जौनपुर - शिराज़-ए-हिंद












जौनपुरवासियों, जानिए भदोही की उन कालीनों की कहानी जो धागों में बुनती हैं इतिहास
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06-08-2025 09:27 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों, हमारा शहर जितना मशहूर है अपनी ऐतिहासिक इमारतों, शर्की स्थापत्य और ख़ुशबूदार इत्र के लिए, उतना ही गहराई से जुड़ा है पूर्वांचल की अन्य कारीगरी परंपराओं से भी। इन्हीं में एक है भदोही का कालीन उद्योग, जहाँ धागे केवल बुनते नहीं, बल्कि एक पूरी सभ्यता की कहानी कह जाते हैं। ये कालीनें उस मेहनतकश हाथों की कला हैं जो पीढ़ियों से एक ही परंपरा को जीवित रखे हुए हैं। जौनपुर के कई कारीगर और व्यापारी वर्षों से इस उद्योग का हिस्सा रहे हैं, कुछ बुनाई में तो कुछ व्यापार के ज़रिए। यहां के व्यवसायिक परिवारों ने भदोही की कालीनों को देश-विदेश के बाज़ारों तक पहुँचाने में अहम भूमिका निभाई है। यही नहीं, हमारे स्थानीय बाज़ारों में इन हस्तनिर्मित गलीचों की मांग लगातार बनी रहती है, जो हमारी सांस्कृतिक पसंद का भी हिस्सा हैं। इस लेख में हम भदोही के कालीन उद्योग से जुड़े ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक पहलुओं को करीब से समझने की कोशिश करेंगे, और जौनपुर के जुड़ाव को भी।
इस लेख में हम भदोही के कालीन उद्योग से जुड़े पाँच प्रमुख पहलुओं पर गहराई से चर्चा करेंगे। पहले, हम इसके ऐतिहासिक विकास को समझेंगे कि कैसे यह उद्योग मुगल काल से आकार लेता हुआ आज तक जीवित है। दूसरे, हम देखेंगे कि भदोही को मिला जीआई टैग (GI Tag) किस प्रकार इसे अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाता है। तीसरे, इसका स्थानीय समाज और अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ा है, इस पर विचार करेंगे। चौथे, हम भदोही में बनने वाले प्रमुख कालीन प्रकारों की शिल्पकला को समझेंगे। और अंत में, हम इस उद्योग के वैश्विक बाज़ार और निर्यात की स्थिति का विश्लेषण करेंगे। आइए, इन बारीकियों के माध्यम से इस समृद्ध परंपरा की परतें खोलते हैं।

भदोही कालीन उद्योग का ऐतिहासिक विकास
भदोही का कालीन उद्योग सिर्फ एक व्यवसाय नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक परंपरा है जो सदियों से पूर्वांचल की मिट्टी में सांस लेती आ रही है। इसकी शुरुआत 16वीं सदी में मानी जाती है, जब मुगल सम्राट अकबर और जहाँगीर ने भारत में फारसी शैली के गलीचों को राजकीय संरक्षण देना शुरू किया। उनके शासनकाल में दरबारों, मस्जिदों और राजमहलों के लिए विशिष्ट डिज़ाइनों (designs) वाले कालीन बनाए जाते थे। इस शाही कला को भारत में सबसे पहले आगरा, लाहौर और दिल्ली में विकसित किया गया, लेकिन समय के साथ इसका केंद्र भदोही बन गया। 1857 की क्रांति के बाद जब दिल्ली और आगरा जैसे मुगल केंद्रों में अस्थिरता फैली, तो वहाँ के कुशल बुनकरों ने सुरक्षित और संभावनाशील क्षेत्रों की ओर रुख किया। भदोही, मिर्ज़ापुर और जौनपुर जैसे क्षेत्रों ने उन्हें न केवल शरण दी, बल्कि एक नया भविष्य भी दिया। इसी समय ब्रिटिश व्यापारी ब्राउनफोर्ड (Brownford) ने यहाँ ‘ई. हिल एंड कंपनी’ (E. Hill & Company) की नींव रखी, जिसने इस उद्योग को संगठित किया और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार से जोड़ा। जौनपुर के कई व्यापारी परिवारों ने भी इस परिवर्तन को समझा और कालीन कारोबार में गहरी दिलचस्पी ली, जो आज भी देखा जा सकता है।

भदोही को भौगोलिक संकेतक (GI) टैग प्राप्त होना
2009 में भदोही कालीन को भारत सरकार द्वारा GI (Geographical Indication) टैग से सम्मानित किया गया — यह न सिर्फ एक कानूनी मान्यता है, बल्कि एक सांस्कृतिक मुहर भी है। GI टैग यह सुनिश्चित करता है कि किसी क्षेत्र की पारंपरिक कला या उत्पाद को उसकी गुणवत्ता, तकनीक और मौलिकता के आधार पर वैश्विक मंच पर मान्यता मिले। भदोही कालीन के लिए मिला यह टैग सिर्फ भदोही तक सीमित नहीं है, बल्कि मिर्ज़ापुर, वाराणसी, चंदौली और जौनपुर जैसे 9 ज़िलों को भी अपने दायरे में शामिल करता है। इसका सीधा लाभ यह हुआ कि इन क्षेत्रों में बने कालीनों की ब्रांड वैल्यू (brand value) बढ़ी, नकली उत्पादों पर नियंत्रण हुआ, और कारीगरों को उनके काम के लिए सही मूल्य मिलने लगा। जौनपुर के व्यापारियों और ग्राहकों ने इस बदलाव को हाथों-हाथ लिया, जिससे स्थानीय बाज़ार में भी ‘असली भदोही कालीन’ की माँग तेज़ी से बढ़ी।
कालीन उद्योग का सामाजिक और आर्थिक योगदान
भदोही का कालीन उद्योग न केवल भारत के निर्यात आंकड़ों में योगदान देता है, बल्कि यह लाखों परिवारों की आजीविका का भी मूल स्रोत है। अनुमान के अनुसार, लगभग 3.2 मिलियन (million) लोग इस उद्योग से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं, जिनमें से 22 लाख से अधिक ग्रामीण कारीगर हैं। यह अकेला उद्योग पूर्वांचल के सैकड़ों गाँवों में रोज़गार, सम्मान और आत्मनिर्भरता की नींव रखता है। विशेष बात यह है कि यह कला पुरुषों तक सीमित नहीं है, बड़ी संख्या में महिलाएँ भी इस काम में भाग लेती हैं, खासकर कताई, रंगाई और डिज़ाइन के काम में। जौनपुर के शाहगंज, केराकत और बदलापुर जैसे इलाकों में कई घर ऐसे हैं जहाँ पीढ़ियों से कालीन बुनाई एक पारिवारिक पेशा रहा है। इन परिवारों के बच्चे इसी काम के सहारे शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, और वृद्धजन आज भी धागों के साथ अपना अनुभव साझा करते हैं। यह केवल रोज़गार नहीं, बल्कि सामाजिक सशक्तिकरण का भी माध्यम बन चुका है।

भदोही के प्रमुख कालीन प्रकार
भदोही के कालीन अपनी डिज़ाइन और बनावट की विविधता के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं। यहाँ उत्पादित गलीचों में पारंपरिक से लेकर आधुनिक डिज़ाइनों तक की विस्तृत रेंज उपलब्ध है। उदाहरण के लिए, ‘कपास की दरी’ अपने सादेपन और टिकाऊपन के लिए जानी जाती है, जबकि ‘छपरा मिर कालीन’ जटिल फारसी डिज़ाइनों से सज्जित होते हैं। ‘लोरिबाफ्ट’ और ‘इंडो गब्बे’ जैसे डिज़ाइन समकालीन ग्राहकों की पसंद को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं। इन कालीनों की एक खासियत यह भी है कि ये सब हाथ से बुने जाते हैं। यानी हर टुकड़ा एक कलाकार की महीनों की मेहनत और रचनात्मकता का परिणाम होता है। फारसी, अफ़ग़ानी और राजस्थानी प्रभावों से प्रेरित इन डिज़ाइनों को देखकर यह समझा जा सकता है कि कैसे एक धागा भी संस्कृति का वाहक बन सकता है। जौनपुर के कई पारंपरिक घरों में ये कालीन विरासत के रूप में पीढ़ियों तक संभाले जाते हैं।

कालीन उद्योग का वैश्विक निर्यात और बाज़ार
भदोही को 'भारत का कालीन नगर' कहा जाता है और इसका कारण है कि यहाँ के कुल उत्पादित कालीनों का 80-90% हिस्सा विदेशों में निर्यात होता है। अमेरिका (America), ब्रिटेन (Britain), कनाडा (Canada), जर्मनी (Germany) और ऑस्ट्रेलिया (Australia) जैसे देश भदोही के हस्तनिर्मित कालीनों के प्रमुख ग्राहक हैं। इन कालीनों की मांग उच्च वर्ग, होटल श्रृंखलाओं, और आर्ट गैलरीज़ (art galleries) में होती है, जहाँ हस्तकला को विशेष स्थान दिया जाता है। हालाँकि इस उद्योग ने द्वितीय विश्व युद्ध और वैश्विक आर्थिक मंदियों का भी सामना किया, लेकिन 1951 के बाद इसके पुनरुद्धार की कहानी प्रेरणादायक है। भारत सरकार और निजी उद्यमों के सहयोग से यह उद्योग फिर खड़ा हुआ और आज वैश्विक मंच पर भारतीय संस्कृति की पहचान बन चुका है। जौनपुर के व्यापारियों ने भी इसमें भागीदारी निभाई है। कई परिवार आज भी दिल्ली, वाराणसी और भदोही से कालीन मंगवाकर अंतरराज्यीय बिक्री करते हैं। यह केवल व्यापार नहीं, बल्कि सांस्कृतिक सेतु बन चुका है जो भारत को विश्व से जोड़ता है।
संदर्भ-
जौनपुर जानिए! मायोटोनिक बकरियाँ और उनका डर पर अजीब व्यवहार
व्यवहारिक
By Behaviour
05-08-2025 09:24 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियो, हमारी धरती पर सिर्फ इंसान ही नहीं, जानवर भी ऐसे जज़्बात और प्रतिक्रियाएं दिखाते हैं जो हमें चौंका सकते हैं। अक्सर हम सोचते हैं कि डर, चिंता या तनाव जैसी भावनाएँ केवल इंसानों में पाई जाती हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि कुछ जानवर ऐसे भी होते हैं जो डर के कारण बेहोश-से हो जाते हैं? और कुछ तो ऐसे हैं जो तनाव से निपटने के लिए नाचते हैं, गाते हैं या अजीबोगरीब तरीके अपनाते हैं। यह सुनकर भले ही अचरज हो, लेकिन यह पूरी तरह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध है। आज हम जानेंगे उन अद्भुत जानवरों के बारे में, जिनका व्यवहार न केवल रोचक है, बल्कि हमें तनाव, अनुकूलन और अस्तित्व की जटिलता के बारे में सोचने पर मजबूर कर देता है।
इस लेख में हम चार प्रमुख विषयों के ज़रिए जानवरों के अनोखे व्यवहारों को समझने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले, हम मायोटोनिक या 'फेंटिंग बकरियों' (Myotonic or Fainting Goats) के बारे में जानेंगे, जो डर के कारण बेहोश-सी हो जाती हैं। फिर, हम समझेंगे कि यह प्रक्रिया वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कैसे काम करती है और इनके शरीर में ऐसी क्या विशेषता है जो उन्हें ऐसा बनाने के लिए ज़िम्मेदार है। इसके बाद, हम अन्य कुछ जानवरों की बात करेंगे, जो तनाव या खतरे की स्थिति में ऐसे व्यवहार करते हैं जो चौंकाने वाले हैं। अंत में, हम कुछ बेहद अनोखे जीवों के व्यवहारों पर नज़र डालेंगे, मछलियाँ जो चलती हैं, चूहे जो गाते हैं और नेवले जो नाचते हैं।
मायोटोनिक (फेंटिंग) बकरियों का परिचय और उनका विशिष्ट व्यवहार
मायोटोनिक बकरियाँ (myotonic goat), जिन्हें टेनेसी फेंटिंग गोट्स (Tennessee Fainting goat) के नाम से भी जाना जाता है, एक अनोखी अमेरिकी नस्ल की बकरियाँ हैं, जो अपने विचित्र और रोचक व्यवहार के कारण पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बन चुकी हैं। जब ये बकरियाँ डरती हैं, अचानक कोई ज़ोर की आवाज़ सुनती हैं या किसी उत्साहित करने वाली स्थिति का सामना करती हैं, तो ये कुछ क्षणों के लिए ऐसी स्थिति में पहुँच जाती हैं जिसमें इनकी मांसपेशियाँ अकड़ जाती हैं और वे अचानक गिर जाती हैं। यह प्रक्रिया महज़ 10 से 20 सेकंड तक चलती है, लेकिन देखने वालों के लिए यह दृश्य हैरत और कौतूहल से भरा होता है।
इन बकरियों की शारीरिक बनावट भी उन्हें खास बनाती है। इनका चेहरा हल्का अंदर की ओर झुका हुआ होता है और माथा व आँखें कुछ उभरे हुए दिखते हैं। इनके कान मध्यम आकार के होते हैं और अधिकांशत: क्षैतिज दिशा में फैले रहते हैं, जो इन्हें एक अलग ही पहचान देते हैं। इनका कोट यानी बालों की परत बहुत ही विविध हो सकती है, कुछ के बाल छोटे, चमकदार और चिकने होते हैं, जबकि कुछ के बाल लंबे और रेशेदार होते हैं, जो उन्हें मौसम के प्रतिकूल प्रभावों से बचाने में मदद करते हैं।

तनाव या डर की स्थिति में बकरियों की मांसपेशियाँ क्यों अकड़ जाती हैं?
मायोटोनिक बकरियों (myotonic goat) का बेहोश-सा हो जाना दरअसल एक अनुवांशिक स्थिति के कारण होता है, जिसे मायोटोनिया कॉन्जेनिटा (Myotonia congenita) कहा जाता है। यह एक न्यूरोमस्क्युलर (neuromuscular) विकार है, जिसमें बकरी की कंकाल मांसपेशियाँ, यानी शरीर को गति देने वाली प्रमुख मांसपेशियाँ, किसी उत्तेजना या संकुचन के बाद, तुरंत आराम की स्थिति में नहीं लौट पातीं। इसकी वजह से मांसपेशियाँ थोड़े समय के लिए अकड़ जाती हैं, जिससे बकरी स्थिर हो जाती है या गिर जाती है। यह स्थिति दरअसल एक प्रकार की लड़ो या भागो (fight or flight) प्रतिक्रिया का विकृत रूप है। आमतौर पर किसी डरावनी स्थिति में जानवर या तो भागते हैं या मुकाबला करते हैं, लेकिन मायोटोनिक बकरियों का शरीर जवाब देने की बजाय कुछ पलों के लिए थम-सा जाता है। हालाँकि यह दिलचस्प है कि इन बकरियों की चेतना बनी रहती है, वे पूरी तरह होश में होती हैं और गिरने के बाद कुछ ही सेकंड में सामान्य हो जाती हैं।

पशु जगत के अन्य जीवों के तनाव-निवारण के अनोखे व्यवहार
तनाव से निपटने के लिए जानवरों ने प्रकृति की पाठशाला में जो तरीके सीखे हैं, वे न केवल विविध हैं, बल्कि कई बार कल्पना से भी परे लगते हैं। जब जानवर किसी अत्यंत डरावनी या जानलेवा स्थिति का सामना करते हैं, तो उनके पास सीमित समय और संसाधन होते हैं, ऐसे में वे कुछ बेहद अनूठे, अजीब और चौंकाने वाले व्यवहार दिखाते हैं।
मेंढक, जब उल्टा किया जाता है, तो टॉनिक इम्मोबिलिटी (Tonic Immobility) में चले जाते हैं। यह एक रक्षा तंत्र है, जिसमें वे बेहोश जैसे दिखने लगते हैं। उनके हाथ-पैर क्रॉस (cross) हो जाते हैं और शरीर बिल्कुल स्थिर हो जाता है, मानो वे मौत को स्वीकार कर चुके हों। यह शिकारी को भ्रम में डाल देता है।
अपॉसम (opossum), एक छोटा सा स्तनधारी जीव, डर के समय अपना मुँह खोलता है, अत्यधिक लार बहाता है और उसकी पूँछ से एक दुर्गंधयुक्त तरल बाहर आता है। इससे शिकार करने वाला जानवर यह समझता है कि वह अपॉसम मर चुका है या किसी बीमारी से ग्रसित है, और उसे छोड़ देता है।
एफिड् (Aphid), छोटे कीट होते हैं जो संकट महसूस होने पर 'अलार्म फेरोमोन' (alarm pheromone) छोड़ते हैं। एक प्रकार की गंध जो उनके साथियों को खतरे की सूचना देती है। लेकिन इनका कमाल यहीं नहीं रुकता। यदि कोई एफिड बच जाता है, तो अगली पीढ़ी में पैदा होने वाले एफिड् के पंख निकल आते हैं, जिससे वे भविष्य में उड़कर ख़तरों से दूर जा सकें।
अनोखे व्यवहार वाले जीव: उड़ने वाले मेंढक से लेकर गाने वाले चूहों तक
प्रकृति ने कई जीवों को ऐसे गुण दिए हैं जो हमें विस्मित कर देते हैं।
- मडस्किपर (Mudskipper), एक मछली है जो ज़मीन पर चलती है और हवा में साँस ले सकती है।
- ग्लाइडिंग लीफ़ फ्रॉग (Gliding Leaf Frog), ऊँचे पेड़ों से कूदते हुए अपने पैराशूट जैसे पैरों की मदद से नीचे उतरता है।
- पेंगुइन (Penguin), एक पक्षी है जो तैर सकता है, लेकिन उड़ नहीं सकता।
- ऑक्टोपस (Octopus), ज़मीन पर भी चल सकता है और अलग-अलग पोखरों में केकड़ों की तलाश में घूमता है।
- चूहे, जिनकी गाने की आवाज़ इतनी हाई-फ्रीक्वेंसी (high-frequency) होती है कि इंसान सुन नहीं सकता।
संदर्भ-
जौनपुरवासियो, क्या आपके बगीचे में भी गूंज सकती है वार्बलर की मधुर चहचहाहट?
पंछीयाँ
Birds
04-08-2025 09:24 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियो, अगर आप भी अपनी सुबह की चाय चहचहाहट से सजाना चाहते हैं या अपने बगीचे को रंग-बिरंगी, सुरीली चिरैयों से भर देना चाहते हैं, तो आज का लेख आपके लिए ही है। गोधूलि की शांत लहरों के बीच, जब जौनपुर की हवाएं धीमे-धीमे बहती हैं, तो उस समय इन हल्के हरे और चमकीले वार्बलर (Warbler) पक्षियों की मधुर आवाज़ें एक अलग ही सुकून देती हैं। ये चटक चिरैयाँ हमारे बगीचों में कीट नियंत्रण से लेकर वातावरण को सुंदर बनाने तक, कई तरह से लाभकारी हैं। लेकिन इन्हें अपने बगीचे में आमंत्रित करने के लिए आपको कुछ खास बातें जाननी होंगी।
इस लेख में हम सबसे पहले जानेंगे कि वार्बलर पक्षियों की पहचान कैसे की जाती है और ये सामान्य चिड़ियों से कैसे अलग होते हैं। फिर हम देखेंगे कि हरी गवैया और हल्की हरी गवैया के बीच क्या अंतर है और ये कैसे भारत में लंबी दूरी तय कर के हमारे पास आती हैं। इसके बाद, हम विस्तार से जानेंगे कि आप अपने बगीचे को इन चटक चिरैयों के लिए कैसे आकर्षक बना सकते हैं – भोजन, पानी, आश्रय और घोंसले की सुविधाओं द्वारा। हम कुछ अतिरिक्त तकनीकों पर भी चर्चा करेंगे जो वार्बलरों को सुरक्षित और नियमित आगंतुक बनाने में सहायक हैं। और अंत में, हम इस बात पर विचार करेंगे कि कैसे बढ़ती गर्मी और जल संकट इन पक्षियों के अस्तित्व के लिए खतरा बनते जा रहे हैं, और हमें क्या करना चाहिए।
भारतीय वार्बलर पक्षियों की पहचान और उनकी मुख्य विशेषताएँ
भारत में पाए जाने वाले वार्बलर, जिन्हें स्थानीय बोली में 'चटक चिरैयां' कहा जाता है, देखने में भले ही छोटे हों, लेकिन इनके रंग, चहचहाहट और व्यवहार में गजब की विविधता पाई जाती है। इनकी पहचान तीन आगे और एक पीछे की ओर मुड़ी हुई उंगलियों से होती है, जो इन्हें पेड़ों की शाखाओं पर सहजता से बैठने की सुविधा देती है। इनके गीत कई बार त्रिसिलाबिक (trisyllabic) या द्विसिलाबिक (bisyllabic) होते हैं, यानी तीन या दो अक्षरों वाले स्वर जिनका उपयोग ये अपने क्षेत्र की रक्षा और घुसपैठियों को चेतावनी देने में करते हैं। वार्बलर मुख्यतः कीटभक्षी होते हैं, और प्राकृतिक कीट नियंत्रण में इनकी भूमिका बगीचों और खेतों के लिए अत्यंत लाभदायक है।
प्रजनन काल के दौरान नर और मादा एक साथ रहते हैं और मिलकर बच्चों का पालन करते हैं, लेकिन जैसे ही प्रवास का समय आता है, वे अपने-अपने इलाकों में बंट जाते हैं और आक्रामक प्रादेशिक व्यवहार अपनाते हैं। जौनपुर जैसे हरियाली और जल स्रोतों से युक्त क्षेत्रों में, यदि कोई व्यक्ति इन्हें आकर्षित करना चाहता है, तो उनके व्यवहार और जीवनशैली की सूक्ष्म समझ आवश्यक हो जाती है। यह न केवल प्रकृति प्रेम को प्रोत्साहित करता है, बल्कि पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखने की दिशा में भी एक प्रेरक कदम है।

हरी गवैया और हल्की हरी गवैया: पहचान में सूक्ष्म अंतर और प्रवासी व्यवहार
भारत में पाए जाने वाले वार्बलर पक्षियों में हरी गवैया (Phylloscopus nitidus) और हल्की हरी गवैया (Phylloscopus trochiloides) दो प्रमुख प्रजातियाँ हैं जिन्हें पहचानना शुरुआती पक्षी प्रेमियों के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है। हरी गवैया आम तौर पर अधिक चमकीले हरे रंग की होती है, जिसमें दो पंख पट्टियाँ होती हैं और निचला हिस्सा पीले रंग का दिखाई देता है। दूसरी ओर, हल्की हरी गवैया का रंग थोड़ा फीका, भूरे-हरे मिश्रण वाला होता है और इसमें केवल एक पंख पट्टी पाई जाती है। ये दोनों ही प्रजातियाँ ठंडी ऋतु में अपने प्रजनन स्थलों – जैसे मध्य एशिया या हिमालय की तलहटी – से निकलकर भारत के मैदानी और दक्षिणी क्षेत्रों की ओर प्रवास करती हैं। जौनपुर जैसे क्षेत्रों में, जहां सर्दियों के दौरान जलवायु सुखद और कीटों की भरमार रहती है, ये पक्षी अनुकूल आवास पाकर रुकते हैं। ऐसे में इनके रंगों की सूक्ष्मता, आवाजों की लय और उनके फुर्तीले व्यवहार को पहचान कर किसी भी प्रकृति प्रेमी के लिए वार्बलर पहचानने का रोमांच बेहद आनंददायक बन जाता है।
भारत में वार्बलर पक्षियों का वार्षिक प्रवासन: हजारों किलोमीटर की उड़ान यात्रा
वार्बलर जैसे छोटे पक्षियों की वार्षिक प्रवास यात्रा, वास्तव में प्रकृति के अद्भुत चमत्कारों में से एक है। जैसे ही हिमालय या काकेशस जैसे क्षेत्रों में सर्दियाँ दस्तक देती हैं, ये पक्षी हजारों किलोमीटर की यात्रा पर निकल पड़ते हैं, उत्तर से दक्षिण भारत तक। अगस्त-सितंबर में दक्षिण की ओर उड़ान और अप्रैल-मई में वापसी की यह यात्रा ना केवल इनकी प्रवासी प्रवृत्ति को दर्शाती है, बल्कि यह इस बात का प्रमाण भी है कि भारत जैव विविधता के लिए कितना समृद्ध स्थल है। जौनपुर जैसे इलाकों में, जहाँ जलवायु संतुलित होती है और शहरीकरण की गति अपेक्षाकृत धीमी है, वहां वार्बलर रुकने और विश्राम के लिए उपयुक्त स्थान पा सकते हैं। ऐसे में यदि आप सुबह-सुबह अपने बगीचे में किसी चहचहाहट को सुनें, तो हो सकता है कि वह किसी प्रवासी वार्बलर की ही आवाज़ हो, एक ऐसा अनुभव जिसे सहेज कर रखा जा सकता है। इस प्रवासी व्यवहार को समझकर हम बर्डवॉचिंग (birdwatching) को बढ़ावा दे सकते हैं और जौनपुर को एक ‘बर्ड-फ्रेंडली ज़ोन’ (Bird Friendly Zone) के रूप में विकसित कर सकते हैं।

बगीचे में वार्बलर को आकर्षित करने के चार स्तंभ: भोजन, पानी, आश्रय और घोंसले
वार्बलर को अपने बगीचे में बुलाने के लिए आपको उनके चार मुख्य ज़रूरतों – भोजन, पानी, आश्रय और घोंसले – को पूरा करना होगा।
भोजन: वार्बलर मुख्यतः कीटभक्षी होते हैं, अतः बगीचे में कीटनाशकों का प्रयोग सीमित करना ज़रूरी है ताकि कीटों की उपलब्धता बनी रहे। साथ ही, बेरी झाड़ियाँ, छोटे फल देने वाले पौधे जैसे अमरूद, जामुन या करोंदा लगाए जा सकते हैं, जो प्राकृतिक रूप से इन्हें आकर्षित करते हैं।
पानी: चलते हुए पानी का स्रोत – जैसे फव्वारा (fountain), बबलर (bubbler) या ड्रिपर (dripper) – उन्हें अधिक आकर्षित करता है। पानी की हलचल और आवाज़ इनके लिए सुरक्षा और ताजगी का प्रतीक होती है।
आश्रय: घनी झाड़ियों, पत्तेदार पौधों और बहुस्तरीय पौध व्यवस्था से उन्हें वह सुरक्षित स्थान मिलता है जहाँ वे आराम कर सकते हैं।
घोंसले: वार्बलर अधिकतर झाड़ियों या पत्तेदार पेड़ों में घोंसला बनाते हैं। उन्हें घोंसले के लिए काई, सूखी घास, पत्ते और टहनियाँ जैसी सामग्री उपलब्ध कराकर आप उन्हें प्रजनन के लिए प्रेरित कर सकते हैं। जौनपुर के परंपरागत पौधे जैसे अमलतास, गुलर या बेल भी इन उद्देश्यों के लिए आदर्श हैं।

वार्बलर को आकर्षित करने की अतिरिक्त तकनीकें और व्यवहार संबंधी समझ
वार्बलर स्वभाव से अत्यंत शर्मीले और सतर्क पक्षी होते हैं। इसलिए यदि आपने उनके लिए एक सुंदर बगीचा तैयार कर भी लिया है, तो उनकी उपस्थिति का एहसास तुरंत नहीं हो सकता। बिल्लियों और अन्य शिकारियों से बगीचे को सुरक्षित रखना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि ये पक्षी ज़रा सी हलचल से भी दूर हो जाते हैं। बगीचे में शांत कोने बनाना, जहाँ मानवीय गतिविधियाँ कम हों, उनकी वापसी की संभावना को बढ़ा देता है। इसके अलावा, यदि आप जौनपुर में रहते हैं, तो आपको यह जानना चाहिए कि यहाँ कौन-कौन सी वार्बलर प्रजातियाँ सामान्यतः देखी जाती हैं, और उनके आवास की ज़रूरतें क्या हैं। धैर्य इस प्रक्रिया की सबसे बड़ी कुंजी है। कई बार ये पक्षी बगीचे में होते हैं लेकिन इतनी शांति से रहते हैं कि हमें उनकी उपस्थिति का पता ही नहीं चलता। यदि हम लगातार अपने बगीचे को प्राकृतिक, शांत और सुरक्षित बनाए रखें, तो ये खूबसूरत चिरैयां जल्द ही हमारे नज़दीक अपना घर बना लेंगी और उनके साथ एक जुड़ाव जो सिर्फ आंखों से नहीं, दिल से महसूस होता है।
संदर्भ-
जौनपुर जंक्शन: पूर्वांचल की रेल धड़कन और सांस्कृतिक संगम स्थल
य़ातायात और व्यायाम व व्यायामशाला
Locomotion and Exercise/Gyms
03-08-2025 09:27 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों, गोमती के तट पर बसा हमारा शहर केवल शर्की स्थापत्य या साहित्यिक परंपराओं का केंद्र ही नहीं, बल्कि यातायात के क्षेत्र में भी एक ऐतिहासिक पड़ाव रखता है। जौनपुर जंक्शन रेलवे स्टेशन, जिसे कभी "भंडरिया स्टेशन" के नाम से जाना जाता था, उत्तर भारत की रेल व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण नोड (node) है। इस स्टेशन की स्थापना 1872 में हुई थी और तब से यह स्टेशन जौनपुर के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास की धुरी बना हुआ है।
पहले वीडियो में हम जौनपुर जंक्शन की एक खूबसूरत झलक देखेंगे।
1872 में जब अवध एवं रोहिलखंड रेलवे ने वाराणसी से लखनऊ तक ब्रॉड गेज लाइन (Broad Gauge Line) खोली, तब जौनपुर जंक्शन अस्तित्व में आया। यह न सिर्फ एक स्टेशन था, बल्कि ब्रिटिश औपनिवेशिक रणनीति का हिस्सा था, जिसका उद्देश्य व्यापार और प्रशासन को सुगम बनाना था। 1904 में बंगाल एवं नॉर्थ वेस्टर्न (उत्तर पश्चिम) रेलवे द्वारा औंरीहार–केराकत–जौनपुर लाइन के निर्माण ने इसकी उपयोगिता को और बढ़ाया। जौनपुर जंक्शन आज अनेक रेल मार्गों का केंद्र है। यह न केवल वाराणसी–अयोध्या–लखनऊ लाइन पर स्थित है, बल्कि जौनपुर–प्रयागराज, जौनपुर–शाहगंज–आजमगढ़, जौनपुर–सुलतानपुर, जौनपुर–जंघई–प्रतापगढ़, और औंरीहार–केराकत–जौनपुर जैसे मार्गों से भी जुड़ा हुआ है।
ये रूट (route) उत्तर प्रदेश और भारत के सांस्कृतिक केंद्रों को आपस में जोड़ते हैं, जिससे जौनपुर एक ट्रांजिट हब (transit hub) बन चुका है। यहाँ से चलने वाली ट्रेनें दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, गुवाहाटी, भोपाल, देहरादून, रांची, तिरुचिरापल्ली, नागपुर जैसी दूरस्थ जगहों तक जाती हैं। जौनपुर स्टेशन अब केवल स्थानीय यात्रा के लिए नहीं, बल्कि अंतर-राज्यीय संपर्क का महत्वपूर्ण माध्यम बन चुका है। यह स्टेशन "आदर्श स्टेशन" (NSG-3) की श्रेणी में आता है। यहाँ यात्रियों के लिए आधुनिक टिकट काउंटर, प्रतीक्षालय, सार्वजनिक पुस्तकालय, डाकघर, बैंक (SBI शाखा), पुलिस चौकी, स्नैक कॉर्नर (snack corner) जैसी अनेक सुविधाएँ मौजूद हैं। दिव्यांग यात्रियों के लिए विशेष प्रबंध और पार्किंग (parking) सुविधा भी है। हर दिन यहाँ 20,000 से अधिक यात्री आते हैं, और 35 से अधिक ट्रेनें रुकती हैं।
नीचे दिए गए वीडियो के माध्यम से हम जौनपुर ज़िले के सभी रेलवे स्टेशनों के बारे में जानेंगे, और इसके बाद भारत के सबसे शानदार और लग्ज़री (luxury) रेलवे स्टेशन की एक झलक भी देखेंगे।
जौनपुर के खेतों से मिठास की ओर: चीनी के सफर की पूरी कहानी
वास्तुकला 2 कार्यालय व कार्यप्रणाली
Architecture II - Office/Work-Tools
02-08-2025 09:26 AM
Jaunpur District-Hindi

उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में स्थित जौनपुर ज़िला न केवल ऐतिहासिक धरोहर और शैक्षणिक परंपरा के लिए जाना जाता है, बल्कि यह क्षेत्र कृषि में भी अपनी गहरी पहचान रखता है। यहाँ की उर्वर भूमि और गंगा-गोमती नदियों के जल से पोषित खेतों में गन्ना और कभी-कभी चुकंदर जैसी मिठास देने वाली फसलें उगाई जाती हैं। यही फसलें हमारे दैनिक जीवन की ज़रूरत, चीनी का आधार बनती हैं। लेकिन जो चीनी हम रोज़ चाय, मिठाइयों और पेय में इस्तेमाल करते हैं, वह खेत से सीधे थाली में नहीं आती। उसके पीछे होती है मेहनत, तकनीक और एक लंबी प्रक्रिया। इस लेख में हम जानेंगे कि जौनपुर जैसे ज़िलों से शुरू होकर यह मिठास आपकी थाली तक कैसे पहुँचती है, और इसके हर चरण में क्या तकनीकी और परंपरागत तरीके शामिल होते हैं।
इस लेख में हम सबसे पहले जानेंगे कि चीनी असल में क्या होती है और यह हमारे भोजन का इतना अहम हिस्सा क्यों बन चुकी है। इसके बाद, हम विस्तार से देखेंगे कि गन्ने से लेकर क्रिस्टल (crystal) बनने तक की उत्पादन प्रक्रिया किन-किन चरणों से होकर गुजरती है। फिर हम बात करेंगे चुकंदर से बनने वाली चीनी की प्रक्रिया की, जो ठंडी जलवायु में अलग तकनीकों से की जाती है। इसके बाद हम चर्चा करेंगे चीनी के विभिन्न प्रकारों की, जैसे सफेद, भूरी या गुड़, और उन उप-उत्पादों के पुनः उपयोग की जो इस निर्माण प्रक्रिया में निकलते हैं। अंत में, हम जानेंगे कि भारत में चीनी उद्योग की वर्तमान स्थिति क्या है, इसमें क्या चुनौतियाँ हैं, और भविष्य में यह उद्योग किस दिशा में बढ़ सकता है।
चीनी क्या है और क्यों है यह हमारे आहार का अभिन्न हिस्सा
चीनी, या सुक्रोज़ (sucrose), एक सरल कार्बोहाइड्रेट (carbohydrate) है जो हमें तेज़ ऊर्जा देने का प्रमुख स्रोत है। यह मुख्यतः गन्ने और चुकंदर से प्राप्त होती है और इसका उपयोग हमारे दैनिक जीवन के हर हिस्से में देखा जा सकता है - चाय, कॉफी (coffee), मिठाइयाँ, बेकरी (bakery) उत्पाद, शरबत, डिब्बाबंद खाद्य, पेय और यहां तक कि दवाओं में भी। चीनी न केवल स्वाद को बढ़ाती है, बल्कि शरीर में ग्लूकोज़ (glucose) की उपलब्धता को भी नियंत्रित करती है। आज के आधुनिक युग में जहां लोग व्यस्त जीवनशैली जीते हैं, चीनी जैसी ऊर्जा देने वाली सामग्री का महत्व और भी अधिक हो गया है। यही कारण है कि यह न केवल भोजन में स्वाद जोड़ती है, बल्कि हमारे आहार का एक अपरिहार्य हिस्सा बन चुकी है।गन्ने से चीनी बनने की प्रक्रिया: खेत से क्रिस्टल तक का सफ़र
जौनपुर जैसे जिलों में गन्ना उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है और यह स्थानीय किसानों के लिए आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। गन्ने से चीनी बनने की प्रक्रिया में कई चरण शामिल होते हैं:
- सफ़ाई: खेत से लाए गए गन्ने को सबसे पहले साफ़ किया जाता है ताकि मिट्टी, पत्तियाँ और अन्य अशुद्धियाँ हटा दी जाएं। इसके लिए कन्वेयर बेल्ट (conveyor belt) और पानी का इस्तेमाल किया जाता है।
- पीसना: गन्ने को श्रेडर मशीनों में काटा जाता है और तीन-रोलर मिलों (Three-roller mills) की मदद से रस निकाला जाता है। पीसने के बाद जो ठोस बचता है, उसे खोई कहा जाता है और उसका उपयोग ईंधन या पशु चारे के रूप में किया जाता है।
- विशुद्धीकरण: गन्ने के रस को शुद्ध करने के लिए उसमें चूना मिलाया जाता है और फिर उसे 95℃ तक गर्म किया जाता है ताकि सारी अशुद्धियाँ अलग हो जाएं।
- वाष्पीकरण: शुद्ध रस को बाष्पीकरण टैंक (tank) में भेजा जाता है जहाँ से लगभग 70% पानी भाप बनकर उड़ जाता है और एक गाढ़ा सिरप (syrup) बन जाता है।
- क्रिस्टलीकरण: वैक्यूम पैन (Vacuum Pan) में इस सिरप को गर्म किया जाता है ताकि चीनी के क्रिस्टल बनने लगे। इसमें बीज क्रिस्टल मिलाए जाते हैं जो क्रिस्टल निर्माण की शुरुआत करते हैं।
- पृथक्करण: अपकेंद्रित्र मशीनों में क्रिस्टल और सिरप को अलग किया जाता है। सिरप को गुड़ में बदला जाता है और क्रिस्टल सुखाकर चीनी के रूप में पैक की जाती है।
यह पूरी प्रक्रिया आधुनिक मशीनों और स्थानीय श्रमिकों की मेहनत का अद्भुत उदाहरण है।
चुकंदर से चीनी निर्माण: ठंडी जलवायु की मीठी देन
हालाँकि जौनपुर का मुख्य केंद्र गन्ना उत्पादन है, लेकिन भारत के कुछ उत्तरी और पहाड़ी इलाकों में चुकंदर से भी चीनी बनाई जाती है। चुकंदर से चीनी बनाने की प्रक्रिया थोड़ी अलग और तकनीकी होती है:
- कृषि और कटाई: चुकंदर को ठंडी जलवायु में उगाया जाता है और इसकी कटाई मशीनों द्वारा की जाती है।
- कॉसेट निर्माण: कटे हुए चुकंदर को पतली-पतली स्लाइस में काटा जाता है जिन्हें कॉसेट्स (Cossets) कहा जाता है।
- डिफ्यूज़र प्रक्रिया: इन स्लाइसों को डिफ्यूज़र टैंक (Diffuser Tank) में डाला जाता है जहाँ से गर्म पानी की मदद से उनका रस निकाला जाता है।
- छानना और सिरप बनाना: निकाले गए रस को छाना जाता है और उसमें से अशुद्धियाँ निकालकर एक सिरप तैयार किया जाता है।
- क्रिस्टलीकरण और सुखाना: इस सिरप को गर्म करके क्रिस्टल में बदला जाता है और फिर उन क्रिस्टलों को सुखाकर चीनी तैयार की जाती है।
चुकंदर से बनने वाली चीनी आमतौर पर रंग में हल्की और स्वाद में थोड़ी अलग होती है, लेकिन पोषण और उपयोगिता के लिहाज़ से यह गन्ने की चीनी जैसी ही होती है।
चीनी के विभिन्न प्रकार और उप-उत्पादों का पुनः उपयोग
चीनी के उत्पादन के दौरान कई तरह की चीनी और उप-उत्पाद बनते हैं:
- सफेद दानेदार चीनी: यह सबसे सामान्य रूप है, जो रसोई और उद्योगों में व्यापक रूप से प्रयोग की जाती है।
- भूरी चीनी: इसमें गुड़ की थोड़ी मात्रा होती है, जिससे इसका रंग और स्वाद थोड़ा अलग होता है। इसे बेकिंग और कुछ खास व्यंजनों में उपयोग किया जाता है।
- गुड़ (Jaggery): यह पूरी तरह प्राकृतिक होता है और बिना रिफाइन (refine) किए बनता है। यह स्वास्थ्य के लिए लाभकारी माना जाता है।
- उप-उत्पादों का उपयोग: गन्ने की खोई को ईंधन या बायोगैस (biogas) में बदला जाता है। चुकंदर का गूदा पशुओं के चारे के रूप में उपयोग किया जाता है। कई बार इन अवशेषों का इस्तेमाल खाद बनाने में भी होता है।
इस प्रकार, चीनी उद्योग न केवल चीनी पैदा करता है, बल्कि ज़ीरो-वेस्ट मॉडल (Zero-Waste Model) की ओर भी बढ़ता जा रहा है।
भारत में चीनी उद्योग की स्थिति और भविष्य की संभावनाएं
भारत आज दुनिया के सबसे बड़े चीनी उत्पादकों में से एक है और उत्तर प्रदेश इसका सबसे बड़ा योगदानकर्ता है। जौनपुर जैसे जिले इस योगदान का हिस्सा हैं। इस उद्योग की वर्तमान स्थिति कुछ प्रमुख विशेषताओं के आधार पर समझी जा सकती है:
- उत्पादन और खपत: भारत न केवल चीनी का उत्पादन करता है, बल्कि यह एक बड़ा उपभोक्ता भी है। घरेलू मांग बहुत अधिक है।
- श्रम-केंद्रित प्रणाली: आज भी अधिकांश चीनी मिलें श्रमिकों पर निर्भर हैं, जिससे यह क्षेत्र रोज़गार का बड़ा स्रोत है।
- तकनीकी नवाचार: हाल के वर्षों में स्वचालित गन्ना कटाई, ड्रिप इरिगेशन (Drip Irrigation), सेंसर-आधारित मॉनिटरिंग (Sensor-based monitoring) और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (A.I.) आधारित गुणवत्ता नियंत्रण जैसी तकनीकों ने इस क्षेत्र में नई जान फूंकी है।
- भविष्य की संभावनाएं: आने वाले वर्षों में यह उद्योग और अधिक टिकाऊ, स्वचालित और पर्यावरण-संवेदनशील बनने की ओर अग्रसर है। इससे उत्पादन लागत घटेगी और किसान की आमदनी बढ़ेगी।
सरकार की नई नीतियाँ और किसानों की बढ़ती जागरूकता इस क्षेत्र को अगले स्तर तक ले जा सकती हैं।
संदर्भ-
जौनपुर की सुगंध: गुलाब की खेती से लेकर सांस्कृतिक महिमा तक का सफर
बागवानी के पौधे (बागान)
Flowering Plants(Garden)
01-08-2025 09:34 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों, गोमती की शीतल बयार और यहाँ की उपजाऊ मिट्टी ने सैकड़ों वर्षों से फूलों की खुशबू को अपनी आत्मा में समेट रखा है। हमारे आँगनों, मंदिरों, शादियों और त्योहारों में जिस फूल ने सबसे अधिक स्थान पाया है, वह है गुलाब — जिसे प्यार से 'फूलों का राजा' कहा जाता है। लेकिन क्या आपने कभी यह सोचा है कि गुलाब केवल एक सुंदर फूल ही नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति, अर्थव्यवस्था, चिकित्सा, परंपरा और इतिहास का भी अभिन्न अंग रहा है? जौनपुर जैसे कृषि-प्रधान ज़िले में जहाँ हरियाली और नवाचार साथ-साथ पनपते हैं, गुलाब की खेती एक नया आर्थिक और सांस्कृतिक अवसर बनकर उभर सकती है। इसकी खेती से न केवल किसानों को अतिरिक्त आय का स्रोत मिलेगा, बल्कि यह जिले की पहचान को भी नई सुगंध दे सकता है। गुलाब वह फूल है जो इत्र बनाकर शरीर को महकाता है, प्रेम-पत्रों में भावनाओं को जगाता है, और धार्मिक पूजा में श्रद्धा का प्रतीक बनता है। हमारे जिले की जलवायु और मिट्टी की विशेषताएँ गुलाब की खेती के लिए उपयुक्त हो सकती हैं, और यही संभावना अब जौनपुर के किसानों और उद्यान प्रेमियों के लिए एक नई दिशा बन सकती है। गुलाब केवल एक फूल नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक और आर्थिक प्रेरणा है – जो इत्र, पूजा, सजावट, औषधीय उपयोग, और प्रेम के प्रतीक के रूप में हमारे जीवन में गहराई से रचा-बसा है।
इस लेख में हम छह प्रमुख पहलुओं के माध्यम से गुलाब के आर्थिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व को समझेंगे। पहले भाग में भारत में गुलाब की खेती की वर्तमान स्थिति पर ध्यान देंगे। इसके बाद भारतीय डाक विभाग द्वारा गुलाब की विविधता को दिए गए सम्मान की चर्चा करेंगे। तीसरे खंड में गुलाब के धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व की विवेचना होगी। फिर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में गुलाब के वैश्विक सफर का लेखा-जोखा देंगे। इसके बाद भारत में मनाए जाने वाले प्रमुख गुलाब महोत्सवों की झलक प्रस्तुत करेंगे। अंत में, गुलाब की प्रतीकात्मक भाषा ‘फ्लोरियोग्राफी’ (Floriography) के माध्यम से उसके भावनात्मक पहलुओं को समझेंगे।भारत में गुलाब की खेती: एक उभरता हुआ व्यवसाय
भारत में गुलाब की खेती अब पारंपरिक सजावटी फूल की सीमाओं से बाहर निकलकर एक संगठित कृषि व्यवसाय का रूप ले चुकी है। महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, राजस्थान और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य आज भारत के प्रमुख गुलाब उत्पादक क्षेत्र बन चुके हैं। देश में प्रतिवर्ष लाखों टन गुलाब के फूलों का उत्पादन होता है, जिनका उपयोग इत्र, गुलकंद, फूलमाला, पूजा सामग्री और चिकित्सा तक में किया जाता है। नर्सरी (nursery), कट फ्लावर (cut flower) व्यापार और जैविक गुलाब-उत्पादन जैसे क्षेत्र अब छोटे किसानों और उद्यमियों के लिए नई संभावनाओं का द्वार खोल रहे हैं। भारत सरकार की राष्ट्रीय बागवानी मिशन (National Horticulture Mission) और फ्लोरिकल्चर (Floriculture) से जुड़ी पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत किसानों को प्रोत्साहन, बीज गुणवत्ता, सिंचाई सुविधा, और मार्केटिंग (marketing) सहायता प्रदान की जा रही है। जौनपुर की उपजाऊ मिट्टी और बढ़ती उद्यानिकी गतिविधियाँ इसे इस व्यवसाय में प्रवेश करने के लिए उपयुक्त बनाती हैं, विशेष रूप से बदलते जलवायु संदर्भ में जब कम जल-उपभोग वाली फसलों की मांग बढ़ रही है।
भारतीय डाक विभाग और गुलाब: विविधता को सम्मान
भारतीय डाक विभाग ने गुलाब की विभिन्न किस्मों को न केवल पत्रों के माध्यम से सम्मानित किया है, बल्कि उन्हें राष्ट्रीय पहचान भी दिलाई है। वर्ष 1976, 1981, 1985 और उसके बाद विभिन्न अवसरों पर गुलाब की प्रजातियों पर आधारित डाक टिकटों (postage stamps) की विशेष श्रृंखलाएँ जारी की गईं। इनमें 'इंडियन समर' (Indian Summer), 'नेहरू रोज़', 'ब्लैक मैजिक' (Black Magic), 'रानी साहिबा', 'फ्रैगरेंस' (Fragrance), और 'अरुणिमा' जैसी किस्में प्रमुख रही हैं। इन डाक टिकटों के माध्यम से गुलाब को देश की जीवंत जैव विविधता और सौंदर्य संस्कृति का प्रतीक माना गया है। यह डाक टिकट केवल सजावटी वस्तुएँ नहीं हैं, बल्कि गुलाब की सांस्कृतिक और वैज्ञानिक महत्ता को सुरक्षित रखने के माध्यम भी हैं। जौनपुर जैसे शिक्षित और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध नगर में ये टिकट संग्रहण और शैक्षणिक उपयोग के लिए भी प्रेरणा स्रोत हो सकते हैं।
गुलाब का सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व
गुलाब न केवल एक फूल है, बल्कि यह प्राचीन संस्कृतियों और धार्मिक परंपराओं का प्रतीक है। रोमन सभ्यता में गुलाब को प्रेम और भक्ति का प्रतीक माना जाता था, वहीं फारसी संस्कृति में यह आत्मा की शुद्धता और सौंदर्य का प्रतिनिधित्व करता था। ईसाई परंपरा में गुलाब वर्जिन मेरी (Virgin Mary) की पवित्रता से जुड़ा हुआ है, और इस्लामिक समाजों में यह जन्नत और दिव्यता का प्रतीक माना जाता है। भारतीय संस्कृति में गुलाब का उपयोग देवी-देवताओं की पूजा, विवाह, औषधि और सौंदर्य प्रसाधनों में होता है। तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’ और मीरा के भजनों में भी गुलाब के प्रतीकों का उल्लेख मिलता है। जौनपुर की धार्मिक विविधता और सूफी-भक्ति परंपरा में गुलाब की यह भूमिका और भी गहरी हो जाती है – चाहे वह मजारों पर चढ़ाया गया फूल हो या नवविवाहितों की जयमाल।
ऐतिहासिक संदर्भ में गुलाब का वैश्विक सफर
गुलाब की यात्रा केवल एक बगीचे से दूसरे बगीचे तक सीमित नहीं रही, बल्कि यह सभ्यताओं के साथ पनपा और फैला। प्राचीन मेसोपोटामिया (Mesopotamia) और मिस्र (Egypt) की रानियाँ गुलाब से स्नान करती थीं; क्लियोपेट्रा (Cleopatra) के दरबार में हवा में गुलाब की पंखुड़ियाँ बिछाई जाती थीं। बाबुल के सम्राट नेबूचड्नेज़जर के महलों में गुलाब की दीवारें सजती थीं। अलेक्जेंडर द ग्रेट (Alexander The Great) के भारत आगमन के बाद यह फूल पश्चिमी एशिया से भारत तक फैला। मध्य युग में नेपोलियन (Napoleon) की पत्नी जोसेफीन (Joséphine) ने गुलाब की हजारों किस्में संग्रहीत कर विश्व को गुलाब के एकीकृत बागवानी स्वरूप से परिचित कराया। जौनपुर के शर्की वंश के दौर में भी फारसी और तुर्की परंपराओं के माध्यम से गुलाब का इस्तेमाल इत्र, जल और बागवानी में दिखता है – खासकर शाही बागों और मस्जिदों में।
भारत में प्रमुख गुलाब महोत्सव और उनकी विशेषताएँ
भारत में गुलाब प्रेम को सार्वजनिक मंच पर मनाने के लिए कई प्रमुख गुलाब महोत्सव आयोजित किए जाते हैं। दिल्ली स्थित नेशनल रोज़ गार्डन (National Rose Garden) हर वर्ष शीतकाल में गुलाब प्रदर्शनी आयोजित करता है जहाँ हजारों किस्में प्रदर्शित होती हैं। चंडीगढ़ का ज़ाकिर हुसैन रोज़ गार्डन एशिया का सबसे बड़ा गुलाब उद्यान है जहाँ हर बसंत ‘रोज़ फेस्टिवल’ (Rose Festival) मनाया जाता है। तमिलनाडु के ऊटी और कर्नाटक के मैसूर में सालाना फ्लावर शो में गुलाब की विविधता विशेष आकर्षण होती है। इन महोत्सवों में न केवल सौंदर्य की सराहना होती है, बल्कि स्थानीय किसानों, बागवानों और शौक़ीनों को तकनीकी जानकारी, बीज विनिमय, और बाजार पहुँच का अवसर भी मिलता है। जौनपुर में भी यदि गुलाब महोत्सव जैसी पहल की जाए तो यह सांस्कृतिक पुनर्जागरण के साथ-साथ ग्रामीण पर्यटन को भी बढ़ावा दे सकता है।
गुलाब के फूलों की प्रतीकात्मक भाषा: फ्लोरियोग्राफी
फूलों की भाषा यानी ‘फ्लोरियोग्राफी’ में गुलाब सबसे गूढ़ और बहुआयामी प्रतीकों में से एक है। लाल गुलाब प्रेम और जुनून का प्रतीक है, सफेद गुलाब पवित्रता और शांति का, गुलाबी गुलाब आभार और कोमलता का, पीला गुलाब मित्रता और नई शुरुआतों का संकेत देता है। नीला गुलाब रहस्य और अनकही भावनाओं का, जबकि काले गुलाब विदाई और स्मृति का संकेत करते हैं। इस फूल के माध्यम से बिना बोले कई भावनाएँ संप्रेषित होती हैं – मृत्यु के बाद श्रद्धांजलि में, प्रेम प्रस्ताव में, या किसी स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए। जौनपुर जैसे साहित्य और संगीत प्रेमी नगर में गुलाब की यह प्रतीकात्मक भाषा उर्दू कविता, सूफी गीत और रंगमंच की प्रस्तुति में अद्भुत प्रभाव छोड़ सकती है।
संदर्भ-
जौनपुर में प्रेम का विज्ञान: जैविक जुड़ाव से संस्कृति तक की यात्रा
द्रिश्य 3 कला व सौन्दर्य
Sight III - Art/ Beauty
31-07-2025 09:23 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों, हमारी तहज़ीब और रिश्तों की गर्माहट सिर्फ ऐतिहासिक इमारतों या शेरवानी के टांकों तक सीमित नहीं है, बल्कि हमारी जुबान, पारिवारिक परंपराएं और आपसी व्यवहार भी प्रेम की गहराई को दर्शाते हैं। पर क्या आपने कभी सोचा है कि यह 'प्रेम' केवल एक भाव नहीं, बल्कि विज्ञान और विकास का भी हिस्सा है? जो कुछ हम महसूस करते हैं, माँ का दुलार, साथी का साथ, या किसी के लिए बलिदान की भावना—उसकी जड़ें हमारी जैविक और मनोवैज्ञानिक संरचना में छिपी हैं। इस लेख में हम प्रेम को सिर्फ भावना नहीं, एक विकासशास्त्रीय और सामाजिक व्यवहार के रूप में समझने की कोशिश करेंगे और जानेंगे कि कैसे यह हमारे जीवन और समाज की धुरी बन चुका है।
इस लेख में हम प्रेम के सबसे महत्वपूर्ण और वैज्ञानिक पहलुओं की चर्चा करेंगे। सबसे पहले हम देखेंगे कि प्रेम की उत्पत्ति कैसे हुई और यह हमारे जैसे स्तनधारी प्राणियों में क्यों विकसित हुआ। फिर हम प्रेम के पीछे छिपे न्यूरोकेमिकल (neurochemical) तंत्र की बात करेंगे, जिसमें ऑक्सीटोसिन (Oxytocin) और डोपामिन (Dopamine) जैसे रसायन शामिल हैं। इसके बाद हम जानेंगे कि ‘प्रेम’ कैसे विभिन्न घटकों जैसे जुनून, अंतरंगता और प्रतिबद्धता से बनता है। फिर हम कुछ जनजातीय अध्ययन के ज़रिये समझेंगे कि प्रेम की भूमिका प्रजनन और परिवार के निर्माण में कितनी अहम है। अंत में हम भाषा और प्रेम के रिश्ते की भी पड़ताल करेंगे।

स्तनधारी जीवों में प्रेम की उत्पत्ति और विकासवादी भूमिका
प्रेम की जड़ें हमारी जैविक संरचना में इतनी गहराई तक समाई हैं कि यह भावना किसी सांस्कृतिक या साहित्यिक कल्पना से कहीं पहले अस्तित्व में आई। जब लगभग 20 करोड़ वर्ष पहले पृथ्वी पर स्तनधारी जीव विकसित हुए, तब जीवित रहने की सबसे बड़ी चुनौती थी, अपनी संतान को बचाना, पालना और विकसित करना। यहीं से प्रेम की पहली छवि जन्म लेती है, माँ और संतान के बीच का संबंध। यह भावनात्मक नहीं, बल्कि गहराई से आवश्यक जैविक व्यवहार था। कयेंटाथेरियम (Kayentatherium) नामक प्राचीन जीवाश्म में एक माँ और उसके 38 बच्चों के अवशेष साथ मिले—यह प्रमाण है कि 'देखभाल' कोई मानवीय नैतिकता नहीं, बल्कि विकास की रणनीति थी। इस लगाव ने ही स्तनधारियों को सामाजिकता की ओर धकेला—जहाँ समूह में रहना, एक-दूसरे की चिंता करना और सहयोग करना अधिक सफल रणनीतियाँ बन गईं। इस तरह प्रेम ने केवल दिल को नहीं, समाज, सहयोग और संबंधों की पूरी संस्कृति को आकार दिया।
प्रेमकी न्यूरोकेमिकल प्रणाली और ऑक्सीटोसिन की भूमिका
प्रेम को अक्सर सिर्फ एक भावना कहा जाता है, लेकिन वास्तव में यह हमारे मस्तिष्क की एक जटिल जैव-रासायनिक प्रक्रिया है। जब हम किसी से जुड़ाव महसूस करते हैं, चाहे वह बच्चा हो, जीवनसाथी हो या मित्र, तो हमारे मस्तिष्क में कुछ विशेष रसायनों का प्रवाह शुरू हो जाता है। ऑक्सीटोसिन (oxytocin), जिसे 'लव हार्मोन' (Love Hormone) कहा जाता है, उस समय स्रावित होता है जब हम किसी को छूते हैं, गले लगाते हैं या सहानुभूति जताते हैं। यह हार्मोन हमें सुरक्षित, जुड़ा हुआ और अपनापन भरा महसूस कराता है। वहीं डोपामिन प्रेम को एक तरह का इनाम बना देता हैइससे मिलने वाला सुख अनुभव हमें उस जुड़ाव की ओर बार-बार खींचता है। सेरोटोनिन (Serotonin) हमारे मूड को स्थिर करता है, और वासोप्रेसिन (Vasopressin) दीर्घकालिक प्रतिबद्धता और विश्वास को बढ़ावा देता है। इन सभी न्यूरोकेमिकल्स की सामूहिक प्रतिक्रिया ही वह है, जिसे हम 'प्रेम' कहते हैं। यह सिद्ध करता है कि प्रेम कोई 'अबूझ' या 'रहस्यमय' चीज नहीं, बल्कि एक गहराई से व्याख्यायित, वैज्ञानिक रूप से मापन योग्य अनुभव है, जो हमारे मस्तिष्क में ही रचा-बसा है।

त्रिकोणीयप्रेम सिद्धांत: अंतरंगता, जुनून और प्रतिबद्धता की भूमिका
प्रेम को समझने के लिए सिर्फ भावना या जैविक रसायन पर्याप्त नहीं हैं—यह एक मनोवैज्ञानिक संरचना भी है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक रॉबर्ट स्टर्नबर्ग (Robert Sternberg) के अनुसार प्रेम तीन मूलभूत तत्वों से मिलकर बना होता है:
- जुनून (Passion) – शारीरिक आकर्षण और तीव्र भावनाएँ,
- अंतरंगता (Intimacy) – गहरा भावनात्मक जुड़ाव और साझेदारी,
- प्रतिबद्धता (Commitment) – संबंधको बनाए रखने की दीर्घकालिक इच्छा।
एक रिश्ते में केवल जुनून हो तो वह क्षणिक आकर्षण बन जाता है। केवल अंतरंगता हो तो वह मित्रता जैसा हो सकता है। लेकिन जब ये तीनों तत्व संतुलित रूप से एक साथ आते हैं, तब ही वह संबंध 'पूर्ण प्रेम' कहलाता है, जो जीवनभर के लिए गहराई से जुड़े रह सकने की क्षमता रखता है। यह मॉडल (model) हमें यह समझने में मदद करता है कि क्यों कुछ रिश्ते आरंभ में तीव्र होते हैं पर टिकते नहीं, जबकि कुछ धीरे-धीरे परिपक्व होकर अत्यंत सशक्त बन जाते हैं। प्रेम को टिकाऊ और अर्थपूर्ण बनाने के लिए भावनात्मक समझ, शारीरिक लगाव और मानसिक प्रतिबद्धता तीनों की जरूरत होती है।
प्रजनन सफलता और प्रेम के बीच संबंध: हद्ज़ा समुदाय का अध्ययन
विकासवादी मनोविज्ञान के अनुसार, प्रेम केवल भावनाओं का आदान-प्रदान नहीं, बल्कि एक व्यवहारिक प्रजनन रणनीति भी है। अफ्रीका की हद्ज़ा जनजाति पर किए गए एक प्रसिद्ध अध्ययन में यह पाया गया कि जिन जोड़ों के बीच प्रेम, परस्पर सम्मान और सहयोग था, उनकी संतानें अधिक स्वस्थ, सुरक्षित और सामाजिक रूप से सक्षम होती थीं। इस अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ कि प्रेम—विशेषतः दीर्घकालिक प्रतिबद्धता और सहानुभूति—मनुष्य को सफल और स्थिर परिवार संरचना में जीने की संभावना प्रदान करता है। यह केवल साथी को पसंद करने की बात नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करता है कि बच्चों को देखभाल, सुरक्षा और सामाजिक कौशल मिल सके। इस तरह प्रेम का विकास न केवल जोड़ों के लिए, बल्कि पूरी पीढ़ियों के स्वास्थ्य और विकास के लिए भी अत्यंत आवश्यक रहा है।

मानव भाषा और प्रेम: संभोग संकेत के रूप में संचार का विकास
भाषा का विकास केवल सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए नहीं हुआ। विकासवादी सिद्धांतों के अनुसार, मानव संचार की प्रारंभिक प्रेरणाओं में साथी को आकर्षित करना और प्रेम व्यक्त करना भी शामिल था। जब कोई गा-गाकर प्रेम प्रकट करता है, शेर-ओ-शायरी के ज़रिए भावनाएँ साझा करता है, या कहानियों में अपने रिश्ते को पिरोता है, तो यह केवल सांस्कृतिक क्रिया नहीं, एक जैविक और सामाजिक उपकरण है।
मानव जाति ने प्रेम को व्यक्त करने के लिए गीत, कविता, गंध, हाव-भाव, और शब्दों का उपयोग किया है। भाषा ने प्रेम को काल और स्थान से परे ले जाकर उसे स्मृति, साहित्य और संगीत में अमर कर दिया।
यह भी दिलचस्प है कि केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो प्रेम को इतनी विविध और गूढ़ भाषा में व्यक्त करता है, यह दर्शाता है कि प्रेम ने हमें न केवल सामाजिक प्राणी बनाया, बल्कि संवेदनशील और सृजनशील भी बनाया है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/mrbhbpva
क्या जौनपुर की महिलाएँ जानती हैं श्रम कानूनों में छिपे अपने अधिकार और सुरक्षा के नियम?
आधुनिक राज्य: 1947 से अब तक
Modern State: 1947 to Now
30-07-2025 09:26 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियो, आज हमारे जिले की महिलाएँ घर की दहलीज़ से निकलकर खेत, फैक्टरी (factory), निर्माण स्थल और संस्थानों में मेहनत और हुनर का नया इतिहास लिख रही हैं। चाहे वो ग्रामीण खेतों की पगडंडियाँ हों या शहरी सीमाओं की फैक्ट्रियाँ, महिलाएँ हर मोर्चे पर अपनी मेहनत से समाज को आगे बढ़ा रही हैं। ऐसे में यह बेहद ज़रूरी हो जाता है कि हम यह जानें कि कानून उनके अधिकारों की रक्षा कैसे करता है। भारत के श्रम कानूनों में कामकाजी महिलाओं के लिए कई ऐसे विशेष प्रावधान हैं, जो उन्हें सुरक्षित, सम्मानजनक और सहायक कार्यस्थल सुनिश्चित करते हैं। यह लेख इन्हीं कानूनों और व्यवस्थाओं की गहराई से पड़ताल करेगा।
इस लेख में हम सबसे पहले यह समझेंगे कि भारत के कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी क्या है और वे किन क्षेत्रों में काम कर रही हैं। फिर हम जानेंगे कि फैक्टरी, खान और निर्माण जैसे जोखिमपूर्ण क्षेत्रों में उनके लिए कौन-कौन से सुरक्षा प्रावधान और कार्य सीमाएँ निर्धारित हैं। इसके बाद हम मातृत्व लाभ अधिनियम के तहत मिलने वाली छुट्टियों और वेतन सुरक्षा पर चर्चा करेंगे। चौथे भाग में हम कार्यस्थलों पर महिलाओं के लिए अलग शौचालय, धुलाई और बाल देखभाल जैसी मूलभूत सुविधाओं पर बात करेंगे। और अंत में, हम जानेंगे कि किस प्रकार भारत सरकार के प्रशिक्षण संस्थान जौनपुर जैसी जगहों की महिलाओं को आत्मनिर्भर बना रहे हैं।
भारत में महिला श्रमिकों की भूमिका और कार्यबल में उनकी भागीदारी का विश्लेषण
भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में महिलाएँ एक मज़बूत श्रमशक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं।2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, भारत में लगभग 149.8 मिलियन (million) महिला श्रमिक कार्यरत थीं। इनमें से 121.8 मिलियन महिलाएँ ग्रामीण क्षेत्रों में काम कर रही थीं, जबकि शेष 28 मिलियन महिलाएँ शहरी कार्यस्थलों से जुड़ी थीं। जौनपुर जैसे ज़िले, जहाँ लगभग 90% आबादी गाँवों में रहती है, वहाँ महिलाएँ खेती, खेतिहर मज़दूरी, पशुपालन और घरेलू उद्योगों में प्रमुख भूमिका निभाती हैं। वे केवल श्रमिक नहीं, बल्कि अपने परिवार और समाज की आर्थिक नींव हैं।
कार्य के प्रकार में महिलाओं की भागीदारी विविध है:
- कृषक (Cultivators): 35.9 मिलियन महिलाएँ, अर्थात् ज़िले की हजारों महिलाएँ, अपनी या किराए की ज़मीन पर खेती का संचालन करती हैं।
- कृषि मज़दूर (Agricultural Labourers): 61.5 मिलियन महिलाएँ खेतों में मज़दूरी करती हैं, जो कि जौनपुर के श्रमिक वर्ग में सामान्य रूप से देखा जाता है।
- घरेलू उद्योग: 8.5 मिलियन महिलाएँ हस्तशिल्प, कढ़ाई, अगरबत्ती निर्माण आदि में कार्यरत हैं।
- अन्य श्रमिक: 43.7 मिलियन महिलाएँ शिक्षा, सेवा, निर्माण जैसे क्षेत्रों से जुड़ी हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में महिला कार्य भागीदारी दर 30% से अधिक है, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह दर केवल 15% है। संगठित क्षेत्रों में भी महिलाओं की स्थिति धीरे-धीरे मज़बूत हो रही है। 2011 में संगठित क्षेत्र में 5.95 मिलियन महिलाएँ कार्यरत थीं, जिनमें से 3.21 मिलियन महिलाएँ सामाजिक व सामुदायिक सेवाओं में कार्य कर रही थीं। हालाँकि अभी भी वेतन, अवसर और सुरक्षा के मामलों में सुधार की ज़रूरत है। कार्यस्थल पर महिलाओं के लिए लैंगिक न्याय और अवसर की समानता का लक्ष्य तभी प्राप्त हो सकता है जब उन्हें संपूर्ण रूप से श्रम कानूनों की जानकारी और उनका संरक्षण मिले।

फैक्टरी, खान और निर्माण क्षेत्रों में महिलाओं के लिए सुरक्षा और कार्य सीमाएँ
जब महिलाएँ उद्योगों, खदानों और निर्माण स्थलों पर काम करती हैं, तो उनके लिए विशेष सुरक्षा उपायों का होना अनिवार्य है। भारत सरकार द्वारा लागू किए गए फ़ैक्टरी अधिनियम, 1948, बीड़ी एवं सिगार (cigar) श्रमिक अधिनियम, 1966 और खान अधिनियम, 1952 जैसे कानून महिलाओं को खतरनाक परिस्थितियों से बचाते हैं।
प्रमुख सुरक्षा प्रावधान:
- चलती मशीनों के पास कार्य निषेध: महिलाएँ चलती मशीनरी (machinery) के पुर्ज़ों की सफाई या समायोजन नहीं कर सकतीं, जिससे दुर्घटना की आशंका कम होती है।
- कपास दबाने वाले क्षेत्रों में कार्य निषेध: इन जगहों पर भी महिलाओं को काम करने की अनुमति नहीं है क्योंकि वहाँ उच्च दबाव और धूल से स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ सकता है।
- रात्रिकालीन कार्य पर प्रतिबंध: महिलाओं को सुबह 6 बजे से शाम 7 बजे के बीच ही कार्य करने की अनुमति है। यह प्रावधान विशेष रूप से बीड़ी उद्योग, खदान और फ़ैक्टरी क्षेत्रों में लागू होता है।
भूमिगत खनन पर पूर्ण प्रतिबंध:
1952 के खान अधिनियम के तहत, महिलाओं को खदान के भूमिगत हिस्सों में काम करने की अनुमति नहीं है, क्योंकि वहाँ ऑक्सीजन (Oxygen) की कमी, गैस रिसाव (gas leak), या भूस्खलन जैसे जोखिम होते हैं। जौनपुर में कई महिलाएँ निर्माण और मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स (manufacturing units) में काम करती हैं। ऐसे में यह बेहद आवश्यक है कि नियोक्ता इन सभी नियमों का पालन करें और महिलाओं के कार्यस्थल को सुरक्षित बनाएं। यह कानून न केवल उनकी शारीरिक सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं, बल्कि मानसिक शांति भी प्रदान करते हैं।
मातृत्व लाभ अधिनियम और महिलाओं के लिए मातृत्व अवकाश के प्रावधान
मातृत्व नारी जीवन का एक महत्वपूर्ण दौर है और इस समय उसे सुरक्षा और आराम की आवश्यकता होती है। मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 महिलाओं को यह अधिकार देता है कि वे गर्भावस्था के दौरान काम से 6 महीने तक का अवकाश ले सकें, और इस अवधि में उन्हें पूरा वेतन भी मिले।
प्रमुख बिंदु:
- यह अधिनियम संगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं पर लागू होता है।
- गर्भवती महिला को जन्म से पहले या बाद में छुट्टी लेने की छूट है।
- नियोक्ता इस अवधि में महिला को पूर्ण वेतन देने के लिए बाध्य है।
- यदि कार्य स्थल पर 50 या अधिक महिलाएँ कार्यरत हैं, तो वहाँ क्रेच (crèche - बाल देखभाल केंद्र) की व्यवस्था भी अनिवार्य है।

महिला श्रमिकों के लिए कार्यस्थलों पर बुनियादी सुविधाएँ: शौचालय, धुलाई और बाल देखभाल
महिलाओं के लिए साफ-सुथरे शौचालय, धुलाई की जगह और बाल देखभाल केंद्र (क्रेच) कार्यस्थल पर आवश्यक सुविधाएँ हैं, जो सीधे तौर पर उनकी कार्यक्षमता और गरिमा से जुड़ी होती हैं।
प्रमुख कानून और प्रावधान:
- शौचालय और मूत्रालय की अनिवार्यता:
- संविदा श्रम अधिनियम, 1970 (नियम 53)
- फैक्टरी अधिनियम, 1948 (धारा 19)
- खान अधिनियम, 1952 (धारा 20)
- धुलाई की सुविधा:
- फैक्टरी अधिनियम (धारा 42),
- अंतर्राज्यीय प्रवासी कामगार अधिनियम (धारा 43)
- क्रेच सुविधा:
- फैक्टरी अधिनियम (धारा 48)
- बीड़ी एवं सिगार अधिनियम, भवन एवं अन्य निर्माण अधिनियम (धारा 35)
जहाँ महिलाएँ छोटे उद्योगों या निर्माण स्थलों पर काम करती हैं, वहाँ अक्सर इन सुविधाओं की कमी पाई जाती है। इनकी अनुपस्थिति से महिलाओं को कई बार स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं, असहजता और तनाव का सामना करना पड़ता है। नियोक्ताओं और सरकारी निकायों को इन नियमों के पालन हेतु ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए।

महिला व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम और उनके आत्मनिर्भरता की दिशा में प्रयास
शिक्षा और कौशल ही महिला सशक्तिकरण के मूल आधार हैं। भारत सरकार के महिला व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम का उद्देश्य महिलाओं को हुनरमंद बनाना, रोज़गार दिलाना और उन्हें स्वावलंबी बनाना है।
प्रमुख संस्थान:
- NVTI – नोएडा: राष्ट्रीय व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थान
- RVTI – क्षेत्रीय संस्थान: इलाहाबाद, मुंबई, इंदौर, पानीपत, कोलकाता, बैंगलोर आदि में कार्यरत हैं।
- प्रशिक्षिण में कंप्यूटर (Computer), फैशन डिजाइनिंग (Fashion Designing), फूड प्रोसेसिंग (Food Processing), इलेक्ट्रॉनिक्स (Electronics) आदि कोर्स (course) शामिल हैं।
इन कार्यक्रमों से जुड़कर जौनपुर की महिलाएँ न केवल नौकरी पाने में सक्षम हो सकती हैं, बल्कि घरेलू उद्योग, ऑनलाइन सेवाएँ, या स्वरोज़गार के ज़रिए अपनी आर्थिक स्थिति भी सुधार सकती हैं। राज्य सरकारों द्वारा अब उत्तर प्रदेश के ज़िलों में भी प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
संदर्भ-
जौनपुरवासियों, क्या आप जानते हैं यूरेनियम भंडार कैसे प्रभावित करते हैं हज़ारों ज़िंदगियाँ?
खदान
Mines
29-07-2025 09:30 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों, हो सकता है कि यूरेनियम खनन की चर्चा हमारे शहर से दूर कहीं झारखंड या आंध्र प्रदेश की खदानों में हो रही हो, लेकिन इसका असर पूरे देश और अंततः हम सबकी ज़िंदगी पर पड़ता है। भारत में यूरेनियम, जो परमाणु ऊर्जा उत्पादन के लिए बेहद अहम खनिज है, तेजी से विकास और रोज़गार के नए रास्ते खोल रहा है। लेकिन इसी के साथ यह भी ज़रूरी है कि हम उसके पर्यावरणीय और सामाजिक दुष्प्रभावों पर गंभीरता से नज़र डालें। जब ज़मीन की तहों से यूरेनियम निकाला जाता है, तो वहाँ की मिट्टी, जल और हवा—तीनों पर असर पड़ता है, और आसपास के लोगों के स्वास्थ्य को भी खतरा होता है। इसलिए यह विषय केवल विज्ञान या ऊर्जा मंत्रालय तक सीमित नहीं है, बल्कि हर जागरूक नागरिक के सोचने और समझने का विषय है, जिसमें जौनपुर जैसे शिक्षित और संवेदनशील शहर की भूमिका अहम हो सकती है। यूरेनियम एक महत्त्वपूर्ण खनिज है जिसका उपयोग परमाणु ऊर्जा जैसे शांतिपूर्ण उद्देश्यों में होता है, परंतु इसके खनन की प्रक्रिया और इसके आसपास के पर्यावरण पर इसके प्रभावों को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
आज हम इस लेख में भारत के प्रमुख यूरेनियम भंडारों और उनके स्थानों के बारे में विस्तार से जानेंगे। फिर, हम समझेंगे कि यूरेनियम ज़मीन से कैसे निकाला जाता है — यानी किन प्रमुख खनन तकनीकों का उपयोग किया जाता है। इसके बाद, हम यह देखेंगे कि यह खनन गतिविधियाँ भारत की अर्थव्यवस्था और रोजगार व्यवस्था को कैसे प्रभावित करती हैं। अंत में, हम जानेंगे कि यूरेनियम खदानों के आसपास रहने वाले लोगों के जीवन और स्वास्थ्य पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है — जिससे इसकी सामाजिक और मानवीय लागतों को समझा जा सके।
भारत में यूरेनियम के प्रमुख भंडार और उनका भौगोलिक वितरण
भारत में यूरेनियम के संसाधन कुल वैश्विक भंडार का लगभग 3%हैं, जो दिखने में कम ज़रूर लग सकते हैं, लेकिन सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण हैं। इन संसाधनों का सबसे बड़ा हिस्सा देश के पूर्वी, दक्षिणी और उत्तर-पश्चिमी हिस्सों में फैला हुआ है।
1.सबसे बड़ा और सबसे पुराना यूरेनियम क्षेत्र झारखंड का सिंहभूम शियर ज़ोन है, जहाँ 17 से अधिक यूरेनियम खनिज क्षेत्र स्थित हैं। ये क्षेत्र अकेले भारत के 30% यूरेनियम संसाधनों की आपूर्ति करते हैं।
2.आंध्र प्रदेश का कडप्पा बेसिन, विशेष रूप से तुम्मलपल्ले, भविष्य में भारत के लिए ऊर्जा सुरक्षा का केन्द्र बन सकता है। यह क्षेत्र स्ट्रैटबाउंड प्रकार के यूरेनियम जमाओं के लिए जाना जाता है और यहाँ की खदानें 160 किमी तक फैली हुई हैं।
3.इसके अलावा, मेघालय का दक्षिणी भाग, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, और राजस्थान-हरियाणा के अरावली क्षेत्र में भी यूरेनियम की संभावनाएँ खोजी गई हैं।
हालांकि अधिकांश भंडार निम्न श्रेणी के हैं (जिनमें यूरेनियम की सांद्रता कम होती है), फिर भी वैज्ञानिकों और खनन कंपनियों का मानना है कि बेहतर तकनीक और गहन अन्वेषण से इन क्षेत्रों को आर्थिक रूप से उपयोगी बनाया जा सकता है।

यूरेनियम निकालने की मुख्य खनन तकनीकें
यूरेनियम की खोज के बाद सबसे जटिल कार्य होता है – उसे ज़मीन से सुरक्षित और प्रभावी ढंग से निकालना। यूरेनियम खनन की प्रक्रिया बहुत ही तकनीकी, महंगी और पर्यावरण पर असर डालने वाली होती है।
1. खुले गड्ढे की खनन (Open-pit mining)
इसमें खदानों की सतह को खोदकर ऊपर की मिट्टी हटाई जाती है ताकि नीचे मौजूद अयस्क तक पहुँचा जा सके। यह तब अपनाया जाता है जब अयस्क सतह के पास होता है (400 फीट से कम गहराई पर)। इस प्रक्रिया में बड़ी-बड़ी मशीनें और विस्फोटक उपकरण इस्तेमाल किए जाते हैं, जिससे पर्यावरण पर व्यापक प्रभाव पड़ता है।
2. भूमिगत खनन (Underground mining)
यह तकनीक तब अपनाई जाती है जब यूरेनियम अयस्क गहराई में स्थित हो। इसमें सुरंगें बनाकर अयस्क को खोदा जाता है और फिर ऊपर लाया जाता है। इसके बाद यह अयस्क मिलिंग यूनिट में भेजा जाता है जहाँ से यूरेनियम निकाला जाता है।
3. मिलिंग प्रक्रिया (Milling)
मिलिंग एक रासायनिक प्रक्रिया है जिसमें अयस्क को पीसकर पाउडर में बदला जाता है और सल्फ्यूरिक एसिड या क्षारीय घोल से मिलाया जाता है। यह घोल चट्टान से यूरेनियम को अलग करता है और 'येलोकेक' (U3O8) बनता है — जो यूरेनियम का सांद्रित रूप होता है।
4. इन-सीटू रिकवरी (In-situ leaching)
यह तकनीक ज़मीन के भीतर ही रसायन इंजेक्ट करके यूरेनियम को घोलने और फिर उसे वापस पाइप के ज़रिए निकालने की विधि है। इसे सबसे अधिक पर्यावरण-अनुकूल तरीका माना जाता है क्योंकि इसमें सतह पर खुदाई नहीं होती, लेकिन इसकी सीमाएँ भी हैं – हर अयस्क इस प्रक्रिया के अनुकूल नहीं होता।
इन सभी प्रक्रियाओं में रेडिएशन का रिसाव और रासायनिक अपशिष्ट एक गंभीर समस्या होती है, जिससे पर्यावरणीय और मानवीय जोखिम जुड़ा रहता है।
यूरेनियम खनन का भारत की अर्थव्यवस्था और रोज़गार पर प्रभाव
यूरेनियम भारत की ऊर्जा नीति का अभिन्न हिस्सा है। परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को ईंधन की निरंतर आपूर्ति देने के लिए खनन गतिविधियों का विस्तार आवश्यक है। इससे देश की ऊर्जा आत्मनिर्भरता बढ़ती है और जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता कम होती है। आर्थिक दृष्टि से देखा जाए तो यूरेनियम खनन क्षेत्रीय विकास का केंद्र बनते जा रहे हैं। झारखंड, आंध्र प्रदेश और मेघालय जैसे राज्यों में खनन परियोजनाओं से हज़ारों लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोज़गार मिला है। इसमें खनिक, इंजीनियर, तकनीशियन, सुरक्षा गार्ड, ट्रांसपोर्ट वर्कर, हेल्थ स्टाफ और स्थानीय सेवा उद्योग शामिल हैं। तुम्मलपल्ले खदानों से जुड़े अनुमान दर्शाते हैं कि यह क्षेत्र भारत के सबसे बड़े यूरेनियम भंडारों में से एक बनने की ओर अग्रसर है। यहाँ खनन के बढ़ते कार्य से स्थानीय व्यापार और इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार के संकेत मिल रहे हैं। हालांकि, इन अवसरों के साथ-साथ सामाजिक चुनौतियाँ भी हैं — विस्थापन, भूमि अधिग्रहण, पारंपरिक आजीविकाओं में हस्तक्षेप, और स्वास्थ्य जोखिम। ये सभी मुद्दे सामाजिक न्याय और दीर्घकालिक नीति के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

खदानों के पास रहने वाले लोगों पर रेडिएशन का प्रभाव और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं
यूरेनियम खनन का सबसे संवेदनशील और कम चर्चा में रहने वाला पक्ष है — इसके आसपास रहने वाले समुदायों पर असर। विशेष रूप से झारखंड का जादूगुड़ा क्षेत्र इस बात का जीवंत उदाहरण है कि कैसे एक चमकता उद्योग स्थानीय जीवन को अंधकार में बदल सकता है। जादूगुड़ा खदानों से निकलने वाले अपशिष्ट (टेलिंग्स) खुले में जमा किए जाते हैं या स्थानीय जल स्रोतों में छोड़ दिए जाते हैं। इनमें भारी मात्रा में रेडियोधर्मी तत्व होते हैं, जो मिट्टी, जल और वायु को प्रदूषित करते हैं।
इसका असर लोगों के स्वास्थ्य पर भयानक रूप से पड़ा है:
- नवजात शिशुओं की मृत्यु दर में वृद्धि
- जन्मजात विकृतियाँ
- महिलाओं में बार-बार गर्भपात
- थकान, कमजोरी और कैंसर जैसी बीमारियाँ
टीआईएसएस (TISS (Tata Institute of Social Sciences) के एक अध्ययन के अनुसार, 1998 से 2003 के बीच 18% महिलाओं को गर्भपात या मृत प्रसव का सामना करना पड़ा। 30% महिलाओं ने गर्भधारण में कठिनाइयों की शिकायत की। कई बच्चों का विकास रुक जाता है, कुछ को तंत्रिका विकार होते हैं, और कुछ जीवन भर विकलांग हो जाते हैं। यह सिर्फ चिकित्सा नहीं, बल्कि सामाजिक और भावनात्मक त्रासदी भी है — जो पीढ़ियों तक चलता है।
मुख्य चित्र में यूरेनियम अयस्क को दर्शाता चित्रण।
संदर्भ-
इंटरनेट की राह पर जौनपुर: बदलते ज़माने की नई पहचान
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
28-07-2025 09:27 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर के किसान, जो कभी मौसम या बाजार भाव की जानकारी के लिए स्थानीय मंडी या रेडियो पर निर्भर रहते थे, आज मोबाइल एप्लिकेशन और इंटरनेट पोर्टल्स से रियल-टाइम डेटा प्राप्त कर रहे हैं, जिससे वे अधिक सूझबूझ से कृषि निर्णय ले पा रहे हैं। वहीं स्थानीय दुकानदार और व्यवसायी, जो पहले केवल मोहल्ले तक सीमित रहते थे, अब व्हाट्सऐप बिज़नेस, फेसबुक मार्केटप्लेस और ई-कॉमर्स वेबसाइटों के ज़रिए अपने उत्पादों और सेवाओं को राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचा रहे हैं। इसके अलावा, सरकारी सेवाओं की डिजिटल पहुंच — जैसे राशन कार्ड, पेंशन, बिजली बिल भुगतान, और आयुष्मान भारत जैसी स्वास्थ्य योजनाओं की जानकारी — अब ग्रामीण और शहरी जौनपुर, दोनों क्षेत्रों में ऑनलाइन उपलब्ध है। इंटरनेट ने न केवल जौनपुर के युवाओं के लिए करियर के नए द्वार खोले हैं, बल्कि महिलाओं और वरिष्ठ नागरिकों को भी डिजिटल मंचों के माध्यम से जागरूकता, आत्मनिर्भरता और सुविधा का अनुभव कराया है। आज के डिजिटल युग में इंटरनेट केवल एक तकनीकी साधन नहीं, बल्कि हमारे जीवन का अनिवार्य आधार बन चुका है। यह हमारी शिक्षा, व्यवसाय, स्वास्थ्य सेवाओं, बैंकिंग, संचार और मनोरंजन से लेकर सरकारी सेवाओं तक — हर क्षेत्र की रीढ़ बन गया है। जौनपुर जैसे उभरते हुए शहर में, जहाँ परंपरा और प्रगति का सुंदर मेल देखने को मिलता है, इंटरनेट ने सामाजिक और आर्थिक विकास की गति को कई गुना बढ़ा दिया है। अब यहाँ के छात्र सिर्फ स्कूल या कॉलेज तक सीमित नहीं हैं — वे ऑनलाइन पाठ्यक्रमों, वर्चुअल क्लासेस और वैश्विक ज्ञान संसाधनों तक पहुँच बना रहे हैं।
इस लेख में हम जानेंगे कि इंटरनेट की शुरुआत अरपानेट (ARPANET) से कैसे हुई और यह वैश्विक तकनीकी क्रांति में कैसे बदला। फिर, हम समझेंगे कि इंटरनेट कैसे काम करता है — जैसे डेटा का आदान-प्रदान, वेब ब्राउज़र और सर्वर का संबंध। इसके बाद, भारत में 1995 से शुरू हुई इंटरनेट यात्रा को देखेंगे। अंत में, 5G, डिजिटल शिक्षा और ई-गवर्नेंस जैसे भविष्य के अवसरों और जौनपुर जैसे शहरों की इसमें भागीदारी पर चर्चा करेंगे।
आधुनिक जीवन में इंटरनेट का महत्व
21वीं सदी में इंटरनेट हमारे जीवन का केवल एक तकनीकी साधन नहीं, बल्कि एक अभिन्न हिस्सा बन चुका है। आज यह हमारी दिनचर्या में इस तरह समा गया है कि जागने से लेकर सोने तक हम बार-बार इसकी ओर रुख करते हैं — चाहे मोबाइल पर न्यूज़ चेक करना हो, किसी से चैट करना हो या ऑनलाइन खरीदारी करना हो। शिक्षा, व्यवसाय, स्वास्थ्य सेवाएँ, मनोरंजन, बैंकिंग या सरकारी सुविधाएँ — हर क्षेत्र में इंटरनेट की भूमिका अब केंद्रीय हो गई है।
भारत में इंटरनेट का प्रसार अब सिर्फ महानगरों तक सीमित नहीं है। जौनपुर जैसे विकासशील शहरों में भी इंटरनेट ने अभूतपूर्व परिवर्तन लाया है। जहाँ पहले सीमित संसाधनों और पारंपरिक ढाँचों के भरोसे जीवन चलता था, वहीं आज ऑनलाइन शिक्षा, डिजिटल मार्केटिंग, टेलीमेडिसिन और सरकारी योजनाओं की ऑनलाइन पहुँच ने यहाँ के लोगों के जीवन को एक नई दिशा दी है। छोटे दुकानदार अब ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म्स के ज़रिए ग्राहकों तक पहुँच रहे हैं, और छात्र यूट्यूब (YouTube), बायजूस (Byju's) और अन्य डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के माध्यम से घर बैठे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा ले रहे हैं।
विश्व स्तर पर, इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या 4.8 अरब से भी अधिक हो चुकी है। भारत में यह संख्या 800 मिलियन (80 करोड़) को पार कर चुकी है। दिलचस्प बात यह है कि रामपुर जैसे अपेक्षाकृत छोटे शहरों में भी इंटरनेट ने गहरी पैठ बना ली है — उदाहरण के लिए, 2025 में, जौनपुर में 2.6 लाख से अधिक इंटरनेट कनेक्शन दर्ज किए गए, और यहाँ फेसबुक उपयोगकर्ताओं की संख्या 1.4 लाख से अधिक होने का अनुमान है। इससे स्पष्ट होता है कि भारत का डिजिटल भविष्य अब केवल महानगरों तक सीमित नहीं रहा।

इंटरनेट का आरंभ: एक तकनीकी क्रांति की नींव
इंटरनेट की कहानी कोई एक दिन की नहीं है — इसकी नींव 1960 के दशक में पड़ी, जब अमेरिका में वैज्ञानिक और शोधकर्ता एक ऐसी प्रणाली विकसित करना चाहते थे, जिससे दूर-दराज़ के कंप्यूटर एक-दूसरे से डेटा साझा कर सकें। उस समय कंप्यूटर विशालकाय होते थे और एक-दूसरे से जुड़े नहीं होते थे। शीत युद्ध के दौर में अमेरिका को यह डर था कि किसी परमाणु हमले की स्थिति में उसकी संचार प्रणाली ध्वस्त हो सकती है। इस समस्या से निपटने के लिए अमेरिका के रक्षा विभाग ने एक ऐसा नेटवर्क तैयार करने का निर्णय लिया, जो विकेन्द्रीकृत हो — यानी अगर एक हिस्सा बंद भी हो जाए, तो संचार बाकी हिस्सों से चलता रहे। इसी उद्देश्य से अरपानेट (Advanced Research Projects Agency Network) की स्थापना हुई, जिसे आधुनिक इंटरनेट का पहला स्वरूप माना जाता है।
अरपानेट की शुरुआत 1969 में केवल चार कंप्यूटरों के नेटवर्क से हुई थी। लेकिन अगले एक दशक में यह नेटवर्क कई विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों में फैल गया। वर्ष 1983 में जब TCP/IP प्रोटोकॉल को मानक के रूप में अपनाया गया, तब इंटरनेट को तकनीकी रूप से "जनम" मिला। यही प्रोटोकॉल आज भी इंटरनेट की रीढ़ है।
इंटरनेट की कार्यप्रणाली: डेटा कैसे पहुँचता है आप तक
जब आप अपने फोन या लैपटॉप से कोई वेबसाइट खोलते हैं, तो वह एक सरल प्रक्रिया जैसा दिखता है — लेकिन वास्तव में यह एक जटिल तकनीकी चमत्कार है। इंटरनेट का संचालन एक पैकेट-आधारित प्रणाली के ज़रिए होता है। जब आप कोई जानकारी मांगते हैं, जैसे किसी वेबसाइट को खोलना, तो आपका अनुरोध छोटे-छोटे डेटा पैकेट्स में विभाजित होकर कई रास्तों से सर्वर तक पहुँचता है और फिर वहीं से उत्तर (डाटा) आपके पास वापस आता है। हर डिवाइस का एक अद्वितीय आईपी एड्रेस (IP Address) होता है — ठीक उसी तरह जैसे किसी घर का पता होता है। इस पते के आधार पर यह तय होता है कि कौन-सा डेटा किस स्थान पर पहुँचना है। टीसीपी/आईपी (TCP/IP) प्रोटोकॉल यह सुनिश्चित करता है कि यह डेटा सही रूप में, सुरक्षित और व्यवस्थित ढंग से पहुँचे।
जब आप अपने वेब ब्राउज़र (जैसे गूगल क्रोम (Google Chrome), फ़ायरफ़ॉक्स (Firefox) आदि) में किसी वेबसाइट का नाम टाइप करते हैं, तो ब्राउज़र एक अनुरोध भेजता है, जिसे सर्वर प्राप्त करता है और फिर वह एचटीएमएल फॉर्मेट (HTML Format) में डेटा वापस भेजता है। एचटीटीपी (HTTP) या एचटीटीपीएस (HTTPS) प्रोटोकॉल (protocol) यह प्रक्रिया सुरक्षित और सुव्यवस्थित बनाते हैं। सिर्फ वेबसाइट ही नहीं, ईमेल, वीडियो कॉलिंग, ऑनलाइन बैंकिंग, क्लाउड स्टोरेज — सब कुछ इसी नेटवर्किंग सिद्धांत पर आधारित है।

भारत में इंटरनेट का आगमन और विस्तार
भारत में इंटरनेट की शुरुआत 1986 में हुई, जब शिक्षा और अनुसंधान के लिए कुछ विशेष नेटवर्क बनाए गए। लेकिन आम जनता को पहली बार इंटरनेट का स्वाद 15 अगस्त 1995 को मिला, जब वीएसएनएल-विदेश संचार निगम लिमिटेड (VSNL- Videsh Sanchar Nigam Limited) ने इंटरनेट सेवा शुरू की। यह सेवा मॉडेम के जरिए मिलती थी, जिसमें डायल-अप कनेक्शन के लिए लंबा इंतजार और 'बीप-बीप' की आवाज़ें आम थीं। 1996 में भारत का पहला साइबर कैफ़े मुंबई में रीडिफ (Rediff) द्वारा शुरू किया गया। धीरे-धीरे इंटरनेट बैंकिंग, रेलवे आरक्षण, ई-मेल और समाचार पोर्टल जैसे डिजिटल नवाचार भारत में दिखाई देने लगे। उस दौर में इंटरनेट को एक लग्ज़री सुविधा माना जाता था, लेकिन आज यह एक बुनियादी आवश्यकता बन चुका है।
भारत में डिजिटल विकास की प्रमुख घटनाएँ
2000 से 2020 के बीच भारत में डिजिटल क्षेत्र में कई क्रांतिकारी परिवर्तन हुए:
2000: केबल इंटरनेट सेवाओं और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम (IT Act) की शुरुआत हुई, जिसने साइबर अपराधों के खिलाफ कानूनी ढांचा तैयार किया।
2004: गूगल (Google) ने भारत में अपना पहला ऑफिस खोला, जिससे डिजिटल नवाचार को और गति मिली।
2005: ऑर्कुट (Orkut) के ज़रिए भारत में सोशल नेटवर्किंग का पहला अनुभव आया, जिसे बाद में Facebook और Twitter ने आगे बढ़ाया।
2008-2010: 2G और 3G सेवाओं की शुरुआत ने मोबाइल इंटरनेट को आम लोगों तक पहुँचाया।
2011-2014: बीएसएनएल (BSNL) और एयरटेल (Airtel) जैसी कंपनियों ने 4G सेवाएं शुरू कीं।
2016: रिलायंस जियो (Reliance Jio) ने जबरदस्त डाटा क्रांति लाई, जिससे इंटरनेट हर हाथ में पहुँचा।
2020: कोविड महामारी के दौरान डिजिटल शिक्षा, टेलीमेडिसिन और ऑनलाइन खरीदारी में अभूतपूर्व उछाल आया।

डिजिटल भारत की दिशा: भविष्य की संभावनाएँ
भारत अब डिजिटल क्रांति के अगले चरण में प्रवेश कर चुका है। 5G सेवाओं का तेजी से विस्तार, स्टार्टअप कल्चर को बढ़ावा, ई-गवर्नेंस की पहल, और डिजिटल शिक्षा के माध्यम से देश एक नए युग की ओर अग्रसर है। इससे न केवल शहरी, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों को भी फायदा पहुँच रहा है। सरकार और निजी कंपनियाँ मिलकर यह सुनिश्चित कर रही हैं कि ग्रामीण भारत — जिसमें जौनपुर जैसे जिले भी शामिल हैं — डिजिटल रूप से सशक्त बनें। अब किसान मोबाइल ऐप्स से मंडी भाव और मौसम की जानकारी पाते हैं, छात्र स्मार्टफोन पर सरकारी पोर्टल से पढ़ाई कर सकते हैं, और महिलाएँ घर बैठे डिजिटल स्किल्स सीखकर स्वरोज़गार की ओर कदम बढ़ा रही हैं। डिजिटल भारत की इस यात्रा में एक और जरूरी पहलू है — साइबर सुरक्षा और डिजिटल साक्षरता। जैसे-जैसे तकनीक का प्रसार हो रहा है, वैसे-वैसे लोगों को इससे सुरक्षित रूप से जुड़ना भी सीखना होगा।
संदर्भ-
जौनपुर: शिराज-ए-हिंद की तहज़ीब, इतिहास और सांस्कृतिक विरासत की ज़िंदा मिसाल
द्रिश्य 1 लेंस/तस्वीर उतारना
Sight I - Lenses/ Photography
27-07-2025 09:26 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर, उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में स्थित एक ऐतिहासिक नगर है, जिसे 1359 ईस्वी में दिल्ली के सुल्तान फिरोज़ शाह तुगलक ने अपने चचेरे भाई मोहम्मद बिन तुगलक की स्मृति में बसाया था। यह नगर केवल एक प्रशासनिक केंद्र नहीं रहा, बल्कि एक समय में कला, संस्कृति और शिक्षा का समृद्ध केंद्र भी था। 1394 ईस्वी में मलिक सरवर ने यहाँ शर्क़ी सल्तनत की स्थापना की, जो इब्राहिम शाह शर्क़ी के शासनकाल (1402–1440) में अपने चरम पर पहुँची। उस समय जौनपुर की सीमाएँ बिहार से लेकर कन्नौज और दिल्ली से बंगाल तक फैली हुई थीं। यहाँ का शासन धार्मिक सहिष्णुता, सांस्कृतिक समन्वय और स्थापत्य के अद्भुत उदाहरणों के लिए जाना गया। हुसैन शाह के काल में जौनपुर की सैन्य ताकत इतनी बढ़ गई थी कि यह भारत की सबसे बड़ी सेनाओं में गिना जाने लगा। हालाँकि दिल्ली पर अधिकार की उनकी कोशिशें असफल रहीं और अंततः सिकंदर लोदी ने 1493 में इस पर कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद 1779 ईस्वी में जौनपुर को स्थायी बंदोबस्त की संधि के तहत ब्रिटिश शासन में मिला लिया गया। शर्क़ी काल में जौनपुर एक प्रमुख सूफी केंद्र भी था, जहाँ हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के बीच अद्वितीय सांप्रदायिक सौहार्द देखने को मिलता था।
पहली वीडियो के माध्यम से हम जौनपुर के गौरवशाली इतिहास को जानने का प्रयास करेंगे।
नीचे दी गई वीडियो में हम जौनपुर शहर और उसके इतिहास की एक झलक देखेंगे।
जौनपुर की मस्जिदें, जैसे अटाला मस्जिद, जामा मस्जिद और लाल दरवाज़ा मस्जिद, आज भी उस दौर की वास्तुकला की भव्यता को जीवित रखे हुए हैं। ये संरचनाएँ न केवल धार्मिक आस्था के प्रतीक हैं, बल्कि एक ऐसे युग की गवाही भी देती हैं, जहाँ कला और संस्कृति का गहरा सम्मान था। साथ ही, गोमती नदी पर 1564 में बना ऐतिहासिक शाही पुल और जौनपुर का किला आज भी इस नगर की ऐतिहासिक पहचान को संजोए हुए हैं। जौनपुर वास्तव में एक ऐसा नगर है जहाँ इतिहास आज भी साँस लेता है।
नीचे दिए गए लिंक के माध्यम से हम जौनपुर के प्रमुख दर्शनीय स्थलों की झलक देखेंगे।
संदर्भ-
जौनपुर से उजाले तक: मिट्टी के तेल की वो रौशनी जो कभी हर घर में थी
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
26-07-2025 09:23 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों, क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे दादा-परदादाओं के समय में रौशनी का मुख्य साधन क्या था? वह समय जब शहर की गलियां बिजली से नहीं, बल्कि मिट्टी के तेल की लौ से जगमगाया करती थीं। मिट्टी का तेल, जिसे हम 'केरोसिन' कहते हैं, केवल एक ईंधन नहीं बल्कि भारत में ऊर्जा क्रांति की पहली सीढ़ी था। जौनपुर की पुरानी हवेलियों में आज भी लालटेन और स्टोव रखे हुए मिल जाएंगे, जो इस बात की गवाही देते हैं कि किस तरह केरोसिन ने हमारे शहर की रोशनी, रसोई और रोज़मर्रा के जीवन में अहम भूमिका निभाई। आइए, आज हम इसी केरोसिन की वैश्विक और भारतीय यात्रा को पांच प्रमुख पहलुओं में समझने की कोशिश करें।
इस लेख में हम केरोसिन की ऐतिहासिक और सामाजिक यात्रा को पांच दृष्टिकोणों से जानने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले, हम देखेंगे कि केरोसिन का आविष्कार कैसे और किसने किया और किस रूप में यह पहली बार उपयोग में आया। इसके बाद, हम समझेंगे कि विश्व स्तर पर यह ईंधन कितने नामों और रूपों में इस्तेमाल हुआ और कैसे यह हर महाद्वीप के जीवन में घुल-मिल गया। तीसरे खंड में हम जानेंगे कि 19वीं सदी में किस प्रकार केरोसिन ने घरेलू, परिवहन और चिकित्सा क्षेत्रों में क्रांति ला दी। फिर हम भारत में इसके आगमन और विस्तार की कहानी को जानेंगे—कैसे यह विदेशी कंपनियों से निकल कर भारतीय घरों तक पहुंचा। और अंत में, हम देखेंगे कि कैसे यह ईंधन भारत की सार्वजनिक वितरण प्रणाली का हिस्सा बना और आम लोगों की आर्थिक पहुंच में आया।

केरोसिन का आविष्कार: कोयले से जन्मा यह अद्भुत ईंधन
केरोसिन का आविष्कार 19वीं शताब्दी के मध्य में एक क्रांतिकारी घटना थी, जिसने दुनिया की ऊर्जा जरूरतों को एक नई दिशा दी। कनाडा के भूवैज्ञानिक और आविष्कारक अब्राहम गेस्नर (Abraham Gesner) ने 1846 में बिटुमिनस (Bituminous) कोयले और ऑयल शेल के आसवन (distillation) की प्रक्रिया से एक हल्का, स्वच्छ और अत्यंत उपयोगी द्रव तैयार किया जिसे बाद में 'केरोसिन' नाम दिया गया। यह शब्द ग्रीक भाषा के 'केरोस' (मोम) शब्द से निकला था। गेस्नर की खोज से पहले प्रकाश के लिए मुख्य रूप से व्हेल का तेल इस्तेमाल होता था, जो महंगा और सीमित मात्रा में उपलब्ध था। केरोसिन ने इस आवश्यकता को न केवल पूरा किया बल्कि इसे किफायती और टिकाऊ भी बनाया। इसकी विशेषता थी कि यह धीमी गति से जलता था और कम धुआं उत्पन्न करता था, जिससे यह लैंपों के लिए एक उपयुक्त ईंधन बन गया। 1854 में केरोसिन का व्यावसायिक उत्पादन प्रारंभ हुआ, जिसने कई देशों को प्रकाश और ईंधन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने का रास्ता दिखाया। यह आविष्कार केवल एक तकनीकी खोज नहीं था, बल्कि उसने लाखों लोगों के जीवन को रात में रोशन कर दिया और औद्योगिक युग की ऊर्जा आवश्यकता को नया आयाम प्रदान किया।
विश्व स्तर पर केरोसिन की लोकप्रियता: नामों, उपयोगों और इतिहास की विविधता
केरोसिन की वैश्विक स्वीकार्यता ने इसे एक बहुप्रयोजनीय और बहुपरिभाषित ईंधन बना दिया। अलग-अलग देशों में इसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है—भारत, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में इसे 'केरोसिन', तो वहीं यूनाइटेड किंगडम (United Kingdom) और दक्षिण अफ्रीका में 'पैराफिन' (Paraffin) के नाम से जाना जाता है। दक्षिण-पूर्व एशिया में कई बार इसे 'लैंप ऑयल' (lamp oil) कहा जाता है। इसका उपयोग भी विविध क्षेत्रों में होता है—घरेलू खाना पकाने से लेकर हवाई जहाजों में जेट ईंधन के रूप में, आउटबोर्ड मोटरों (outboard motors), मोटरसाइकिलों और रॉकेट प्रोपेलेंट (rocket propellant) के रूप में भी केरोसिन का प्रयोग होता है। इतना ही नहीं, दूरदराज़ के ग्रामीण इलाकों में जहाँ बिजली नहीं पहुँच पाई थी, वहाँ केरोसिन ही रौशनी का एकमात्र स्रोत बना रहा। आज भी अनुमान है कि दुनिया भर में हर दिन लगभग 11 लाख घन मीटर केरोसिन (cubic meters of kerosene) की खपत होती है, जो इसकी निरंतर उपयोगिता का प्रमाण है। केरोसिन ने वैश्विक ऊर्जा आपूर्ति की प्रणाली को न केवल सरल बनाया, बल्कि उन क्षेत्रों तक ऊर्जा पहुंचाई जहाँ तक अन्य विकल्प नहीं पहुँच सकते थे।
19वीं सदी का क्रांतिकारी परिवर्तन: लाइट, परिवहन और चिकित्सा में केरोसिन
19वीं सदी के उत्तरार्ध में केरोसिन ने जीवन के हर क्षेत्र में परिवर्तन की लहर ला दी। इससे पहले जहां रात का मतलब अंधकार होता था, वहीं केरोसिन लैंप ने घरों, दुकानों, स्कूलों और अस्पतालों को रोशनी से भर दिया। केरोसिन से जलने वाले लैंपों का उपयोग न केवल घरेलू कार्यों में बल्कि सार्वजनिक सुरक्षा और चिकित्सा सेवाओं में भी होने लगा। पुलिस विभाग की गश्त लाइट, अस्पतालों की आपातकालीन रोशनी और यहां तक कि ट्रेनों की सिग्नलिंग प्रणाली में भी केरोसिन लैंपों का व्यापक उपयोग हुआ। किसानों ने इसे खेतों में देर रात तक काम करने के लिए इस्तेमाल किया, जिससे कृषि उत्पादकता में वृद्धि हुई। इसके अलावा, केरोसिन का उपयोग घरेलू चिकित्सा में भी देखा गया—जैसे कि जूं मारने के उपाय में या हल्के त्वचा संक्रमणों के उपचार में। सामाजिक आयोजनों और मेलों में भी केरोसिन से जलने वाली लालटेनें एक सामान्य दृश्य थीं। इस प्रकार, केरोसिन सिर्फ एक ईंधन नहीं, बल्कि 19वीं सदी के विकास और जनजीवन के विस्तार का प्रतीक बन गया।
भारत में केरोसिन का आगमन और विस्तार: विदेशी कंपनियों से गांव तक
भारत में केरोसिन की कहानी, विदेशी निवेश और ग्रामीण भारत की ज़रूरतों के अद्भुत संगम की कहानी है। सर्वप्रथम इसे केरल के अलाप्पुझा बंदरगाह पर मैसर्स अर्नोल्ड चेनी एंड कंपनी द्वारा आयात किया गया था। इसके बाद बर्मा शेल, रिप्ले एंड मैके और ईएसएसओ (ISSO) जैसी विदेशी कंपनियों ने भारतीय बाजार में केरोसिन का गहन विस्तार किया। उन्होंने न केवल इसे शहरी भारत में लोकप्रिय किया बल्कि गांव-गांव तक पहुँचाया। 1952 में भारत में स्टैंडर्ड वैक्यूम रिफाइनिंग कंपनी ऑफ इंडिया लिमिटेड (Standard Vacuum Refining Company of India Ltd.) के रूप में ईएसएसओ की स्थापना, केरोसिन के भारतीय इतिहास का एक प्रमुख अध्याय बना। इससे लालटेनें, स्टोव (stove), पंखे और यहां तक कि इस्त्री करने वाले उपकरण तक विकसित हुए, जो केरोसिन पर आधारित थे। ग्रामीण भारत में बिजली की अनुपलब्धता के दौर में, यह ईंधन जीवन का आधार बन गया। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि केरोसिन ने आधुनिक भारत के निर्माण में एक मौन लेकिन स्थायी योगदान दिया है।
आर्थिक पहुँच और सरकारी वितरण: राशन प्रणाली में केरोसिन की जगह
केरोसिन की कीमतें शुरू में इतनी अधिक थीं कि यह केवल विशेष वर्ग के लिए ही सुलभ था। परंतु जब पेट्रोलियम रिफाइनरियों (petroleum refineries) ने इसका बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू किया और इसकी लागत कम हुई, तो सरकार ने इसे आमजन तक पहुँचाने का निर्णय लिया। भारत में इसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के तहत राशन की दुकानों में उपलब्ध कराया गया, जिससे गरीब और निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों के लिए यह आवश्यक ईंधन बन गया। स्कूलों, आंगनबाड़ियों और अन्य सामुदायिक केंद्रों में भी केरोसिन से जलने वाले स्टोवों और लालटेन का उपयोग आम हो गया। यह न केवल ऊर्जा का स्रोत था, बल्कि सरकार की सामाजिक न्याय नीति का भी हिस्सा बना। धीरे-धीरे जैसे-जैसे बिजली, एलपीजी (LPG)और अन्य आधुनिक ईंधनों की पहुँच बढ़ी, केरोसिन की खपत में कमी आई, लेकिन आज भी यह भारत के दूरस्थ ग्रामीण इलाकों और असंगठित क्षेत्रों में एक सस्ता, सुलभ और उपयोगी ईंधन बना हुआ है। इसका ऐतिहासिक महत्व और सामाजिक भूमिका, भारतीय ऊर्जा इतिहास का एक अमिट अध्याय है।
सन्दर्भ -
संस्कृति 2051
प्रकृति 777