुविधाजनक बनाती हैं।
हाथ और अंगुलियों से बनने वाली ये मुद्राएं लगभग 55 होती हैं और आंतरिक भावनाओं को व्यक्त करने के लिए, इन मुद्राओं को दो वर्गीकरणों में विभाजित किया गया है: असंयुक्त हस्त (एक हाथ की मुद्रा (32 मुद्राएं)) और संयुक्त हस्त (दोनों हाथ की मुद्रा (23 मुद्राएं)) जो कि नाट्यशास्त्र में उल्लिखित हैं।
एक हाथ या असंयुक्त हस्त मुद्राएं
1 पताका
2 त्रिपताका
3 अर्धपताका
4 कर्तरिमुखा
5 मयूरा
6 अर्धचन्द्र
7 अराला
8 शुकतुंडा
9 मुष्टि
10 शिखर
11 कापित्ता
12 कटकामुखा
13 सूचि
14 चन्द्रकला
15 पद्मकोषा
16 सर्पशीर्ष
17 मृगशिरा
18 सिंहमुखा
19 कंगुला
20 अलपद्मा
21 चतुर
22 भ्रमरा
23 हमसास्य
24 हंसपक्षिका
25 सन्दंशा
26 मुकुल
27 ताम्रचूड़ा
28 त्रिशूला
29 अर्धसूची
30 व्याग्रह
31 पल्ली
32 कतका
दो हाथ या संयुक्त हस्त मुद्राएं
1 अंजलि
2 कपोता
3 करकटा
4 स्वस्तिक
5 डोला
6 पुष्पपुट
7 उत्संगा
8 शिवलिंग
9 कटका-वर्धन
10 कर्तरी -स्वस्तिक
11 शकट
12 शंख
13 चक्र
14 पाशा
15 किलका
16 सम्पुट
17 मत्स्य
18 कूर्म
19 वराह
20 गरुड़
21 नागबंधा
22 खटवा
23 भेरुन्दा
पौराणिक कथाओं के अनुसार नृत्य और रंगमंच की कला का कार्यभार भगवान ब्रह्मा ने संभाला था और इस प्रकार ब्रह्मा ने अन्य देवताओं की सहायता से नाट्य वेद की रचना की। बाद में भगवान ब्रह्मा ने इस वेद का ज्ञान पौराणिक ऋषि भरत को दिया, और उन्होंने नाट्यशास्त्र की रचना की। भरत मुनि का नाट्य शास्त्र नृत्यकला का प्रथम प्रमाणिक ग्रंथ माना जाता है। इसको पंचवेद भी कहा जाता है। इस ग्रंथ का संकलन संभवत: दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में किया गया था, हालांकि इसमें उल्लेखित कलाएं काफी पुरानी हैं। इसमें 36 अध्याय हैं, जिनमें रंगमंच और नृत्य के लगभग सभी पहलुओं को दर्शाया गया है।
नृत्य या अभिव्यक्ति नृत्य, इसमें एक गीत के अर्थ को व्यक्त करने के लिए अंग, चेहरे का भाव, और मुद्राओं का उपयोग किया जाता है। नाट्यशास्त्र ने ही भाव और रस के सिद्धांत को प्रस्तुत किया और सभी मानवीय भावों को नौ रसों– श्रृंगार (प्रेम); वीर (वीरता); रुद्र (क्रूरता); भय (भय); बीभत्स (घृणा); हास्य (हंसी); करुण (करुणा); अदभुत (आश्चर्य); और शांत (शांति) में विभाजित करता है। नाट्यशास्त्र में वर्णित भारतीय शास्त्रीय नृत्य तकनीक दुनिया में सबसे विस्तृत और जटिल तकनीक है। इसमें 108 करण, खड़े होने के चार तरीके, पैरों और कूल्हों के 32 नृत्य-स्थितियां, नौ गर्दन की स्थितियां, भौंहों के लिए सात स्थितियां, 36 प्रकार के घूरने के तरीके और हाथ के इशारे शामिल हैं, जिसमें एक हाथ के लिए 24 और दोनों हाथों के लिए 13 स्थितियां दर्शाई गई हैं। जिनका अनुसरण आज भी किया जाता है।
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