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किसी भी सेवा या वस्तु को प्राप्त करने के लिए भुगतान के रूप में धन को स्वीकार किया जाता है। देश को सामाजिक-आर्थिक आधार प्रदान करने में धन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मुद्रा की छपाई की मात्रा केंद्रीय बैंक के हाथों में होती है, अर्थात मुद्रा की कितनी मात्रा छापनी है, इसका निर्धारण केंद्रीय बैंक द्वारा किया जाता है, किंतु मुद्रा छापने की सीमा विभिन्न कारकों पर निर्भर करती है। मुद्रा छापने की सीमा इतनी होनी चाहिए कि यह सेवाएं प्रदान करने, माल हस्तांतरित करने और मुद्रा के मूल्य को पुनः प्राप्त करने के लिए पर्याप्त हो। मुद्रा का यह मूल्य विशाल कारकों पर निर्भर करता है, जैसे संबंधित ब्याज दर, औसत निर्यात के साथ-साथ वर्तमान, राजकोषीय घाटा आदि।
आमतौर पर, केंद्रीय बैंक कुल सकल घरेलू उत्पादन की लगभग 2-3% मुद्रा छापता है। यह प्रतिशत देश की अर्थव्यवस्था पर निर्भर करता है और तदनुसार भिन्न हो सकता है। विकासशील देश कुल जीडीपी का 2-3% से अधिक मुद्रा की छपाई करते हैं। पैसे का परिसंचरण काले धन की मात्रा पर भी निर्भर करता है और बदले में सफ़ेद धन की उपलब्धता को प्रभावित करता है। कोई देश जितनी चाहे उतनी मुद्रा को छाप सकता है लेकिन उसे प्रत्येक नोट (Note) को एक अलग मूल्य देना होता है जिसे मूल्यवर्ग (Denomination-बैंकनोट की फेस वैल्यू) कहा जाता है। अगर कोई देश ज़रूरत से ज्यादा मुद्रा छापता है, तो सभी निर्माता और विक्रेताओं की मांग भी बढ़ जाएगी, और मूल्य निर्धारण भी बढ़ेगा। यदि मुद्रा का उत्पादन 100 गुना बढ़ा दिया जाता है, तो मूल्य निर्धारण भी उसी के अनुसार बढ़ेगा। मुद्रित धन का उत्पादन तथा वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य के बीच संतुलन उचित होना चाहिए। यही कारण है कि कोई देश अपनी अर्थव्यवस्था के सफल होने पर अधिक मुद्रा या धन का उत्पादन कर सकता है। उभरते या विकासशील देशों में, जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा से आता है। इसलिए सरकार को अपने उपभोक्ताओं को पर्याप्त मुद्रा प्रदान करनी चाहिए ताकि वे अपनी ज़रूरतों को पूरा कर सकें। इसे इंक्रीमेंटल मनी सप्लाई (Incremental money supply) कहा जाता है जो देश की अर्थव्यवस्था के वास्तविक उत्पादन के साथ उचित अनुपात में होनी चाहिए।
मुद्रा की आपूर्ति से महंगाई बढ़ती है और बदले में क्रय क्षमता घट जाती है। विकसित देशों में, आमतौर पर मांग और आपूर्ति समान अनुपात में होती है, इसीलिए सामान और सेवाएं एक साथ संतुलन में चलती हैं। इसलिए अमीर बनने या अधिक मुद्रा छापने की प्रक्रिया में एक देश को तकनीकी रूप से उन्नत और अधिक प्रतिस्पर्धी होने की आवश्यकता होती है। राष्ट्रीय आय में वृद्धि विशुद्ध रूप से मौद्रिक होगी। इसका कारण यह है कि अधिक मुद्रण या अधिक धन किसी भी तरह से आर्थिक उत्पादन में सुधार नहीं करता तथा मुद्रास्फीति का कारण बनता है। एक देश स्थानीय रूप से उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं की उच्च मांग के माध्यम से धन प्राप्त करके आर्थिक विकास के मार्ग पर आगे बढ़ता है। भारत में मुद्रा का प्रबंधन भारतीय रिज़र्व बैंक (Reserve Bank India) द्वारा किया जाता है। यह देश की क्रेडिट (Credit) प्रणालियों को विनियमित करने और भारत में वित्तीय स्थिरता स्थापित करने के लिए मौद्रिक नीति का उपयोग करने का कार्य भी करता है। भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम 1934 के आधार पर आरबीआई को मुद्रा प्रबंधन की भूमिका दी गई थी। विशेष रूप से, RBI अधिनियम की धारा 22 में आरबीआई को मुद्रा नोट जारी करने का अधिकार दिया गया है। भारत में मुद्रण सुविधाएँ देवास, मैसूर और सालबोनी में हैं। RBI को 10,000 रुपये के नोटों तक मुद्रा छापने की अनुमति है। जालसाज़ी और धोखाधड़ी को रोकने के लिए, भारत सरकार ने 2016 में 500 और 1,000 रुपये के नोटों को प्रचलन से वापस ले लिया था। हालांकि आरबीआई के पास भारतीय मुद्रा छापने की शक्ति है, फिर भी रिज़र्व बैंक की अधिकांश कार्यवाहियों पर सरकार अंतिम फैसला लेती है। उदाहरण के लिए, सुरक्षा विशेषताओं सहित सरकार तय करती है कि कौन से मूल्यवर्ग मुद्रित किये जायेंगे तथा बैंकनोट्स का डिज़ाइन (Design) क्या होगा। यदि रिज़र्व बैंक कुछ बड़े नोट छापना चाहता है, तो उसके लिए सरकार को भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम में संशोधन करने होंगे। इसके अलावा, प्रत्येक वर्ष रिज़र्व बैंक नोटों की जिस मांग के छपने का अनुमान लगाता है, छापने से पहले उसे एक लिखित अनुरोध दर्ज करना होता है। इस अनुरोध पर पहले सरकारी अधिकारियों के हस्ताक्षर होते हैं। 2016 में जब भारत सरकार द्वारा नकली नोटों और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए 500 और 1,000 रुपये के नोटों को प्रचलन से हटाया गया तब इन नोटों के धारक बैंकों में अपनी नकदी का आदान-प्रदान कर सकते थे। हालांकि, दिसंबर 2016 के बाद बैंकों ने इन नोटों का आदान-प्रदान नहीं किया। प्रतिस्थापन के रूप में, नए 500 और 2,000 मूल्यवर्ग के नोट जारी किए गए।
उपरोक्त बातों से यह निष्कर्ष लगाया जा सकता है कि अधिक धन छापने से आर्थिक उत्पादन में वृद्धि नहीं होती है - यह केवल अर्थव्यवस्था में नकदी के प्रसार की मात्रा को बढ़ाता है। यदि अधिक धन मुद्रित किया जाता है, तो उपभोक्ता अधिक वस्तुओं की मांग करने में सक्षम हो जाते हैं, किंतु अगर फर्मों (Firms) के पास अभी भी वस्तुओं की समान मात्रा है तो वे कीमतों को बढा देंगे। सरल शब्दों में अधिक मुद्रा छापना अधिक महंगाई का कारण होगा। महंगाई के कारण बचत के मूल्य में गिरावट आयेगी। यदि लोगों के पास नकद बचत है, तो मुद्रास्फीति बचत मूल्य को कम कर देगी, कीमतें लगातार बदलती रहेंगी तथा अनिश्चितता और भ्रम उत्पन्न होगा।
संदर्भ:
1. https://medium.com/@rilcoin/how-much-currency-can-a-country-print-at-a-time-44565e83527c
2. https://www.wisdomtimes.com/blog/printing-money-can-a-country-print-money-and-get-rich/
3. https://www.investopedia.com/ask/answers/090715/who-decides-when-print-money-india.asp
4. https://www.economicshelp.org/blog/634/economics/the-problem-with-printing-money/
5. https://en.wikipedia.org/wiki/2016_Indian_banknote_demonetisation
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