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यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत वर्षा कराने के उद्देश्य से रसायनों अथवा बीजकारक पदार्थों जैसे सोडियम क्लोराइड (Sodium Chloride), पोटैशियम क्लोराइड (Potassium Chloride), सिल्वर आयोडाइड (Silver Iodide), पोटेशियम आयोडाइड (Potassium Iodide) और सूखी बर्फ (ठोस कार्बन डाइऑक्साइड (Carbon Dioxide)) का छिड़काव विमान के माध्यम से किया जाता है। साथ ही तरल प्रोपेन (Propane), जो गैसीय रूप में फैलता है, का भी उपयोग किया जाता है। यह उच्च तापमान पर सिल्वर आयोडाइड की तुलना में अधिक बर्फ के कण बना सकता है। बादलों से बनने वाली वर्षा के छोटे कणों के आकार को बढ़ाना अर्थात 10 माइक्रोन की बूँदों को 50 माइक्रोन की बूँदों में संशोधित करना इस प्रक्रिया का उद्देश्य है। जिससे कण भारी हो जाते हैं और वर्षा के रूप में बरसते हैं। सरल शब्दों में यह बादलों में नमी को बढ़ाने का कृत्रिम तरीका है। साथ ही इसका प्रयोग ओलावृष्टि को रोकने और धुंद हटाने के लिए भी किया जाता है। इस प्रक्रिया के लिए गुब्बारे, विमान और ड्रोन (Drone) का प्रयोग किया जाता है। यह प्रक्रिया मुख्य रूप से तीन चरणों में संपन्न की जाती है। पहले चरण में रसायनों की सहायता से उस स्थान विशेष की वायु को वायुमंडल में ऊपर भेजा जाता है ताकि बादलों को बारिश के लिए उचित ऊँचाई मिल सके। उसके बाद राडार (Radar) के माध्यम से बादलों की गति का निरीक्षण किया जाता है। स्थिति सही होने पर रसायनों का छिड़काव किया जाता है। दूसरे चरण में अमोनियम नाइट्रेट (Ammonium Nitrate) और कैल्शियम कार्बाइड (Calcium Carbide) को नमक तथा सूखी बर्फ के साथ प्रयोग कर बादलों के घनत्व को बढ़ाया जाता है। तीसरे और अंतिम चरण में सूपर कूल रसायनों जैसे सिल्वर आयोडाइड (Silver Iodide) और शुष्क बर्फ को विमान की सहायता से छिड़काया जाता है, जिससे बादलों का घनत्व इतना अधिक बढ़ जाता है कि वर्षा के कणों का निर्माण होता है।
क्लाउड सीडिंग (Cloud Seeding) को 2008 के बीजिंग ओलंपिक (Beijing Olympics) में उद्घाटन और समापन समारोह और फिर 2012 में ड्यूक और डचेज़ ऑफ़ कैंब्रिज (Duke and Duchess of Cambridge) की शादी के दौरान बारिश को रोकने के लिए प्रयोग किया गया था। इसके बाद से क्लाउड सीडिंग का मुख्य उद्देश्य बर्फीले मौसम, ओलावृष्टि के कारण हुई फसल की बर्बादी और सूखे के कारण हुई तबाही से उभरने का मार्ग खोजना बन गया। केंद्रीय सरकार द्वारा बड़े शहरों में वायु प्रदूषण को कम करने के लिए भी इस प्रक्रिया को मंजूरी दी गई है। भारत में 1951 में टाटा फर्मों (TATA Firms) ने ग्राउंड-आधारित सिल्वर आयोडाइड जनरेटर का उपयोग किया और पश्चिमी घाट के क्षेत्र में क्लाउड सीडिंग पर काम किया। 1952 के अंत में मौसम विज्ञानी एस के बनर्जी, जो भारतीय मौसम विभाग के पहले भारतीय महानिदेशक थे, ने जमीन से छोड़े गए हाइड्रोजन से भरे गुब्बारों के माध्यम से नमक और सिल्वर आयोडाइड के साथ क्रित्रिम वर्षा का प्रयोग किया। उत्तर भारत में 1957-1966 के दौरान पुणे में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मीटिरोलॉजी ((Indian Institute of Tropical Meteorology) IITM) की रेन एंड क्लाउड फिजिक्स रिसर्च (Rain & Cloud Physics Research (RCPR)) ने क्लाउड सीडींग पर अपने प्रयोगों को अंजाम दिया। ये प्रयोग हैदराबाद, अहमदाबाद, नागपुर, सोलापुर, जोधपुर और हाल ही में वाराणसी के आसपास के क्षेत्रों में किए गए हैं। बारिश को प्रेरित करने में इन प्रयोगों की सफलता दर स्थानीय वायुमंडलीय स्थितियों, हवा में नमी की मात्रा आदि के आधार पर लगभग 60 से 70 प्रतिशत तक दर्ज की गई । मई 2019 में, कर्नाटक सरकार ने 91 करोड़ रुपये के बजट के साथ दो वर्षों की अवधि सुनिश्चित करते हुए क्लाउड सीडिंग को मंजूरी दी। जिसके अंतर्गत बारिश के लिए नमी से भरे बादलों पर दो विमानों से रसायनों का छिड़काव किया गया था।
वैश्विक स्तर पर प्रयोग होने के बावजूद भी वैज्ञानिक क्लाउड सीडिंग के दीर्घकालिक प्रभावों को लेकर एकमत नहीं हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन के इस तरीके से बारिश के साथ छेड़-छाड़ करने से दुनिया के विभिन्न हिस्सों में गर्मी की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। साथ ही ड्रोन जैसे उपकरणों से पक्षियों की जान को भी बहुत ख्रतरा होता है। इसलिए क्लाउड सीडिंग के सुरक्षित व बेहतर तरीकों पर निरंतर खोज जारी है।
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