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भारत में स्वास्तिक चिह्न प्राचीन काल से ही शक्ति और सौभाग्य का प्रतीक रहा है। किंतु कई विद्वानों के अनुसार स्वास्तिक की जड़ें केवल भारत से ही नहीं बल्कि यूरोपीय देशों से भी सम्बंधित हैं। दरअसल जहां भारत में स्वास्तिक का उपयोग विभिन्न रूपों में किया जाता है वहीं इसके विभिन्न रूप यूरोपीय देशों में भी देखने को मिलते हैं जहां यह पुनः शक्ति, सौम्यता, समृद्धि, सौभाग्य आदि का प्रतिनिधित्व करता है। स्वास्तिक शब्द संस्कृत भाषा से लिया गया है जिसका अर्थ है – ‘कल्याण’। बौद्ध धर्म में भी स्वास्तिक का उपयोग प्रतीक के रूप में किया गया जो सीधे ही भगवान बुद्ध से सम्बंधित है। इस चिह्न को दुनिया भर के गिरजाघरों की खिड़कियों में भी देखा जा सकता है। सबसे पहले पाये गये स्वास्तिक का अनावरण यूक्रेन के मेज़ीन (Mezine) में किया गया था जिसे 12,000 साल पहले हाथीदांत की एक मूर्ति पर उकेरा गया था। मेसोपोटामिया में इसका इस्तेमाल सिक्कों पर किया जाता था। विभिन्न देशों में स्वास्तिक को विभिन्न नामों से पुकारा जाता है जैसे चीन में वान (Wan), जापान में मांजी (Manji), इंग्लैंड में फिल्फोट (Fylfot), जर्मनी में हाकेनक्र्यूज़ (Hakenkreuz) आदि। पश्चिमी यूरोप में बाल्टिक (Baltic) से लेकर बाल्कन (Balkans) तक में इस चिह्न का इस्तेमाल देखा गया है। यूक्रेन के राष्ट्रीय संग्रहालय में कई तरह के स्वास्तिक चिह्न देखे जा सकते हैं जो लगभग 15 हज़ार साल पुराने हैं।
19वीं और 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में यह चिह्न पश्चिमी संस्कृति में अच्छी तरह से एक प्रतीक के रूप में स्थापित हो चुका था। यूं तो स्वास्तिक को मूल रूप से भारत का ही माना जाता है किंतु एशिया के प्रारंभिक पश्चिमी यात्री इस प्रतीक के सकारात्मक प्रभावों से बहुत अधिक प्रेरित हुए जिस कारण इस घुमावदार छोरों वाले क्रॉस (Cross) का उपयोग उन्होंने वापस अपने देश जाकर भी किया। 20वीं शताब्दी की शुरूआत में यूरोपीय देशों के लिये इस चिह्न का उपयोग आम था। कोका-कोला (Coca Cola) और बीयर (Beer) की बोतलों पर भी इस चिह्न का उपयोग किया गया। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिकी सैन्य इकाइयों ने भी इस चिह्न का उपयोग किया तथा 1939 तक भी यह चिह्न आर.ए.एफ. के विमानों पर बना रहा। इस चिह्न को वास्तुकला, विज्ञापन और उत्पादों के डिज़ाइनों (Designs) में भी व्यापक रूप से जगह दी गयी। इस चिह्न को अभी भी मंदिरों, बसों (Buses), टैक्सियों (Taxis) और पुस्तकों के कवर (Cover) आदि में बहुतायत में देखा जा सकता है।
यूरोपीय देशों में स्वास्तिक का चिह्न जहां शक्ति, सौम्यता, समृद्धि का प्रतीक था वहीं 1930 के दशक में जर्मनी में नाज़ीवाद के आगमन के साथ यह चिह्न नफरत, आक्रामकता और मृत्यु के प्रतीक के रूप में तब्दील हो गया था। जब 19वीं सदी में कुछ जर्मन विद्वान भारतीय साहित्य का अध्ययन कर रहे थे तो उन्होंने पाया कि जर्मन भाषा और संस्कृत में कई समानताएँ हैं और यह निष्कर्ष निकाला कि भारतियों और जर्मन लोगों के पूर्वज एक ही रहे होंगे जिसे उन्होंने ‘आर्यन’ नाम दिया। भारत के लिये आर्यन जहां विनम्र, परिष्कृत और सकरात्मक शब्द है वहीं नाज़ियों के लिये आर्यन का अर्थ लोगों का उच्चतम वर्ग था। इसके बाद से जर्मनी में यहूदी विरोधियों द्वारा स्वास्तिक का उपयोग आर्यन प्रतीक के तौर पर किया जाने लगा। देखते ही देखते इस चिह्न ने नाज़ियों के लाल रंग वाले झंडे में जगह ले ली। जब यहूदियों पर नाज़ियों का अत्याचार चरम सीमा पर पहुंचने लगा तो 20वीं सदी के अंत तक इस चिह्न को नफ़रत की नज़र से देखा जाने लगा। लोगों को इस चिह्न से घृणा होने लगी थी। यूं तो स्वास्तिक प्रेम का प्रतीक था लेकिन हिटलर ने इसका गलत इस्तेमाल किया और लोगों के सामने इस कल्याणमय चिह्न की गलत छवि प्रस्तुत की। अब यह चिह्न लोगों के लिये डर, दमन, और विनाश का प्रतीक बन गया था। युद्ध ख़त्म होने के बाद जर्मनी में इस प्रतीक चिह्न पर पूर्णता प्रतिबंध लगा दिया गया था।
प्रथम विश्व युद्ध के उस दौर में भारत भी अपनी स्वतंत्रता के लिये संघर्ष कर रहा था। स्वतंत्रता के इस संघर्ष में जौनपुर भी पीछे न था। 1857 की क्रांति में भी जौनपुर ने अपनी भागीदारी दी थी। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की गई तथा 1909 में वाराणसी में हुए इनके वार्षिक सम्मेलन में जौनपुर के कई लोगों और क्रांतिकारियों ने भी हिस्सा लिया। स्वतंत्रता के इस संघर्ष में जौनपुर के एक महान क्रांतिकारी मुज़तबा हुसैन भी थे जो प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान बम बनाने की तकनीक सीखने के लिए अमेरिका रवाना हुए। किंतु अंग्रेज़ों ने उनके साथ विश्वासघात किया और उन्हें गिरफ्तार कर जेल में भेज दिया। किंतु स्वतंत्रता के लिये उनके इस संघर्ष को भुलाया नहीं जा सकता है।
संदर्भ:
1. https://bbc.in/2JGHWWE
2. https://bit.ly/2NxEXTC
3. https://bit.ly/2IUtvS9
4. https://bit.ly/2Yyl9DQ
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