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आज मोहर्रम का 10वां दिन है जिसे अशूरा के रूप में मनाया जा रहा है। जिस प्रकार से हर किसी पर्व के पीछे कोई न कोई किवदंती छुपी होती है ठीक उसी प्रकार से इस पर्व को मनाने के पीछे भी इस्लाम धर्म से जुड़ी एक किवदंती मौजूद है। इस्लाम धर्म में मोहर्रम को एक पवित्र माह माना जाता है जिसके 10वें दिन हुसैन इब्न अली की शहादत को याद करने के लिये शोक या मातम मनाया जाता है। दरअसल हुसैन इब्न अली पैगंबर मोहम्मद के वंशज थे जिन्हें यजीद की सेना द्वारा कर्बला के युद्ध में परिवार सहित बेरहमी से मार दिया गया था। उन्होंने यजीद की सेना का वीरता से सामना किया तथा सत्य और धर्म के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया। इस प्रकार धर्म की इस लड़ाई में हुसैन की इस शहादत को मोहर्रम के 10वें दिन शोक मनाकर याद किया जाता है।
यह पर्व दक्षिण एशिया के अलावा संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप और एशिया के कुछ हिस्सों में भी मनाया जाता है। हुसैन की शहादत को याद करने के लिए इस दिन मुस्लिम समुदाय के लोग शोभा यात्रा निकालते हैं जिसमें लाखों की संख्या में जुलूस शामिल होता है। जुलूस में एक घोड़े को भी शामिल किया जाता है जिसे हुसैन के प्रिय घोड़े दुलदुल का रूप समझा जाता है। कर्बला के युद्ध में दुलदुल ने बहुत वफादरी और साहस से हुसैन का साथ दिया किंतु अंततः वह भी इस दिन मारा गया। 1899 में जौनपुर में भी 7 वें मोहर्रम पर हज़रत कासिम की शादी के उपलक्ष्य में, मेंहदी का पहला जुलूस आयोजित किया गया था। हालांकि इस शोक में बड़ी संख्या में सुन्नी और सूफी मुसलमान भाग लेते हैं किंतु इसकी कठिन प्रथा मुख्य रूप से शिया मुसलमानों द्वारा अपनायी जाती हैं। इस दिन शिया मुसलमान ततबीर नामक प्रथा का अनुसरण करते हैं जिसे ईरान और दक्षिण एशिया में तलवार ज़ानी और क़ामा ज़ानी के रूप में जाना जाता है।
इस प्रथा में शिया मुसलमान अपने सिर और शरीर पर तेज तलवार से प्रहार करते हैं जिससे उनके सिर और शरीर से खून निकलने लगता है। यह मान्यता है कि यह रक्त निर्दोष हुसैन के रक्त की याद दिलाता है। कुछ शिया मुस्लिमों द्वारा अन्य अवसरों पर भी यह प्रथा अपनायी जाती है जिसमें तलवार के स्थान पर अन्य वस्तुओं जैसे लोहे की जंजीर,चाबुक आदि का इस्तेमाल भी किया जाता है। ऐसा करके वे उस दर्द की अनुभूति करते हैं जो हुसैन व उनके साथियों को हुई होगी। इस दिन किसी भी प्रकार का मनोरंजक कार्य नहीं किया जाता है पूरा दिन हुसैन की शहादत को याद करते हुए तथा खुद को आत्मपीड़ा देते हुए बिताया जाता है। वहीं महिलाओं द्वारा चूडियां तोड़ने और छाती पीट-पीट कर मातम मनाने का रिवाज है। कई स्थानों पर हुसैन के कष्टों को याद करने के लिए जलते हुए अंगारों पर भी चलने का प्रयास किया जाता है।
यह कोई नयी बात नहीं है कि इस प्रथा का अनुसरण शिया मुस्लिमों द्वारा मोहर्रम के दिन किया जाता है। प्राचीन काल से ही खुद को प्रताड़ित करने की ये प्रथा विभिन्न संस्कृतियों में देखी गयी है। रोम में बंदी बनाये गये गुलामों द्वारा खुद को चाबुक से प्रताड़ित किया जाता था। इसी प्रकार फारस (ईरान) में खुद को कोड़े मारने की सजा प्रयोग में लाई जाती थी। रोम में सजा देने के लिए चमड़े के समतल पट्टे जिसे फेरुलो (Ferulæ) कहा जाता है, का उपयोग किया जाता था। इसके अतिरिक्त प्रताड़ित करने के किए बैल के चमड़े का भी उपयोग किया जाता था। जहां मिस्रवासियों ने भी अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए आत्मपीड़ा का प्रयोग किया। वहीं कई देवी देवताओं को खुश करने के लिए भी इस प्रथा को उपयोग में लाया जाता रहा है।
संदर्भ:
1. https://en.wikisource.org/wiki/History_of_Flagellation
2. https://bit.ly/2m2rABm
3. https://en.wikipedia.org/wiki/Tatbir
4. https://bit.ly/2OFTwV7
5. https://bit.ly/2BmpAHw
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