आइए जानें, आज, भारत के सर्वोच्च न्यायालय में, कितने अदालती मामले, लंबित हैं

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08-01-2025 09:19 AM
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आइए जानें, आज, भारत के सर्वोच्च न्यायालय में, कितने अदालती मामले, लंबित हैं
क्या आप जानते हैं कि इस वर्ष तक, भारत में लंबित अदालती मामलों की कुल संख्या, 51 मिलियन से अधिक है, जिसमें से 180,000 से अधिक मामले ऐसे हैं जो 30 वर्षों से लंबित हैं। इनमें से 87% से अधिक मामले जिला अदालतों में लंबित हैं। इसके अलावा, उच्च न्यायालयों में भी लगभग 60 लाख मामले लंबित हैं। जबकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) में मौजूदा लंबित मामले लगभग 83,000 हैं, जो अब तक का सबसे अधिक रिकॉर्ड है। तो आइए, आज भारत में लंबित अदालती मामलों की वर्तमान स्थिति के बारे में समझते हुए, इस संदर्भ में, सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों के आंकड़ों पर प्रकाश डालते हैं। इसके साथ ही, हम भारत में अदालती मामलों के लंबित होने के कारणों को भी समझने का प्रयास करेंगे। आगे, हम यह जानेंगे कि हमारे देश की न्याय वितरण प्रणाली पर इन मामलों का क्या प्रभाव पड़ता है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय में लंबित अदालती मामलों की वर्तमान स्थिति:
इस वर्ष अगस्त माह तक सुप्रीम कोर्ट में लंबित अदालड़ी मामलों की संख्या लगभग 83,000 है, जो अब तक का सबसे उच्च रिकॉर्ड है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि पिछले दशक में ये लंबित मामले आठ गुना बढ़े हैं, जबकि केवल दो बार कम हुए हैं।
यद्यपि, 2009 में, सर्वोच्च न्यायालय में, न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 26 से बढ़ाकर 31 कर दी गई की, लेकिन फिर भी 2013 तक लंबित मामलों का आंकड़ा धीरे-धीरे 50,000 से बढ़कर 66,000 हो गया। इसके बाद 2014 में लंबित मामलों की संख्या कुछ काम होकर 63,000 हो गई। टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2015 में यह संख्या घटकर 59,000 हो गई। हालाँकि, अगले वर्ष 63,000 मामलों के साथ इसमें पुनः वृद्धि देखी गई। मामले प्रबंधन में सूचना प्रौद्योगिकी के एकीकरण के माध्यम से कागज रहित अदालतों के विचार की शुरुआत होने पर, लंबित मामलों की संख्या में तेज़ी से कमी आई और यह 56,000 तक आ गई। हालांकि, 2018 में, लंबित मामलों की संख्या फिर से बढ़कर 57,000 हो गई।
इसके बाद, एक संसदीय अधिनियम के माध्यम से, 2019 में, न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या को 31 से बढ़ाकर 34 कर दिया गया। इस वृद्धि के बावजूद, यह लंबित संख्या बढ़कर 60,000 मामलों तक पहुंच गई। एक रिपोर्ट के अनुसार, कोविड-19 महामारी ने न्याय वितरण प्रणाली को गंभीर रूप से बाधित कर दिया, कार्यवाही को वस्तुतः फिर से शुरू करने से पहले अस्थायी रूप से रोक दिया, जिससे मामले लंबित मामले फिर से बढ़कर 65,000 हो गए। 2021 में, यह लंबित कार्य, 70,000 मामलों तक पहुंच गया और 2022 के अंत तक, 79,000 तक पहुंच गया।
मामलों के वर्गीकरण और समूहीकरण में सुधार के लिए लागू किए गए विभिन्न प्रौद्योगिकी-संचालित उपायों के बावजूद, पिछले दो वर्षों में, लंबित मामले लगभग 83,000 तक बढ़ गए हैं, जो अब तक का सबसे उच्च रिकॉर्ड है। वर्तमान में लंबित 82,831 मामलों में से 27,604 (33%) मामले एक वर्ष से भी कम पुराने हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस साल सर्वोच्च न्यायालय में 38,995 नए मामले दाखिल हुए और 37,158 मामलों का निपटारा किया गया, निपटान की दर लगभग नए मामले दाखिल होने की दर के बराबर रही।
भारत के उच्च न्यायालयों में लंबित अदालती मामलों की वर्तमान स्थिति:
इस वर्ष (सितंबर तक), भारत के विभिन्न उच्च न्यायालयों में लगभग 62 मामले लंबित हैं, जो 30 वर्ष से अधिक पुराने हैं, जिनमें 1952 से निपटान की प्रतीक्षा में तीन मामले भी शामिल हैं। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, उच्च न्यायालयों में 1954 से चार और 1955 से नौ मामले लंबित हैं। 1952 से लंबित तीन मामलों में से दो कलकत्ता उच्च न्यायालय में और एक मद्रास उच्च न्यायालय में है।
उच्च न्यायालयों में लंबित 58.59 लाख मामलों में 42.64 लाख दीवानी के और 15.94 लाख आपराधिक हैं। राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (National Judicial Data Grid (NJDG)) के अनुसार, उच्च न्यायालयों में लगभग 2.45 लाख ऐसे मामले लंबित हैं जो 20 से 30 वर्ष पुराने हैं। उल्लिखित लंबित मामलों के विश्लेषण से पता चलता है कि मुकदमेबाजी में शामिल पक्ष या तो उपस्थित नहीं हैं या मामले को आगे बढ़ाने में रुचि नहीं रखते हैं। उन्होंने कहा कि ऐसे 25 से 30 फ़ीसदी मामले एक बार में ही बंद किये जा सकते हैं। इस संबंध में कुछ उच्च न्यायालयों ने प्रभावी कदम भी उठाए हैं। ज़िला अदालतों, उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय सहित विभिन्न अदालतों में पांच करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं।
भारत में अदालती मामलों के लंबित होने के कारण:
न्यायाधीशों और गैर-न्यायिक कर्मचारियों की कमी: 2022 में, भारत में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या प्रति दस लाख जनसंख्या पर 21.03 न्यायाधीश थी। सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की पूर्ण स्वीकृत संख्या 34, उच्च न्यायालयों में 1108 और ज़िला अदालतों में 24,631 थी। भारत के विधि आयोग और न्यायमूर्ति वी.एस. मलिमथ समिति ने पिछले दिनों न्यायाधीशों की संख्या प्रति दस लाख जनसंख्या पर 50 न्यायाधीश या प्रति न्यायाधीश 20,000 जनसंख्या तक बढ़ाने की सिफारिश की थी। भारत में प्रति 10 लाख जनसंख्या पर न्यायाधीशों एवं गैर न्यायिक कर्मचारियों की संख्या बेहद कम है जिसके कारण अदालती मामले लंबित होते जाते हैं।
रिक्त न्यायिक पद: न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या के बावजूद, भारत में अदालतें अक्सर रिक्त पदों के कारण पूरी क्षमता से काम नहीं करती हैं। 2022 में, भारत में प्रति दस लाख जनसंख्या पर 14.4 न्यायाधीश थे, जिसमें 2016 में प्रति दस लाख जनसंख्या पर 13.2 न्यायाधीशों की संख्या में मामूली बदलाव आया। इसकी तुलना में, यूरोप में प्रति दस लाख लोगों पर 210 न्यायाधीश हैं और संयुक्त राज्य अमेरिका में 150 न्यायाधीश हैं। गैर-न्यायिक कर्मचारियों के पद भी खाली हैं, कुछ राज्यों में 2018-19 में रिक्ति दर 25% तक थी। न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति, इस्तीफ़े, निधन या पदोन्नति के कारण समय-समय पर अदालतों में रिक्तियाँ उत्पन्न होती रहती हैं। वहीं, जजों की नियुक्ति एक लंबी प्रक्रिया है, जिसके कारण नई नियुक्तियों में समय लगता है और तब तक पद रिक्त बने रहते हैं।
अपर्याप्त निधिकरण: सर्वोच्च न्यायालय को छोड़कर, जो केंद्र सरकार द्वारा वित्त पोषित है, किसी राज्य में उच्च न्यायालय और जिला न्यायालयों के सभी खर्च संबंधित राज्य सरकार द्वारा वित्त पोषित होते हैं। 2018 तक, न्यायपालिका पर होने वाले सभी खर्च का 92% राज्यों द्वारा वहन किया जाता था। इसमें न्यायाधीशों, गैर-न्यायिक कर्मचारियों का वेतन और सभी परिचालन लागत शामिल हैं। दिल्ली को छोड़कर सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा अपने वार्षिक बजट का 1% से कम न्यायपालिका पर आवंटित किया जाता है।इसकी तुलना में, संयुक्त राज्य अमेरिका में वार्षिक बजट का 2% न्यायपालिका पर खर्च किया जाता है। देश में न्यायपालिका की उच्च दक्षता सुनिश्चित करने के लिए न्यायपालिका पर राज्य के खर्च के लिए कोई दिशानिर्देश नहीं है।
बुनियादी ढांचे की कमी: ज़िला या निचली अदालतें बुनियादी ढांचे की कमी से ग्रस्त हैं। 2022 में, 24,631 निचली अदालत के न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या के मुकाबले न्यायिक अधिकारियों के लिए केवल 20,143 कोर्ट हॉल और 17,800 आवासीय इकाइयाँ उपलब्ध थीं। निचली अदालत की केवल 40% इमारतों में पूरी तरह कार्यात्मक शौचालय हैं और कुछ में नियमित सफ़ाई का कोई प्रावधान नहीं है। निचली अदालतें डिजिटल बुनियादी ढांचे, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग रूम और जेलों और अधिकारियों के लिए वीडियो कनेक्टिविटी की कमी से भी पीड़ित हैं। न्यायपालिका के लिए बुनियादी सुविधाओं के विकास का जिम्मा राज्य सरकारों पर है।
कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग: अदालती मामले, दंड और सिविल प्रक्रिया संहिता में वर्णित नियमों के अनुसार चलते हैं। सी आर पी सी (CRPC) और सी पी सी (CPC) की पुरातन होने के कारण आलोचना भी की जाती है। हालाँकि, 1999 और 2002 में सी पी सी में संशोधन किए गए, जिससे सी पी सी में विभिन्न नियमों के लिए 30-90 दिनों की समय सीमा तय की गई और अधिकतम तीन स्थगन की अनुमति दी गई। हालाँकि, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने, 2005 में, इन संशोधनों को उनकी अंतर्निहित शक्तियों का हवाला देते हुए रद्द कर दिया। कार्यवाही में देरी करने के लिए, स्थगन और नियमों का गैर-अनुपालन को उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। वकील असंबंधित मौखिक तर्कों के साथ अनियंत्रित रूप से बहस करते हैं और समय बर्बाद करने और कार्यवाही में देरी करने के लिए अव्यवहारिक, लंबी लिखित दलीलें प्रस्तुत करते हैं।
अप्रभावी कार्यान्वयन और कानून: जो विवाद और शिकायतें उत्पन्न होती हैं, उनका समाधान, कार्यकारी सरकार द्वारा पीड़ित व्यक्ति की संतुष्टि के अनुसार और निष्पक्ष तरीके से नहीं किया जाता है। विधायिका द्वारा पारित कानूनों में कमियाँ और खामियाँ हो सकती हैं। विधायिका और कार्यकारी प्रशासन की अप्रभावीता के कारण, अदालतों में मामलों की बाढ़ आ गई है। न्यायाधीशों द्वारा अक्सर शिकायत भी की जाती है कि कार्यपालिका और विधायिका द्वारा अपनी पूरी क्षमता का उपयोग नहीं किया जाता, जिससे अदालतों पर बोझ बढ़ रहा है।
भारत की न्याय वितरण प्रणाली पर लंबित मामलों का प्रभाव:
भारतीय अदालतों में लंबित मामलों का, न्याय वितरण प्रणाली पर दूरगामी और हानिकारक प्रभाव पड़ता है, जिसे निम्न बिंदुओं में समझा जा सकता है:
1.) विलंबित न्याय:
लंबी कानूनी कार्यवाही से न्याय में देरी होती है, जो कानूनी उपचार प्राप्त करने के उद्देश्य को विफल कर सकती है। इस देरी के कारण, अक्सर व्यक्तियों और व्यवसायों को नुकसान होता है।
2.) कानून एवं न्याय के प्रति विश्वास में कमी: लंबे समय तक चलने वाले मामले, न्यायिक प्रणाली में जनता के विश्वास को खत्म कर देते हैं, जिससे इसकी प्रभावशीलता में निराशा और अविश्वास पैदा होता है। लोग विवादों को सुलझाने के लिए अन्य तरीकों का सहारा ले सकते हैं।
3.) अवरुद्ध प्रणाली: पुराने लंबे चल रहे मामलों के कारण, अदालतों की नए मामलों पर ध्यान केंद्रित करने की क्षमता बाधित होती है, जिससे देरी का चक्र बना रहता है। इससे एक दुष्चक्र शुरू हो जाता है जहां मौजूदा कतार में नए मामले जुड़ते चले जाते हैं।

संदर्भ
https://tinyurl.com/3wtdz43z
https://tinyurl.com/mpxhsz66
https://tinyurl.com/mryevxf8

चित्र संदर्भ

1. भारत के सर्वोच्च न्यायालय के प्रांगण को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. सर्वोच्च न्यायालय के बाहर मौजूद वकीलों की भीड़ को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. चेन्नई सेंट्रल जेल को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. पंजाब यूनिवर्सिटी में चल रही एक मूट कोर्ट प्रतियोगिता के दृश्य को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)


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