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भारतीय कला में मूर्तियाँ अत्यंत ही महत्वपूर्ण हैं, इन मूर्तियों में अनेकों देवी देवताओं आदि का अंकन किया गया है जिसमे हमें हिन्दू, बौद्ध और जैन देवी देवताओं की मूर्तियाँ देखने को मिलती हैं। इन मूर्तियों को विभिन्न शैलियों से निर्मित किया गया है जैसे मथुरा कला शैली, सारनाथ कला शैली, गुप्त कला शैली,. प्रतिहार कला शैली तथा परमार कला शैली आदि। हिन्दू देवताओं के मूर्ती परंपरा की बात करें तो विष्णु भगवान् का मूर्तिशास्त्र में अनेकों विभिन्न प्रकार के विवरण हमें देखने को मिलते हैं। विष्णु की मूर्तियाँ अनेकों प्रकार से विकसित हुयी हैं तथा ये मूर्तियाँ विष्णु के विभिन्न अवतारों पर आधारित हैं जिन्हें की दशावतार के नाम से जाना जाता है। गुप्त काल को हिन्दू कला का स्वर्ण युग माना जाता है, यह वही काल है जब भारतीय हिन्दू मंदिर परंपरा की शुरुआत होती है जिसके उदाहरण हमें साँची के मंदिर संख्या 17 से देखने पर मिल जाते हैं, इसके अलावां नाचना कुठार, ललितपुर के देवघर आदि से भी इस काल के कला का विकास देखने को मिलता है। हिन्दू मूर्तियों का विकास मौर्य साम्राज्य से होना शुरू हो चुका था जिसका अनुपम उदाहरण मौर्य कालीन बलराम की प्रतिमा है। कुशाण काल के दौरान भी हिन्दू प्रतिमाशास्त्र का विकास बड़े पैमाने पर हुआ जिसका उदहारण हमें विभिन्न मूर्तियों से देखने को मिल जाता है, मथुरा कला के दौरान शिवलिंग तथा अन्य मूर्तियों का विकास बड़े पैमाने पर हुआ। यह गुप्त काल ही था जब हिन्दू मूर्ती कला का विकास अपने चरम पर पहुंचा, भूमरा का एक मुखी शिवलिंग, अहिक्षेत्र से प्राप्त गंगा और यमुना की प्रतिमाएं आदि इस काल के कला का एक अनुपम और महत्वपूर्ण उदाहरण पेश करने का कार्य करती है। दशावतार के मंदिर में बनी अनेकों प्रतिमाएं इस काल की कला के विषय में अभूतपूर्व उदाहरण पेश करते हैं। चौथी शताब्दी ईस्वी के पहले तक वासुदेव-कृष्ण की पूजा विष्णु की तुलना में कहीं अधिक हुआ करती थी और यही कारण है की इसके पहले की विष्णु की मूर्तियाँ प्रकाश में बहुत ही सीमित संख्या में आई हैं। गुप्त काल के दौरान ही विष्णु के मूर्तिशास्त्र का विकास होना शुरू होता है। इसी दौरान विष्णु की चतुरानन प्रतिमा का भी विकास हुआ। चतुरानन अर्थात चार भुजाओं वाला। विष्णु को चार मुखों वाला भी मूर्ती शास्त्र में दिखाए जाने की परंपरा की भी शुरुआत होती है, बैकुंठ विष्णु, वराह अवतार, मत्स्य अवतार आदि प्रतिमाओं का विकास होता है। विष्णु के प्रतिमाओं में नरसिंह की प्रतिमा तथा कच्छप या कछुए के रूप में दिखाया गया है, विष्णु के निवास स्थान को छीर सागर के रूप में भी जाना जाता है और विष्णु छीर सागर में शेषनाग के ऊपर विराजित होते है, मूर्ती शास्त्र में इससे जो प्रतिमा सम्बंधित है वह है शेषासई विष्णु की प्रतिमा। विष्णु को पैर के निशान के रूप में भी प्रस्तुत किया जाता है तथा इस निशान को विष्णुपाद के रूप में जाना जाता है। विष्णु को मुख्य रूप से शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए दिखाया जाता है। चतुर्मुखी विष्णु को बैकुंठ विष्णु के नाम से भी जाना जाता है जिसमे विष्णु के चार मुख का अंकन किया जाता है तथा इनके आस पास नायिकाओं, नायकों तथा गन्धर्वों आदि का भी अंकन किया जाता है तथा इस प्रकार की मूर्ती में विष्णु को खड़े हुए दिखाया जाता है तथा इनमे 4 से 8 भुजाओं का अंकन किया जाता है। विष्णु के वाहन गरुण का अंकन भी विष्णु की प्रतिमाओं पर किया जाता है। नरसिंह की प्रतिमा में विष्णु को पुरुष आकृति का ही दिखाया जाता है परन्तु इसमें उनके मुख को सिंह के मुख की तरह प्रदर्शित किया जाता है। विष्णु की इस तरह की प्रतिमाओं में मुख्य रूप से हिरण्याक्ष वध का अंकन किया जाता है। नरसिंह की मूर्तियों में विष्णु को 4 भुजाओं के साथ प्रदर्शित किया जाता है तथा इन मूर्तियों में आयुध के रूप में चक्र, गदा, नाखून आदि का अंकन किया जाता है। वाराह प्रतिमा में विष्णु का अंकन जंगली सूकर के रूप में किया जाता है जिसमे विष्णु को भू देवी को अपने सींगो पर उठाते हुए दिखाया जाता है। विष्णु की एक मात्र प्रतिमा जो विष्णु के सभी अवतारों को एक साथ प्रदर्शित करती है को विश्वरूप की प्रतिमा के रूप में जाना जाता है।
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