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भारतीय तकिए : रोचक तथ्य
आज की सुविधाजीवी जीवन शैली में तकियों की कई भूमिकाएँ हैं। एक तरफ़ आराम और सुकून की नींद के लिए मुलायम तकिए हैं, दूसरी तरफ़ दिन-रात कम्प्यूटर पर काम करने के कारण उपजी स्वास्थ्य समस्याओं के निदान के लिए बहुत तरह के दूसरे तकिए प्रचलित हैं। जैसे कि कुछ तकिए लेटते-बैठते समय शरीर को सहारा देने के लिए तैयार किए जाते हैं। तकियों का इतिहास ढूँढते हुए यह रोचक जानकारी मिलती है कि सिर्फ़ मनुष्य ही नहीं, प्रागैतिहासिक काल में जानवर भी तकिया लगाते थे।सरीसृप और स्तनधारियों में अपने सिर को अपने ऊपर या एक-दूसरे के ऊपर रखकर सोने की आदत होती है। 5-23 मिलियन (Million) साल पहले पेड़ों पर रहने वाले बंदर रात में अच्छी नींद के लिए लकड़ी के तकिए लगाते थे।
क्या है तकियों का वैश्विक इतिहास ?
तकियों का ज़िक्र चलते ही आरामदेह मुलायम तकियों की याद आती है जबकि सच्चाई यह है कि अतीत में तकिए मुलायम नहीं होते थे।तकिए का अंग्रेज़ी शब्द पिलो (Pillow) 12 वीं शताब्दी के आसपास या उससे थोड़ा पहले प्रचलन में आया। यह शब्द मध्य अंग्रेज़ी के PIlwe, पुरानी अंग्रेज़ी के Pyle(प्राचीन उच्च जर्मन के Pfuliwi के समान) और लेटिन के Pulvinus से निर्मित हुआ है।तकिए की कहानी 7000 ईसापूर्व में मेसोपोटामिया (Mesopotamia), आज के इराक़ से शुरू हुई।तब ये पत्थर से बनते थे, ज़ाहिर है कि उस समय ये आरामदायक नहीं होते थे।शायद आराम देना उनका उद्देश्य भी नहीं था।तकियों का काम था नाक, कान, मुँह को कीट-पतंगों से बचाना।महँगे होने के कारण सिर्फ़ रईस लोग ही इनका प्रयोग करते थे।मिस्र के तकिए संगमरमर, हाथीदांत, चीनी मिट्टी, पत्थर और लकड़ी से बनते थे।उनका एक धार्मिक अर्थ भी होता था।तकियों पर ईश्वर की आकृतियाँ खुदी होती थीं और उन्हें मृत व्यक्ति के सिर के नीचे रखा जाता था ताकि बुरी आत्माएँ दूर रहें।प्राचीन चीनी सभ्यता पत्थर,लकड़ी, बांस, पीतल, पोर्सलीन (Porcelain) जैसी चीज़ों का तकिये बनाने के लिए प्रयोग करते थे।तकिए के गिलाफ़ों (Cover) को पशुओं और पौधों की तस्वीरों से सजाया जाता था।
उनका विश्वास था कि तकिए में इस्तेमाल हुई निर्माण सामग्री से इसे प्रयोग करने वाले की सेहत अच्छी रहती है।यह माना जाता था कि जेड (Jade) तकिए व्यक्ति की बुद्धि बढ़ाते हैं।चीनी मुलायम तकिए भी बना लेते थे।उनका विश्वास था कि सोते समय वह शरीर से ऊर्जा प्राप्त करते हैं।चीनी इसके समर्थक थे कि कड़े तकिए स्वास्थ्य और बुद्धि लाते हैं।प्राचीन ग्रीक और रोमन लोगों ने पारम्परिक सख़्त तकियों की जगह रुई,ईख, पुआल को कपड़े में भरकर प्रयोग करना शुरू किया।अभिजात्य वर्ग नरम किए गए पंख इस्तेमाल करते थे।ये तकिए वर्तमान में प्रचलित तकियों के पूर्वज थे।मध्य यूरोपीय युग में, तकिए ख़ास प्रचलित नहीं थे।मुलायम तकिया प्रतिष्ठा का प्रतीक होता था और ज़्यादातर लोग इसे वहन नहीं कर पाते थे।सम्राट हेनरी अष्ठम (King Henry VIII) ने मुलायम तकियों का चलन बंद कराया।सिर्फ़ गर्भवती महिलाओं को मुलायम तकिये के इस्तेमाल की छूट मिली थी।16 वीं शताब्दी में , तकियों का एक बार फिर से चलन शुरू हुआ।उनके अंदर की भराई उनके आकार के अनुसार लगातार बदलती रही। 19 वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत के साथ तकियों की पहुँच घर-घर हो गई। नई तकनीक से प्रचुर मात्रा में निर्माण के कारण उनकी क़ीमत औसत हो गई।विक्टोरियन युग में तकिये का सजावटी चीज़ों जैसे सोफ़े और कुर्सियों में प्रयोग शुरू हुआ।
भारतीय तकिए और कुशन (Cushions) के गिलाफ़ वैदिक काल से प्रयोग किए जा रहे हैं।अब यह रोज़मर्रा के इस्तेमाल और सजावट के लिए भी इस्तेमाल होते हैं।भारतीय हस्तकला की महिमा की झलक दिखाते इन कुशन और तकियों की अपने मुलायम स्पर्श, बेहतरीन आराम और आकर्षक बनावट के लिए सारी दुनिया में शोहरत है।
हाथ से बने भारतीय कुशन का उद्भव
प्राचीन भारतीय ग्रंथ ‘अथर्ववेद’ में संस्कृत में कुशन को भिसी (Bhisi) या विरसी (Virsee) और तकियों को ‘उपाधना’ या ‘उपाबारहाना’ नाम दिए गए हैं। महान महाकाव्य ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ में, राजसी वैभव के लिए कुशन-तकियों का प्रयोग होता था। जब हनुमान सीता की खोज में लंका की बारीकी से खोजबीन करते हैं तो अचानक वह रावण के शयनकक्ष में पहुँच जाते हैं।वहाँ रावण और उसकी पत्नी द्वारा प्रयोग किए गए कुशन और तकियों को मंत्रमुग्ध होकर देखते रह जाते हैं। राजाओं और दूसरे राजसी लोगों के सिंहासन की गद्दी, पीठ और कोहनी रखने की जगह भी कुशन और तकियों से सुसज्जित होती थी। हाथी की सवारी के समय हौदा (WoodenCarriage) में भी कुशन लगा होता था।
औरंगाबाद, महाराष्ट्र में अजन्ता गुफ़ाओं (दूसरी शताब्दी BCE) और एलोरा गुफ़ाओं(पाँचवी शताब्दी BCE) में उत्कीर्ण तमाम स्त्री-पुरुषों की मूर्तियों में कुशन और तकियों को असंख्य रंग और आकार में दिखाया गया है। आंध्र प्रदेश की नागार्जुनकोण्डा घाटी में बौद्ध वास्तुकला (तीसरी शताब्दी) में अनेक ऐसी मूर्तियाँ बनाई गईं जिनमें लोग बांस से बने मूढ़े पर बैठे उकेरे गए हैं। इन मोढ़ों पर भी कुशन और तकियों से सजावट दर्शाई गई है। मोहनजोदड़ो (2500-1700 BC) की खुदाई में बहुत सी पीतल की सुइयाँ मिलीं जो यह प्रमाणित करती हैं कि सुई से काढ़ने-सिलने की कला भी प्राचीन भारत की कला का हिस्सा रही है। इनका प्रयोग कुशन के गिलाफ़ पर कढ़ाई करके सजाने में होता था। कुशन और तकियों में भरने के लिए घास, लकड़ी, पँख, ऊन, चमड़ा और दूसरी सामग्री का प्रयोग होता था।
तकियों के आधुनिक रूप
आज बहुत तरह के तकिए प्रचलन में हैं जैसे कि जैल (Gel) तकिए , जोड़ों के दर्द से मुक्ति के लिए ऑर्थोपेडिक (Orthopedic) तकिए , अच्छी नींद के लिए तकिए आदि। तकियों का विकास अभी थमा नहीं है।नई सामग्री और नये रूप बराबर बदल रहे हैं।ऐतिहासिक रूप से पहले तकियों में भराव के लिए प्राकृतिक चीज़ों का प्रयोग होता था, आज भी बहुत लोग उन्हें ही प्रयोग करते हैं।
चित्र (सन्दर्भ):
1. मुख्य चित्र में भगवान् बुद्ध को तकिए के साथ विश्राम करते दिखाया गया है।
2. दूसरे चित्र में प्राचीन मिश्र (लकड़ी) और मध्ययुगीन पत्ते के आकार (पत्थर) का तकिया है।
3. तीसरे चित्र में धातु से बनाया गया एक तकिया दिख रहा है।
4. चौथे चित्र में प्राचीन चीन का तकिया जो लड़की के आकार का है दिख रहा है।
5. पांचवे चित्र में बुद्धा के अंतिम समय शैय्या पर तकिया दिख रहा है।
6. छठे चित्र में मेसोपोटामिया से प्राप्त तकिये के संकेत वाली मूर्ति है।
7. अंतिम चित्र में मुगलकालीन संगमरमरी तकिया और आधुनिक तकिया दिख रहा है।
सन्दर्भ:
1. https://bit.ly/3dXKsXV
2. https://en.wikipedia.org/wiki/Silk_in_the_Indian_subcontinent
3. https://bit.ly/36dvuui
4. https://www.natureasia.com/en/nindia/article/10.1038/nindia.2018.94
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