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भारत में सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक विरासत स्थलों के पुरातात्विक अनुसंधान और संरक्षण का कार्य एक सरकारी एजेंसी 'भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण' (Archaeological Survey of India (ASI) द्वारा किया जाता है। इसकी स्थापना 1861 में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान हुई थी और तब से इसने भारत की समृद्ध पुरातात्विक विरासत के अध्ययन और संरक्षण में केंद्रीय भूमिका निभाई है। अब यह विभाग संस्कृति मंत्रालय (Ministry of Culture) के तहत संचालित होता है। तो आइए आज 'भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण' के विषय में विस्तार से जानते हैं। इसके साथ ही “चित्रित धूसर मृदभांड संस्कृति” के बारे में भी जानेंगे, कि यह इतिहास को समझने में कैसे पुरातत्वविदों की मदद कर रही है? और अपने जौनपुर से कुछ ही दूरी पर स्थित सारनाथ पुरातत्व स्थल का भी दौरा करेंगे।
अलेक्जेंडर कनिंघम Alexander Cunningham ने 1861 में एएसआई का गठन किया और इसके पहले महानिदेशक के रूप में कार्य किया। भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास की पहली व्यवस्थित जांच 15 जनवरी 1784 को ब्रिटिश भारतविद विलियम जोन्स (William Jones) द्वारा गठित 'एशियाटिक सोसाइटी' (Asiatic Society) द्वारा की गई थी। कलकत्ता में स्थित इस संगठन द्वारा प्राचीन संस्कृत और फ़ारसी लेखन के अध्ययन को प्रोत्साहित किया गया और 'एशियाटिक रिसर्च' (Asiatic Researches) नामक एक वार्षिक पत्रिका जारी की गई। इसके सदस्य चार्ल्स विल्किंस (Charles Wilkins) द्वारा 1785 में भगवद गीता का पहला अंग्रेजी अनुवाद किया गया। हालाँकि, संगठन की सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि 1837 में जेम्स प्रिंसेप (James Prinsep) द्वारा ब्राह्मी लिपि का गूढ़लेखन थी। अलेक्जेंडर कनिंघम, जेम्स प्रिंसेप के शिष्य थे और उन्हें भी ब्राह्मी लिपि का ज्ञान था। उन्होंने बौद्ध स्मारकों की एक विस्तृत जांच की जो आधी सदी से भी अधिक समय तक चली। कनिंघम ने पूरे भारत में उत्खनन कार्य किया। यद्यपि कनिंघम द्वारा यह सभी उत्खनन कार्य व्यक्तिगत रूप से किए जा रहे थे, उन्होंने पुरातात्विक खुदाई और भारतीय स्मारकों की सुरक्षा की निगरानी के लिए एक स्थायी निकाय की आवश्यकता महसूस की जिसके लिए उन्होंने प्रशासन से सहायता मांगी। 1861 में लॉर्ड कैनिंग (Lord Canning) द्वारा एक कानून पारित किया गया, जिसके तहत 'भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण' की स्थापना की गई। कनिंघम इस संगठन के पहले पुरातत्व सर्वेक्षक थे। हालांकि धन की कमी के कारण सर्वेक्षण कार्य 1865 से 1871 तक अस्थायी रूप से रुका हुआ था, लेकिन भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लॉरेंस (Lord Lawrence) ने इसे 1871 में एक अलग एजेंसी के रूप में स्थापित किया और कनिंघम को सर्वेक्षण के पहले महानिदेशक के रूप में चुना गया।
वर्तमान में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण संस्कृति मंत्रालय से संबंधित संगठन है। वर्तमान में ASI 'प्राचीन स्मारक और पुरातात्विक स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958' (Ancient Monuments and Archaeological Sites and Remains (AMASR ) के प्रावधानों के तहत लगभग 3650 ऐतिहासिक स्मारकों, पुरातात्विक स्थलों और राष्ट्रीय महत्व के अवशेषों की देखरेख करता है।
पुरातात्विक स्थलों की खोज के दौरान ASI द्वारा 'चित्रित धूसर मृदभांड संस्कृति' (Painted Grey Ware Culture) की एक अहम खोज की गई, जिसे मुख्य रूप से 1100-400 ईसा पूर्व से संबंधित माना जाता है, जबकि कुछ स्थल तो ऐसे हैं जो 1400 ईसा पूर्व के हैं। 'चित्रित धूसर मृदभांड संस्कृति' हड़प्पा संस्कृति के बाद की सभ्यता से जुड़ी सामग्री है जो मुख्य रूप से गंगा के मैदानों में पाई जाती थी। इसका नाम इस क्षेत्र में पाए जाने वाले बारीक चित्रित धूसर मिट्टी के बर्तनों के नाम पर रखा गया था। भारत में, वर्तमान में हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और राजस्थान राज्यों में 100 से अधिक चित्रित धूसर मृदभांड स्थल हैं, साथ ही कुमाऊँ, गढ़वाल और उज्जैन क्षेत्रों से भी कुछ नमूने प्राप्त हुए हैं। हमारे राज्य उत्तर प्रदेश के हस्तिनापुर, आलमगीरपुर, अहिच्छत्र, अल्लाहपुर, मथुरा, कंपिल, कौशांबी और श्रावस्ती महत्वपूर्ण चित्रित धूसर मृदभांड स्थलों में शामिल हैं।
चित्रित धूसर मृदभांड अच्छी गुणवत्ता वाली मिट्टी से बने होते थे और उनकी भीतरी और बाहरी सतह चिकनी, समान रंग की होती थी, जिससे उस काल में परिष्कृत तापन तकनीक की मौज़ूदगी के संकेत मिलते हैं। बर्तनों पर चित्रित डिज़ाइन मुख्य रूप से ज्यामितीय थे, जिनमें रेखाएं, बिंदु, डैश, वृत्त, सर्पिल, संकेंद्रित वृत्त और आयत जैसे रूपांकन शामिल थे। इसके अलावा इन पर स्वस्तिक और सिग्मा जैसे प्रतीक भी पाए गए। कुछ स्थलों पर, मिट्टी के बर्तनों को मुद्रांकित या उकेरे गए डिज़ाइनों से सजाया गया था। वस्तुओं के आकार और रूप और अपेक्षाकृत कम उपलब्धता से पुरातत्वविद यह निष्कर्ष भी निकालते हैं कि चित्रित धूसर मृदभांड संभवतः धनी समूहों द्वारा उपयोग किए जाते होंगे।
संस्कृति से जुड़ी जो सबसे आम वस्तुएं प्राप्त हुई हैं, उनमें छोटे और मध्यम आकार के कटोरे, बर्तन और प्याले शामिल हैं। अन्य कलाकृतियों में कुदाल, दरांती और हल जैसे लोहे के उपकरण, टेराकोटा मूर्तियाँ, चूड़ियाँ, तांबे की वस्तुएँ; अर्ध-कीमती पत्थर जैसे इंद्रगोप, क्रिस्टल, गोमेद, जैस्पर और मोती, हड्डी की सुइयां; और हाथी दांत की वस्तुएं जैसे कंघी, बटन, तीर और दर्पण के हत्थे शामिल हैं।
एक ऐसा ही पुरातात्विक स्थल हमारे जौनपुर से कुछ ही दूर स्थित सारनाथ है, जिसका प्राचीन भारत के इतिहास में भी बहुत महत्व है। यह वह स्थान है, जहां भगवान बुद्ध ने बोधगया में ज्ञान प्राप्त करने के बाद अपने पांच शिष्यों को पहला उपदेश दिया था। यह जैन तीर्थंकर भगवान श्रेयांस नाथ का जन्मस्थान भी है। यहीं से उत्खनन के दौरान अशोक स्तंभ की खोज हुई थी, जिसे हमारे राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में अपनाया गया है। सारनाथ के उत्खनन स्थलों में तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से 12वीं शताब्दी ईसवी तक के मठों, स्तूपों, मंदिरों, शिलालेखों, मूर्तियों और अन्य पुरावशेषों का प्रभावशाली संग्रह शामिल है।
यहां का पहला प्रमुख आकर्षण धर्मराजिका स्तूप है। यह ईंटों से बना एक बड़ा गोलाकार आधार है, जिसकी ऊपरी सतह पूरी तरह से सपाट है। ईंटों की यह गोलाकार आधार संरचना धर्मराजिका स्तूप का मात्र एक अवशेष हिस्सा है। धर्मराजिका स्तूप का निर्माण सम्राट अशोक द्वारा करवाया गया था। यह मूल रूप से एक बहुत छोटा स्तूप था, लेकिन बाद में इसकी संरचना में अन्य हिस्से जोड़े गए और यह ईंटों की एक विशाल, भव्य संरचना बन गई।
धर्मराजिका स्तूप से आगे बढ़ने पर, एक छोटा सा घेरा है जिसमें एक प्रसिद्ध विशालकाय कठघरा है। चुनार के बलुआ पत्थर से बने इस कठघरे की खोज 1904-05 में खुदाई के दौरान हुई थी। इस वर्गाकार कठघरे के प्रत्येक किनारे की लंबाई 2.54 मीटर और ऊंचाई 1.45 मीटर है। इसमें लगभग तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के दो शिलालेख हैं जिनमें सर्वास्तिवादिन संप्रदाय के शिक्षकों का उल्लेख मिलता है।
इसके आगे अशोक द्वारा निर्मित कई स्तंभों में से सबसे प्रसिद्ध 'अशोक स्तंभ' के अवशेष हैं। 250 ईसा पूर्व में निर्मित, इस स्तंभ के शीर्ष पर मूल रूप से चार शेरों की आकृति थी; हमारा राष्ट्रीय प्रतीक इस स्तंभ से ही अपनाया गया है। अशोक स्तंभ के चार शेर शक्ति, साहस, आत्मविश्वास और गौरव के प्रतीक हैं। स्तंभ टूटी हुई अवस्था में है, लेकिन चार शेरों का प्रतीक सारनाथ के संग्रहालय में सुरक्षित है। इस स्तंभ के आधार पर मौजूद पहिये को हमारे देश के राष्ट्रीय ध्वज "तिरंगा" के केंद्र पर मुदित किया गया है। इसके आगे 'मूलगंध कुटी' स्थल है, जो एक विशाल मंदिर का अवशेष है। माना जाता है कि भगवान बुद्ध यहीं ध्यान में बैठे थे। अवशेष के रूप में इस संरचना की केवल दीवारें मौजूद हैं। मूलगंध कुटी के आसपास के क्षेत्र में छोटे-छोटे स्तूपों, बुद्ध विहारों और एक छोटे मंदिर के कई खंडहर हैं। इन छोटे स्तूपों को मन्नत स्तूप के नाम से जाना जाता है। ये मूल रूप से विभिन्न मान्यता प्राप्त बौद्ध गुरुओं या गणमान्य व्यक्तियों की यात्राओं की स्मृति में बनाए गए हैं।
इसके आगे सारनाथ का सबसे प्रसिद्ध स्थल 'धमेख स्तूप' है। माना जाता है कि इस स्तूप का प्रारंभिक स्थल 249 ईसा पूर्व में अशोक द्वारा बनाया गया था, लेकिन 500 ईसवी में गुप्त राजवंश के दौरान इसके स्थान पर वर्तमान स्तूप का निर्माण किया गया था। यह स्तूप बेलनाकार आकार में है, जो ईंटों और पत्थरों से बना है। इसकी ऊंचाई 43.6 मीटर है। स्तूप की दीवारों पर मनुष्यों और पक्षियों की उत्कृष्ट नक्काशीदार आकृतियों के साथ-साथ ब्राह्मी लिपि में शिलालेख मौजूद हैं।
'भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण' द्वारा वर्ष 2014 में सारनाथ में खुदाई शुरू की गयी थी, जिसमें कथित तौर पर ASI को 395 ईसा पूर्व के C14 कार्बन नमूने मिले हैं। इस स्थल से बुद्ध की कई मूर्तियों के साथ-साथ अशोक के समय की ब्राह्मी लिपि के अक्षरों के साथ मौर्य काल के पत्थर भी मिले हैं। यहाँ से कुछ साक्ष्य तो ऐसे प्राप्त हुए हैं जिनकी तिथि सम्राट अशोक के समय से पहले की है। ASI द्वारा इन नमूनों को विश्लेषण के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका भेजा गया। मियामी, फ्लोरिडा की बीटा लैब द्वारा भी पुष्टि की गई है कि इन नमूनों में से एक 395 से 370 ईसा पूर्व का है।
ज़िला बरेली के अहिच्छत्र गांव में उत्खनन के दौरान चित्रित धूसर मृदभांड खोजे गए थे। 'चित्रित धूसर मृदभांड (मिट्टी के बर्तन)' (Painted Grey Ware) अपने नरम भूरे रंग और बारीक चित्रित ज्यामितीय और पुष्प रूपांकनों के लिए जाने जाते हैं। ये मिट्टी के बर्तन उच्च गुणवत्ता की मिट्टी का उपयोग करके, पकाकर बनाए गए थे, जो प्राचीन काल के उच्च स्तर के शिल्प कौशल और तकनीकी ज्ञान को दर्शाते हैं। इन बर्तनों को इन्हें बनाने वाले समाजों की सांस्कृतिक और तकनीकी प्रगति को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण पुरातात्विक साक्ष्य माना जाता है। भारत के उत्तरी भागों में विभिन्न पुरातात्विक स्थलों पर इनकी व्यापक खोज हुई है, जिससे लौह युग के दौरान एक व्यापक संस्कृति की उपस्थिति के संकेत मिलते हैं। साथ ही इनकी एकरूपता और गुणवत्ता इसका उपयोग करने वाले प्राचीन समुदायों के बीच सामाजिक संगठन और बातचीत के एक परिष्कृत स्तर का संकेत देती है। लगभग 1100-800 ईसा पूर्व के पुरातात्विक स्थलों पर खुदाई के दौरान प्राप्त इन बर्तनों से इतिहासकारों और पुरातत्वविदों को हड़प्पा युग की समाप्ति के बाद भी निरंतर सांस्कृतिक और तकनीकी विकास की अवधि के संकेत मिलते हैं।
संदर्भ
https://tinyurl.com/snd2p72j
https://tinyurl.com/yvrf6dmx
https://tinyurl.com/2mpe32cy
https://tinyurl.com/a8snww8y
https://tinyurl.com/3msd5cwc
चित्र संदर्भ
1. 1000-600 ईसा पूर्व के धूसर मृदभांड को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. अलेक्जेंडर कनिंघम को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा जारी भारत के विरासत स्मारकों के लिए एक पुराने टिकट को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. रूपनगर, पंजाब से प्राप्त चित्रित भूरे मृदभांड के टुकड़े (दाहिने) और हड़प्पाकालीन लाल मिट्टी के बर्तन (बाएं) को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. सारनाथ को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
6. अशोक स्तंभ' के अवशेष को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
7. धर्मराजिका स्तूप को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
8. ब्रिटिश भारत में सारनाथ में धामेक स्तूप को संदर्भित करता एक चित्रण (PICRYL)
9. हस्तिनापुर और राधाकुंड (उत्तर प्रदेश) तथा पानीपत और तिलपत (हरियाणा) से प्राप्त लगभग 1000 ई.पू. के चित्रित भूरे बर्तन के टुकड़ों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
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