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इतिहास में एक ऐसा समय था जब जौनपुर अपनी उर्दू शिक्षा के लिये प्रसिद्ध था और उस समय से लेकर आज तक यहां पर इस्लाम की मूलभूत शिक्षाओं को महत्व दिया जाता आ रहा है। जौनपुर पुराने समय से ही उर्दू भाषा का एक प्रमुख केंद्र रहा है। यहां आज भी उर्दू पत्रकारिता की विरासत के रूप में जौनपुर शहर के दिल में ‘उर्दू बाजार’ (किताबों को समर्पित एक बाजार, जहां किताबें विशेष रूप से उर्दू भाषा में होती हैं) नामक एक बाज़ार बसता है।
परंतु आज हम एक ऐसे समय से, जब उत्तर भारत में हर कोई उर्दू पढ़ता था, ऐसे समय में आ गये हैं जहाँ उत्तर भारत के अधिकांश मुसलमान भी उर्दू नहीं पढ़ते हैं। आज देश में उर्दू प्रकाशनों का प्रसार कम होता जा रहा है। इस्लामी पुस्तकों का प्रकाशन और उनकी बिक्री एक बड़ी चुनौती बन गया है, और यदि ये पुस्तकें उर्दू भाषा में है, तो काम और भी कठिन हो जाता है। अधिकांश उर्दू पुस्तकों के प्रकाशक इस बात का शोक प्रकट करते हैं कि उनकी किताबों की बिक्री नहीं हो पाती है या उन्हें अपेक्षित मुनाफा नहीं हो रहा है।
उर्दू पुस्तक उद्योग की इस दयनीय स्थिति का प्रमुख कारण पाठकों की शैक्षिक और वित्तीय स्थितियों को माना जाता है। इसके अलावा भारत के अधिकांश पाठकों के मन में ये सोच भी है कि उर्दू में किताबों को केवल मुसलमानों द्वारा ही पढ़ा जाता है जोकि शैक्षिक और आर्थिक विषयों पर ही आधारित होती है। साथ ही साथ इस्लामिक या उर्दू पुस्तक प्रकाशकों के पास कई सुविधाओं का अभाव है जैसे कि न तो उनके पास एक मजबूत इंफ्रास्ट्रक्चर (Infrastructure) है और न ही पुस्तक के प्रचार और विज्ञापन के लिए भी कोई उचित व्यवस्था है। वर्तमान में उत्तर भारत में उर्दू पाठकों की घटती संख्या के कारण प्रकाशक अब दक्षिणी क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। उनका मानना है कि महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश उर्दू पुस्तकों के लिए अच्छे बाजार साबित हो सकते हैं।
उर्दू साहित्य जगत में अच्छे लेखकों की भी ज़रूरत है परंतु मुद्रण की खराब गुणवत्ता के कारण कोई भी लेखक उर्दू प्रकाशकों के पास नहीं जाना चाहता। कोई भी अच्छा लेखक चाहता है कि उसकी किताब सभ्य तरीके से प्रकाशित हो। वह उसका अच्छा लेआउट (Layout), अच्छा मुद्रण और अच्छा प्रचार चाहता है। परंतु उसे ये सुविधाएं कम निवेश के चलते उर्दू प्रकाशन में नहीं मिलती। शायद यही कारण है कि आज उर्दू साहित्य का जो स्वरूप हमें उर्दू मुशायरों में देखने को मिलता है वो किताबों में नहीं मिलता। इन मुशायरों में भारत और विदेश के उर्दू और हिंदी कवि, अपनी गज़ल गायकी और संगीत से लोगों का मनोरंजन करते हैं। परंतु आज के समकालीन उर्दू कवियों की ये प्रतीभा उर्दू की पुस्तकों में देखने को नहीं मिलती, क्योंकि उर्दू शायरी की किताबें प्रकाशित करने के लिए इन कवियों को कोई पैसा नहीं मिलता। वे पैसा केवल मुशायरों में ही कमा पाते हैं। एक सभ्य कवि को एक शाम के प्रदर्शन के लिए 20,000 रुपये से 30,000 रुपये के बीच मिलता है और कुछ उर्दू और हिंदी कवि जो उच्च माँग में हैं, उनके प्रदर्शन के लिए कुछ लाख रुपये तक मिल जाते हैं इसलिये उर्दू कवियों का रूझान पुस्तकों से ज्यादा मुशायरों की ओर बढ़ा है।
वर्तमान में उर्दू साहित्य केवल मुशायरों तक सिमट कर रह गया है। नये कवियों की प्रतिभाओं का उर्दू भाषा में प्रकाशन तो मानो कहीं खोता जा रहा है। परंतु आज भी भारत में कई ऐसे लोग हैं जो उर्दू साहित्य को जीवित रखे हुए हैं, जैसे फारूकी (उपन्यासकार और लेखक) तथा संजीव सराफ (rekhta.org के पीछे की सोच इन्हीं की है) उर्दू साहित्य के अस्तित्व को बनाये हुये हैं। इनके अलावा कानपुर की एक मुस्लिम शिक्षिका डॉक्टर माही तलत सिद्दीकी ने रामायण का उर्दू भाषा में अनुवाद किया है ताकि मुस्लिम समाज भगवान राम की शख्सियत के तमाम पहलुओं से आसानी से रूबरू हो सके और रामायण की सभी अच्छाई से अवगत हो सके। ऊपर दिये गये चित्र में माही तलत और उनके द्वारा अनुवादित रामायण का मुखपृष्ठ दिखाया गया है। इस अनुवादन में उन्हें लगभग दो साल का समय लगा। जहां आज देश में धार्मिक कट्टरता पर सियासत चल रही है, वहीं कानपुर में एक मुस्लिम महिला रामायण के इस अनुवाद से सभी धर्मों के लोगों को एक-दूसरे के धर्मों के प्रति इज्ज़त तथा आपस में प्यार और सद्भावना से रहना सिखा रही है।
हिंदी और उर्दू तो दो बहनों की तरह हैं और ये दोनों ही भारत की संस्कृति में चार-चाँद लगा सकती हैं। परन्तु आज जब लोगों को उर्दू पढ़ना नहीं आता तो उसे ‘देवनागरी’ लिपि में लिखकर ही उन्हें समझाना पड़ता है। ये बदलाव धीरे-धीरे एक पूरी लिपि को ख़त्म कर सकता है। और यदि आप सोच रहे हैं कि बात यहाँ ख़त्म हो जाती है तो आप गलत हैं। जो हश्र उर्दू का हुआ है, आज वही हश्र हिंदी (देवनागरी लिपि) का भी होता देखा जा सकता है। क्योंकि आज लोगों का रुझान हिंदी को देवनागरी के बजाय रोमन लिपि (Roman Script) में लिखने की ओर है। यदि ऐसा होता है तो यह भारत देश पर, जो कि अंग्रेज़ी उपनिवेश में रह चुका है, बहुत ही बड़ा व्यंग्य होगा।
संदर्भ:
1. http://www.milligazette.com/Archives/01032002/0103200257.htm
2. https://scroll.in/article/719443/looking-in-vain-for-urdu-in-new-delhis-world-of-books
3. https://www.prabhasakshi.com/trending/muslim-teacher-did-ramayana-translation-in-urdu
4. https://bit.ly/2YqIA27
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