जौनपुर - सिराज़-ए-हिन्द












क्यों जौनपुर के लोग, आज रीचार्जेबल बैटरियों के बिना, अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते?
वास्तुकला 2 कार्यालय व कार्यप्रणाली
Architecture II - Office/Work-Tools
14-04-2025 09:15 AM
Jaunpur District-Hindi

हम जौनपुर के लोग, अपने फ़ोन, लैपटॉप, कैमरे, और अन्य इलेक्ट्रिक उपकरणों में मौजूद रीचार्जेबल बैटरियों को, उनके ऊर्जा प्रभावी फ़ायदे के लिए लिए धन्यवाद देते हैं। इन विद्युत बैटरियों (इलेक्ट्रिकल Batteries) को स्टोरेज बैटरी या सेकेंडरी सेल भी कहा जाता है। इन्हें कई बार चार्ज और डिस्चार्ज किया जा सकता है । एक तरफ़, डिस्पोज़ेबल या प्राथमिक बैटरी को पूरी तरह से बिजली आपूर्ति की जाती है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि, बैटरी कैसे काम करती है। तो आज, इसके बारे में विस्तार से जानकारी पाए। फिर, हमें भारत में मौजूद कुछ लोकप्रिय प्रकार की रीचार्जेबल बैटरी के बारे में पता चलेगा। इसके अलावा, हम रीचार्जेबल बैटरी के कुछ नुकसानों पर प्रकाश डालेंगे। अंत में, हम रीचार्जेबल बैटरी उत्पादन की वर्तमान वैश्विक स्थिति का पता लगाएंगे।
बैटरी कैसे काम करती है ?
बैटरी काम कर सके, इसलिए बिजली को आसानी से संग्रहीत किए जाने से पहले, एक रासायनिक पोटेंशियल (Chemical potential) रूप में परिवर्तित किया जाना चाहिए। एक बैटरी, दो विद्युत टर्मिनलों (Electrical terminals) से मिलकर बनती है, जिन्हें कैथोड (Cathode) और एनोड (Anode) कहा जाता है। इन्हें एक रासायनिक सामग्री द्वारा अलग किया जाता है, जिसे इलेक्ट्रोलाइट (Electrolyte) कहा जाता है। ऊर्जा को स्वीकार करने और जारी करने के लिए, एक बैटरी को बाहरी सर्किट (Circuit) में जोड़ा जाता है। इलेक्ट्रॉनों (Electrons) को सर्किट के माध्यम से स्थानांतरित किया जाता है, जबकि आयंस (Ions) (एक विद्युत आवेश के साथ परमाणु या अणु) इलेक्ट्रोलाइट के माध्यम से चलते हैं।
एक रीचार्जेबल बैटरी में इलेक्ट्रॉन और आयन, सर्किट और इलेक्ट्रोलाइट के माध्यम से किसी भी दिशा में स्थानांतरित हो सकते हैं। जब इलेक्ट्रॉन कैथोड से एनोड तक जाते हैं, तो वे रासायनिक पोटेंशियल ऊर्जा को बढ़ाते हैं, इस प्रकार बैटरी को चार्ज करते हैं। जबकि, जब वे दूसरी दिशा में स्थानांतरित होते हैं, तो वे इस रासायनिक पोटेंशियल ऊर्जा को सर्किट में, बिजली में परिवर्तित करते हैं और बैटरी को डिस्चार्ज करते हैं।
चार्जिंग या डिस्चार्जिंग के दौरान, विपरीत रूप से चार्ज किए गए आयन, इलेक्ट्रोलाइट के माध्यम से बैटरी के अंदर, बाहरी सर्किट के माध्यम से जाने वाले इलेक्ट्रॉनों के आवेश को संतुलित करने तथा एक स्थायी व रीचार्जेबल सिस्टम का उत्पादन करने के लिए चलते हैं। एक बार चार्ज होने के बाद, बैटरी को बाद में बिजली के रूप में उपयोग के लिए, रासायनिक पोटेंशियल ऊर्जा को करने हेतु सर्किट से वियोजित किया जा सकता है।
भारत में लोकप्रिय रीचार्जेबल बैटरियों के प्रकार:
1.) निकेल कैडमियम बैटरी (Nickel-cadmium Batteries):
इस बैटरी को इसके स्थायित्व और लागत-प्रभावशीलता के लिए जाना जाता है। उन्हें कई औद्योगिक क्षेत्रों में प्रयुक्त किया जाता हैं। हालांकि, वे नए बैटरी विकल्पों की तुलना में थोड़े पुराने हैं। निकेल कैडमियम (Ni-Cd) बैटरी, उच्च ऊर्जा भंडारण की पेशकश करती है, और आंशिक डिस्चार्ज को संभाल सकती है। वे कई उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स के लिए भी उपयुक्त हैं।
2.) लिथियम आयन बैटरी (Lithiumion Batteries):
ये बैटरियां, दक्षता और भंडारण क्षमता में नेतृत्व करती हैं। वे 97% ग्रिड एनर्जी स्टोरेज (Grid energy storage) मार्केट को कवर करती हैं। उनके लिए विशेष चार्जर्स का उपयोग करना महत्वपूर्ण है। यह उनकी उच्च वोल्टेज ज़रूरतों और संवेदनशीलता के कारण है।
3.) हाइब्रिड बैटरी (Hybrid Batteries):
ज़ेबरा (ZEBRA) या सोडियम मेटल हैलाइड (Sodium metal halide) जैसी हाइब्रिड बैटरियों में आज हितधारकों की रुचि बढ़ रही है। ये बैटरियां, स्थिर और लागत प्रभावी ग्रिड अनुप्रयोगों के लिए अच्छी हैं। कार्बनिक जलीय प्रवाह बैटरी (Organic aqueous flow batteries) में भी अद्वितीय गुण होते हैं। वे बड़े पैमाने पर अक्षय ऊर्जा को स्टोर कर सकती हैं।
4.) लेड एसिड बैटरी (Lead-Acid Batteries):
आज सुरक्षित एवं इको-फ्रेंडली बैटरियों पर विचार किया जा रहा है। लेड एसिड बैटरी पुनर्नवीनीकरण योग्य हैं। वे कई उपयोगों के लिए, अच्छा ऊर्जा भंडारण प्रदान करते हैं।
रीचार्जेबल बैटरी के नुकसान:
1.) अधिक अप-फ़्रंट लागत:
रीचार्जेबल बैटरियां, डिस्पोज़ेबल बैटरियों की तुलना में अधिक महंगी है। हालांकि, जब आप किसी डिवाइस या विद्युत प्रणाली के जीवन पर दीर्घकालिक उपयोग की लागत पर विचार करते हैं, तो रीचार्जेबल बैटरियों की समग्र लागत कम होती है।
2.) स्टोरेज में चार्ज भंडारण की सीमित क्षमता:
जब रीचार्जेबल बैटरी उपयोग में नहीं होती है, तो यह डिस्पोज़ेबल बैटरी की तुलना में अधिक तेज़ी से बिजली खो देती है। हालांकि, इस बैटरी के उपयोग में होने पर, यह नुकसान व्यावहारिक रूप से काफ़ी कम हो जाता है।
3.) समाप्त होने पर सूचना का अभाव:
रीचार्जेबल बैटरी, समय के साथ डिस्पोज़ेबल बैटरी के विपरीत लगातार प्रदर्शन करती है। उदाहरण के तौर पर, आपका फ़ोन तब तक पूरी तरह कार्यात्मक रहेगा, जब तक कि बैटरी डिस्चार्ज नहीं हो जाती।
रीचार्जेबल बैटरी उत्पादन की वर्तमान वैश्विक स्थिति:
2023 में एडमास इंटेलिजेंस (Adamas Intelligence) द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया के आधे से अधिक इलेक्ट्रिक वाहनों एवं दुनिया के आधे से अधिक इलेक्ट्रिक वाहन बैटरियों का उत्पादन, चीन (China) द्वारा किया गया था। इस संदर्भ में दूसरे और तीसरे उत्पादक, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका (United States of America) और जर्मनी (Germany) थे। फिर यूनाइटेड किंगडम (United Kingdom) एवं फ़्रांस(France), क्रमशः चौथे तरह पांचवें स्थान पर थे।
हालांकि चीन-निर्मित ई वी बैटरियों का उत्पादन, दिसंबर 2022 में 58% वैश्विक ई वी बैटरी खपत से घटकर दिसंबर 2023 में 54% हो गया था।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: रीचार्जेबल AA और AAA बैटरियों के लिए एक सामान्य उपभोक्ता बैटरी चार्जर और आईफ़ोन 3GS में प्रयोग होने वाली लिथियम-आयन पॉलीमर बैटरी (Wikimedia)
आइए, कुछ चलचित्रों के ज़रिए, रूबरू होते हैं बैसाखी के इतिहास और महत्व से
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
13-04-2025 09:10 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर में, बैसाखी को मुख्य रूप से सिख समुदाय के सदस्यों द्वारा स्थानीय गुरुद्वारों में प्रार्थना और सामुदायिक भोजन के माध्यम से मनाया जाता है। बैसाखी जिसे वैसाखी के रूप में भी जाना जाता है, वैसाख महीने के पहले दिन को चिह्नित करती है और पारंपरिक रूप से हर साल 13 अप्रैल और कभी-कभी 14 अप्रैल को मनाई जाती है। इसे मुख्य रूप से पंजाब और उत्तरी भारत में वसंत की फ़सल के उत्सव के रूप में देखा जाता है। सिख धर्म के लोगों के लिए यह पर्व, केवल एक फ़सल उत्सव ही नही है, बल्कि यह सिख धर्म और भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में पंजाब क्षेत्र में हुई प्रमुख घटनाओं को भी चिन्हित करता है। एक प्रमुख सिख त्योहार के रूप में वैसाखी, 13 अप्रैल 1699 को सिख धर्म के दसवें गुरु, गुरु गोविंद सिंह द्वारा खालसा पंथ की स्थापना को अभिव्यक्त करती है। यह पर्व सिख पहचान और मूल्यों के उत्सव का भी एक रूप है। खालसा में सिख धर्म के मूल सिद्धांत - ईमानदारी, करुणा और निस्वार्थ सेवा हैं। इस दिन, दुनिया भर के सिख इन सिद्धांतों के प्रति अपने समर्पण के बारे में पुनर्विचार करते हैं और गुरु की शिक्षाओं के अनुसार जीने का वादा करते हैं। बैसाखी के दौरान, किसान और कृषि गतिविधियों में लगे लोग उस साल अच्छी उपज और अगले साल अच्छी फ़सल के लिए प्रार्थना करते हैं। वे अच्छी फ़सल के लिए परमात्मा का आभार व्यक्त करते हैं तथा विभिन्न प्रकार के संगीत, नृत्य, रैलियों, मार्च आदि कार्यक्रमों के ज़रिए इस दिन को मनाते हैं। तो आइए, आज कुछ चलचित्रों के माध्यम से इस त्योहार के महत्व और इतिहास के बारे में विस्तार से जानें। सबसे पहले हम देखेंगे कि पंजाब में इस त्योहार को कैसे मनाया जाता है। फिर हम, अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में इस पर्व के दौरान की जाने वालीं प्रार्थनाओं से संबंधित एक वीडियो क्लिप देखेंगे। इसके अलावा, हम कुछ अन्य चलचित्रों के ज़रिए इस त्योहार के महत्वपूर्ण विवरण प्राप्त करेंगे। अंत में, हम हिंदू कैलेंडर अर्थात पंचांग के12 महीनों के साथ-साथ प्रत्येक महीने की महत्वपूर्ण तिथियों और त्योहारों पर एक नज़र डालेंगे।
संदर्भ:
क्या जौनपुर जानना चाहेगा, कैसे पुनर्जागरण काल ने भारतीय चित्रकला को प्रभावित किया ?
मध्यकाल 1450 ईस्वी से 1780 ईस्वी तक
Medieval: 1450 CE to 1780 CE
12-04-2025 09:14 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर के कई लोग इस बात से सहमत होंगे कि, हमारे शहर का कला, वास्तुकला और सांस्कृतिक विरासत में एक समृद्ध इतिहास है। विशेष रूप से शर्की राजवंश (चौदहवीं–पंद्रहवीं शताब्दी) के दौरान इनकी प्रमुखता थी। इसके अलावा, हमारे शहर का इस्लामी वास्तुकला, सुलेख, संगीत और स्थानीय शिल्प में योगदान महत्वपूर्ण हैं। कला के बारे में बात करते हुए, क्या आप जानते हैं कि, पुनर्जागरण कला (1400-1600) यूरोपीय इतिहास की अवधि में पेंटिंग, मूर्तिकला और सजावटी कला है। यह इटली (Italy) में एक अलग शैली के रूप में उभरी, जो कि 1400 ईस्वी में, दर्शनशास्त्र, साहित्य, संगीत, विज्ञान और प्रौद्योगिकी में होने वाले घटनाक्रमों के समानांतर थी। इसलिए आज हम, पुनर्जागरण कला (Renaissance art) और इसकी विशेषताओं के बारे में विस्तार से बात करते हैं। फिर हम चर्चा करेंगे कि, इस युग ने भारतीय कला और राजा रवि वर्मा जैसे कलाकारों को कैसे प्रभावित किया। अंत में, हम पुनर्जागरण युग के कुछ सबसे लोकप्रिय चित्रों का पता लगाएंगे।
पुनर्जागरण कला के लक्षण:
1.यथार्थवाद और विस्तार पर ध्यान:
पुनर्जागरण चित्रकार दुनिया का प्रतिनिधित्व कर सकते थे, क्योंकि उन्होंने लोगों, वस्तुओं और परिदृश्यों के अपने चित्रण में विस्तार से ध्यान दिया। उन्होंने गहराई और तीन-आयामीता की एक ठोस भावना पैदा करने हेतु, रैखिक परिप्रेक्ष्य और कियारसकयूरो (Chiaroscuro) – प्रकाश और छाया का उपयोग, जैसी तकनीकों का उपयोग किया।
2.मानव शरीर रचना:
पुनर्जागरण कलाकार मानव शरीर से मोहित थे। मानव स्वरूप के अधिक यथार्थवादी और प्राकृतिक चित्रण बनाने के लिए, उन्होंने इसका बहुत विस्तार से अध्ययन किया।
3.शास्त्रीय प्रभाव:
पुनर्जागरण कलाकारों ने, प्राचीन ग्रीस (Greece) और रोम (Rome) की कला एवं दर्शन से प्रेरणा प्राप्त की, और शास्त्रीय रूपांकनों और विषयों को उनके काम में शामिल किया।
4.धार्मिक विषय:
कई पुनर्जागरण चित्रों में धार्मिक विषय थे, क्योंकि कैथोलिक चर्च इस दौरान कला का एक प्रमुख संरक्षक था। यहां तक कि, धार्मिक चित्रों ने मानवतावाद का एक नया स्तर भी प्रदर्शित किया। इसमें चित्रित रूपांकनों के व्यक्तित्व और भावनात्मक अभिव्यक्ति पर ज़ोर दिया गया था ।
5.कथात्मक कहानी:
पुनर्जागरण चित्रों में अक्सर साहित्य, इतिहास, या पौराणिक कथाओं के दृश्यों को दर्शाया गया था। इन्हें कोई कहानी बताने या एक नैतिक संदेश देने के लिए डिज़ाइन किया गया था।
मध्ययुगीन युग के दौरान, भारतीय कला पर पुनर्जागरण युग का प्रभाव:
मुगल लघुचित्र (सोलहवीं से अठारहवीं शताब्दी), अपने जटिल विस्तार और जीवंत रंगों के लिए जाने जाते हैं। इन्होंने पुनर्जागरण प्रभाव के संकेतों को प्रदर्शित करना शुरू कर दिया था। इसी तरह, विशेष रूप से राजस्थान जैसे क्षेत्रों में राजपूत कला, अपने अलग भारतीय सौंदर्यशास्त्र को बनाए रखते हुए, इन यूरोपीय तकनीकों को अवशोषित कर रही थी।
ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने, भारत में जिन कला विद्यालयों की स्थापना की, वहां पाठ्यक्रम यूरोपीय शास्त्रीय परंपराओं से बहुत प्रभावित था। इस अवधि में भारतीय कलाकारों के उद्भव को देखा गया, जिन्होंने भारतीय विषयों के साथ पुनर्जागरण तकनीकों को जोड़ा। इस प्रकार, उन्होंने कला की एक नई शैली का निर्माण किया, जो भारतीय संस्कृति में आधुनिक और गहराई से निहित थी।
इस कला शैली के सबसे प्रमुख कलाकारों में से एक राजा रवि वर्मा थे, जिन्हें अक्सर आधुनिक भारतीय कला शैली का नेतृत्व करने का श्रेय दिया जाता है। वर्मा, यूरोपीय यथार्थवाद (Realism) और पुनर्जागरण कला से गहराई से प्रभावित थे। उनके काम उनके सजीवन प्रतिरूप, विभिन्न दृष्टिकोण के उपयोग और नाटकीय रचनाओं के लिए जाने जाते हैं। इनमें से सभी कार्य पुनर्जागरण कला के नमूने थे।
पुनर्जागरण युग के सबसे लोकप्रिय चित्र:
1.) लियोनार्दो दा विंची (Leonardo da Vinci) द्वारा मोना लीसा (Mona Lisa):
यह कला का सबसे प्रसिद्ध कार्य है। लियोनाडो दा विंची की ‘मोना लिसा’ कृति, हर साल 10 मिलियन से अधिक पर्यटकों को अपनी सुंदर मुस्कान के साथ आकर्षित करती है। उनहोंने अपने विषय के चेहरे को आकार देने हेतु, परिप्रेक्ष्य और अनुपात की समझ में उस समय वर्तमान सफ़लताओं का उपयोग किया था, ताकि उसकी आंखे तुरंत ही दर्शकों का ध्यान आकर्षित कर सकें। वे इस छवि के केंद्र में हैं, और किसी भी कोण पर दर्शक का अनुगमन करते हुए दिखाई देते हैं। नतीजतन, यह चित्र केवल एक प्रदर्शन के बजाय, एक संवाद प्रदान करता है।
2.) सैंड्रो बॅटिचेली (Sandro Botticelli) द्वारा द बर्थ ऑफ़ वीनस (The Birth of Venus):
वीनस अर्थात शुक्र ग्रह, कला सिद्धांत और आलोचना में एक उच्च प्रतियोगिता का रुपांकन बना हुआ है। सदियों से, इसे स्त्रीत्व के आदर्श मानक के रूप में अपनाया गया था। एक मिथक के अनुसार, वीनस अपने पिता – यूरेनस (Uranus) के एक अलग अंडकोष से पैदा हुई थी, और समुद्री झाग से दिखाई दी थी। लेकिन, बोटिचेली ने इस गंभीर विवरण के बिना ही, शुक्र देवी के जन्म के दृश्य को चित्रित किया, जिसमें शुक्र की एक आदर्श छवि दिखाई दे रही है।
3.) फ़िलिपो ब्रुनेलेस्की (Filippo Brunelleschi) द्वारा द क्यूपल ऑफ़ द कैथेड्रल ऑफ़ सांता मारिया डेल फ़ियोरे (The Cupola of the Cathedral of Santa Maria del Fiore):
फ़्लोरंस कैथेड्रल (Florence Cathedral), पुनर्जागरण वास्तुकला के जन्म का प्रतीक है। 1436 में, फ़िलिपो ब्रुनेलेस्की, इस पैमाने पर बनाए जाने वाले पहले गुंबद को बनाने में सफ़ल रहे। उनकी इस सुंदर उपलब्धि ने अन्य पुनर्जागरण वास्तुकारों के लिए, यूरोप के कुछ सबसे मनोरम स्मारकों, महलों और चर्चों का निर्माण करने का मार्ग प्रशस्त किया।
4.) माइकलएंजेलो बुआनारौती (Michelangelo Buonarroti) द्वारा द क्रिएशन ऑफ़ एडम(The Creation of Adam):
1512 में निर्मित, यह माइकेलअंजलू के सबसे प्रतिष्ठित चित्रों में से एक है। द क्रिएशन ऑफ़ एडम, सिस्टीन चैपल (Sistine Chapel) की छत पर बनाई गई एक पेंटिंग है। यह मोना लीसा के बाद, लोकप्रियता के मामले में दूसरे स्थान पर है। यह पेंटिंग, मानवता का प्रतीक बन गई है, क्योंकि छवि में भगवान और एडम के हाथ को दर्शाया गया है।
5.) लियोनार्दो दा विंची द्वारा द लास्ट सपर (The Last Supper):
द लास्ट सपर, पुनर्जागरण अवधि की एक महत्वपूर्ण पेंटिंग है। यह पेंटिंग, यीशु ख्रीस्त को अपने शिष्यों के साथ, अपने अंतिम भोज के दृश्य में प्रस्तुत करती है। इस पेंटिंग को रंग, प्रकाश और शरीर रचना के अपने चतुर उपयोग के लिए जाना जाता है।
6.) माइकलएंजेलो बुआनारौती द्वारा द लास्ट जजमेंट (The Last Judgement):
वर्ष 1541 में पूरी की गई यह पेंटिंग, सिस्टीन चैपल की वेदी की दीवार पर पाई गई थी। यह पेंटिंग, यीशु के दूसरे आगमन के बारे में है – वह दिन जब परमेश्वर सभी मानवता का न्याय करेंगे। कलाकार ने यीशु को संतों से घिरे केंद्र में चित्रित किया है। पेंटिंग का शीर्ष भाग, मृतकों के पुनरुत्थान को स्वर्ग और निचले हिस्से में पापियों के वंश को नरक में दिखाया गया है। रंगों और उत्कृष्ट ब्रश काम का उपयोग, इसे दुनिया में सबसे प्रतिष्ठित पेंटिंग में से एक बनाता है।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/bdsxf9mk
मुख्य चित्र: राजा रवि वर्मा के प्रसिद्ध चित्र “शकुंतला पत्र लेखन” (Wikimedia)
गर्भावस्था के दौरान, हमेशा रहें खुश, क्योंकि माँ की हर भावना को समझता है शिशु !
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
11-04-2025 09:20 AM
Jaunpur District-Hindi

किसी भी महिला के लिए गर्भवती होना, जीवन का एक महत्वपूर्ण भाग होता है, जिसमें उत्साह, खुशी, चिंता, भय, आदि कई तरह की भावनाएं महसूस होना स्वाभाविक है। गर्भवती महिलाएं ये भावनाएं हार्मोनल परिवर्तन के कारण या कभी-कभी भावनात्मक समर्थन की कमी के कारण महसूस करती हैं। गर्भावस्था के दौरान, गर्भवती महिला जो कुछ भी अनुभव करती है, इसका सीधा असर बच्चे पर पड़ता है। वास्तव में, यह एक अविश्वसनीय रूप से विशेष जादुई संबंध है, लेकिन उस संबंध का अर्थ यह भी है कि यदि इस दौरान माँ को नकारात्मक भावनाएं आती हैं, तो बच्चा इन नकारात्मक भावनाओं को भी महसूस कर सकता है। तो आइए, आज गर्भावस्था के दौरान, एक माँ की भावनात्मक स्थिति का उसके बच्चे के विकास पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में विस्तार से समझते हैं। इसके साथ ही, हम गर्भावस्था के दौरान, महिलाओं द्वारा महसूस की जाने वाली विभिन्न भावनाओं के बारे में जानेंगे और समझेंगे कि गर्भावस्था के दौरान, मनोदशा में बदलाव के क्या कारण होते हैं। अंत में, हम गर्भावस्था के दौरान, महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं, इसके बारे में बात करेंगे।
एक माँ की भावनात्मक स्थिति उसके बच्चे के विकास को कैसे प्रभावित करती है:
यू इस ऐ (USA) के इरविन (Irvine) नामक शहर में कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय (University of California) के एक अध्ययन में यह पाया गया है कि एक माँ की भावनात्मक स्थिति, जन्म से पहले और बाद में उसके बच्चे के विकास को प्रभावित करती है। कई शोधों में यह सामने आया है कि गर्भावस्था के दौरान, बच्चा वही महसूस करता है जो माँ महसूस करती है, और उसी तीव्रता के साथ। इसका अर्थ है कि यदि माँ प्रसन्नता का अनुभव करती है, तो बच्चा भी प्रसन्नता की भावना महसूस करता है, और यदि माँ दुख का अनुभव करती है तो बच्चा भी वही भावना महसूस करता है, जैसे कि यह उसकी अपनी भावना हो। पूरी गर्भावस्था के दौरान, शिशु लगातार माँ से संदेश प्राप्त करता रहता है, चाहे वह माँ के दिल की धड़कन की आवाज़ हो, या वह संगीत जो वह सुन रही हो। क्या आप जानते हैं कि शिशु को नाल के माध्यम से रासायनिक, हार्मोनल संकेत भी प्राप्त होते हैं? इन संकेतों में सीधे माँ की भावनात्मक स्थिति से जुड़े संकेत शामिल होते हैं। यदि माँ बहुत दुखी है, या अवसाद से पीड़ित है, तो बच्चा भी उन भावनाओं का अनुभव करता है। माँ की भावनात्मक स्थिति बच्चे के जीवन के एक महत्वपूर्ण हिस्से के विकास को प्रभावित करती है।
गर्भावस्था के दौरान महिलाओं द्वारा अनुभव की जाने वाली विभिन्न भावनाएं:
गर्भावस्था के दौरान महिलाएं संभवतः कई उतार-चढ़ाव महसूस करती हैं। वे इनमें से कुछ या सभी भावनाओं का अनुभव कर सकती हैं:
आश्चर्य - यदि गर्भावस्था अप्रत्याशित है, तब महिलाएं या तो खुशी महसूस कर सकती सकती हैं या अपने जीवन में बदलाव के बारे में अनिश्चित होने के कारण डर भी महसूस कर सकती हैं।
ख़ुशी - ख़ुशी एक ऐसी भावना है जो लंबे समय के बाद गर्भावस्था धारण करने पर अधिकांश महिलाएं महसूस करती हैं।
क्रोध - शरीर के हार्मोनल परिवर्तनों, असुरक्षित होने की भावना, या गर्भावस्था के लक्षणों के कारण, इस दौरान, कुछ महिलाओं को अधिक क्रोध भी आता है।
बच्चे के स्वास्थ्य को लेकर डर - इस दौरान अधिकांश महिलाओं के मन में अपने बच्चे के स्वास्थ्य को लेकर डर है।
जन्म का डर - यह एक मान्यता प्राप्त मनोवैज्ञानिक विकार है। परामर्श और डॉक्टर से बात करने से इस डर पर काबू पाने में मदद मिल सकती है।
जुड़ाव - गर्भवती महिलाएं, अपने बच्चे, साथी और परिवार के लिए जुड़ाव की भावना महसूस करती हैं।
दुख या निराशा - गर्भावस्था के दौरान किसी बीमारी या जटिलता को लेकर गर्भवती महिलाएं कभी-कभी दुख या निराशा अनुभव करती हैं।
प्रसवकालीन अवसाद से लंबे समय तक उदासी - इस मामले में, मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की मदद की आवश्यकता होती है।
गर्भावस्था के दौरान, मनोदशा में बदलाव के कारण:
गर्भावस्था के दौरान, शारीरिक तनाव, थकान, चयापचय में बदलाव या हार्मोन एस्ट्रोजन (Estrogen) और प्रोजेस्टेरोन (Progesterone) के कारण, महिलाओं की मनोदशा में समय-समय पर अनिश्चित बदलाव हो सकता है। गर्भवती महिलाओं में हार्मोन के स्तर में महत्वपूर्ण परिवर्तन के कारण न्यूरोट्रांसमिटर (Neurotransmitters) का स्तर प्रभावित हो सकता है, जो मनोदशा को नियंत्रित करते हैं। पल-पल पर मनोदशा में बदलाव ज़्यादातर पहली तिमाही के दौरान 6 से 10 सप्ताह के बीच अनुभव होता है और फिर तीसरी तिमाही में जब शरीर जन्म देने के लिए तैयार होता है।
गर्भावस्था के दौरान महिलाओं को अपने मानसिक स्वास्थ्य में सुधार के लिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए:
क्या करें:
- किसी मित्र, परिवार के सदस्य, डॉक्टर या दाई से अपनी भावनाओं के बारे में बात करें
- अपनी भावनाओं पर काबू पाने के लिए शांत श्वास संबंधी व्यायाम करें।
- जितना हो सके शारीरिक गतिविधि करें, इससे मनोदशा में सुधार हो सकता है और नींद भी अच्छी आती है।
- नियमित भोजन के साथ स्वस्थ आहार लें।
- अन्य लोगों से मिलें, विशेष रूप से उन महिलाओं से, जो आपके ही समय में गर्भवती हैं। इसके लिए आप विशेष कक्षाएं ले सकती हैं।
क्या न करें:
- अपनी तुलना दूसरों से न करें क्योंकि हर कोई गर्भावस्था का अनुभव अलग-अलग तरीकों से करता है।
- स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों को यह बताने से न डरें कि आप कैसा महसूस कर रही हैं। वे आपकी बात सुनने और आपका समर्थन करने के लिए मौजूद हैं।
- बेहतर महसूस करने के लिए शराब, सिगरेट या नशीली दवाओं का सेवन न करें। इनसे आपके और आपके बच्चे के विकास और स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Pexels
वाराणसी में स्थित पार्श्वनाथ मंदिर, दर्शाता है, जैन मंदिरों की अद्भुत वास्तुकला को !
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
10-04-2025 09:15 AM
Jaunpur District-Hindi

वाराणसी के पास स्थित पार्श्वनाथ जैन मंदिर, उत्तर प्रदेश के भेलूपुर में तीन जैन मंदिरों का समूह है। इन मंदिरों का निर्माण पार्श्वनाथ के तीन कल्याणक को समर्पित करने के लिए किया गया था। जैन वास्तुकला की पहचान उसकी सादगी, सुंदरता और संतुलन पर जोर देने के कारण होती है। जैनों ने अपने वास्तुशिल्प को विकसित करते हुए वैष्णव और द्रविड़ शैली के स्थानीय निर्माण परंपराओं को अपनाया।
तो, आज इस महावीर जयंती के अवसर पर, हम जैन वास्तुकला के तीन मुख्य प्रकारों - स्तूप, गुफाएँ और मंदिरों के बारे में समझेंगे और उनकी महत्वता जानेंगे। इसके बाद, हम जैन मंदिरों की विशेषताएँ और वास्तुकला शैली के बारे में विस्तार से जानेंगे। फिर हम पश्चिमी, दक्षिणी और पूर्वी भारत में जैन मंदिर वास्तुकला के क्षेत्रीय रूपों के बारे में चर्चा करेंगे। अंत में, हम पार्श्वनाथ जैन मंदिरों के बारे में बात करेंगे।
जैन वास्तुकला के तीन प्रमुख प्रकार
स्तूप /चैत्य (Stupa):
जैन वास्तुकला में स्तूपों का बहुत महत्व है। जैनों ने इन्हें मुख्य रूप से पूजा और धार्मिक उद्देश्य के लिए बनाया था।
1. जैनों ने स्तूपों का निर्माण धार्मिक उद्देश्यों के लिए किया था।
2. सबसे पहला जैन स्तूप 8वीं शताब्दी ईसा पूर्व में बनाया गया था, जो जिन पार्श्वनाथ से पहले था।
3. संरचना: जैन स्तूप की एक विशेष बेलनाकार तीन-स्तरीय संरचना होती है, जो समवशरण की याद दिलाती है, जिसे पूजा का मुख्य स्थल बनाने के लिए बदल दिया गया था।
4. जैन शिलालेखों में, स्तूप के लिए “थुपे” शब्द का प्रयोग किया जाता है।
5. मथुरा के जैन स्तूप: मथुरा में 1वीं शताब्दी ईसा पूर्व से 1वीं शताब्दी ईसवी तक का एक जैन स्तूप खुदाई में प्राप्त हुआ था, जो 19वीं शताब्दी में खोजा गया था।
लेयना/गुफाएँ (Caves):
1. गुफाएँ, जो महाराष्ट्र में पाई जाने वाली प्राचीन वास्तुकला हैं, ये दीगंबर जैन संप्रदाय से संबंधित हैं।
2. ये गुफाएँ 6वीं शताब्दी में चालुक्य काल के दौरान बनाई गई थीं और राष्ट्रकूट काल में भी जारी रहीं।
3. रॉक-कट वास्तुकला (Rock-cut architecture): रॉक-कट वास्तुकला वह तरीका है, जिसमें संरचना को पत्थर से काटकर बनाया जाता है।
4. यह पत्थर को खुदाई करके, जहां वह स्वाभाविक रूप से मौजूद होता है, संरचनाएँ, इमारतें और मूर्तियाँ बनाने के लिए किया जाता है।
5. मंदिर, समाधियाँ और गुफाएँ रॉक-कट वास्तुकला के प्रमुख उपयोग थे।
जिनालय/मंदिर (Temples):
जैन मंदिरों के प्रत्येक तत्व, जैसे मंडप, गर्भगृह, मुखमंडप, शिखर, देवकोष्ठ आदि, इस तरह से बनाए जाते हैं कि ध्यान और पूजा के लिए एक शांतिपूर्ण और सामंजस्यपूर्ण वातावरण बने।
जैन मंदिर वास्तुकला के कुछ प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं:
1. जैन मंदिरों में कई स्तंभ होते हैं, जिनकी संरचना अच्छी तरह से डिज़ाइन की जाती है, जिससे वर्ग बनते हैं।
2. इन वर्गों से छोटे-छोटे कक्ष बनते हैं, जिन्हें छोटे पूजा-स्थल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है और इनमें किसी देवता की मूर्ति रखी जाती है।
3. इन स्तंभों से, बड़े पैमाने पर नक्काशीदार कोष्ठक हैं जो उनकी ऊंचाई के लगभग दो-तिहाई हिस्से पर उभरते हैं।
4. जैन मंदिरों की वास्तुकला में एक खास विशेषता चार-मुखी या चौमुख डिज़ाइन है, जो बहुत बार देखा जाता है।
जैन मंदिरों के प्रकार: मुख्य रूप से दो प्रकार के जैन मंदिर होते हैं: शिखर-बंधी जैन मंदिर और घर जैन मंदिर।
जैन मंदिरों के मुख्य रूप से दो प्रकार होते हैं:
- शिखर-बंधी जैन मंदिर: इन मंदिरों में शिखर (ऊपरी भाग) की विशेष संरचना होती है।
- घर जैन मंदिर: जिन्हें गृह चैत्यालय या घर देरासर भी कहा जाता है। यह छोटे और साधारण मंदिर होते हैं, जो निजी पूजा के लिए बनाए जाते हैं।
जैन वास्तुकला की विशेषताएँ इसकी सरलता, शांति और धार्मिकता से जुड़ी हुई हैं। स्तूपों, गुफ़ाओं और मंदिरों के माध्यम से जैन धर्म ने अपनी धार्मिक पहचान को स्थापित किया है। इन संरचनाओं में हर एक तत्व जैन धर्म के सिद्धांतों को प्रदर्शित करता है और जैन अनुयायियों के लिए पूजा और ध्यान के लिए उपयुक्त वातावरण प्रदान करता है।
जैन मंदिरों की विशेषताएँ:
1. मुख्य भेद यह है कि जैन अकेले हिंदू मंदिरों के बजाय 'मंदिर-शहरों' का निर्माण करते हैं, जो अपवाद के बजाय नियम हैं।
2. एक जैन मंदिर अपनी मूल्यवान सामग्रियों (आमतौर पर संगमरमर) और अलंकरण की बहुतायत के लिए भी उल्लेखनीय है जो एडिफ़िस(edifice) को सुशोभित करता है।
3. जैन मंदिर चौकोर नक्शे पर बनाए जाते हैं और चारों दिशाओं में प्रवेशद्वार होते हैं। हर दिशा से किसी न किसी तीर्थंकर की मूर्ति तक पहुँचा जा सकता है।
4. मंदिर के अंदर बहुत सारे स्तंभ होते हैं, जिनसे लगभग दो-तिहाई ऊँचाई पर मेहराब या सहारा (Bracket) बनाया जाता है।
5. ये स्तंभ और छत बहुत ही बारीक और सुंदर नक्काशी से सजाए गए होते हैं।
6. जैसे माउंट आबू के मंदिरों में देखा जाता है, वैसे इन मंदिरों की छतों का डिज़ाइन भी बहुत सजावटी और सुंदर होता है। संगमरमर की मूर्तियाँ और छतों पर गोल-गोल घेरे में बनी मूर्तियाँ देखने को मिलती हैं।
7. जैन मंदिरों के शिखर या गुम्बद हिंदू मंदिरों से ज़्यादा नुकीले होते हैं, जिससे जैन मंदिर-शहरों की ऊँचाई पर दिखने वाली आकृति बहुत अलग और सुंदर लगती है।
8. हर जैन मंदिर किसी एक तीर्थंकर के नाम पर होता है – कुल 24 तीर्थंकरों में से किसी एक के नाम पर।
9. जैन मंदिरों में ईंटों का बहुत कम उपयोग हुआ है। ज़्यादातर मंदिर पहाड़ियों या चट्टानों को काटकर बनाए गए हैं।
भारत में जैन मंदिर वास्तुकला के क्षेत्रीय रूप
1.) पश्चिमी भारत: गुजरात और राजस्थान अपने सुंदर जैन मंदिरों और रंग-बिरंगी हाथ से लिखी पांडुलिपियों (Manuscripts) के लिए मशहूर हैं। इस क्षेत्र की जैन कला की खास बात है – चमकीले रंगों का इस्तेमाल और कहानियों को बारीकी से चित्रों में दिखाना।
2.) दक्षिण भारत: यहाँ की जैन वास्तुकला में चट्टानों को काटकर बनाई गई गुफाएँ (जैसे बादामी और एलोरा की गुफाएँ) और विशाल मूर्तियाँ देखने को मिलती हैं। इन जगहों पर की गई नक्काशी और मूर्तियाँ दक्षिण भारत की खास कलात्मक शैली को दर्शाती हैं।
3.) पूर्वी भारत: बिहार और बंगाल ने भी अपनी अनोखी मंदिर-शैली और कांस्य (पीतल जैसी धातु) की मूर्तियों के ज़रिए जैन कला में बड़ा योगदान दिया है। यहाँ की कुछ जैन कला में बौद्ध कला का प्रभाव भी दिखाई देता है।
पार्श्वनाथ जैन मंदिर, वाराणसी
वाराणसी के भेलूपुर क्षेत्र में पार्श्वनाथ जी को समर्पित एक सुंदर जैन मंदिर स्थित है। इस मंदिर के मूलनायक (मुख्य भगवान) दो मूर्तियाँ हैं — एक 75 सेंटीमीटर ऊँची काले रंग की पार्श्वनाथ जी की दीगंबर मूर्ति, जो 9वीं से 11वीं शताब्दी की है, और दूसरी 60 सेंटीमीटर ऊँची सफेद रंग की पार्श्वनाथ जी की श्वेतांबर मूर्ति।
यह मंदिर वाराणसी शहर के केंद्र से लगभग 5 किलोमीटर और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
यह मंदिर जैन धर्म के दोनों संप्रदायों — दीगंबर और श्वेतांबर — से जुड़ा हुआ है, और जैन धर्म के लोगों के लिए यह एक पवित्र तीर्थ स्थल माना जाता है।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/yc3thsk8
मुख्य चित्र: वाराणसी के भेलूपुर नामक इलाके में स्थित श्वेतांबर जैन मंदिर और उसके भीतर रखी एक प्रतिमा (Wikimedia)
निज़ामाबाद के 'काली मिट्टी के बर्तनों' से सीख लेकर, अपने उद्योगों को चमका सकता है जौनपुर
म्रिदभाण्ड से काँच व आभूषण
Pottery to Glass to Jewellery
09-04-2025 09:15 AM
Jaunpur District-Hindi

जिस तरह से जौनपुर शहर को अपने चर्चित राजनीतिक इतिहास और इस्लामिक दौर की शानदार इमारतों के लिए जाना जाता है, ठीक उसी प्रकार, उत्तर प्रदेश के निज़ामाबाद शहर की पहचान उसके खास काले मिट्टी के बर्तनों (Black Pottery) से होती है। यह शहर आज़मगढ़ जिले में पड़ता है, और यहाँ बनने वाले ये चमकदार बर्तन, अपनी अनोखी चांदी जैसी नक्काशी के लिए मशहूर हैं। यह कला, सदियों पुरानी है और आज भी करीब 200 परिवार इससे जुड़े हुए हैं। लेकिन चिंता की बात यह है कि यह परंपरा अब धीरे-धीरे खत्म होने की कगार पर है। इसलिए आज के इस लेख में हम इन बर्तनों की खासियत और इन्हें बनाने की पूरी प्रक्रिया से रूबरू होंगे। फिर बात करेंगे उन चुनौतियों की, जिनका सामना यह परंपरागत उद्योग कर रहा है। आखिर में, यह समझेंगे कि इसे बचाने के लिए स्थानीय कारीगर और अलग-अलग संगठन क्या क़दम उठा रहे हैं।
आइए, सबसे पहले जानते हैं कि निज़ामाबाद के मिट्टी के बर्तनों को कैसे मिलता है, अपना सुंदर काला रंग ?
निज़ामाबाद के काली मिट्टी के बर्तनों में पारंपरिक कारीगरी और नवीन तकनीकों का अनोखा संगम नज़र आता है। इन बर्तनों को बनाने के लिए स्थानीय मिट्टी का इस्तेमाल किया जाता है, जिसे पहले कुशल कारीगर ख़ूबसूरत आकार में ढालते हैं। इसके बाद, इन बर्तनों को भट्ठियों में पकाया जाता है। इस प्रक्रिया में चावल की भूसी जलाकर गाढ़ा धुआँ तैयार किया जाता है। यह धुआँ मिट्टी पर जमकर इसे उसका खास गहरा काला रंग देता है। यही रंग इन्हें अन्य सामान्य मिट्टी के बर्तनों से अलग बनाता है।
बर्तनों को सजाने के लिए कारीगर नुकीली टहनियों से ज्यामितीय आकृतियाँ और फूल-पत्तियों के ख़ूबसूरत डिज़ाइन उकेरते हैं। इसके बाद, इन डिज़ाइनों को और निखारने के लिए जस्ता और पारे से बने चांदी के पाउडर को सतह पर रगड़ा जाता है। इससे बर्तनों पर चमकदार चांदी और गहरे काले रंग का शानदार कंट्रास्ट (contrast) उभरकर आता है। इन बर्तनों की खूबसूरती और टिकाऊपन बढ़ाने के लिए एक खास प्रक्रिया में सरसों के तेल का इस्तेमाल किया जाता है। यह तेल बर्तनों को एक चमकदार फ़िनिश देता है, जिससे वे और आकर्षक दिखते हैं। निज़ामाबाद की यह कला न सिर्फ़ अपनी अनोखी बनावट और रंग के कारण प्रसिद्ध है, बल्कि इसमें छिपी मेहनत और परंपरा की झलक भी इसे बेहद खास बनाती है। निज़ामाबाद में काली मिट्टी के बर्तन बनाना एक जटिल लेकिन ख़ूबसूरत प्रक्रिया है। इसके लिए, सबसे अच्छी मिट्टी स्थानीय तालाबों से लाई जाती है। इसे इस्तेमाल करने से पहले पैरों से अच्छी तरह गूंधा जाता है, ताकि यह मुलायम और आकार देने के लायक हो जाए। इसके बाद, कुम्हार इस मिट्टी को चाक पर रखकर बर्तन का रूप देते हैं। फिर, बेहद बारीक सुई से उन पर सुंदर नक्काशी की जाती है। इस नक्काशी के बाद, बर्तनों पर गहरे रंग का खास लेप चढ़ाया जाता है, जो मिट्टी से ही तैयार किया जाता है। जब बर्तन पूरी तरह तैयार हो जाते हैं, तो उन्हें रातभर के लिए ओवन में रखा जाता है। इस दौरान, उन पर हल्का सरसों का तेल भी लगाया जाता है। बर्तनों को चमकदार काला रंग देने के लिए ओवन में बहुत अधिक तापमान रखा जाता है और ऑक्सीजन की सप्लाई बंद कर दी जाती है। आखिर में, नक्काशीदार डिज़ाइन को उभारने के लिए एक विशेष मिश्रण भरा जाता है, जिसमें बराबर मात्रा में सीसा, पारा और जस्ता का पाउडर होता है। इस पूरी प्रक्रिया के बाद, हमें मिलते हैं निज़ामाबाद के शानदार काले मिट्टी के बर्तन, जो अपनी अनोखी चमक और डिज़ाइन के लिए मशहूर हैं।
चलिए, अब जानते हैं कि निज़ामाबाद में काली मिट्टी के बर्तनों का उद्योग संकट में क्यों है ?
निज़ामाबाद का मशहूर ब्लैक पॉटरी उद्योग, एक मुश्किल दौर से गुज़र रहा है। कुम्हार गर्मियों में स्थानीय तालाबों से मिट्टी निकालते हैं, लेकिन अब ये तालाब तेज़ी से ग़ायब हो रहे हैं। बढ़ती आबादी और विकास के नाम पर कई तालाबों को भरकर वहाँ मकान और इमारतें बना दी गई हैं। इससे कारीगरों को सही मिट्टी मिलना मुश्किल हो गया है। सरकार की तरफ़ से अब तक इस समस्या को हल करने के लिए कोई ठोस क़दम नहीं उठाया गया है। कुम्हार, मिट्टी की स्थिर आपूर्ति के लिए सरकार पर निर्भर हैं, लेकिन यह उनकी अकेली चुनौती नहीं है। उन्हें पुरानी तकनीकों, सही दाम तय करने और ग्राहकों तक पहुँचने में भी कई का सामना करना पड़ रहा है। दिलचस्प बात यह है कि ब्लैक पॉटरी की क़ीमत उसके आकार पर नहीं, बल्कि उस पर की गई बारीक कारीगरी पर निर्भर करती है।
सरकार इस उद्योग की मदद कैसे कर रही है ?
उत्तर प्रदेश सरकार ने 2018 में "एक ज़िला, एक उत्पाद" (One District One Product (ODOP)) योजना शुरू की थी, ताकि हर ज़िले के खास शिल्प और उद्योग को बढ़ावा दिया जा सके। आज़मगढ़ ज़िले के लिए इस उद्योग को इस योजना में शामिल किया गया है। सरकार ने कुम्हारों को क़र्ज़ मिलने की प्रक्रिया आसान बना दी है, जिससे वे अपने व्यवसाय को आगे बढ़ा सकें। इसके अलावा, सरकार ने कई कारीगरों को बिजली से चलने वाली चाक (कुम्हारों का पहिया) भी दी हैं। हालाँकि, इनमें से कई ज़्यादा समय तक टिक नहीं पाईं। ऐसे में, कारीगरों के सामने अभी भी कई चुनौतियाँ बनी हुई हैं, और इस पारंपरिक कला को बचाने के लिए और भी ठोस प्रयासों की ज़रूरत है।
कैसे फिर से चमका निज़ामाबाद के काली मिट्टी के बर्तनों का उद्योग?
निज़ामाबाद के कारीगरों ने अपनी विरासत को खत्म नहीं होने दिया। उन्होंने समय के साथ बदलने की ज़रूरत को समझा और अपनी पारंपरिक कारीगरी में आधुनिक डिज़ाइन जोड़ने लगे। इससे उनकी कला को एक नया रूप मिला और ज़्यादा लोगों तक पहुँचने का मौक़ा भी। खासकर, युवा पीढ़ी की दिलचस्पी बनाए रखने के लिए उन्होंने अपने शिल्प में नई जान डालने का काम किया। इस कला को फिर से ज़िंदा करने के लिए कई संगठनों ने भी आगे क़दम बढ़ाया। कारीगरों को बेहतर प्रशिक्षण और ज़रूरी संसाधन दिए गए ताकि वे अपनी तकनीकों को और निखार सकें। अलग-अलग कार्यशालाएँ और कौशल-साझाकरण प्लेटफ़ॉर्म तैयार किए गए, जिससे कारीगर नए और अनोखे डिज़ाइन बना सकें। इसके अलावा, इन संस्थाओं ने स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस कला की सांस्कृतिक अहमियत को उजागर करने में भी बड़ी भूमिका निभाई। यहाँ के कारीगरों की मेहनत और संगठनों के सहयोग से, निज़ामाबाद की ब्लैक पॉटरी एक बार फिर अपनी पहचान बनाने में कामयाब रही।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/25ajpp44
https://tinyurl.com/2cucpf5p
https://tinyurl.com/22sq2cuo
https://tinyurl.com/24g8uxr7
https://tinyurl.com/23kz2xpo
मुख्य चित्र: उत्कीर्ण चांदी के पैटर्न के साथ अपनी चमकदार बनावट के लिए प्रसिद्ध निज़ामाबाद में बने काली मिटटी के बर्तन (Wikimedia)
किसी सुपरहिट फ़िल्मी कहानी से कम नहीं है, जौनपुर के शाही पुल का इतिहास!
मध्यकाल 1450 ईस्वी से 1780 ईस्वी तक
Medieval: 1450 CE to 1780 CE
08-04-2025 09:19 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर का इतिहास, सत्ता संघर्ष, प्रशासनिक बदलाव और भव्य वास्तुकला का साक्षी रहा है। 1526 में जब बाबर (Babur) ने इब्राहिम लोदी (Ibrahim Lodi) को हराया, तभी से इस क्षेत्र में मुगलों का प्रभाव बढ़ने लगा। 16वीं शताब्दी की शुरुआत में जौनपुर पर मुगल शासन स्थापित हुआ, जिससे शहर के राजनीतिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में बदलाव आया। अकबर (Akbar) के शासनकाल में, 1568-69 के दौरान, मुनीम खान (Munim Khan) की देखरेख में यहाँ एक महत्वपूर्ण पुल का निर्माण हुआ, जिसे आज अकबरी पुल या शाही पुल के नाम से जाना जाता है। यह पुल, न केवल मुगल स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण है, बल्कि जौनपुर के इतिहास में भी इसका विशेष स्थान है। इसी दौर में, 16वीं शताब्दी के अंत में, शाही क़िले का बड़े पैमाने पर पुनर्निर्माण किया गया, जिससे यह प्रशासनिक और सैन्य दृष्टि से और अधिक महत्वपूर्ण हो गया। लेकिन यहाँ एक सवाल उठता है कि "जौनपुर पर मुगलों का पूर्ण नियंत्रण कैसे स्थापित हुआ?" इसे समझने के लिए हमें बादशाह अकबर की उन सफ़ल रणनीतियों पर ग़ौर करना होगा, जिनमें उन्होंने अफ़गानों और उज़्बेकों को हराया था। इसके अलावा, हम अकबरी पुल के ऐतिहासिक महत्व और उस समय की स्थायी बंदोबस्त (Permanent settlement) प्रणाली को भी जानेंगे, जिसने जौनपुर के आर्थिक और सामाजिक ढांचे को प्रभावित किया। तो चलिए, जौनपुर के मुगलकालीन सफ़र की इस दिलचस्प दास्तान में गहराई से झांकते हैं!
1484 से 1525 तक जौनपुर पर लोधी वंश का शासन था। लेकिन 1526 में पानीपत की पहली लड़ाई में बाबर ने इब्राहिम लोधी को हराकर दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया। इसके बाद, बाबर ने जौनपुर को जीतने के लिए अपने बेटे हुमायूं को भेजा। हुमायूं ने वहां के शासक को पराजित कर जौनपुर पर मुगलों का अधिकार स्थापित कर दिया।
1556 में हुमायूं की मृत्यु के बाद उसका 18 वर्षीय बेटा जलालुद्दीन अकबर मुगल गद्दी पर बैठे । 1567 में जौनपुर के शासक अली क़ुली खान (Ali Kuli Khan) ने अकबर के खिलाफ़ विद्रोह कर दिया। इस पर अकबर ने ख़ुद सेना लेकर जौनपुर पर हमला किया। युद्ध में अली क़ुली ख़ां मारा गया और अकबर ने जौनपुर पर पूरी तरह क़ब्ज़ा कर लिया। अकबर कुछ दिनों तक जौनपुर में रुका और फिर उसने मुनीम खान को वहां का शासक नियुक्त किया। अकबर के शासनकाल में ही जौनपुर का प्रसिद्ध शाही पुल बनाया गया, जिसे आज भी देश की ऐतिहासिक धरोहर के रूप में जाना जाता है।
जब अकबर ने 1556 में आगरा की गद्दी संभाली, तब भारत में अफ़गानों और उज़्बेकों ने उसके खिलाफ़ विद्रोह छेड़ दिया। कारा-मानिकपुर क्षेत्र में अफ़गान नेता अली क़ुली खान ज़मान और बहादुर खान ने राजनीतिक अस्थिरता बढ़ा दी। जब स्थिति बिगड़ने लगी, तो अकबर ने ख़ुद 1561 में जौनपुर पहुंचकर सेना की कमान संभाली। उसकी रणनीति और साहस के सामने अफ़गान विद्रोहियों को हार माननी पड़ी और बगावत खत्म हो गई। इस जीत के बाद अकबर ने मुनीम खान को जौनपुर का प्रशासक नियुक्त किया। फिर, 1583 में जौनपुर को इलाहाबाद सूबे में मिला दिया गया।
अकबरी पुल का निर्माण: अफ़गानों पर इस ऐतिहासिक जीत को यादगार बनाने के लिए मुनीम खान ने जौनपुर में एक शानदार पुल का निर्माण शुरू करवाया, जिसे बाद में अकबरी पुल कहा गया। इसका निर्माण 1567 में पूरा हुआ। यह पुल मुगल शैली में बना था, जिसमें मज़बूत खंभों पर टिके मेहराबदार डिज़ाइन थे, जो सड़क को सहारा देते थे। हालांकि, 1934 में आए भूकंप में पुल को भारी नुकसान पहुंचा। इसके सात मेहराबों की मरम्मत कर इसे दोबारा उपयोग में लाया गया। यह पुल, आज भी जौनपुर की पहचान है और इसे मुगल वास्तुकला का एक महत्वपूर्ण नमूना माना जाता है। इसकी भव्यता और ऐतिहासिक महत्व इसे पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बनाता है।
आइए, अब आपको जौनपुर में शाही पुल के निर्माण की दिलचस्प कहानी बताते हैं:
कहा जाता है कि मुगल बादशाह अकबर को नौकायन का बहुत शौक़ था। एक दिन, जब वे गोमती नदी में नौका विहार कर रहे थे, तो उनकी नज़र एक गरीब महिला पर पड़ी। वह रो रही थी क्योंकि उसे नदी पार करनी थी, लेकिन उसके पास नाव नहीं थी। यह देखकर अकबर ने न केवल उसे नाव से नदी पार करवाया, बल्कि अपने सरदारों को भी फ़टकार लगाई। अकबर ने नाराज़गी जताते हुए कहा कि मस्जिदों और महलों के निर्माण पर तो खूब पैसा ख़र्च किया जा रहा है, लेकिन आम लोगों की सुविधा के लिए कोई व्यवस्था नहीं की जा रही। इसके बाद, उन्होंने जौनपुर के मुगल गवर्नर मुनीम खान को आदेश दिया कि गोमती नदी पर एक पुल बनाया जाए, जिससे लोग आसानी से नदी पार कर सकें। यह शाही पुल 1564 में बनकर तैयार हुआ, और इसका उपयोग आज भी किया जाता है। यह पुल उस दौर में जनता की भलाई के लिए किए गए आखिरी शाही प्रयासों में से एक था।
चित्र स्रोत : प्रारंग चित्र संग्रह
जौनपुर कैसे ब्रिटिश शासन के अधीन आया?
1779 में ब्रिटिश सरकार ने ‘स्थायी बंदोबस्त’ लागू किया, जिससे जौनपुर को ब्रिटिश भारत में मिला लिया गया। इसके बाद यह ज़मींदारी प्रणाली का हिस्सा बन गया, जिसके तहत भू-राजस्व संग्रह, ज़मींदारों के माध्यम से किया जाने लगा।
इस व्यवस्था में ज़मींदारों को अपनी ज़मीन बेचने, गिरवी रखने या स्थानांतरित करने का अधिकार मिल गया। उनके उत्तराधिकारी भी ज़मीन के साथ उसके अधिकार और दायित्व विरासत में प्राप्त कर सकते थे। हालाँकि, 1794 में 'सनसेट क्लॉज़' (Sunset Clause) नामक एक नियम लागू किया गया। इसके तहत, अगर ज़मींदार तय तिथि तक (सूर्यास्त से पहले) कर का भुगतान नहीं करते थे, तो सरकार उनकी ज़मीन ज़ब्त कर लेती थी। इसके बाद ज़मीन की नीलामी कर दी जाती थी, और सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को उसका स्वामित्व मिल जाता था। 1793, 1799 और 1812 में लागू किए गए नए नियमों ने ज़मींदारों को और अधिक ताकतवर बना दिया। अब वे बिना किसी अदालत की मंज़ूरी के किराया न चुकाने वाले किसानों की ज़मीन ज़ब्त कर सकते थे। इस व्यवस्था से ज़मींदारों का प्रभाव बढ़ता गया, जबकि किसान और गरीब वर्ग, पहले से ज़्यादा शोषित होने लगा।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/25mtc5yl
https://tinyurl.com/25rp9j55
https://tinyurl.com/2crkenn8
https://tinyurl.com/uk9x43k
https://tinyurl.com/239sxhu8
मुख्य चित्र: जौनपुर में स्थित शाही पुल (प्रारंग चित्र संग्रह)
कैसे हिमालय, दुनिया का तीसरा ध्रुव बनकर, हम जौनपुर वासियों के जीवन को प्रभावित करते हैं ?
जलवायु व ऋतु
Climate and Weather
07-04-2025 09:19 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर वासियों, क्या आप जानते हैं कि, उत्तर और दक्षिण ध्रुव के अलावा, दुनिया में एक और ध्रुव है। तीसरा ध्रुव, जिसे हिंदू कुश-करकोरम-हिमालय प्रणाली (Hindu Kush-Karakoram-Himalayan system (HKKH)) के रूप में भी जाना जाता है, तिब्बती पठार के पश्चिम और दक्षिण में स्थित एक पहाड़ी क्षेत्र है। इसे तीसरा ध्रुव (Third Pole) इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इसके पर्वत ग्लेशियर और बर्फ़ आच्छादित क्षेत्र, आर्कटिक और अंटार्कटिक ध्रुवीय छादन के बाद, दुनिया में सबसे अधिक जमे हुए पानी को संग्रहित करते हैं। 8,000 मीटर (26,000 फ़ीट) से ऊंची सभी 14 चोटियों को शामिल करने वाले, दुनिया के सबसे अलौकिक पहाड़ों के साथ, यह क्षेत्र 10 प्रमुख नदियों का स्रोत है, और एक वैश्विक पारिस्थितिक तंत्र बनाता है। इसलिए आज, इस क्षेत्र और इसकी विशेषताओं के बारे में विस्तार से पढ़ते हैं। फिर, हमें पता चलेगा कि तीसरा ध्रुव, वैश्विक जलवायु को कैसे प्रभावित करता है। इसके बाद, हम चर्चा करेंगे कि, हिमालय ग्लेशियरों का पिघलना दक्षिण एशिया को कैसे खतरे में डाल रहा है। अंत में, हम यहां मौजूद ग्लेशियरों के पिघलने को कम करने हेतु, हाल के वर्षों में किए जा रहे कुछ प्रयासों और पहलों का पता लगाएंगे।
दुनिया के तीसरे ध्रुव का परिचय:
हिंदू कुश हिमालय (एच के एच –HKH) 3500 किलोमीटर में फ़ैली एवं आठ देशों – अफ़गानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, चीन, भारत, नेपाल, म्यांमार और पाकिस्तान में एक बड़ी पर्वत श्रृंखला है। यह 7,000 मीटर से ऊंची, दुनिया की सभी चोटियों का घर है। हिंदू कुश हिमालय में आर्कटिक (Arctic) और अंटार्कटिका (Antarctica) के बाहर, बर्फ़ और हिम के सबसे बड़े संग्रह है, जिसके कारण, इसे अक्सर तीसरे ध्रुव के रूप में संदर्भित किया जाता है।
इसे ‘एशिया का पानी टॉवर’ (Water Tower of Asia) भी कहा जाता है, क्योंकि यह 12 नदी घाटियों के लिए पानी का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, जिसमें 10 प्रमुख नदियां – अमू दरिया (Amu Darya), ब्रह्मपुत्र, गंगा, सिंधु, इरावडी (Irrawaddy), मेकांग (Mekong), साल्विन (Salween), तारिम (Tarim), यांग्सी (Yangtse), और यैलो (Yellow) शामिल हैं। वे एशिया के 16 देशों से गुज़रती हैं, और इस क्षेत्र में रहने वाले 240 मिलियन लोगों को मीठे पानी की सेवाएं प्रदान करती हैं। साथ ही, इस क्षेत्र के बाहर रहने वाले 1.65 बिलियन लोगों को भी ये नदियां सेवा प्रदान करती है।
यह ध्रुव 330 पक्षी और जैव विविधता वाले क्षेत्रों का घर है, जिसमें चार वैश्विक जैव विविधता हॉटस्पॉट – हिमालय, इंडो-बर्मा, दक्षिण पश्चिम चीन के पहाड़, और मध्य एशिया के पहाड़, शामिल हैं।
तीसरा ध्रुव वैश्विक जलवायु को कैसे प्रभावित करता है?
तीसरा ध्रुव, एशियाई गर्मियों के मानसून जैसे वायुमंडलीय परिसंचरण और मौसम पैटर्न को प्रभावित करके, वैश्विक जलवायु प्रणाली में पर्याप्त भूमिका निभाता है। बदले में, यह जलवायु क्षेत्र के पठार को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करती है। एक गर्म और गीला जलवायु, हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियरों, बर्फ़ छादन, स्थायी तौर पर जमे हुए क्षेत्र, अपवाह और वनस्पति को प्रभावित करेगा, जो स्थानीय और विश्व स्तर पर पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित करता है।
दुनिया के तीसरे ध्रुव का पिघलना, दक्षिण एशिया को कैसे खतरे में डाल रहा है?
अधिकतम 400 से 700 साल पहले से हिम काल के बाद से, हिमालय के ग्लेशियर 40% तक सिकुड़ गए है। लगता है कि हाल ही में, पाकिस्तान की काराकोरम श्रृंखला में भी ग्लेशियरों सिकुड़ रहे हैं, जहां वे आमतौर पर स्थिर थे।
इन परिवर्तनों में भारी आबादी वाले क्षेत्रों में खतरनाक जोखिम, और भोजन एवं जल सुरक्षा के परिणाम हो सकते हैं। लगभग एक बिलियन लोग सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी प्रणालियों पर निर्भर हैं, जो आंशिक रूप से हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र से बर्फ़ और ग्लेशियर पिघलने से पानी पाती हैं।
लेकिन इनका अधिक पिघलना, भूस्खलन या ग्लेशियर झील उफ़ान बाढ़ (Glacial lake outburst floods) का कारण बन सकता है। या फिर, यह अत्यधिक वर्षा के प्रभाव को बढ़ा सकता है। ग्लेशियरों के पिघलने में परिवर्तन क्षेत्र के विस्तारित जल विद्युत उद्योग की सुरक्षा और उत्पादकता को भी प्रभावित कर सकता है।
हिंदू कुश हिमालय के बर्फ़ के पिघलने को कम करने के लिए प्रयास और पहल:
थर्ड पोल एनवायरनमेंट एनवायरमेंट (Third Pole Environment) नामक एक अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक कार्यक्रम के तहत, इस क्षेत्र में 2014 से 11 स्थल स्टेशनों और टेथर्ड बलून (Tethered balloons) की स्थापना की गई है। यह कार्यक्रम बीजिंग (Beijing) में, तिब्बती पठार अनुसंधान संस्थान (Institute of Tibetan Plateau Research) एवं चीनी एकेडमी ऑफ़ साइंसेज (Chinese Academy of Sciences) के अंतर्गत काम कर रहा है।
ग्रीन क्लाइमेट फ़ंड (Green Climate Fund) द्वारा आयोजित ‘क्लाइमेट रेजिलिएशन इन द थर्ड पोल (Enhancing Climate Resilience in the Third Pole)’ नामक एक अन्य प्रस्तावित कार्यक्रम जलवायु परिवर्तनशीलता और परिवर्तन के अनुकूल, तीसरे ध्रुव क्षेत्र में मौसम, पानी और जलवायु सेवाओं के उपयोग को मज़बूत करने हेतु काम करना चाहता है।
इसके तीन मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं –
- भेद्यता और अनुकूलन मूल्यांकन एवं योजना के लिए, बर्फ़ तंत्रों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का बेहतर अनुमान लगाने के लिए, जलवायु सूचना सेवाओं को बढ़ाना;
- मानव जीवन और आजीविका पर आपदाओं के प्रभावों को कम करने के लिए, चरम मौसम/जलवायु घटनाओं के लिए शुरुआती चेतावनी में सुधार करना; तथा
- कृषि जोखिम प्रबंधन और जल प्रबंधन के लिए, मौसम और जलवायु सेवाओं के प्रावधान और उपयोग को मज़बूत करना।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/bdfyp3ae
मुख्य चित्र: उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में पंचाचूली पर्वतमाला का दृश्य (Wikimedia)
आइए नज़र डालें, लता मंगेशकर और पंडित भीमसेन जोशी द्वारा गाए गए कुछ प्रसिद्ध राम भजनों पर
ध्वनि 1- स्पन्दन से ध्वनि
Sound I - Vibration to Music
06-04-2025 09:15 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर में, अन्य जगहों की तरह, राम नवमी को भक्ति भाव से मनाया जाता है। यहाँ इस दिन, लोग मंदिर जाते हैं, प्रार्थना करते हैं, उपवास रखते हैं, भजन गाते हैं, और रामायण का पाठ करते हैं। इस दिन, कुछ लोकप्रिय भजनों जैसे "श्री राम चंद्र कृपालु", "रघुपति राघव राजा राम", "राम का गुणगान करिए", आदि को अक्सर आरती और अन्य भक्ति गीतों के साथ गाया जाता है। इन गीतों को मुख्य रूप से पूजनीय देवता के प्रति श्रद्धा और भक्ति व्यक्त करने, आशीर्वाद और आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करने के लिए गाया जाता है। भगवान राम के प्रति अपनी श्रद्धा अर्पित करने के लिए लोग ‘भगवान रामचंद्र कृपालु’ का नियमित गायन भी करते हैं। इसे प्रतिदिन गाया जा सकता है और इसके लिए किसी विशेष दिन का चयन करने की आवश्यकता नहीं होती है। हालांकि मंगलवार और शनिवार को इसे गाने या इसका पाठ करने का विशेष महत्व माना जाता है। इस भजन की साधना की अवधि 41 दिनों तक हो सकती है। इस अवधि में इसे प्रतिदिन एक निश्चित समय पर गाना चाहिए। इस भजन को गाने का शुभ समय, सुबह ब्रह्म मुहूर्त (सुबह 4:00 से 6:00 बजे) में माना जाता है। इस समय, मन शांत और वातावरण शुद्ध होता है, जिससे साधना प्रभावी होती है। तो आइए, आज इस राम नवमी के अवसर पर, हम भगवान राम से संबंधित कुछ प्रतिष्ठित भजनों का आनंद लें। सबसे पहले हम, ‘श्री रामचंद्र कृपालु भजमन’ के लाइव प्रदर्शन पर नज़र डालेंगे, जिसमें लता मंगेशकर (Lata Mangeshkar) एक पार्श्व गायिका के रूप में इस गीत को गा रही हैं। फिर हम, बेगम परवीन सुल्ताना (Begum Parween Sultana) द्वारा ‘ओ मेरो राम जिया ना लगे’ की एक ऑडियो क्लिप का आनंद लेंगे। इसके बाद, हम पंडित भीमसेन जोशी (Pandit Bhimsen Joshi) और लता मंगेशकर द्वारा गाए गए एक और लोकप्रिय राम भजन को सुनेंगे, जिसका नाम है ‘राम का गुणगान करिए’। अंत में हम, ‘भगवान रामचंद्र कृपालु’ का पाठ करने की सबसे अच्छी विधि के बारे में जानेंगे।
संदर्भ:
चलिए इस राम नवमी पर समझते हैं रामायण, रामचरितमानस और कंब रामायण के बीच मूल अंतरों को
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
05-04-2025 09:19 AM
Jaunpur District-Hindi

हिंदू धर्म में राम नवमी का एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। भगवान श्रीराम के जन्मोत्सव को मनाने वाला पर्व, इस वर्ष, कल अर्थात 6 अप्रैल 2025 को मनाया जाएगा। भगवान राम के जीवन-चरित्र पर कई महाकाव्य लिखे गए हैं, जिनमें से सबसे प्राचीन वाल्मीकि (Valmiki) कृत रामायण (Ramayana) है, जो संस्कृत भाषा में लिखी गई है। वहीं, 16वीं शताब्दी में तुलसीदास (Tulsidas) द्वारा रचित रामचरितमानस (Ramcharitmanas), अवधी भाषा में लिखा गया एक अन्य महाकाव्य है, जिसमें भक्ति के साथ वाल्मीकि रामायण को दोहराया गया है। यह महाकाव्य, राम के गुणों, धर्म और भक्ति पर ज़ोर देता है, जिससे कहानी स्थानीय भाषा में जनता के लिए सुलभ हो जाती है। इसके अतिरिक्त, 12वीं शताब्दी में तमिल कवि कंबर (Kambar) या कविचक्रवर्ती कंबन द्वारा कंब रामायण (Kamba Ramayanam) लिखी गई, जो वाल्मीकि रामायण का एक उत्कृष्ट पुनर्पाठ है। समृद्ध कविता, भक्ति और द्रविड़ सांस्कृतिक सार से युक्त, राम की कहानी तमिल परंपरा में गहराई से गूंजती है। ध्यान देने वाली एक महत्वपूर्ण बात यह है कि 2000 साल पहले लिखी गई वाल्मीकि रामायण में संस्कृत के समृद्ध श्लेष (दोहरे अर्थ) का उपयोग किया गया है, जैसे "मारीच" एक राक्षस का नाम है जिसका अर्थ "भ्रम" भी है। रामचरितमानस में भक्ति-केंद्रित कहानी कहने के लिए अवधी भाषा में ऐसी बारीकियों को सरल बनाया गया है, जिससे इसमें भाषाई गहराई तो कम है, लेकिन राम की कहानी जनता के लिए अधिक सुलभ और भावनात्मक रूप से शक्तिशाली हो जाती है। तो आइए, आज वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास कृत रामचरितमानस के बीच प्रमुख अंतर को समझने का प्रयास करते हैं। इसके साथ ही, हम कंब रामायण और वाल्मीकि रामायण के बीच संरचना, प्रारूप, उद्देश्य और साहित्यिक महत्व के आधार पर अंतर समझेंगे। अंत में, हम रामायण के कुछ छिपे हुए या गूढ़ अर्थों के बारे में जानेंगे।
वाल्मीकि कृत रामायण और तुलसीदास कृत रामचरितमानस के बीच प्रमुख अंतर:
अध्याय और प्रारूप: रामायण में 7 अध्याय/खंड हैं और श्लोक प्रारूप का उपयोग किया गया है। रामचरितमानस में भी 7 अध्याय हैं। लेकिन, इसमें युद्ध खंड लंका खंड में बदल गया है और चौपाई प्रारूप का उपयोग किया गया है।
राजा दशरथ की पत्नियां: रामायण में राजा दशरथ की 350 से अधिक पत्नियां बताई गईं हैं, जिनमें से 3 प्रमुख पत्नियां कौशल्या, कैकेयी, सुमित्रा थीं। रामचरितमानस के अनुसार, राजा दशरथ की केवल 3 पत्नियाँ थीं - कौशल्या, कैकेयी, सुमित्रा।
सीता स्वयंवर: रामायण में सीता के स्वयंवर के लिए किसी भव्य समारोह की चर्चा नहीं है। जब कोई शक्तिशाली व्यक्ति मिथिला आता था, तो राजा जनक उन्हें शिव धनुष दिखाते थे और उसे उठाने के लिए कहते थे। रामचरितमानस में राजा जनक ने शिवधनुष उठाने के लिए एक बड़ी प्रतियोगिता के रूप में स्वयंवर का आयोजन किया था।
लक्ष्मण रेखा: रामायण में युद्ध खंड में लक्ष्मण रेखा का कोई उल्लेख नहीं है। रामचरितमानस में, लंका खंड में लक्ष्मण रेखा का वर्णन है जब मंदोदरी ने सीता से इसका उल्लेख किया था।
हनुमान का चित्रण: रामायण में, हनुमान को एक मानव के रूप में चित्रित किया गया है जो "वानर" जनजाति से हैं। रामचरितमानस में हनुमान को वानर के रूप में दर्शाया गया है और वानर शब्द का प्रयोग, वानर की एक प्रजाति के रूप में किया गया है।
राम का चित्रण: रामायण में राम को एक मनुष्य के रूप में दर्शाया गया है जिन्हें "मर्यादा पुरषोत्तम" कहा जाता है। इस महाकाव्य में राम ने अपनी सारी कुशलताएँ अभ्यास और भक्ति से अर्जित कीं।
रामचरितमानस में राम को भगवान विष्णु का अवतार बताया गया है, और इसलिए उन्हें पहले से ही सभी प्रकार की शक्तियों और गुणों से युक्त दिखाया गया है।
अपहरण और अग्निपरीक्षा: रामायण में, रावण ने सीता का अपहरण किया था। इसलिए सीता को अग्नि परीक्षा देकर अपनी पवित्रता सिद्ध करने के लिए कहा गया। हालाँकि, रामचरितमानस में राम ने पहले ही अपहरण की भविष्यवाणी करके, असली सीता को अग्नि देव के पास भेज दिया और एक प्रतिरूप बनाया। रावण, सीता के प्रतिरूप का अपहरण करता है। अग्नि परीक्षा सीता के प्रतिरूप को वास्तविक सीता से बदलने की एक विधि थी।
रावण का राम से युद्ध: रामायण में रावण ने राम से दो बार युद्ध किया: प्रारंभ में रावण को अपमानित किया गया और जीवित छोड़ दिया गया। अंत में रावण ने राम से युद्ध किया और मारा गया। जबकि रामचरितमानस में रावण एक बार युद्ध के अंत में राम से युद्ध करने आया और मारा गया।
कहानी का अंत: रामायण में, राम की कहानी की समाप्ति राम द्वारा सरयू नदी में समाधि लेने के साथ होती है। जबकि रामचरितमानस की कहानी राम और सीता के जुड़वां पुत्रों - लव और कुश के जन्म के साथ समाप्त होती है।
कंब रामायण और वाल्मीकि रामायण के बीच अंतर:
प्रारूप एवं संरचना: वाल्मीकि रामायण सात अध्यायों में विभाजित है। वे हैं बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधाकांड, सुंदरकांड, युद्धकांड और उत्तरकांड। दूसरी ओर कंब रामायणम को केवल छह अध्यायों में विभाजित किया गया है, अर्थात बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंदाकांड, सुंदरकांड और युद्धकांड। वास्तव में, कंबन ने कंदमों को 123 खंडों में विभाजित किया है जिन्हें 'पदलम' कहा जाता है। इन सभी 123 पदलमों में कुल मिलाकर 12,000 श्लोक हैं। वाल्मीकि रामायण में कुल मिलाकर 24,000 श्लोक हैं। इस प्रकार वाल्मीकि रामायण में छंदों की संख्या कंब रामायण से दोगुनी है।
साहित्यिक महत्व: कंब रामायण का साहित्यिक महत्व इस तथ्य में निहित है कि कवि द्वारा रचना में विरुत्तम और संथम प्रकार की शैलियों का उपयोग किया गया है। विरुत्तम शैली छंद में गति को, जबकि संथम शैली धुन या मीटर को संदर्भित करती है। ये दो पहलू, कंब रामायण को वास्तव में एक महान धार्मिक ग्रंथ बनाते हैं। कंबर, या कविचक्रवर्ती कंबन ने विरुत्तम और संथम के अनुकूल शब्दों का प्रयोग भी बहुत अच्छा किया है। वाल्मीकि को 'आदिकवि' की उपाधि दी गई है क्योंकि रामायण को अलंकृत काव्य की सबसे पहली कृति माना जाता है। सबसे महत्वपूर्ण संस्कृत छंद, जिसे 'अनुष्टुभ' कहा जाता है, का उपयोग वाल्मीकि द्वारा लिखित पाठ के कई छंदों की रचना में किया गया है।
उद्देश्य: वास्तव में, यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि कंब रामायणम ने तमिलनाडु के मंदिरों में राम की पूजा की नींव रखी है। वास्तव में, कवि कंब, राम के प्रति पूर्ण समर्पण की बात करते हैं, क्योंकि भगवान श्रीराम को विष्णु का अवतार माना जाता है। वाल्मीकि रामायण को राम के जीवन पर मानक और मूल पाठ माना जाता है जिसके आधार पर इस महाकाव्य के कई अन्य संस्करण भारत की कई भाषाओं में लिखे गए हैं।
रामायण के छिपे अर्थों की खोज:
राम और अयोध्या:
राम का अर्थ है "सर्वेषु रमन्ते इति रामः" अर्थात वह जो हममें से प्रत्येक में व्याप्त है, चेतना का शुद्ध प्रकाश, आत्मा, स्वयं, आत्म-राम। हमारे अंदर का यह आध्यात्मिक सार, केवल दशरथ के पुत्र के रूप में सामने आ सकता है, जिसने सभी दस इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है, जिसने अयोध्या में ही जन्म लिया है, अयोध्या - जिसका अर्थ है जहां कोई संघर्ष नहीं है, अर्थात जहां सभी संघर्ष समाप्त हो गए हैं।
सीता:
शुद्ध आत्मा राम मन से जुड़े बिना जीवन में सक्रिय रूप से भाग नहीं ले सकता। सीता मन है। वह जनक के घर गर्भ से पैदा नहीं हुई थी, बल्कि भूमि जोतते समय भूमि से मिली थी। बाद में, वही सीता धरती माता में लुप्त हो जाती हैं। वह धरती माता से आईं; वह धरती माता के पास वापस चली गईं। कोई नहीं बता सकता कि समाधि के दौरान मन कहां से आता है और कहां गायब हो जाता है। यही माया है!!
लक्ष्मण:
लक्ष्मण, तपस का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके पास जंगल जाने का कोई कारण नहीं था, लेकिन उन्होंने अपनी मर्ज़ी से छोड़ दिया और बिना नींद के भी पूर्ण ब्रह्मचर्य में रहते हैं। यह उत्तम तपस है। लेकिन कोई सदैव तपस में नहीं रह सकता। दूसरी दुनिया का भ्रम आपको इसे छोड़ने के लिए मजबूर करेगा। एक बार जब इच्छा आपके हृदय में प्रवेश कर जाती है, तो आप एक सामान्य व्यक्ति के रूप में लगातार तपस में नहीं रह सकते। लेकिन आप कम से कम लक्ष्मण रेखा के समान एक रेखा खींच सकते हैं, कि केवल इतनी दूर तक और इससे आगे नहीं। जब आप इससे परे जाते हैं, और अनुदारता शुरू हो जाती है और दशमुख आपको फँसा लेता है।
चित्र स्रोत : Wikimedia
दशमुख:
दशमुख का अर्थ दाहिनी ओर पांच सिर और बायीं ओर पांच सिर और बीच में एक गर्दन होना नहीं है। यहाँ तात्पर्य यह है कि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ दशमुख का निर्माण करती हैं। एक बहिर्मुखी व्यक्ति, देह में, देह के लिए और देह के द्वारा जीता है, यही देह का नियम है। ऐसा व्यक्ति, भोगवादी और पूर्ण बहिर्मुखी होता है। भौतिक रूप से, वह महान बन सकता है, जैसा कि रावण ने किया था, जिसने एक समृद्ध भूमि, लंका पर शासन किया था। लेकिन क्या भौतिकवाद, महज़ भौतिक आराम से अधिक कुछ प्रदान करता है? यह जीवन की समस्या का समाधान नहीं है। आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक मूल्य ही विश्व को बचा सकते हैं। यह विचार, रामायण में सामने आया है।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: रामचरितमानस और रामायण पाण्डुलिपि (Wikimedia)
जौनपुर के फ़ोटोग्राफ़र इन पोस्ट-प्रोसेसिंग और रीटचिंग तकनीकों से बनाएँ बेहतरीन तस्वीरें!
द्रिश्य 1 लेंस/तस्वीर उतारना
Sight I - Lenses/ Photography
04-04-2025 09:30 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर के फ़ोटोग्राफ़रों और फ़ोटोग्राफ़ी प्रेमियों के लिए, एडिटिंग(Editing), फ़ोटो को अधिक आकर्षक और प्रभावशाली बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। चाहे हमारे शहर के फ़ोटोग्राफ़र अपने कैमरे में ऐतिहासिक शाही किला कैद कर रहा हो या हरी–भरी कृषि कैद, सरल एडिटिंग तकनीक, फ़ोटो के रंग, चमक और तीव्रता में सुधार कर सकती है। इस तकनीक का उपयोग करने से, तस्वीरें हमारी आंखों को अधिक आकर्षक लग सकती है। फ़ोटो को क्रॉप करने(Cropping) एवं लाइटिंग को समायोजित करने से महत्वपूर्ण विवरणों पर ध्यान केंद्रित करने में मदद करता है। जबकि रिटचिंग(Retouching) और कलर करेक्शन(Colour correction) जैसी उन्नत सुविधाएं, हर फ़ोटो में सर्वश्रेष्ठ खूबियां उभार सकती हैं।
आज, हम फ़ोटोग्राफ़ी में पोस्ट-प्रोसेसिंग(Post-processing) पर चर्चा करेंगे, तथा छवियों को सुधारने में इसकी भूमिका को समझेंगे। फिर हम रॉ प्रसंस्करण(RAW processing) का पता लगाएंगे, जो विवरण और एक्सपोज़र पर अधिक नियंत्रण की अनुमति देता है। इसके बाद, हम रंग सुधार और रंग ग्रेडिंग को देखेंगे। अंत में, हम फ़ोटो रीटचिंग पर चर्चा करेंगे, जो खामियों को हटाकर एवं सुंदरता को बढ़ाकर, छवियों को पूरा करने में मदद करता है।
फ़ोटोग्राफ़ी में पोस्ट-प्रोसेसिंग का क्या मतलब है?
पोस्ट-प्रोसेसिंग, अपने कंप्यूटर पर फ़ोटो या विडियो की प्राथमिक फ़ाइल डाउनलोड करने के बाद, आपके द्वारा उनमें किए गए हर आवश्यक सुधार को शामिल करता है। यह वह प्रक्रिया है, जो अपरिष्कृत छवि या वीडियो को लेकर, उन्हें सही तरीके से पॉलिश करती है। पोस्ट-प्रोसेसिंग के मूल सिद्धांतों में, क्रॉपिंग (Cropping) से लेकर शार्पनिंग(Sharpening) तक सब कुछ शामिल है। छवियों की पोस्ट-प्रोसेसिंग में आम तौर पर, क्रॉपिंग, रंगों को सही करना, एक्सपोज़र को समायोजित करना और छवियों को शार्पर बनाना आदि शामिल है।
फ़ोटोग्राफ़ी के लिए पोस्ट-प्रोसेसिंग में, विचलित करने वाली पृष्ठभूमि छवियों (जैसे कि एक पार्क दृश्य में कचरा) या विभिन्न वर्गों को हल्का या गहरा करके, छवियों के विशिष्ट क्षेत्रों को समायोजित करना भी शामिल है। इसका मतलब यह भी हो सकता है कि, यथार्थवादी तस्वीरों का उपयोग करके एक समग्र कल्पनाशील छवि बनाने के लिए, कई छवियों को एक साथ मिलाया जा सकता है।
रॉ प्रसंस्करण (Raw Processing)-
प्राथमिक या कच्ची फ़ाइल प्रारूप (RAW file format), छवि का सबसे अच्छा प्रारूप है, जिसका आपका कैमरा उत्पादन कर सकता है। इसलिए, इसका उपयोग करें और अपने कैमरे की इमेजिंग क्षमताओं का अधिकतम उपयोग करें। प्राथमिक फ़ाइलों में उनके संपीड़ित जे पी ई जी (JPEG) समकक्षों की तुलना में अधिक असंपीड़ित डेटा होता है। जब यह आपकी छवियों को अपनी पसंद के फ़ोटो प्रोसेसिंग सॉफ़्टवेयर(Photo processing software) में विकसित करने या संसाधित करने की बात करता है, तो यह अधिक लचीलेपन के लिए अनुमति देता है।
प्राथमिकता फ़ाइलें, संपीड़ित जे पी ई जी छवियों की तुलना में अधिक गतिशील रेंज(Dynamic Range) या एच डी आर (HDR) प्रदान करती हैं, और इसलिए आप एक छवि के हाइलाइट और छाया क्षेत्रों में बहुत अधिक डेटा पुनर्प्राप्त कर सकते हैं।
अपने दिए गए फ़ोटो प्रोसेसिंग सॉफ़्टवेयर (लाइटरूम(Lightroom), फ़ोटोशॉप(Photoshop), आदि) में रॉ फ़ाइलों (RAW file) को संसाधित करने के संबंध में, खुद को शिक्षित करना निस्संदेह ही, आपको बेहतर छवियों का उत्पादन करने में सक्षम बनाता है।
फ़ोटोग्राफ़ी में रंग सुधार और रंग ग्रेडिंग(Color Grading)-
रंग सुधार (Color correction) एक तकनीकी प्रक्रिया है, जिसका उपयोग वीडियो छवि या फ़ोटो में रंगों को संतुलित और बेहतर करने के लिए किया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि, रंग चमक, कॉनट्रास्ट(Contrast) और रंग संतुलन को समायोजित करके, वास्तविक दुनिया के दृश्य का सही प्रतिनिधित्व करना है। फ़ोटोग्राफ़ी, फ़िल्म निर्माण, वीडियो एडिटिंग (Video Editing) और ग्राफ़िक डिज़ाइन(Graphic design) जैसे उद्योगों में, जहां सटीक और मनभावन रंग आवश्यक हैं, यह तकनीक महत्वपूर्ण है।
जबकि, रंग ग्रेडिंग एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें रचनात्मकता और कलात्मकता शामिल है। आमतौर पर फ़िल्म निर्माण, फ़ोटोग्राफ़ी और डिजिटल मीडिया में एक छवि या वीडियो की दृश्य अपील और कहानी को बढ़ाने के लिए, इसका उपयोग किया जाता है। रंग ग्रेडिंग रंग सुधार से अलग है, जो मुख्य रूप से सटीकता के लिए रंगों को समायोजित करने पर ध्यान केंद्रित करता है। इसके अलावा, रंग ग्रेडिंग विशिष्ट टोन, शैलियों और भाव को लागू करता है, जो भावनाओं को उकसाने के लिए या एक विशेष वातावरण प्राप्त करने के लिए होता है।
फ़ोटो रीटचिंग-
"रीटच(Retouch)" शब्द, एक छवि की दृश्यता में सुधार करने से संबंधित है। फ़ोटोग्राफ़ी में रीटच करने के लिए, किसी छवि से कुछ दोषों को दूर करना होता है। यह कैमरा लेंस या सेंसर पर धूल या गंदगी जैसी छोटी वस्तुएं भी हो सकती हैं। एक मॉडल की सतह से कुछ बाह्य दोषों को हटाने के लिए, रीटचिंग का उपयोग किया जा सकता है, जैसा कि आमतौर पर फ़ैशन प्रकाशनों में देखा जाता है। एक छवि को बदलने की प्रक्रिया का उपयोग, अंतिम प्रस्तुतियों के लिए भी किया जा सकता है। आमतौर पर, एक छवि को रीटच करने की प्रक्रिया में, छोटे स्थानीयकृत समायोजन शामिल होते हैं।
फ़ोटो रीटचिंग क्यों महत्वपूर्ण है?
पोर्ट्रेट फ़ोटोग्राफ़ी में, रीटचिंग प्रक्रिया दाग़ों को छिपाने के लिए, आवरण का उपयोग कर सकती है, और चिकनी सतह के साथ-साथ चीज़ों को सफ़ेद कर सकती है। चेहरे की चौड़ाई को भी इससे समायोजित किया जा सकता है। हमारी आंखों को भी इसमें बढ़ाया या कम किया जा सकता है। रीटचिंग के साथ, बालों का रंग भी बदला जा सकता है।
उत्पाद फ़ोटोग्राफ़ी में, रीटचिंग, फ़िंगरप्रिंट (Fingerprint) को हटा सकता है या उत्पाद की सतह को चिकना बना सकता है। कोई अतिरिक्त गहराई के लिए, उत्पाद के लिए हाइलाइट लागू कर सकता है। इन समायोजन को संभावित ग्राहकों के लिए अंतिम छवि को अधिक आकर्षक बनाने के लिए लागू किया जाता है।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: जौनपुर के शाही किले की तस्वीर का स्रोत : प्रारंग चित्र संग्रह
आधुनिक और प्राचीन निर्माण दर्शन का अतंर समझाते हैं, वाराणसी और साबरमती रिवरफ़्रंट !
नदियाँ
Rivers and Canals
03-04-2025 09:15 AM
Jaunpur District-Hindi

हमारे पड़ोसी शहर वाराणसी का प्रसिद्ध रिवरफ़्रंट, गंगा नदी के किनारे बसा हुआ है। इसमें 88 घाट, ऐतिहासिक इमारतें और संकरी गलियाँ शामिल हैं। अलग-अलग समय पर बनाए गए इन घाटों से सीढ़ियों के ज़रिए नदी तक पंहुचा जाता है। 12वीं शताब्दी से ही यह क्षेत्र हिंदू धर्म के सबसे पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक माना जाता है।
वाराणसी रिवरफ़्रंट को प्राचीन आवासीय संरचना का बेहतरीन उदाहरण माना जाता है। इसका विकास गंगा के पश्चिमी तट पर केंद्रित रहा, जिससे अनुष्ठानों के दौरान श्रद्धालु आसानी से पूर्व दिशा की ओर मुख कर सकते हैं। यह डिज़ाइन आधुनिक शहरी नियोजन से बिल्कुल अलग है, क्योंकि आजकल आमतौर पर नदियों के दोनों किनारों पर विकास किया जाता है। अहमदाबाद का साबरमती रिवरफ़्रंट इसका प्रमुख उदाहरण है।
साबरमती रिवरफ़्रंट परियोजना (Sabarmati Riverfront Project), गुजरात में साबरमती नदी के किनारे एक सुव्यवस्थित वॉटरफ़्रंट विकसित करने के उद्देश्य से शुरू की गई थी। इस लेख में हम इन दोनों रिवरफ्रंट्स को समझने और उनकी तुलना करने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले, हम वाराणसी के रिवरफ़्रंट के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को जानेंगे। फिर, हम वाराणसी के घाटों की स्थापत्य शैली पर नजर डालेंगे। इसके बाद, हम साबरमती रिवरफ़्रंट परियोजना की आवश्यकता को समझेंगे और यह जानेंगे कि इसने अहमदाबाद में बाढ़ नियंत्रण को कैसे बेहतर बनाया। अंत में, हम इस परियोजना के स्थानीय निवासियों पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों का भी विश्लेषण करेंगे।
आइए सबसे पहले यह समझते हैं कि वाराणसी रिवरफ़्रंट हमारे लिए क्यों महत्वपूर्ण है?
हिंदू धर्म में गंगा नदी को देवी का स्वरूप और आत्मिक शुद्धि का स्रोत माना जाता है। वाराणसी के घाटों से सीधे गंगा तक पहुँचा जा सकता है, जहाँ भक्त स्नान, प्रार्थना और दाह संस्कार जैसे महत्वपूर्ण अनुष्ठान करते हैं। ऐसी मान्यता है कि गंगा में स्नान करने से पापों से मुक्ति मिलती है, जबकि इसके घाटों पर किए गए दाह संस्कार, आत्मा को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त करने में सहायक होते हैं। लेकिन ये घाट सिर्फ़ पत्थरों की बनी संरचनाएँ नहीं हैं। ये आस्था, श्रद्धा और आध्यात्मिकता के प्रतीक भी हैं। हर साल लाखों तीर्थयात्री और श्रद्धालु दुनिया भर से यहाँ आते हैं। यही वजह है कि इन घाटों को धार्मिक केंद्र होने के साथ-साथ सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण माना जाता है।
वाराणसी के घाटों की वास्तुकला में हिंदू और मुगल शैली का प्रभाव साफ़ देखा जा सकता है। यहाँ की पत्थर की सीढ़ियाँ, जिन्हें "घाट सीढ़ियाँ" कहा जाता है, सीधे गंगा तक जाती हैं। ये सीढ़ियाँ न केवल धार्मिक अनुष्ठानों बल्कि सामाजिक समारोहों को भी आसान बनाती हैं।
इन घाटों के निर्माण में बलुआ पत्थर, चूना पत्थर और संगमरमर जैसी मज़बूत सामग्रियों का उपयोग किया गया है। ऐसा इसलिए ताकि ये गंगा के जल स्तर में होने वाले मौसमी बदलावों को सहन कर सकें। घाटों की संरचनाओं पर की गई बारीक नक्काशी, गुंबददार मंडप और देवी-देवताओं की मूर्तियाँ इनके सौंदर्य और आध्यात्मिक आकर्षण को और बढ़ा देती हैं।
वाराणसी के घाटों का डिज़ाइन आधुनिक शहरी नियोजन से बिल्कुल अलग है। आमतौर पर, नदियों के दोनों किनारों पर विकास किया जाता है, लेकिन वाराणसी में ऐसा नहीं है। उदाहरण के तौर पर, साबरमती रिवरफ़्रंट को देख सकते हैं।
1990 के दशक के अंत तक, यह साफ़ हो चुका था कि शहरों के विकास को नए नज़रिए से देखने की ज़रूरत है। इसी सोच ने साबरमती रिवरफ़्रंट विकास परियोजना की नींव रखी। इस परियोजना का नेतृत्व प्रसिद्ध वास्तुकार बिमल पटेल ने किया। उनकी सोच टिकाऊ और समावेशी शहरी विकास पर केंद्रित रही है।
उन्होंने 11.25 किलोमीटर लंबे नदी किनारे को एक जीवंत सार्वजनिक स्थान में बदलने का लक्ष्य रखा। इस परियोजना का उद्देश्य पर्यावरण, समाज और बुनियादी ढांचे को एक साथ जोड़ना था। आज, साबरमती रिवरफ़्रंट सिर्फ़ एक नदी किनारा नहीं, बल्कि शहरी जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुका है।
साबरमती रिवरफ़्रंट ने लोगों के जीवन को कैसे बदला ?
साबरमती रिवरफ़्रंट परियोजना से बाढ़ नियंत्रण में बड़ा सुधार हुआ। नदी की गहराई बढ़ाने और तटबंधों को मज़बूत करने से बाढ़ का खतरा काफी कम हुआ। पहले, हर साल शहर की लगभग 20% आबादी बाढ़ से प्रभावित होती थी, लेकिन अब यह समस्या काफ़ी हद तक खत्म हो गई है।
इस परियोजना के तहत जैव विविधता को फिर से बहाल करने के प्रयास किए गए। साथ ही, अपशिष्ट जल उपचार प्रणाली के ज़रिए नदी के प्रदूषण को नियंत्रित किया गया। इससे न सिर्फ़ पर्यावरण सुधरा, बल्कि आसपास रहने वाले लोगों को भी स्वच्छ वातावरण मिला।
साबरमती रिवरफ़्रंट अब सिर्फ़ एक नदी का किनारा नहीं, बल्कि अहमदाबाद की पहचान बन चुका है। इस परियोजना के तहत 200 हेक्टेयर से ज़्यादा नए सार्वजनिक स्थल बनाए गए। पैदल पथ, पार्क और सांस्कृतिक केंद्रों के निर्माण से शहरवासियों के लिए एक नया सामाजिक और मनोरंजन केंद्र विकसित हुआ। 8 मिलियन से अधिक की आबादी वाले इस शहर में अब लोग अधिक से अधिक समय बाहर बिताने लगे हैं, जिससे सामुदायिक मेलजोल भी बढ़ा है।
साबरमती रिवरफ़्रंट एक स्याह पहलू भी है, जिसके बारे में पता होना बहुत ज़रूरी है:
हज़ारों झुग्गीवासियों का विस्थापन: 9 नवंबर 2011 को इस परियोजना के तहत विस्थापन की प्रक्रिया शुरू हुई। उस समय, नदी के दोनों किनारों पर करीब 1,20,000 झुग्गियाँ थीं। सरकार ने इनमें से कुछ परिवारों को शहर की सीमा के भीतर 10,000 नए घर दिए। करीब 1,500 परिवारों को अस्थायी आवास में भेज दिया गया। लेकिन हजारों ऐसे भी थे जिन्हें कोई घर नहीं मिला।
इस परियोजना के तहत, झुग्गीवासियों के पुनर्वास का वादा किया गया था। लेकिन जिन लोगों को नए फ्लैट नहीं मिले, उन्हें गणेशनगर नामक इलाके में भेज दिया गया। यह इलाका साफ़-सफ़ाईके मामले में बेहद बदहाल है। वहाँ के लोग गंदगी से घिरे कच्चे घरों में रहने को मजबूर हैं। पानी और स्वच्छता जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी नदारद हैं।
गणेशनगर एक डंपिंग साइट के बेहद करीब है। यहाँ पूरे इलाके में हमेशा कचरे की बदबू फैली रहती है। साफ़-सफ़ाई की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं होने के कारण लोगों के लिए जीवन कठिन हो गया है।
विकास के नाम पर इन परिवारों को बेहतर जिंदगी देने का वादा किया गया था, लेकिन हकीकत में उन्हें और बदतर हालात में धकेल दिया गया। आज भी वे मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं और अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/2bxotq7r
https://tinyurl.com/2452meuf
https://tinyurl.com/28amsz33
मुख्य चित्र: रात में साबरमती रिवरफ़्रंट का दृश्य (Wikimedia)
संस्कृति 1978
प्रकृति 738