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भारत में जंतुओं की एक विस्तृत श्रृंखला देखने को मिलती है, जिनमें से कृतंक (Rodent) भी एक हैं। कृतंक कुछ समानताओं वाले जंतुओं का समूह है जिसमें चूहे, गिलहरी, छुछुंदर आदि जीव आते हैं। कृतंक भारत के सभी राज्यों में पाए जा सकते हैं, तथा भारत में कृंतकों की लगभग 80 प्रजातियां हैं। कृंतक रोगों और चिकित्सा के इतिहास के साथ गहराई से जुड़े हुए हैं, जो इतिहास में सबसे घातक महामारी फैलाने के लिए जाने जाते हैं। हालांकि एक समय में इन्हें घातक महामारी फैलाने का मुख्य कारण माना जाता था किंतु अब यह एक टीके के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं। कृतंक मुख्यतः चूहों से जुड़ी एक घातक महामारी द ब्लैक डेथ (The black death) के मुख्य कारक थे, जिसे प्लेग (Plague) के रूप में भी जाना जाता है। यह बीमारी मानव इतिहास में दर्ज सबसे घातक महामारी थी। ब्लैक डेथ के परिणामस्वरूप यूरोप में 1347 से 1351 के बीच जब महामारी अपने चरम पर थी, यूरेशिया और उत्तरी अफ्रीका में 750-2000 लाख लोग मारे गए। यह बीमारी मुख्य रूप से जीवाणु येर्सिनिया पेस्टिस (Yersinia Pestis) के कारण होने वाली बीमारी थी। इसके संक्रमण से आमतौर पर ब्यूबोनिक (Bubonic) प्लेग होता है, लेकिन यह सेप्टिकैमिक (Septicaemic) या न्यूमोनिक (Pneumonic) प्लेग का कारण भी बन सकता है। प्लेग ने यूरोपीय इतिहास पर गहरा प्रभाव डालने के साथ धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक उथल-पुथल भी पैदा की। ऐसा माना जाता है कि काले चूहों के शरीर पर मौजूद रहने वाले पिस्सू (Fleas) के माध्यम से इस बीमारी का फैलाव हुआ। मध्य युग के अंत में ब्लैक डेथ यूरोप को प्रभावित करने वाली दूसरी सबसे बड़ी आपदा थी, जिसमें यूरोप की 30% से 60% आबादी के मारे जाने का अनुमान है।
कुल मिलाकर, प्लेग ने 14वीं शताब्दी में विश्व की आबादी को अनुमानित 47.5 करोड़ से घटाकर 35–37.5 करोड़ कर दिया होगा। 19वीं सदी की शुरुआत तक दुनिया भर के विभिन्न स्थानों पर प्लेग का प्रकोप जारी था। सामान्यतया मध्ययुगीन यूरोप और एशिया में लंबे समय तक प्लेग फैलाने वाले परजीवियों को फैलाने के लिए चूहों को दोषी ठहराया गया किंतु अब जो अध्ययन किये गये हैं उनके अनुसार प्लेग के प्रसार के लिए चूहों को पूर्णतया दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इस महामारी के फैलने का मुख्य कारण वास्तव में चूहे के शरीर पर मौजूद मच्छर, पिस्सू या जूं हैं, जो येरसिनिया पेस्टिस जीवाणु को वहन कर रहीं थी। इस दौरान जीवाणु ने उन मच्छर, पिस्सू, या जूं को संक्रमित किया जो चूहों पर मौजूद थे तथा चूहों के द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित हुए। जब जीवाणु येर्सिनिया पेस्टिस से संक्रमित मच्छर किसी भी मनुष्य को काटते थे तो वे उस मनुष्य के खून में इस विषाणु को छोड़ देते थे, जिससे मनुष्य इस रोग से ग्रसित हो जाता था। 1800 के दशक के अंत से प्लेग के मामलों में चूहों और अन्य कृन्तकों ने बीमारी फैलाने में मदद की। यदि येर्सिनिया पेस्टिस चूहों को संक्रमित करता है, तो वह उन मच्छरों में प्रसारित हो जाता है, जो कृन्तकों का खून पीते हैं। जब प्लेग से ग्रसित चूहा मर जाता है, तब परजीवी उसके मृत शरीर को छोड़ देते हैं और इंसानों को काट सकते हैं। हिंदू धर्म की यदि बात करें तो चूहे को भगवान गणेश के वाहन के रूप में देखा जाता है, जिसे प्रायः मूषक कहा जाता है। हिंदू धर्म में चूंकि प्रत्येक देवी या देवता किसी विशिष्ट विचार को इंगित करते हैं, इसलिए भगवान गणेश भी समृद्धि और शक्ति के विचार को इंगित करते हैं। किंतु समृद्धि और शक्ति तब तक व्यर्थ है, जब तक जीवन में समस्याएं हों तथा मूषक इन्हीं समस्याओं को प्रदर्शित करता है। मूषक उस मुद्दे को प्रदर्शित करता है, जिसके कारण हमारा जीवन दुखी होता है तथा भगवान गणेश इन समस्याओं को दूर करते हैं।
चूहे की अलग-अलग प्रजातियां होती है, जिनमें से रैट (Rat) और माइस (Mice) भी एक है। रैट आकार में बड़े और उग्र स्वभाव के होते हैं तथा इनसे अत्यंत गंध आती है, जबकि माइस का व्यवहार शांत है तथा ये आकार में अपेक्षाकृत छोटे होते हैं। चूहों का एक सकारात्मक पक्ष यह है कि, नई कैंसर दवाओं के निर्माण से लेकर आहार की खुराक के परीक्षण तक, इन्होंने चिकित्सा चमत्कार विकसित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। फाउंडेशन फॉर बायोमेडिकल रिसर्च (Foundation for Biomedical Research -FBR) के अनुसार, प्रयोगशालाओं में प्रयोग किये जाने वाले सभी जानवरों में से 95% चूहे हैं। वैज्ञानिक और शोधकर्ता कई कारणों से चूहों पर निर्भर हैं, क्योंकि इनके साथ प्रयोग करना सुविधाजनक है। रैट और माइस छोटे होते हैं, और इन्हें पालना आसान है। ये नए परिवेश में अच्छी तरह से अनुकूलित भी हो जाते हैं। इनकी उम्र दो से तीन साल होती है तथा प्रजनन भी जल्दी होता है। इसलिए चूहों की कई पीढ़ियों को अपेक्षाकृत कम समय में देखा जा सकता है। रैट और माइस अपेक्षाकृत सस्ते होते हैं और वाणिज्यिक उत्पादकों से बड़ी मात्रा में खरीदे जा सकते हैं, जो विशेष रूप से अनुसंधान के लिए कृन्तकों का प्रजनन करते हैं। मेडिकल परीक्षण में चूहे के प्रयोग को प्रभावी माना जाता है क्योंकि उनकी आनुवांशिक, जैविक और व्यवहार संबंधी विशेषताएं मनुष्यों के समान हैं। पिछले दो दशकों में, वे समानताएं और भी मजबूत हो गई हैं। उनकी शारीरिक रचना, शरीर विज्ञान और आनुवांशिकी शोधकर्ताओं द्वारा अच्छी तरह से समझी जाती है, जिससे यह बताना आसान हो जाता है कि चूहों के व्यवहार या विशेषताओं में क्या परिवर्तन होते हैं।
यूं तो किसी भी बीमारी के लिए दवा या टीका उपलब्ध करवाने से पूर्व उसका परीक्षण चूहे पर किया जाता है किंतु वर्तमान समय में कोरोना महामारी से निपटने के लिए वैक्सीन (Vaccine) का परीक्षण यह जाने बगैर किया जा रहा है कि टीका जानवरों में संक्रमण को कितनी अच्छी तरह से रोक सकता है। यह स्थिति कोविड-19 महामारी का मुकाबला करने के लिए टीके विकसित करने की तात्कालिकता को दर्शाता है।
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