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भारत में कृषि क्षेत्र जिस गंभीर संकट से गुज़र रहा है उसका एक संकेत अगर किसानों की आत्महत्याओं से मिलता है तो वहीं दूसरा संकेत किसानों के ऐसे बढ़ते समूह से मिल रहा है जो कृषि छोड़ कर दूसरे पेशे चुन रहे हैं। दिल्ली में स्थित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज़ (Centre for Study of Developing Societies) ने पाया कि देश में अधिकांश किसान खेती के अलावा किसी अन्य विकल्प को चुनना पसंद करेंगे। इसका मुख्य कारण खराब आय, धुंधला भविष्य और तनाव है। इस सर्वेक्षण में शामिल 18% लोगों ने कहा कि वे परिवार के दबाव के कारण ही खेती को जारी रख रहे हैं।
एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि 76% किसान खेती के अलावा कुछ अन्य काम करना पसंद करेंगे और इनमें से 60% किसान बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार को देखते हुए शहरों में नौकरी का विकल्प चुनना पसंद करेंगे। वहीं किसानों के एक उच्च प्रतिशत ने बार-बार खेती में होने वाले नुकसान की शिकायत की और 70% ने कहा कि बेमौसम बारिश, सूखा, बाढ़ और कीट के हमले के कारण उनकी फसलें नष्ट हो गईं।
वहीं इस अध्ययन के विवरण में पाया गया कि सरकारी योजनाओं और नीतियों का लाभ ज्यादातर बड़े किसानों को दिया जा रहा है जिनके पास 10 एकड़ (4.05 हेक्टेयर) और उससे अधिक की भूमि है। 1-4 एकड़ (0.4 से 1.6 हेक्टेयर) औसत भूमि वाले गरीब और छोटे किसानों को केवल 10% सरकारी योजनाओं और सब्सिडी (Subsidy) से लाभ हुआ है। वहीं कई किसानों ने अपनी वर्तमान स्थिति के लिए राज्य और केंद्र सरकारों को दोषी ठहराया, जिनमें से 74% का आरोप था कि उन्हें कृषि विभाग के अधिकारियों से खेती से संबंधित कोई जानकारी नहीं मिलती है।
यदि देखा जाए तो शायद भारत में वर्तमान कृषि संकट दो कारकों की वजह से उत्पन्न हो सकता है: हरित क्रांति से कम लाभ की स्थिति की पहचान करने में विफलता और सब्सिडी का आर्थिक प्रभाव। घटती मिट्टी की उर्वरता, पानी में कमी और बढ़ती लागत (हरित क्रांति के सभी प्रभाव) किसानों को खेती से खराब लाभ दिलाने के प्रमुख कारणों में से हैं। वहीं दूसरी ओर देखा जाए तो कृषि सामग्रियों के लिए मांग और आपूर्ति की प्रकृति को नहीं समझने के कारण नीतिगत विफलताएं उत्पन्न हुई हैं। यदि बाज़ार में मांग बहुत अधिक है, यानि बाजार में 100 किलो टमाटर की मांग है और यदि कोई 125 किलो टमाटर की आपूर्ति करता है, तो टमाटरों की कीमतें अवश्य ही गिर जाएंगी। इसके विपरीत, यदि केवल 75 किलो टमाटर की आपूर्ति की जाए, तो उनकी कीमतें आसमान छू जाती हैं।
अब हम यह समझने की कोशिश करते हैं कि भारतीय किसान जो बोते हैं, उसका लाभ क्यों नहीं पाते हैं:
यदि देखा जाए तो वास्तव में, 3-एकड़ किसान की वार्षिक आय एक आईटी क्षेत्र या कॉर्पोरेट (Corporate) नौसिखिया की तुलना में बहुत कम है। एक कृषि प्रधान राष्ट्र होने के नाते, हमारे देश के लिए हमारे किसान बहुत अधिक मूल्यवान हैं। अधिक सक्षम वातावरण बनाने के लिए निम्नलिखित प्राथमिकताएं भारत में कृषि के लिए किसी भी परिवर्तनकारी सुधार कार्यक्रम का मूल रूप होगा:
1) किसानों के लिए जोखिम को कम करना और कृषि मूल्य श्रृंखला को समान रूप से वितरित किया जाना चाहिए।
2) अंतिम उपभोक्ता से उत्पन्न मूल्य का उचित हिस्सा किसानों को सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
भारतीय किसानों को अल्पकालिक बयानबाजी, वादों और प्रतिक्रियात्मक रियायतों के बजाय दीर्घकालिक स्थायी समाधान की आवश्यकता होती है। इस प्रक्रिया में नीचे सूचीबद्ध मैक्रो (Macro) चुनौतियों को पहचानना और उन पर कार्य करना शामिल है:
• कमज़ोर निर्माता - भारतीय किसान क्या उत्पन्न करता है और उपभोक्ता क्या मांग करते हैं, इसके बीच एक फासला है। किसान किसी भी समूहक, खाद्य प्रोसेसर और खुदरा श्रृंखला से जुड़े न होने के कारण उपज की प्रकृति को आकार देने में मदद करने में असफल हैं। उनकी खेती का उत्पादन सालाना एक ही रहता है, जो काफी हद तक किसानों पर निर्भर है और अक्सर सरकार के एमएसपी कार्यक्रम द्वारा संचालित होता है।
• कमज़ोर आपूर्तिकर्ता सामर्थ्य: किसान को आपूर्तिकर्ता के रूप में मुश्किल से ही सशक्त बनाया जाता है, क्योंकि यह पूर्णरूप से व्यापारियों पर निर्भर है।
• कृषि पर निर्भरता: भारतीय जनसंख्या का 60% हिस्सा आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है जबकि कृषि के माध्यम से राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में योगदान केवल 14% है।
• प्रौद्योगिकी में कमी: नई प्रौद्योगिकी समाधानों का अभाव किसान को वैश्विक स्तर पर एक समान पायदान हासिल करने से रोकता है।
• वाणिज्यिक कृषि बनाम जीविका कृषि: विभिन्न फसलों के बीच नीतिगत ढांचे समान रहते हैं और कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं डालते हैं। चाहे वे बुनियादी खाद्य अनाज और दालें हों, या कपास, गन्ना, मिर्च की तरह वाणिज्यिक फसलें जो उद्योगों में प्रयोग होती हैं या फल व सब्ज़ियाँ जो घरेलू खपत या निर्यात फसलें हैं, सभी में समान व्यापक आघात नीति उपायों का उपयोग किया जाता है।
• अनुसंधान और विकास में कम निवेश: भारत में कृषि जीडीपी का 1% से भी कम शोध पर खर्च किया जाता है।
• मूल्य श्रृंखला के साथ बुनियादी ढांचे को सक्षम करने का अभाव: संपूर्ण कृषि मूल्य श्रृंखला में बुनियादी ढांचे की एक कमी है।
संदर्भ:
1. https://bit.ly/36I9iIi
2. https://bit.ly/39MQ8Tl
3. https://bit.ly/37KcTWi
4. https://bit.ly/35plJqU
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