रामपुर - गंगा जमुना तहज़ीब की राजधानी












रामपुर जानें, भारत से ऑर्किड की अनगिनत किस्में, बड़े पैमाने पर होतीं हैं निर्यात !
बागवानी के पौधे (बागान)
Flowering Plants(Garden)
01-04-2025 09:35 AM
Rampur-Hindi

रामपुर के नागरिकों, क्या आपने कभी गौर किया है कि ऑर्किड का प्रत्येक फूल का आकार पूरी तरह से सममित होता है। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है? ऑर्किड को दुनिया की सबसे सुंदर प्राकृतिक रचनाओं में से एक माना जाता है। ये फूल अपने अद्वितीय बनावट, शानदार रंगों और लंबे समय तक ताज़गी बनाए रखने की गुणवत्ता के लिए अत्यधिक मूल्यवान हैं। रंगीन और सुगंधित फूलों वाले ऑर्किड के पौधे, ग्लेशियरों को छोड़कर लगभग हर आवास में उग सकते हैं। सही परिस्थितियों में ऑर्किड का जीवनकाल 20 वर्ष से अधिक हो सकता है। भारत में ऑर्किड की कई अद्भुत किस्में पाई जाती हैं, जो देश के विभिन्न हिस्सों में पनपती हैं। ये फूल न केवल अपने जीवंत रंगों और लंबे समय तक खिलने के लिए प्रसिद्ध हैं, बल्कि इनका उपयोग इत्र बनाने, पारंपरिक चिकित्सा और सजावटी उद्देश्यों में भी किया जाता हैं। तो आइए, आज हम ऑर्किड के पौधे के बारे में संक्षेप में समझते हुए, भारत से ऑर्किड के निर्यात और वैश्विक बाज़ारों में उनकी मांग के कुछ आंकड़ों पर प्रकाश डालते हैं। इसके साथ ही, हम भारत में शीर्ष ऑर्किड उत्पादक राज्यों के बारे में जानेंगे और अंत में भारत में पाई जाने वाली ऑर्किड की विदेशी से लेकर देशी प्रजातियों की किस्मों का भी पता लगाएंगे।
ऑर्किड:
ऑर्किड के पौधे ऑर्किडेसी (Orchidaceae) परिवार से संबंधित बारहमासी जड़ी-बूटियाँ हैं। भारत में हाइब्रिड ऑर्किड (Hybrid Orchid) के नियमित रूप से उत्पादन के अलावा, 140 से अधिक पीढ़ियों में लगभग 24000 प्रजातियां पाई जाती हैं। ऑर्किड के पौधे पेड़ों से लेकर झाड़ियों तक के रूप में हो सकते हैं। पेड़ों वाले ऑर्किड को अधिपादप (Epiphytes) और ज़मीन पर उगने वाले ऑर्किड को भौमिक (Terrestrial ) कहा जाता है। चट्टानों पर उगने वाले ऑर्किड को शैलोद्भिद् (Lithophytes) के रूप में जाना जाता है, जबकि कुछ अपेक्षाकृत कम ज्ञात पौधे सड़ने वाले पदार्थ या सड़ते हुए लट्ठों पर उगते हैं जिन्हें मृतजीवी (Saprophytes) के रूप में जाना जाता है। कुछ ऑर्किड अर्ध जलीय स्थिति में उगते हैं, पानी में डूबे रहते हैं और कभी-कभी केवल पुष्पक्रम ही सतह तक पहुंचते हैं। ऑर्किड अपनी वानस्पतिक वृद्धि की शैली के आधार पर दो प्रकार की वृद्धि आदतें प्रदर्शित करते हैं।
एकाक्षीय (Monopodial): इसमें एकल गैर-शाखाओं वाला तना होता है, जो ऊपर की ओर बढ़ता है| इनका तना एक मौसम से दूसरे मौसम तक लंबा होता है, उदाहरण के लिए, वांडा (Vanda) और अरैचिस (Arachais)।
सहजीवी (Sympodial): यह एक प्रकंद होता है, जो क्षैतिज रूप से बढ़ता है। एक अच्छी तरह से विकसित सहजीवी पौधे में विभिन्न आकार और उम्र के अंकुरों का एक समूह होता है, प्रत्येक फूल के अंत में प्रत्येक अक्ष की वृद्धि रुक जाती है। उदाहरण के लिए, डेंड्रोबर्म (Dendrobium), कैटलिया (Cattleya), ओन्सीडियम (Oncidium), सिंबिडियम (Cymbidium)।
भारत से आर्किड निर्यात:
भारत से ऑर्किड के फूलों की विभिन्न किस्मों का निर्यात दुनिया के लगभग 20 देशों को किया जाता है। विभिन्न उद्योगों में इन खूबसूरत फूलों के असंख्य उपयोगों के कारण, पिछले कुछ वर्षों में ऑर्किड की लोकप्रियता निरंतर बढ़ी है। भारत से ऑर्किड निर्यात का कुल मूल्य लगभग 0.66 मिलियन डॉलर है।
वैश्विक बाज़ार की मांग:
भारत से निर्यात होने वाले ऑर्किड उत्पादों की मात्रा हर साल निरंतर बढ़ रही है। भारत में ऑर्किड निर्यातक के शीर्ष पांच व्यापारिक भागीदार नीदरलैंड, बेल्जियम, फ्रांस, जापान और कोरिया गणराज्य हैं। इन शीर्ष पांच देशों का निर्यात मूल्य लगभग 0.6 मिलियन डॉलर है जो ऑर्किड के कुल निर्यात मूल्य का लगभग 90.91% है। मार्च 2023 से फरवरी 2024 तक, भारत से ऑर्किड के लिए कुल 173 नौभार निर्यात हुए।
भारत में शीर्ष ऑर्किड उत्पादक राज्य:
- असम भारत का सबसे बड़ा ऑर्किड उत्पादक राज्य है। 2021-22 तक राज्य में लगभग 4,950 टन खुले और 9,980 टन कटे ऑर्किड का उत्पादन हुआ।
- पश्चिम बंगाल भारत का दूसरा सबसे बड़ा ऑर्किड उत्पादक राज्य है। 2021-2022 तक राज्य में लगभग 70 टन कटे ऑर्किड का उत्पादन किया गया।
- मध्य प्रदेश भारत का तीसरा सबसे बड़ा ऑर्किड उत्पादक राज्य है। 2021-2022 तक राज्य में लगभग 50 टन खुले ऑर्किड का उत्पादन हुआ।
- कर्नाटक भारत का चौथा सबसे बड़ा ऑर्किड उत्पादक राज्य है। 2021-2022 तक राज्य में लगभग 50 टन कटे ऑर्किड का उत्पादन किया गया।
- मेघालय भारत का पांचवां सबसे बड़ा ऑर्किड उत्पादक राज्य है। 2021-2022 तक राज्य में लगभग 50 टन कटे ऑर्किड का उत्पादन हुआ।
- केरल भारत का छठा सबसे बड़ा ऑर्किड उत्पादक राज्य है। 2021-2022 तक राज्य में लगभग 10 टन कटे ऑर्किड का उत्पादन किया गया।
भारत में ऑर्किड की किस्में:
- बी ऑर्किड (Bee Orchid): बी ऑर्किड के पौधे 10-40 सेंटीमीटर ऊँचे होते हैं। इसके फूल मधुमक्खी के आकार के होते हैं, इसलिए इनका नाम बी ऑर्किड रखा गया है। वास्तव में ऐसा प्रतीत होता है जैसे मधुमक्खी 3 गुलाबी पंखुड़ियों के बीच बैठी है। ये फूल अपने जीवनकाल में केवल एक बार ही खिलते हैं।
- सुगंधित मिनी ऑर्किड (Fragrant Mini Orchid): केवल कुछ इंच लंबे इस पौधे को ताइवान मिनी ऑर्किड (Taiwan Mini Orchid) के नाम से भी जाना जाता है। इन फूलों से विभिन्न प्रकार की सुगंध प्राप्त होती हैं, जिनमें दालचीनी और वेनिला जैसे मसालों से लेकर चॉकलेट और साइट्रस तक शामिल हैं, इसलिए इनका नाम यह रखा गया है।
- कैटलिया ऑर्किड (Cattleya Orchid): यह ऑर्किड इतना लोकप्रिय है कि कई दक्षिण अमेरिकी देशों का यह राष्ट्रीय फूल हैं। मनभावन सुगंध वाले बड़े आकार के ये पौधे साल में एक से अधिक बार खिलते हैं।
- ब्रासिया ऑर्किड (Brassia Orchid): आमतौर पर स्पाइडर ऑर्किड (Spider Orchid) के नाम से जाने जाने वाले इस पौधे से दो चमकदार, लंबी, हरी पत्तियों वाले शल्ककंद निकलते हैं, जो शीर्ष भाग से बाहर की ओर बढ़ते हैं। इसके फूल मकड़ी के पैरों की तरह फैले हुए लंबे पतले पीले-हरे बाह्यदलों के साथ-साथ धब्बेदार सफ़ेद, पीले और हल्के भूरे रंग के होते हैं, इसलिए इसका नाम स्पाइडर ऑर्किड भी है।
- डेंड्रोबियम ऑर्किड (Dendrobium Orchid): डेंड्रोबियम ऑर्किड के फूल गुलाबी, भूरे, सफ़ेद, बैंगनी, हरे और मैरून रंग के होते हैं। इस ऑर्किड के फूलों की जीवन अवधि सबसे अधिक होती है और इसलिए घरेलू पौधों के रूप में उगाने के लिए ऑर्किड की सबसे आसान किस्मों में से एक है।
- वांडा ऑर्किड (Vanda Orchid): इनकी जड़ें मिट्टी से ऊपर हवा में होने के कारण, इसे वायु संयंत्र के नाम से जाना जाता है, इन्हें बढ़ने के लिए मिट्टी की आवश्यकता नहीं होती है। इसकी जड़ें स्पंज (sponge) की तरह काम करती हैं और भारी मात्रा में नमी को अवशोषित कर सकती हैं। ये दुर्लभ ऑर्किड अपनी लंबे समय तक टिकने वाली प्रकृति और नीले, गुलाबी, लाल और पीले जैसे आकर्षक रंगों के कारण भी असाधारण हैं।
- फ़ेलेनोप्सिस ऑर्किड (Phalaenopsis Orchid): ऑर्किड की इस किस्म को मोथ ऑर्किड (Moth Orchid) के रूप में जाना जाता है। इसके फूल सफ़ेद, क्रीम, बैंगनी-गुलाबी और हल्के पीले रंग के होते हैं और यह ऑर्किड के प्रकारों के बीच आसानी से उगाए जाने वाला एक और लोकप्रिय घरेलू पौधा है।
- मैक्सिलारिया ऑर्किड (Maxillaria Orchid): यह ऑर्किड अपनी नारियल क्रीम पाई सुगंध के लिए प्रसिद्ध है, इसलिए इसे नारियल आर्किड के रूप में भी जाना जाता है।
- ज़ाइगोपेटलम ऑर्किड (Zygopetalum Orchid): इस आर्किड के फूल काली मिर्च की गंध के समान बेहद आकर्षक, सुगंधित होते हैं। इसकी पत्तियाँ बड़ी होती हैं जो उन्हें वाष्पोत्सर्जन में मदद करती हैं।
- सिंबिडियम ऑर्किड (Cymbidium Orchid): आम तौर पर बोट ऑर्किड के नाम से जाने जाने वाले, ये ऑर्किड सदाबहार फूल वाले पौधे हैं। यह अपने आश्चर्यजनक, जीवंत और रंगीन फूलों के कारण दुनिया में सबसे प्रिय ऑर्किड की श्रेणी है। यह ऑर्किड कई फूलों के रंगों में आता है, जिसमें सफ़ेद रंग सबसे लोकप्रिय है।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: ऑर्किड की विभिन्न किस्में (Wikimedia)
रामपुर के लोग, आज ईद अल फ़ित्र के मौके पर जानेंगे, इस्लाम में विभिन्न प्रार्थनाओं का महत्व
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
31-03-2025 09:02 AM
Rampur-Hindi

हज़ारों मुस्लिम लोग, हमारे रामपुर शहर में जामा मस्जिद, बिलाल मस्जिद और मोती मस्जिद जैसी मस्जिदों में अपनी ईद की नमाज़ (सलाह (Salah)) पढ़ते हैं हैं। इस्लाम में प्रार्थनाओं के बारे में बात करें तो, सलाह, आराधना का एक विशेष रूप है, जो शहादा (विश्वास की गवाही) के बाद इस्लाम का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ है। यह प्रार्थना का एक अनिवार्य रूप है, जो दिन में पांच बार किया जाता है। यह कहते हुए, इस्लाम में पांच बार की जाने वाली प्रार्थनाएं फ़ज्र, ज़ोहर, अस्र, मग़रिब और इशा हैं। इसलिए, आज हम इस्लाम धर्म में सलाह के महत्व को समझने की कोशिश करते हैं। इसके बाद, हम उन चरणों को सीखेंगे, जो सलाह में विस्तार से किए जाते हैं। फिर, हम ‘ ’ के बारे में पता लगाएंगे। इसके अलावा, हम विभिन्न प्रकार के सलाह का पता लगाएंगे। अंत में, हम यह पता लगाएंगे कि, ईद-अल-फ़ित्र सलाह, दैनिक सलाह से कैसे अलग है।
इस्लाम में सलाह का महत्व:
इस्लाम में प्रार्थना या “सलाह”, पैगंबर मुहम्मद की चमत्कारी रात्रि यात्रा ( इस्रा और मिराज) के दौरान, वर्ष 621 ईस्वी के आसपास अनिवार्य बना दी गई थी। यह यात्रा उन्हें मक्का (Mecca) से यरूशलेम (Jerusalem), और फिर आकाश के माध्यम से जन्नत ले गई। इस अविश्वसनीय घटना के दौरान, अल्लाह ने पैगंबर मुहम्मद और उनके अनुयायियों को पांच दैनिक प्रार्थना करने की आज्ञा दी।
इन प्रार्थनाओं का महत्व उनके आध्यात्मिक, भौतिक और सांप्रदायिक पहलुओं में निहित है। वे एक आस्तिक और उनके निर्माता – परमात्मा के बीच, एक सीधे संबंध के रूप में काम करती हैं। वे मुसलमानों को दिन भर सचेतना और अनुशासन बनाए रखने के लिए, एक संरचित ढांचा भी प्रदान करती हैं।
इन प्रार्थनाओं का दायित्व पैगंबर मुहम्मद के साथ शुरू हुआ। प्रारंभ में, मुसलमानों को दिन में दो बार प्रार्थना करने की आज्ञा दी गई थी, लेकिन बाद में, इसे दिन में पांच बार बढ़ाया गया। यह दिव्य आज्ञा, न केवल विश्वास का परीक्षण थी, बल्कि, विश्वासियों के लिए शुद्धिकरण और आध्यात्मिक ऊंचाई का एक साधन भी थी।
इस्लाम में प्रार्थनाएं केवल अनुष्ठानिक कार्य नहीं हैं, बल्कि, अल्लाह की इच्छा को प्रस्तुत करने के क्षण भी हैं। वे मुसलमानों को जीवन में अपने अंतिम उद्देश्य – अल्लाह की पूरी ईमानदारी से आराधना और सेवा करने की याद दिलाते हैं। इसके अतिरिक्त, मंडली की प्रार्थना मुस्लिम समुदाय के बीच एकता और भाईचारे की भावना को बढ़ावा देती है।
सलाह में किए गए चरणों को सीखना:
•तैयारी (तहाराह (Taharah)):
सलाह से पहले, मुसलमानों को शरीर और आत्मा की सफ़ाई (वुज़ू) करने की आवश्यकता होती है। शुद्धि का यह कार्य, विनम्रता और श्रद्धा की स्थिति में परमात्मा के सामने खड़े होने की तत्परता का प्रतीक है।
•इरादा (नीयह (Niyyah)):
ईमानदारी और भक्ति के साथ, उपासक सलाह प्रदर्शन करने के लिए, एक सचेत इरादा करता है। यह इस पवित्र दायित्व को अल्लाह के लिए पूरा करने हेतु, अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि करता है।
•खड़े रहना (क़ियाम (Qiyam)):
सलाह, उपासक के साथ शुरू होती है, जो कि क़िब्लाह (मक्का में काबा की दिशा) का सामना करती है। यह विधि एकता के प्रतीक के रूप में, अल्लाह की इच्छा को प्रस्तुत करती है।
•पाठ (तिलावह (Tilawah)):
पूरे सलाह के दौरान, उपासक कुरान से छंदों का पाठ करता है, तथा सर्वशक्तिमान की महिमा और प्रशंसा करता है। उपासक उनकी क्षमा मांगता है, तथा मार्गदर्शन और दया के लिए प्रार्थना करता है।
•सिर झुकाना (रुकू (Ruku)):
विनम्रता और आत्मसमर्पण के एक प्रतीक के रूप में, उपासक अल्लाह के सामने नीचे झुकता है, उसकी महानता को स्वीकार करता है, और उसके अनगिनत आशीर्वाद के लिए आभार व्यक्त करता है।
•साष्टांग प्रणाम (सुजूद (Sujood)):
सलाह का उत्कर्ष साष्टांग प्रणाम है, जब उपासक सलाह को प्रस्तुत करने और भक्ति में, ज़मीन पर लेट जाता है। तब उपासक का माथा, नाक, हथेलियां, घुटने और पैर की उंगलियां ज़मीन को छूती है।
•समापन ( तसलीम (Taslim) ):
सलाह, तशह्हुद के पाठ के साथ समाप्त होती है। उसके बाद, तसलीम होता है। इसमें उपासक अपने दाहिने और बाएं कंधों पर मौजूद, स्वर्गदूतों को शांति का अभिवादन करता है। यह प्रार्थना के पूरा होने का प्रतीक है।
इस्लाम में वुज़ू क्या है, और सलाह के सामने यह क्यों आवश्यक है?
इस्लाम में वुज़ू, उनकी दैनिक प्रार्थनाओं और आराधना से पहले मुसलमानों द्वारा की गई एक अनुष्ठान शुद्धि प्रक्रिया है। यह इस्लाम में एक मौलिक अभ्यास है, जो शारीरिक और आध्यात्मिक स्वच्छता पर ज़ोर देता है। “वुज़ू” शब्द का स्वयं अरबी अनुवाद, “शुद्धिकरण” है, और इसके महत्व को रेखांकित करता है।
वुज़ू केवल एक भौतिक सफ़ाई अनुष्ठान नहीं है, बल्कि, यह आत्मा की शुद्धि का भी प्रतीक है। यह आध्यात्मिक स्वच्छता और शारीरिक कार्यों तथा आंतरिक आध्यात्मिकता के बीच संबंध की निरंतर आवश्यकता की याद दिलाता है।
वुज़ू में शरीर के विशिष्ट भागों को धोना शामिल है, जिसमें चेहरा, हाथ, मुंह, नाक, हाथ और पैर शामिल हैं। यह शारीरिक सफ़ाई सुनिश्चित करती है कि, प्रार्थना में प्रवेश करने से पहले, उपासक शारीरिक रूप से साफ हो। यह व्यक्तिगत स्वच्छता को भी बढ़ावा देता है।
इस्लाम में विभिन्न प्रकार के सलाह क्या हैं?
•फ़र्ज़ प्रार्थना: फ़र्ज़ एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ – ‘अनिवार्य’ है। जानबूझकर फ़र्ज़ प्रार्थना को छोड़ना पाप है, लेकिन, अगर इस तरह की प्रार्थना को भूलने की बीमारी के माध्यम से या अपरिहार्य परिस्थितियों के कारण भूला जाता है, तो इस गलती को याद करके छूटी हुई प्रार्थना करके इसे ठीक किया जा सकता है।
•वाजिब प्रार्थना: निम्नलिखित प्रार्थनाओं को वाजिब (आवश्यक) प्रार्थना माना जाता है:
वित्र के तीन राकत;
‘ईद–अल-फ़ित्र के दो राकत और ‘ईद–अल-अधा’ के दो राकत; एवं
काबाह के तवाफ़ का प्रदर्शन करते हुए पेश किए गए, दो राकत।
यदि कोई व्यक्ति जानबूझकर इन प्रार्थनाओं को भूलता है, तो उसे पाप माना जाता है। हालांकि, अगर वह एक वाजिब प्रार्थना को अनायास भूलता करता है, तो उसे कदा प्रार्थना के रूप में पेश करने की आवश्यकता नहीं है। कदा प्रार्थना का अर्थ, एक छूटी हुई प्रार्थना की पेशकश है।
•सलातुल-वित्र:
वित्र का शाब्दिक अर्थ, अजीब है। इस प्रार्थना में तीन राकत हैं। यह ‘ईशा’ प्रार्थना के बाद पेश किया जाता है। इन राकत में क्रमशः सूरह अल-एला, सूरह अल-काफ़िरुन और सूरह अल-इखलास का पाठ करना बेहतर है। हालांकि, यह आवश्यक नहीं है। पवित्र कुरान के किसी भी सूरह या छंद का पाठ किया जा सकता है।
•सुन्नत प्रार्थना:
पैगंबर ने फ़र्ज़ प्रार्थनाओं के अलावा, प्रार्थना के अतिरिक्त राकत की पेशकश की। इन प्रार्थनाओं को सुन्नत प्रार्थना कहा जाता है। सुन्नत प्रार्थनाओं की पेशकश को सभी न्यायविदों द्वारा आवश्यक माना जाता है। साथ ही, सुन्नत प्रार्थनाओं की इच्छाशक्ति की उपेक्षा, अल्लाह की दृष्टि में होती है।
•नवाफ़िल प्रार्थना:
मुस्लिम लोग, फ़र्ज़ और सुन्नत राकत के अलावा, प्रार्थना के अतिरिक्त राकत की पेशकश करते हैं। इन्हें नवाफ़िल प्रार्थना या नफ़्ल कहा जाता है। ये वैकल्पिक प्रार्थनाएं हैं। जो लोग स्वेच्छा से नवाफ़िल प्रार्थना की पेशकश करते हैं, वे अल्लाह के एहसान का लाभ उठाते हैं।
ईद-अल-फ़ित्र की सलाह, दैनिक सलाह से कैसे अलग है ?
ईद-अल-फ़ित्र में एक विशेष सलाह होती है, जिसमें दो राकत होती है, जो आम तौर पर एक खुले मैदान या बड़े हॉल में पढ़ी जाती है। यह केवल मंडली (जमात) में पढ़ी जा सकता है, और इसमें छह अतिरिक्त तकबीर होती है। सुन्नी इस्लाम की हनफ़ी परंपरा में, पहले राकत की शुरुआत में तीन, और दूसरे राकत में रुकु से पहले तीन हैं। अन्य सुन्नी परंपराओं में आमतौर पर, 12 तकबिर होते हैं। शिया इस्लाम में, सलात में तिलवा के अंत में, पहले राकत में छह तकबिर हैं।
संदर्भ:
मुख्य चित्र स्रोत : Wikimedia
चलिए रामपुर को दिखाते हैं कि बुनकरों के शहर अर्थात पानीपत में कंबल कैसे बनाए जाते हैं
वास्तुकला 2 कार्यालय व कार्यप्रणाली
Architecture II - Office/Work-Tools
30-03-2025 09:12 AM
Rampur-Hindi

हमारे प्यारे रामपुर वासियों, क्या आप कंबल के बिना सर्दियों की कल्पना कर सकते हैं? निश्चित रूप से नहीं। भारत में कंबल, जो कि मुख्य रूप से सर्दियों में उपयोग की जाने वाली वस्तु है, का विनिर्माण उद्योग विशाल और विविधतापूर्ण है। यह विनिर्माण उद्योग, घरेलू और वैश्विक बाज़ारों के लिए ऊनी, सूती और सिंथेटिक कंबल का उत्पादन करता है। पानीपत, जिसे अक्सर "बुनकरों का शहर" कहा जाता है, भारत में कंबल निर्माण का एक प्रमुख केंद्र है। यहाँ के कंबलों को उनकी गुणवत्ता और विविधता के लिए जाना जाता है, और कई प्रमुख कंबल निर्माता इसी क्षेत्र से आते हैं। पानीपत के अलावा लुधियाना, अमृतसर, सूरत और जयपुर जैसे शहर भी अपने कंबलों के लिए मशहूर हैं। आज भारत में कई निर्माता ऐसे कंबल बनाने के लिए उन्नत बुनाई तकनीकों का उपयोग करते हैं जो अपनी गुणवत्ता और दिखावट दोनों में सबसे अलग हैं। बुनाई की प्रक्रिया में अत्याधुनिक मशीनरी का उपयोग किया जाता है। इन मशीनों से प्रत्येक कंबल में सही बनावट और मोटाई आती है, जो उपयोगकर्ता को बेजोड़ आराम प्रदान करती है। कपड़ा बुन जाने के बाद उसे रंगाई और छपाई प्रक्रिया से गुज़रना होता है। इस प्रक्रिया में जीवंत रंग और जटिल पैटर्न लागू किए जाते हैं। वर्तमान समय में कंबल उत्पादनकर्ता, पर्यावरण के अनुकूल रंगों का उपयोग करने का प्रयास कर रहे हैं, पर्यावरणीय सुरक्षा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। कतरनी, ब्रशिंग और एम्बॉसिंग (embossing) जैसी तकनीकें, कंबल को उसका आलीशान एहसास के साथ एक शानदार रूप देते हैं। तो आइए, आज कुछ चलचित्रों के माध्यम से यह समझने की कोशिश करें कि भारत में कंबल कैसे बनाए जाते हैं। सबसे पहले हम पानीपत में मौजूद एक कंबल के कारखाने का दौरा करेंगे। फिर हम, इनकी निर्माण प्रक्रिया को विस्तार से समझाने वालीं कुछ वीडियो क्लिप्स देखेंगे। अंत में, एक अन्य चलचित्र के माध्यम से, हम सीखेंगे कि अपना खुद का कंबल निर्माण व्यवसाय कैसे शुरू किया जा सकता है। साथ ही, हम इस व्यवसाय के फ़ायदे और नुकसान, इसके लिए आवश्यक निवेश, लाभ मार्जिन आदि जैसी कुछ महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करेंगे।
संदर्भ:
रामपुर समझिए, कैसे लाल चंदन की खूबियां ही, इसके विनाश का कारण बन रही हैं ?
निवास स्थान
By Habitat
29-03-2025 09:15 AM
Rampur-Hindi

रामपुर के सिनेमाघरों में सुपरहिट रही दक्षिण भारतीय फिल्म 'पुष्पा' की कहानी, लाल चंदन (Red sandalwood) की तस्करी के इर्द-गिर्द घूमती है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि यह लकड़ी भारत की सबसे महंगी लकड़ियों में से एक है? रक्त चंदन के नाम से भी मशहूर, इस लकड़ी का इस्तेमाल दवा, इत्र, हवन-पूजा सामग्री, महंगे फ़र्नीचर, प्राकृतिक रंग, कॉस्मेटिक उत्पाद और यहां तक कि शराब बनाने तक में भी होता है।
मुख्य रूप से दक्षिण भारत के दक्षिण-पूर्वी घाटों में पाए जाने वाले इस पेड़ की लकड़ी का रंग गहरा लाल होता है, जो इसे और भी खास बना देता है। दुर्लभता और भारी मांग के चलते इसकी कीमत आसमान छूती है। आई यू सी एन (International Union for Conservation of Nature (IUCN)) ने इसे "निकट संकटग्रस्त" (Near Threatened) प्रजाति के रूप में सूचीबद्ध किया है। इसकी वृद्धि दर बेहद धीमी होती है, लेकिन इसके बहुपयोगी होने के कारण यह पेड़ तेजी से दुर्लभ होता जा रहा है।
इसलिए, आज के इस लेख में हम लाल चंदन को अच्छे से समझने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले, हम इसकी भौतिक और रूपात्मक विशेषताओं के बारे में जानेंगे। फिर, इसके कुछ स्वास्थ्य लाभों पर बात करेंगे। इसके बाद, भारत में लाल चंदन से जुड़े ख़तरों पर नज़र डालेंगे। और आखिर में, इस पेड़ के अवैध व्यापार को रोकने के लिए भारत सरकार द्वारा उठाए गए कुछ कदमों के बारे में चर्चा करेंगे।
लाल चंदन को वैज्ञानिक रूप से टेरोकार्पस सैंटालिनस (Pterocarpus santalinus) कहा जाता है। यह एक छोटा लेकिन मज़बूत पेड़ होता है। यह लगभग 8 मीटर (26 फ़ीट) ऊंचा होता है, और इसके तने का व्यास 50 से 150 सेमी तक हो सकता है। यह पेड़ धूप पसंद करता है और युवा अवस्था में तेजी से बढ़ता है। सिर्फ़ तीन साल में यह 5 मीटर (16 फ़ीट) तक लंबा हो सकता है, फिर चाहे मिट्टी खराब ही क्यों न हो। लेकिन ठंड इसे बर्दाश्त नहीं होती। अगर तापमान -1°C तक गिर जाए, तो यह सूखकर मर सकता है। इसकी पत्तियां त्रिपर्णी (तीन पत्तियों वाली) होती हैं और इनकी लंबाई 3 से 9 सेमी तक हो सकती है। इसके फूल छोटे होते हैं और गुच्छों (रेसमेस) में खिलते हैं। फल 6 से 9 सेमी लंबी फली के रूप में होता है, जिसमें एक या दो बीज पाए जाते हैं। इस पेड़ का तना साफ़ होता है, और इसकी शाखाएँ घनी होकर एक गोलाकार मुकुट बनाती हैं। इसकी छाल काले-भूरे रंग की होती है, जिसमें दरारें होती हैं, जिससे यह मगरमच्छ की खाल जैसी दिखती है। अगर इसकी अंदरूनी छाल कट जाए या किसी वजह से चोट लगे, तो इससे लाल रंग का 'सैंटोलिन' (Santolin) रंग निकलता है। इसकी लकड़ी बहुत कठोर होती है और इसका रंग गहरा लाल होता है। इसका विशिष्ट गुरुत्व 1.109 होता है, जो इसकी मज़बूती को दर्शाता है।
इसकी पत्तियाँ शुरू में अपरिपक्व होती हैं। वे पेटियोलेट (डंठल वाली) और वैकल्पिक रूप में बढ़ती हैं। अंकुर अवस्था में ये पत्तियाँ सरल होती हैं, लेकिन जैसे-जैसे बढ़ती हैं, वे त्रिपर्णी (तीन पत्तियों वाली) हो जाती हैं। कुछ मामलों में ये पंचपर्णी (पाँच पत्तियों वाली) भी हो सकती हैं।
लाल चंदन सिर्फ़ एक जड़ी-बूटी नहीं, बल्कि एक बेहतरीन प्राकृतिक उपचारक भी है।
यह कई तरह के स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है। आइए इसके प्रमुख फ़ायदों के बारे में जानते हैं—
1. त्वचा की रंजकता कम करता है: लाल चंदन को त्वचा के लिए सबसे असरदार तत्वों में से एक माना जाता है। इसके जीवाणुरोधी गुण त्वचा की गहराई से सफ़ाई करते हैं और मुंहासों, दाग-धब्बों और रंजकता (पिगमेंटेशन) को हल्का करने में मदद करते हैं। यही कारण है कि घरेलू स्किनकेयर में इसका खूब इस्तेमाल किया जाता है।
2. मधुमेह को नियंत्रित करने में सहायक: लाल चंदन में मौजूद सक्रिय तत्व शरीर में ब्लड शुगर (Bllod Sugar) को नियंत्रित करने में मदद करते हैं। यह अग्न्याशय (पैंक्रियास (Pancreas)) की कोशिकाओं को नुकसान से बचाकर इंसुलिन के स्राव को बेहतर बनाता है। इसलिए, मधुमेह के मरीजों के लिए यह एक कारगर प्राकृतिक उपाय हो सकता है।
3. रक्त को शुद्ध करता है: हमारे लिए शरीर में मौजूद विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालना बहुत जरूरी होता है, और लाल चंदन इस काम में मदद करता है। इसके मूत्रवर्धक (डाययूरेटिक Diuretic) गुण शरीर में तरल संतुलन बनाए रखते हैं और बार-बार पेशाब आने में मदद करते हैं। इससे मूत्र मार्ग (यूरिनरी ट्रैक्ट (Urinary Tract) ) साफ रहता है और रक्त को शुद्ध करने की प्रक्रिया तेज होती है।
4. रक्त संचार को बेहतर बनाता है: लाल चंदन का अर्क शरीर में रक्त संचार को सुधारने में मदद करता है। इससे नसों (नर्व्स (Nerves)) की कार्यक्षमता बेहतर होती है, जिससे पूरे शरीर को अधिक ऑक्सीजन और पोषक तत्व मिलते हैं। यही वजह है कि इसका इस्तेमाल फ़ेस मास्क (Face Mask) और स्क्रब (Scrub) में किया जाता है, ताकि त्वचा को गहराई से साफ किया जा सके और उसे नया जीवन मिल सके। हालांकि लाल चंदन की यही सब खूबियां उसके पतन का कारण बन रही हैं। आई यू सी एन ने द्वारा इसे "निकट संकटग्रस्त" प्रजाति के रूप में वर्गीकृत किया है।
आइए, अब लाल चंदन के लिए बढ़ते ख़तरों पर एक नज़र डालते हैं:
1) अवैध कटाई और तस्करी: लाल चंदन का बाज़ार मूल्य बहुत अधिक है, जिससे इसकी अवैध कटाई और तस्करी तेज़ी से बढ़ रही है। संगठित अपराध समूह स्थानीय लोगों को लालच देकर या मजबूर करके इन कामों में शामिल कर लेते हैं।
2) प्राकृतवास नुकसान: आवास की हानिवनों की कटाई और कृषि या शहरी विकास के लिए जंगलों को खत्म किया जा रहा है। इसका सीधा असर लाल चंदन की आबादी पर पड़ता है, क्योंकि यह पहले से ही सीमित क्षेत्र में पाया जाता है।
3) जंगल की आग: प्राकृतिक और इंसानों द्वारा लगाई गई आग लाल चंदन के लिए बड़ा खतरा है। एक बार आग लगने पर यह पूरे जंगल को तबाह कर सकती है, जिससे इन पेड़ों का अस्तित्व और भी मुश्किल में पड़ जाता है।
4) जलवायु परिवर्तन: बदलते मौसम और लंबे समय तक सूखा पड़ने से लाल चंदन के पेड़ों की वृद्धि और पुनर्जनन प्रभावित होता है। अगर यह जारी रहा, तो इनकी संख्या और कम हो सकती है।
हालांकि इसके सरकार द्वारा इसके संरक्षण के लिए कुछ प्रयास भी किए जा रहे हैं, जिनमें शामिल है:
1) निगरानी और सुरक्षा: वन विभाग ने जंगलों में गश्त बढ़ा दी है। ड्रोन और सैटेलाइट इमेजरी (Satellite Imagery) जैसी आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल किया जा रहा है, ताकि अवैध कटाई और तस्करी को रोका जा सके।
2) सख्त कानून और कार्रवाई: वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत लाल चंदन की सुरक्षा के लिए सख्त कानून बनाए गए हैं। तस्करों और शिकारियों को पकड़ने के लिए नियमित छापेमारी भी की जाती है।
3) अंतरराष्ट्रीय सहयोग: लाल चंदन की तस्करी अक्सर सीमाओं के पार की जाती है। इसे रोकने के लिए भारत अन्य देशों और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के साथ मिलकर काम कर रहा है।
4) वैज्ञानिक अनुसंधान और पुनर्वनीकरण: वैज्ञानिक तरीके अपनाकर, लाल चंदन के संरक्षण के प्रयास किए जा रहे हैं। जंगलों को दोबारा हरा-भरा करने के लिए बड़े स्तर पर पुनर्वनीकरण कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।
कुल मिलाकर लाल चंदन भारत की अनमोल प्राकृतिक संपदा है। अगर इसे बचाने के लिए सही कदम न उठाए गए, तो आने वाले वर्षों में यह विलुप्त भी हो सकता है। इसलिए, सरकार के साथ-साथ आम लोगों को भी इसके संरक्षण में योगदान देना होगा।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/zo7p94x
https://tinyurl.com/2626rulw
https://tinyurl.com/247lj8hg
https://tinyurl.com/287ylxk3
मुख्य चित्र: एक साथ एकत्रित किए गए लाल चंदन के तने : (Wikimedia)
बदलती जलवायु में कैसे बढ़े चॉकलेट उत्पादन, कि न बदले रामपुर के हर बच्चे के चेहरे की मुस्कान
स्वाद- खाद्य का इतिहास
Taste - Food History
28-03-2025 09:20 AM
Rampur-Hindi

भारत में हर साल करीब 27,000 टन कोको (Cocoa) का उत्पादन होता है! इसे ज़्यादाज़्यादातर केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में उगाया जाता है। आज के इस लेख में हम भारत में कोको के उत्पादन की मौजूदा स्थिति को समझने की कोशिश करेंगे। फिर हम जानेंगे कि भारत कितना कोको आयात करता है और इसे किन देशों से इसे मंगवाया जाता है। इसके बाद, हम समझेंगे कि कोको की खेती के लिए भारत की जलवायु कितनी उपयुक्त है! साथ ही, यह भी जानेंगे कि पश्चिम अफ्रीका में कोको का उत्पादन तेजी से क्यों घट रहा है। अंत में, हम कुछ महत्वपूर्ण उपायों पर चर्चा करेंगे जो भारत में कोको उत्पादन बढ़ाने में मदद कर सकते हैं।
आइए, सबसे पहले भारत में कोको उत्पादन की वर्तमान स्थिति को समझते हैं?
कोको एक उष्णकटिबंधीय फ़सल (Tropical crop) है, जिससे चॉकलेट बनाई जाती है। यह कोकोआ पेड़ (Theobroma cacao) के बीजों से प्राप्त होता है। भारत में कोको एक महत्वपूर्ण व्यावसायिक फ़सल है, जिसे मुख्य रूप से केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में उगाया जाता है। देश में हर साल करीब 27,000 टन कोको का उत्पादन होता है। लेकिन भारतीय चॉकलेट और कन्फेक्शनरी उद्योग की मांग इससे कहीं ज़्यादा है। इस बढ़ती जरूरत को पूरा करने के लिए भारत को आयात पर निर्भर रहना पड़ता है। वर्तमान में, भारत हर साल करीब 1,00,000 टन कोको-आधारित उत्पाद आयात करता है।
2023 में, भारत में 438 मिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य के कोको और उससे जुड़े उत्पाद आयात किए गए। यह आंकड़ा पिछले साल की तुलना में 4.9% कम है, लेकिन पिछले पांच वर्षों में भारत का कोको आयात हर साल 10.6% (Compound annual growth rate (CAGR)) की दर से बढ़ा है। आयातित कोको से बने उत्पादों में सबसे ज़्यादा मांग कोको पाउडर (US$ 130.73 मिलियन) और कोको बटर, वसा और तेल (US$ 100.9 मिलियन) की रही। भारत में कोको की मांग लगातार बढ़ रही है, लेकिन घरेलू उत्पादन इसे पूरा नहीं कर पा रहा। यही वजह है कि आयात पर निर्भरता बढ़ रही है।
भारत अपने कोको बीन्स का आयात कहां से करता है?
मार्च 2023 से फ़रवरी 2024 के बीच, भारत ने कुल 437 खेपें (shipments) कोको बीन्स की आयात कीं। ये खेपें 56 विदेशी निर्यातकों द्वारा 37 भारतीय खरीदारों को भेजी गईं। पिछले 12 महीनों की तुलना में यह 10% की वृद्धि को दिखाता है। सिर्फ फ़रवरी 2024 में ही 66 खेपें भारत आईं, जो फ़रवरी 2023 के मुकाबले 175% अधिक और जनवरी 2024 से 136% ज़्यादा है।
अब सवाल ये उठता है कि भारत कोको बीन्स खरीदता कहां से है?
युगांडा (Uganda), इक्वाडोर (Ecuador) और कांगो (Congo) भारत के प्रमुख आपूर्तिकर्ता (suppliers) हैं। अगर हम वैश्विक स्तर पर देखें, तो संयुक्त राज्य अमेरिका (USA), इंडोनेशिया (Indonesia) और रूस (Russia) दुनिया में सबसे ज़्यादा कोको बीन्स आयात करते हैं। अमेरिका 37,694 खेपों के साथ नंबर 1 पर है, इंडोनेशिया 11,491 खेपों के साथ दूसरे स्थान पर और रूस 8,213 खेपों के साथ तीसरे नंबर पर आता है। पश्चिमी अफ़्रीका में कोको प्रचुरता से होता था लेकिन वहां भी इसका उत्पादन तेजी से घट रहा है। पश्चिम अफ्रीका में 2023 से औसत तापमान में तेज़ी से बढ़ोतरी देखी जा रही है। 2024 की शुरुआत में यहाँ का अधिकतम तापमान 41 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया। यह तापमान कोको के पेड़ों के लिए आदर्श सीमा से काफ़ी ज़्यादा है। आमतौर पर, कोको के पौधे 21 डिग्री से 30 डिग्री सेल्सियस के बीच अच्छे से बढ़ते हैं।
कोको पाउडर | चित्र स्रोत : Wikimedia
पश्चिमी अफ़्रीका में कोको उत्पादन में आई गिरावट के पीछे तीन मुख्य कारण हैं:-
1. पर्यावरणीय कारण: एल नीनो मौसम की घटना के कारण यहाँ का मौसम शुष्क होता जा रहा है। सूखे की वजह से खेतों में स्वेलन शूट वायरस जैसी बीमारियाँ बढ़ रही हैं। इसका सीधा असर कोको की फ़सल पर पड़ रहा है। घाना में हाल के वर्षों में करीब 5 लाख हेक्टेयर भूमि पर कोको की फ़सल बर्बाद हो चुकी है।
2. आर्थिक कारण: पहले, जब खेतों की उत्पादकता घटती थी, तो किसान नए जंगलों में जाकर खेती शुरू कर देते थे। लेकिन अब नए जंगल मिलना मुश्किल होता जा रहा है। टिकाऊ कोको उत्पादन (Sustainable cocoa production) के लिए उचित न मिलना भी एक बड़ी समस्या है। किसानों को उनकी मेहनत के हिसाब से सही दाम नहीं मिल रहा, जिससे वे खेती छोड़ने पर मजबूर हो रहे हैं।
3. मानवीय कारण: अवैध खनन (Illegal Mining) भी कोको उत्पादन में गिरावट का एक बड़ा कारण है। घाना में कई किसान पैसे के बदले अपनी ज़मीन खननकर्ताओं को किराए पर दे रहे हैं। ये खनन गतिविधियाँ मिट्टी की गुणवत्ता को खराब कर देती हैं, जिससे वह खेती के लिए अनुपयुक्त हो जाती है।
इन तीनों वजहों से पश्चिमी अफ्रीका में कोको उत्पादन लगातार गिरता जा रहा है। अगर जल्द समाधान नहीं निकाला गया, तो आने वाले सालों में स्थिति और गंभीर हो सकती है।
भारत में कोको की खेती के लिए आदर्श तापमान 24-28 डिग्री सेल्सियस (न्यूनतम) और 32-34 डिग्री सेल्सियस (अधिकतम) होता है। इसके अलावा, कोको को नमी वाला मौसम पसंद होता है। यही कारण है कि भारत के कुछ हिस्सों में इसकी खेती तेज़ी से बढ़ रही है। कोको का पौधा छाया में अच्छा बढ़ता है। यह सुपारी और जायफल जैसे लंबे पेड़ों के नीचे अच्छी तरह फलता-फूलता है। यही वजह है कि किसान बिना अलग से ज़मीन जोड़े, अपनी मौजूदा ज़मीन पर उगाकर अधिक कमाई कर सकते हैं। कोको की खेती में पानी की बड़ी भूमिका होती है। इसे सालाना 2,000 मिमी से अधिक बारिश वाले क्षेत्रों में उगाना सबसे बेहतर रहता है। भारत में इसकी खेती को अधिक क्षेत्र में फैलाने में कोई कठिनाई नहीं है, क्योंकि इसे बहु-फ़सल के रूप में उगाया जाता है। वैश्विक स्तर पर कोको का औसत उत्पादन प्रति पेड़ प्रति वर्ष 0.25 किलोग्राम होता है। लेकिन भारत में यह आंकड़ा कहीं ज़्यादा है। केरल में प्रति पेड़ प्रति वर्ष 2.5 किलोग्राम उत्पादन हो रहा है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में यह उत्पादन 4-5 किलोग्राम तक पहुंच गया है। यह भारत में कोको की खेती की बेहतर आनुवंशिक क्षमता को दर्शाता है। बढ़ती मांग और उपयुक्त जलवायु को देखते हुए, भारत कोको उत्पादन में एक प्रमुख खिलाड़ी बन सकता है।
भारत में कोको उत्पादन कैसे बढ़ाएं ?
भारत में कोको उत्पादन को बढ़ाने के लिए हमें कई महत्वपूर्ण कदम उठाने होंगे। इसमें वैज्ञानिक तकनीकों, संसाधनों का बेहतर उपयोग और किसानों की भागीदारी भी जरूरी है।
1. बेहतर और टिकाऊ कोको किस्में विकसित करें: - हमें कोको की ऐसी किस्में तैयार करनी होंगी जो गर्मी, सूखे और कीटों के प्रति ज़्यादा टिकाऊ हों। इसके अलावा, उनमें बायोएक्टिव यौगिक और पोषक तत्व अधिक होने चाहिए। साथ ही, वे पानी का भी कुशलता से उपयोग कर सकें। इसे संभव बनाने के लिए पारंपरिक खेती के साथ जैव प्रौद्योगिकी तकनीकों का इस्तेमाल किया जाए, जिससे अच्छी फ़सल उगाने वाले जीन को पहचाना जा सके।
2. उपलब्ध संसाधनों का अधिकतम उपयोग करें: - कोको उत्पादन को बढ़ाने के लिए हमें प्राकृतिक संसाधनों का सही इस्तेमाल करना होगा। इसके लिए क्षेत्र विशेष प्रौद्योगिकी पर ध्यान देना होगा। पानी और पोषक तत्वों का सही उपयोग करने के लिए नई उत्पादन प्रणालियाँ विकसित करनी होंगी। इसके अलावा, पेड़ों की छायादार कैनोपी प्रबंधन तकनीक अपनाकर सूरज की रोशनी, हवा और पानी का बेहतरीन उपयोग किया जा सकता है।
3. उत्पादन और गुणवत्ता में सुधार करें: - उत्पाद की गुणवत्ता को सुधारने और पर्यावरणीय प्रभावों को कम करने के लिए उन्नत तकनीकों की जरूरत है। कटाई के बाद की प्रक्रियाओं को बेहतर बनाकर फ़सल का नुकसान कम किया जा सकता है। इससे न केवल उपज बढ़ेगी, बल्कि गुणवत्ता भी सुधरेगी और बाजार में अच्छी कीमत मिलेगी।
4. गांव स्तर पर प्रोसेसिंग और मार्केटिंग को मजबूत करें:- कोको किसानों को उनकी उपज का सही दाम तभी मिलेगा जब प्रोसेसिंग और मार्केटिंग सिस्टम मज़बूत होगा। इसके लिए गांव स्तर पर कोको बीन्स के किण्वन और सुखाने की यूनिट्स बनाई जानी चाहिए। साथ ही, महिला स्वयं सहायता समूह (Self Help Groups (SHGs)) और ग्रामीण युवाओं को इसमें शामिल करना जरूरी है। उच्च गुणवत्ता वाले कोको उत्पादों के लिए विशेष मार्केट यार्ड (Market Yard) और असेंबलिंग (Assembling) स्थान बनाए जाने चाहिए ताकि किसानों को उनकी मेहनत का सही मूल्य मिल सके।
5. किसानों को उन्नत तकनीक से जोड़ें:- कोको की खेती को अधिक लाभदायक बनाने के लिए किसानों को उन्नत तकनीकों से जोड़ना होगा। उच्च गुणवत्ता वाली कोको किस्मों को अपनाने, सही तरीके से उर्वरकों के इस्तेमाल और आधुनिक खेती की ट्रेनिंग देने की ज़रुरत है। अगर कॉर्पोरेट कंपनियां, इस क्षेत्र में निवेश करें और किसानों के लिए प्रशिक्षण व वितरण नेटवर्क विकसित करें, तो कोको उत्पादन में बड़ा सुधार हो सकता है। अगर हम इन सभी बिंदुओं पर ध्यान दें, तो भारत में कोको उत्पादन को नई ऊंचाइयों तक ले जाया जा सकता है।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/274drfvr
https://tinyurl.com/29rfso3z
https://tinyurl.com/26dv9db9
https://tinyurl.com/245sgovg
https://tinyurl.com/2xtkcuv2
मुख्य चित्र: कोको बीन्स सुखाता एक व्यक्ति (Wikimedia)
रामपुर, जानें क्यों दवाओं के अभाव से दुनिया की 75 प्रतिशत आबादी का सफ़ाया हो सकता है ?
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
27-03-2025 09:27 AM
Rampur-Hindi

छोटे-मोटे सर्दी ज़ुकाम से लेकर गंभीर बीमारियों तक, हम आमतौर पर दवाओं का सहारा लेते हैं। ये न सिर्फ़ बीमारियों को रोकने और उनका इलाज करने में मदद करती हैं, बल्कि कई बार उन्हें नियंत्रित भी करती हैं। कुछ दवाएँ डॉक्टर की सलाह पर ली जाती हैं, जबकि कुछ बिना डॉक्टर के पर्चे के भी आसानी से उपलब्ध होती हैं। रामपुर में, लोग अक्सर बुखार के लिए पैरासिटामोल और पेट की समस्याओं के लिए एंटासिड जैसी दवाओं का इस्तेमाल करते हैं। हाल के वर्षों में, आयुर्वेदिक और हर्बल उपचारों की लोकप्रियता तेज़ी से बढ़ी है। लोग अब पारंपरिक एवं आधुनिक चिकित्सा का मिश्रण अपनाने लगे हैं। इस लेख में हम उनमहत्वपूर्ण दवाओं पर चर्चा करेंगे जिन्होंने स्वास्थ्य सेवाओं में क्रांतिकारी बदलाव लाए हैं। साथ ही, हम यह भी समझेंगे कि दवाएँ कैसे विकसित होती हैं और इस क्षेत्र में हाल के वर्षों में कौन-कौन से नए आविष्कार हुए हैं। अंत में, हम यह स्पष्ट करेंगे कि औषधीय दवाएँ वास्तव में क्या होती हैं|
चलिए लेख की शुरुआत कुछ ज़रूरी और क्रांतिकारी दवाओं के साथ करते हैं।
दवाओं ने हमारी ज़िंदगी बदल दी है। कुछ दवाएँ इतनी महत्वपूर्ण साबित हुईं कि अगर वे न होतीं, तो शायद आज की दुनिया बहुत ही अलग होती। आइए, ऐसी ही कुछ ज़रूरी दवाओं को करीब से समझते हैं।
1) पेनिसिलिन: पहली एंटीबायोटिक – क्या आप जानते हैं कि अगर पेनिसिलिन न होती, तो आज दुनिया के 75% लोग शायद इस दुनिया में ही न होते? इसका कारण यह है कि इंसानों के पूर्वज बैक्टीरिया से होने वाले गंभीर संक्रमण का शिकार हो सकते थे। पेनिसिलिन (Penicillin) की खोज 1928 में अलेक्जेंडर फ्लेमिंग (Alexander Fleming) द्वारा की गई और यह पहली एंटीबायोटिक (Antibiotic) बनी। इससे पहले, छोटे-छोटे संक्रमण भी जानलेवा हो सकते थे। लेकिन पेनिसिलिन ने चिकित्सा जगत में क्रांति ला दी और यह साबित किया कि बैक्टीरिया से होने वाले रोगों का इलाज संभव है।
2) इंसुलिन (Insulin): मधुमेह (डायबिटीज़)(Diabetes) से ग्रस्त लोग अपने शरीर में भोजन से बनी शर्करा (ग्लूकोज़) (glucose) को ऊर्जा में नहीं बदल पाते। चाहे वे कितना भी खा लें, उनके शरीर को ज़रूरी ऊर्जा नहीं मिलती, क्योंकि उनका शरीर इंसुलिन नहीं बना पाता। पहले इस बीमारी को "शुगर सिकनेस" (sugar sickness) कहा जाता था, और इसका इलाज बहुत कठिन था। यहाँ तक की मरीज़ो को खाने से लगभग वंचित ही कर दिया जाता था। वे भूख और कमज़ोरी से मर जाते थे। लेकिन जब वैज्ञानिकों ने इंसुलिन की खोज की, तो यह एक चमत्कार जैसा था। अब मधुमेह के मरीज़ बस इंसुलिन इंजेक्शन लेकर सामान्य जीवन जी सकते हैं।
3) चेचक और पोलियो के टीके: वैक्सीन कोई दवा नहीं होती, लेकिन यह बीमारी को होने से रोकने में बेहद कारगर होती है। चेचक (स्मॉलपॉक्स) (Smallpox) एक भयानक बीमारी थी, जिसने लाखों लोगों की जान ली थी। लेकिन वैक्सीन के कारण यह बिमारी पूरी दुनिया से मिट गई। यह पहला रोग था, जिसे इंसान ने पूरी तरह खत्म कर दिया। इसी तरह, पोलियो भी लगभग समाप्ति की कगार पर है। एक समय था जब पोलियो से लोग जीवनभर के लिए अपंग हो जाते थे! लेकिन टीकाकरण ने इस खतरे को लगभग खत्म कर दिया। आज की पीढ़ी शायद यह अंदाज़ा भी नहीं लगा सकती कि यह बीमारी कितनी खतरनाक थी।
4) ईथर (Ether): आज अगर कोई ऑपरेशन (operation) होता है, तो मरीज़ को बेहोश कर दिया जाता है ताकि उसे दर्द महसूस न हो। लेकिन क्या आप जानते हैं कि पहले ऐसा नहीं था? ईथर से पहले, मरीज़ो को पकड़कर सर्ज़री करनी पड़ती थी, बिना बेहोशी के ! ज़रा सोचिए, जब बिना संवेदनाहारी दवा के किसी के शरीर का कोई हिस्सा काटा जा रहा हो तो वह कितना भयानक और असहनीय होता होगा।ईथर पहली ऐसी दवा थी, जिसने यह साबित किया कि बेहोशी संभव है। इसके बाद बेहतर एनेस्थेटिक्स(Anesthetics) (बेहोश करने वाली दवाएँ) आईं, लेकिन सर्ज़री को आसान और कम दर्दनाक बनाने का श्रेय ईथर को जाता है।
5) मॉरफ़ीन (Morphine): अगर आपने कभी सर्ज़री (surgery) करवाई हो या किसी को गंभीर चोट लगी हो, तो आपने दर्द निवारक दवाओं के महत्व को ज़रूर समझा होगा। मॉरफीन सबसे पुरानी और प्रभावी दर्द निवारक दवा है। यह अफ़ीम से बनती है और इसका नाम ग्रीक मिथकों के "सपनों के देवता" मॉर्फियस के नाम पर रखा गया। हालांकि, मॉरफीन का अधिक उपयोग करने से लत लग सकती है, फिर भी यह उन लोगों के लिए जीवनदायक बनी हुई है, जिन्हें असहनीय दर्द से जूझना पड़ता है।
6) एस्पिरिन (Aspirin): एस्पिरिन शायद सबसे आम दवाओं में से एक है, लेकिन इसका महत्व सिर्फ़ साधारण सिरदर्द तक सीमित नहीं है। यह मांसपेशियों के दर्द, बुखार, गठिया और यहां तक कि दिल के दौरे को रोकने में भी मदद करती है। एस्पिरिन ने साबित किया कि एक सुरक्षित और प्रभावी दर्द निवारक दवा बनाई जा सकती है, जिससे बिना किसी गंभीर दुष्प्रभाव के राहत मिल सकती है।
निचोड़ यही है कि चाहे वह संक्रमण से बचाने वाली पेनिसिलिन हो, मधुमेह के मरीज़ो के लिए जीवनदायिनी इंसुलिन हो, या दर्द से राहत देने वाली मॉरफीन—इन दवाओं ने लाखों, बल्कि करोड़ों लोगों की ज़िंदगी बचाई है।
दवाओं के विकास की कहानी रोमांचक पड़ावों से भरी हुई है। प्राचीन जड़ी-बूटियों से लेकर आधुनिक हाई-टेक दवाओं तक, हर खोज ने हमारे जीवन को बेहतर और सुरक्षित बनाया है। विज्ञान के विकास के साथ-साथ दवाओं के असर, उनकी खुराक और सुरक्षा पर भी शोध हुआ, जिससे चिकित्सा क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव आए।
दवाएँ क्या होती हैं और वे कैसे काम करती हैं?
जब भी हम बीमार होते हैं या कोई स्वास्थ्य समस्या होती है, तो डॉक्टर हमें कुछ दवाएँ लेने की सलाह देते हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि दवाएँ वास्तव में होती क्या हैं और वे हमारे शरीर कैसे काम करती हैं? दवा, जिसे औषधि, फार्मास्युटिकल ड्रग (Pharmaceutical Drug) या मेडिसिन (medicine) भी कहा जाता है, एक ऐसा पदार्थ होता है जिसका उपयोग बीमारी का पता लगाने (Diagnosis), इलाज (Treatment), रोकथाम (Prevention) या लक्षणों को कम करने के लिए किया जाता है। आसान भाषा में कहें, तो दवाएँ हमारे शरीर में उस समस्या पर काम करती हैं, जिसकी वजह से हम अस्वस्थ महसूस कर रहे होते हैं।
दवाओं को कई तरीकों से वर्गीकृत किया जाता है। उनमें से कुछ प्रमुख वर्ग इस प्रकार हैं:
प्रिस्क्रिप्शन दवाएँ (Prescription Drugs) – ये वे दवाएँ होती हैं जो केवल डॉक्टर के लिखे गए पर्चे (Prescription) पर ही मिलती हैं। इन्हें खरीदने के लिए मेडिकल स्टोर(Medical Store) पर डॉक्टर की सलाह दिखानी पड़ती है।
ओवर-द-काउंटर (OTC) दवाएँ – कुछ दवाएँ ऐसीहोती हैं जिन्हें बिना डॉक्टर के पर्चे के सीधे मेडिकल स्टोर से खरीदा जा सकता है, जैसे बुखार या सिरदर्द की सामान्य गोलियां।
इसके अलावा, दवाओं को उनके असर के तरीके, सेवन के तरीके (जैसे गोली, इंजेक्शन, क्रीम), शरीर पर प्रभाव डालने वाली प्रणाली (जैसे पाचन, हृदय, तंत्रिका तंत्र) या उनके चिकित्सीय प्रभाव के आधार पर भी वर्गीकृत किया जाता है। दवाओं की सही जानकारी और उनका उचित उपयोग बहुत ज़रूरी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) आवश्यक दवाओं की एक सूची तैयार करता है, जिसमें उन दवाओं को शामिल किया जाता है जो सबसे ज़रूरी और प्रभावी मानी जाती हैं। सही दवा, सही मात्रा में और सही तरीके से लेने से ही उसका पूरा लाभ मिलता है। इसलिए, हमेशा डॉक्टर की सलाह के अनुसार ही दवाओं का सेवन करना चाहिए।
आइए, जानते हैं कि दवा अनुसंधान ने कैसे-कैसे अहम मोड़ लिए और हमारी सेहत को कैसे नई ऊंचाइयों तक पहुँचाया।
आधुनिक औषध विज्ञान की शुरुआत: 19वीं सदी की बड़ी छलांग: - 19वीं सदी से पहले दवाओं को ज़्यादातर परंपरागत ज्ञान के आधार पर इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन इस दौर में वैज्ञानिकों ने दवा अनुसंधान को एक व्यवस्थित दिशा दी। अब वैज्ञानिक यह समझने लगे कि कौन-सी दवा शरीर पर कैसे असर करती है, उसे किस मात्रा में दिया जाना चाहिए और उसके संभावित साइड इफेक्ट्स (side effects) क्या हो सकते हैं। इसी दौरान, मॉडर्न फार्मास्युटिकल साइंस (pharmaceutical science) ने एक स्वतंत्र क्षेत्र के रूप में आकार लेना शुरू किया।
प्राकृतिक स्रोतों से प्रभावी दवाएँ: 19वीं सदी की बड़ी उपलब्धियाँ:- प्राकृतिक स्रोतों से असरदार यौगिकों को अलग करना इस दौर की सबसे बड़ी खोजों में से एक थी।
कुछ बेहतरीन उदाहरणों में शामिल है:
✔ मॉरफीन – अफ़ीम से निकाला गया एक मज़बूत दर्द निवारक।
✔ कुनैन (Quinine) – सिनकोना पेड़ से प्राप्त, जिसने मलेरिया के इलाज में क्रांति ला दी।
इन खोजों ने आधुनिक दवा उद्योग की नींव रखी और वैज्ञानिकों को समझ आया कि प्रकृति में छिपे तत्वों को सही तरीके से उपयोग करके नई दवाएँ बनाई जा सकती हैं।
20वीं सदी: दवा विकास में क्रांतिकारी बदलाव:- 20वीं सदी विज्ञान और तकनीक के तेज़ी से बढ़ने का युग बना। इस दौरान कई नई दवाएँ और चिकित्सा तकनीकें विकसित हुईं, जिनमें से कुछ ने तो इंसानी जीवन की दिशा ही बदल दी। फार्मास्युटिकल उद्योग ने ज़बरदस्त रफ़्तार पकड़ी और कई गंभीर बीमारियों के इलाज संभव हो सके।
आइए अब दवा अनुसंधान की 3 सबसे बड़ी सफ़लताओं पर एक नज़र डालते हैं:
1. एंटीबायोटिक्स (Antibiotics): संक्रमण के ख़िलाफ़ सबसे बड़ा हथियार:- एंटीबायोटिक्स की खोज को दवा इतिहास के सबसे बड़े मील के पत्थरों में से एक माना जाता है। पहले, मामूली संक्रमण भी जानलेवा हो सकते थे, लेकिन एंटीबायोटिक्स ने चिकित्सा क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव लाया। इससे अनगिनत ज़िंदगियाँ बचाई जा सकीं और गंभीर संक्रमणों का इलाज संभव हुआ।
2. दर्द निवारक दवाएँ: बेहतर जीवन की ओर एक कदम:- दर्द को मैनेज(manage) करना हमेशा से चिकित्सा जगत के लिए चुनौती रहा है। लेकिन आधुनिक दर्द निवारक दवाओं ने यह समस्या हल कर दी। अब डॉक्टर तीव्र और पुराने दोनों तरह के दर्द का इलाज प्रभावी तरीके से कर सकते हैं, जिससे मरीज़ो की जीवनशैली बेहतर हुई है।
3. मानसिक स्वास्थ्य के लिए दवाएँ: नई उम्मीद की किरण:- पहले के समय में मानसिक बीमारियों का इलाज करना बहुत मुश्किल हुआ करता था। लेकिन समय के साथ वैज्ञानिकों ने ऐसी दवाएँ विकसित कीं, जो अवसाद, चिंता और सिज़ोफ्रेनिया(Schizophrenia) जैसी समस्याओं से जूझ रहे लोगों के लिए वरदान साबित हुईं। साइकोट्रोपिक(psychotropic) दवाओं ने इस क्षेत्र में नई संभावनाएँ खोलीं और लाखों लोगों को राहत दी।
दवा अनुसंधान की यात्रा आज भी जारी है। हर नई खोज, हर नया शोध हमें बेहतर इलाज की ओर ले जा रहा है। जेनेटिक (genetic) दवाएँ, पर्सनलाइज्ड मेडिसिन (personalised medicine) और बायोटेक्नोलॉजी (Biotechnology) जैसी नई तकनीकें भविष्य में और भी प्रभावी उपचारों का रास्ता खोलेंगी। विज्ञान के इन नए पड़ावों के साथ, उम्मीद है कि आने वाले समय में और भी घातक बीमारियों का इलाज संभव हो सकेगा।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/26pebuqc
https://tinyurl.com/2dbmbzf2
https://tinyurl.com/2f7dvjfa
मुख्य चित्र स्रोत : Wikimedia
रामपुर समझें, उत्तर प्रदेश में प्रसिद्ध हाइड्रोपॉनिक और एरोपॉनिक खेती के बीच अंतरों को
भूमि प्रकार (खेतिहर व बंजर)
Land type and Soil Type : Agricultural, Barren, Plain
26-03-2025 09:14 AM
Rampur-Hindi

रामपुर के लोगों, क्या आप जानते हैं कि हाइड्रोपॉनिक एक तरीका है जिसमें पौधों को मिट्टी के बजाय पौष्टिक पानी में उगाया जाता है। पौधों की जड़ें, इस पानी में डुबोई जाती हैं या फिर उन्हें एक दूसरे पदार्थ जैसे पर्लाइट (perlite) या कंकड़ के सहारे रखा जाता है। यह खेती का तरीका उत्तर प्रदेश के कई शहरों में बहुत लोकप्रिय हो रहा है, जैसे बरेली, मुज़फ़्फ़रनगर, हापुड़, आगरा, नोएडा और गोरखपुर में।
आज हम समझेंगे एरोपॉनिक और हाइड्रोपॉनिक खेती में क्या फर्क है। फिर, हम जानेंगे कि यह खेती का तरीका कैसे काम करता है। इसमें हम खेती के अहम हिस्सों के बारे में बात करेंगे, जैसे बढ़ने वाला पदार्थ, एयर पंप, नेट पॉट्स आदि। इसके बाद हम हाइड्रोपॉनिक खेती में उपयोग होने वाले उपकरणों के बारे में भी जानेंगे, जैसे पी एच (pH) मीटर, टी डी एस (TDS) मीटर, ग्रो लाइट्स। आखिर में, हम सीखेंगे कि क्यों हाइड्रोपॉनिक खेती भारत में हाल के सालों में ज़्यादा लोकप्रिय हो रही है।
एरोपॉनिक और हाइड्रोपॉनिक खेती में अंतर
पहलू | एरोपॉनिक खेती | हाइड्रोपॉनिक खेती |
पोषक तत्व पहुंचाने की विधि | पौधों की जड़ों पर पोषक तत्वों से छिड़काव किया जाता है। | पौधे या तो पूरी तरह पानी में डूबे रहते हैं या समय-समय पर पानी का प्रवाह दिया जाता है।
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डिजाइन और कार्यप्रणाली
| यह खेती पूरी तरह नियंत्रित और बंद वातावरण में होती है, जहां फ़सलें हवा में लटकी रहती हैं। | यह खेती भी नियंत्रित और बंद वातावरण में होती है, जहां पौधे पोषक तत्वों से भरपूर पानी वाले कंटेनरों में उगाए जाते हैं। |
पौधों की वृद्धि और स्वास्थ्य
| पौधे एक सील किए गए वातावरण में उगते हैं, जिससे बैक्टीरिया का खतरा कम होता है। जड़ें हवा में लटकी रहती हैं, जिससे ऑक्सीजन का बेहतर अवशोषण होता है। | पौधे एक सील किए गए वातावरण में उगते हैं, जिससे बैक्टीरिया का खतरा कम होता है। जड़ें सीधे पोषक तत्वों से भरपूर घोल के संपर्क में रहती हैं, जिससे तेज़ी से बढ़ने में मदद मिलती है। |
हाइड्रोपॉनिक्स कैसे काम करता है ?
हाइड्रोपॉनिक सिस्टम इतने कारगर होते हैं क्योंकि ये तापमान और पीएच संतुलन जैसी पर्यावरणीय परिस्थितियों पर पूरी तरह नियंत्रण रखने की सुविधा देते हैं और पौधों को अधिक से अधिक पोषक तत्व और पानी प्रदान करते हैं। यह प्रणाली एक सरल सिद्धांत पर काम करती है – पौधों को वही चीज़ दें जिसकी उन्हें ज़रूरत है, और जब ज़रूरत हो, तब दें।
हाइड्रोपॉनिक इस प्रणाली में हर पौधे की ज़रूरत के अनुसार पोषक तत्वों का घोल तैयार किया जाता है । इसमें यह भी तय किया जाता है कि पौधों को कितनी रोशनी मिले और कितनी देर तक मिले। पी एच स्तर को भी मापा और बदला जा सकता है। इस तरह के पूरी तरह नियंत्रित माहौल में पौधों की वृद्धि बहुत तेज़ी से होती है।
जब पौधों के लिए सही माहौल बनाया जाता है, तो कई जोखिम कम हो जाते हैं। खुले मैदानों और बागीचों में उगने वाले पौधे कई समस्याओं का सामना करते हैं, जैसे कि मिट्टी में मौजूद फ़फ़ूंद, जो बीमारियाँ फैला सकती हैं। खरगोश जैसे जानवर फ़सलों को नष्ट कर सकते हैं और टिड्डियों का झुंड एक ही दिन में खेतों को बर्बाद कर सकता है। हाइड्रोपॉनिक खेती इन सभी समस्याओं को खत्म कर देती है।
मिट्टी में उगने वाले पौधों को उसकी कठोरता का सामना करना पड़ता है, लेकिन हाइड्रोपॉनिक्स में ऐसा नहीं होता, जिससे पौधे जल्दी बड़े होते हैं। साथ ही, इसमें कीटनाशकों की ज़रूरत नहीं पड़ती, जिससे फल और सब्ज़ियाँ ज़्यादा सेहतमंद और उच्च गुणवत्ता वाली होती हैं। जब कोई रुकावट नहीं होती, तो पौधे तेज़ी से और स्वस्थ तरीके से बढ़ते हैं।
भारत में हाइड्रोपॉनिक खेती के प्रमुख तत्व
1.) ग्रोइंग मीडिया (Growing Media): हाइड्रोपॉनिक खेती में पौधे मिट्टी के बजाय एक खास माध्यम (ग्रोइंग मीडिया) में उगाए जाते हैं, जो पौधे को सहारा देता है और उसकी जड़ों को मज़बूती से पकड़कर रखता है। यह मीडिया मिट्टी का विकल्प होता है, लेकिन खुद से कोई पोषण नहीं देता। इसके बजाय, यह नमी और पोषक तत्वों को सोखकर पौधों तक पहुंचाता है। कई ग्रोइंग मीडिया, पी एच-सामान्य (pH-neutral) होते हैं, जिससे पोषक घोल का संतुलन बिगड़ता नहीं है। हाइड्रोपॉनिक खेती के लिए कई प्रकार के मीडिया उपलब्ध हैं, जिनका चुनाव उगाए जाने वाले पौधे और सिस्टम के आधार पर किया जाता है। ये ऑनलाइन और स्थानीय नर्सरी व गार्डनिंग स्टोर्स (gardening stores) में आसानी से मिल जाते हैं।
2.) एयर स्टोन्स और एयर पंप्स (Air Stones and Air Pumps): अगर पौधों की जड़ें लंबे समय तक पानी में डूबी रहें और उन्हें पर्याप्त ऑक्सीजन न मिले, तो वे सड़ सकती हैं। इसलिए, एयर स्टोन्स का उपयोग किया जाता है, जो पोषक तत्वों से भरपूर पानी में छोटे-छोटे ऑक्सीजन के बुलबुले छोड़ते हैं। यह न केवल पानी में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाते हैं, बल्कि पोषक तत्वों को भी पूरे घोल में समान रूप से फैलाने में मदद करते हैं। हालांकि, एयर स्टोन्स खुद ऑक्सीजन नहीं बनाते, इसलिए इन्हें एक बाहरी एयर पंप से जोड़ना पड़ता है। ये उपकरण आमतौर पर एक्वेरियम में भी इस्तेमाल किए जाते हैं और किसी भी पेट स्टोर (pet store) पर आसानी से मिल सकते हैं।
3.) नेट पॉट्स (Net Pots): नेट पॉट्स, जालीदार गमले होते हैं, जिनमें हाइड्रोपॉनिक पौधे लगाए जाते हैं। इनकी जालीदार संरचना की वजह से पौधों की जड़ें किनारों और निचले हिस्से से बाहर निकल सकती हैं, जिससे उन्हें ज़्यादा ऑक्सीजन और पोषक तत्व मिलते हैं। पारंपरिक मिट्टी या प्लास्टिक के गमलों की तुलना में नेट पॉट्स बेहतर जल निकासी प्रदान करते हैं, जिससे पौधे स्वस्थ तरीके से बढ़ते हैं।
भारत में हाइड्रोपॉनिक खेती के ज़रूरी उपकरण
1.) पी एच (pH) मीटर: हाइड्रोपॉनिक खेती में पौधों को सही पोषण देने के लिए पानी का पी एच बैलेंस बनाए रखना बहुत ज़रूरी होता है। पी एच मीटर की मदद से हम पानी का पी एच स्तर नाप सकते हैं और ज़रुरत के हिसाब से उसे ठीक कर सकते हैं। हर पौधा एक खास पी एच में ही अच्छे से बढ़ता है, इसलिए इसे समय-समय पर चेक करना ज़रूरी है।
2.) ई सी/ टी डी एस (EC/TDS) मीटर: पानी में कितने पोषक तत्व घुले हुए हैं, यह जानने के लिए ई सी/ टी डी एस मीटर का इस्तेमाल किया जाता है। इससे यह पक्का किया जाता है कि पौधों को सही मात्रा में पोषण मिल रहा है, जिससे उनकी ग्रोथ अच्छी हो सके।
3.) ग्रो लाइट: अगर आप हाइड्रोपॉनिक खेती घर के अंदर कर रहे हैं, तो पौधों को सूरज की रोशनी के बिना भी बढ़ाने के लिए ग्रो लाइट्स का इस्तेमाल किया जाता है। ये लाइट्स वैसे ही काम करती हैं जैसे सूरज की रोशनी, जिससे पौधे अच्छी तरह बढ़ सकें। ज़्यादातर एल ई डी (LED) या एच आई डी (HID) लाइट्स का इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि ये ज़्यादा असरदार होती हैं।
भारत में हाइड्रोपॉनिक खेती क्यों तेज़ी से लोकप्रिय हो रही है
- घर के पास उगाए गए ताज़ा खाने की मांग - आजकल लोग सेहत को लेकर ज़्यादा जागरूक हो गए हैं, इसलिए वे ताज़ा और बिना केमिकल वाले फल-सब्ज़ियां खाना पसंद कर रहे हैं। कुछ लोग खुद उगाने लगे हैं, तो कुछ लोकल किसानों से खरीदना पसंद कर रहे हैं।
- नई तकनीकों की मदद - अब खेती में नए और स्मार्ट तरीके आ गए हैं, जिससे हाइड्रोपॉनिक सिस्टम को चलाना आसान और सस्ता हो गया है। ऑटोमेशन और कंट्रोल सिस्टम्स की वजह से इसमें ज़्यादा मेहनत भी नहीं लगती।
- सालभर खेती और बेहतर खाद्य आपूर्ति - हाइड्रोपॉनिक खेती से पूरे साल फ़सल उगाई जा सकती है। साथ ही, इसमें पानी और खाद की भी कम ज़रूरत होती है। इससे लोगों को बिना किसी रुकावट के ताज़ी सब्ज़ियां और फल मिलते रहते हैं।
- बदलती खाने की आदतें - पहले भारत में अनाज ज़्यादा उगाया जाता था, लेकिन अब लोग विदेशी फल-सब्ज़ियां भी खाना पसंद कर रहे हैं, जैसे कि बेरीज़, केसर, शिमला मिर्च, ज़ूकीनी और पत्तेदार सब्ज़ियां। हाइड्रोपॉनिक सिस्टम की मदद से इन्हें बिना मौसम की टेंशन लिए आसानी से उगाया जा सकता है।
- पैसे लगाने के नए मौके - हाइड्रोपॉनिक खेती शुरू करने में शुरुआत में काफ़ी खर्चा आता है, लेकिन अब इसमें निवेश बढ़ रहा है। सरकार भी ऐसी नई तकनीकों को बढ़ावा दे रही है और कई स्टार्टअप्स इस फील्ड में उभर रहे हैं।
- नई कंपनियों की एंट्री - अब कई स्टार्टअप्स (Startups) और कंपनियां लोगों को, हाइड्रोपॉनिक खेत सेटअप करने और चलाने में मदद कर रही हैं। ये कंपनियां, जानकारी भी देती हैं और “ फ़ार्मिंग ऐज़ ए सर्विस” (Farming as a Service) जैसी सुविधाएं भी देती हैं, जिससे खेती करना और आसान हो गया है।
- कम फ़सल बर्बाद होती है - चूंकि हाइड्रोपॉनिक पूरी तरह से निगरानी में होते हैं, इसलिए फ़सल ख़राब होने का खतरा बहुत कम होता है। साथ ही, फ़सल जल्दी बिक जाती है, जिससे बर्बादी भी नहीं होती।
- खाने की गुणवत्ता और ट्रेसबिलिटी - ये खेत शहरों के पास बनाए जाते हैं, जिससे फल और सब्ज़ियां सीधे ग्राहकों तक पहुंचाई जा सकती हैं। इससे लोग आसानी से पता कर सकते हैं कि उनका खाना कहां से आ रहा है और कितना ताज़ा है।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: बाईं तरफ़ हाइड्रोपॉनिक और दाईं तरफ़ एरोपॉनिक खेती (Wikimedia)
एक अनुभवी योगी, योग की गहराइयों को समझता है !
य़ातायात और व्यायाम व व्यायामशाला
Locomotion and Exercise/Gyms
25-03-2025 09:19 AM
Rampur-Hindi

रामपुर के कई निवासियों के लिए, योग, उनकी दिनचर्या का अहम हिस्सा बन गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि, योग की शुरुआत, आज से तकरीबन 5000 साल पहले हुई थी। लेकिन क्या आप जानते हैं कि, योग को व्यवस्थित रूप से तैयार करने और इसे आम लोगों तक पहुँचाने का श्रेय महर्षि पतंजलि को दिया जाता है? उन्हें "योग के जनक" के रूप में भी जाना जाता है।
महर्षि पतंजलि ने योग सूत्र नामक छंदों का संग्रह तैयार किया, जिसमें आत्म-साक्षात्कार और ज्ञान प्राप्ति के लिए, योग का अभ्यास करना सिखाया गया है। इन सूत्रों में योग का दार्शनिक आधार दिया गया है, जो आधुनिक योग अभ्यास की नींव माने जाते हैं। पतंजलि के अनुसार, योग, आठ अंगों में विभाजित है, जिसे "अष्टांग योग" भी कहा जाता है।
आज के इस लेख में, हम योग के इस इतिहास और उसकी उत्पत्ति को विस्तार से समझने की कोशिश करेंगे। साथ ही, हम योग सूत्रों के चार अध्यायों या पादों पर चर्चा करेंगे। इसके बाद, हम योग के अंगों पर ध्यान केंद्रित करेंगे।, इस लेख में हम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि पर चर्चा करेंगे । आइए, इस प्राचीन विद्या की गहराइयों में झांकें और इसे बेहतर ढंग से समझें।
पतंजलि के योग सूत्र क्या हैं?
महर्षि पतंजलि को योग सूत्र के प्रवर्तक और संस्थापक माना जाता है। हालांकि, उन्होंने अपनी रचना की सटीक तिथि को स्पष्ट रूप से दर्ज नहीं किया। लेकिन विद्वानों का मानना है कि, महर्षि पतंजलि, लगभग 200 ईसा पूर्व के आसपास इस पृथ्वी पर रहे थे। इसी समय, उन्होंने योग सूत्र की रचना की, जिसे योग के मूलभूत सिद्धांतों और जीवनशैली का आधार माना जाता है।
हालांकि, उनकी लेखन शैली में भिन्नताएँ देखकर कुछ लोगों ने यह सुझाव दिया कि "पतंजलि" कोई एक व्यक्ति न होकर, 14 विद्वानों की एक परंपरा हो सकती है, जिसे सामूहिक रूप से "पतंजलि" कहा गया हो।
योग सूत्र की उत्पत्ति, प्राचीन परंपराओं में निहित है। इसकी सटीक तिथि पर विद्वानों के बीच मतभेद है। जैसे:
- एक प्रमुख इंडोलॉजिस्ट (Indologist) एडविन ब्रायंट (Edwin Bryant) का मानना है कि, यह रचना चौथी या पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व की है।
- मिशेल डेस्मराइस (Michele Marie Desmarais) जो की एक प्रसिद्ध लेखिका हैं, जो की एक प्रसिद्ध लेखिका हैं, ने, इसे 500 ईसा पूर्व से तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के बीच का बताया।
- वुड्स (Woods) नामक एक शोधकर्ता के अनुसार, अधिकांश विद्वानों ने इसकी अवधि 400 ईसा के आसपास मानी है।
पतंजलि के योग सूत्र और अन्य ग्रंथों, जैसे महाभाष्य, में भाषा, व्याकरण और शैली में स्पष्ट अंतर है। महाभाष्य का लेखक भी "पतंजलि" नाम से जाना जाता है, लेकिन इसकी शैली योग सूत्र से बिल्कुल अलग है। इसी कारण, यह बहस लंबे समय से चल रही है कि क्या योग सूत्र वास्तव में पतंजलि की रचना है। यह ग्रंथ आज भी विद्वानों के अध्ययन और चर्चा का विषय बना हुआ है।
आइए, अब योग सूत्र के चार अध्याय (पाद) को समझते हैं:
समाधि पाद: यह अध्याय, ध्यान और आनंद से संबंधित है। इसे योग का अंतिम लक्ष्य माना जाता है। इसमें योग की प्रसिद्ध परिभाषा दी गई है: ‘योग चित्तवृत्ति निरोधः, यानी मन के उतार-चढ़ाव को समाप्त करना ही योग है।”
साधना पाद: यह अध्याय, योग के अभ्यास पर केंद्रित है। इसमें अष्टांग योग (आठ अंगों का मार्ग) का वर्णन है, जो ऐसा जीवन जीने का मार्ग दिखाता है जिससे दुख कम हो सके। पतंजलि बताते हैं कि ध्यान, अंतिम लक्ष्य है, लेकिन इसकी तैयारी के लिए अध्ययन, अनुशासन और भक्ति जैसे अभ्यास आवश्यक हैं। जब हमारा मन भौतिक चीजों में फंस जाता है, तो एक नैतिक जीवन दृष्टिकोण अपनाने से मन स्थिर हो सकता है।
विभूति पाद: यह अध्याय ध्यान के गहरे स्तरों और विशेष शक्तियों की प्राप्ति पर केंद्रित है। ध्यान के परिणामस्वरूप अद्भुत शक्तियाँ हासिल हो सकती हैं। इनमें 'हाथी जैसी शक्ति' या ब्रह्मांड की गहराई समझने की क्षमता शामिल है। हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि ये शक्तियाँ रूपक हैं या प्राचीन योगियों की वास्तविक उपलब्धियाँ।
कैवल्य पाद: इस अध्याय में, मुक्ति (कैवल्य) का वर्णन है। यह वह स्थिति है, जब आत्मा (पुरुष) भौतिक जीवन (प्रकृति) से मुक्त हो जाती है। यह अंतिम स्वतंत्रता और शांति की स्थिति है।
आइए, अब इन योग सूत्रों में वर्णित योग के अंगों की खोज करते हैं:
1. आसन (योग मुद्राएं): आसन का अर्थ, ‘योग मुद्राओं का अभ्यास’ होता है। पतंजलि ने इसे ऐसे शारीरिक अभ्यास के रूप में सिखाया, जिसे सहजता और आनंद के साथ किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि हर मुद्रा को धीरे-धीरे और सावधानीपूर्वक करना चाहिए। इस दौरान, मन को सांस पर केंद्रित रखना और एक मुद्रा से दूसरी मुद्रा में शांति से जाना ज़रूरी है। यदि योग को केवल कसरत की तरह किया जाए, तो यह नुकसानदायक हो सकता है। इससे शरीर पर अधिक दबाव पड़ सकता है और चोट लगने की संभावना बढ़ जाती है। योग का उद्देश्य शरीर से जुड़ाव और मन के द्वंद्व को कम करना है। नियमित आसन अभ्यास से शरीर और मन दोनों स्वस्थ होते हैं।
2. प्राणायाम (सांस का नियंत्रण): प्राणायाम का अर्थ, 'सांस को नियंत्रित करना' होता है। योग के सिद्धांतों के अनुसार, सांस हमारे चारों ओर की सूक्ष्म जीवन ऊर्जा से जुड़ने का माध्यम है। जब हम सांस को सचेत रूप से नियंत्रित करते हैं, तो यह जीवन ऊर्जा हमारे शरीर को सक्रिय करती है। इससे हमारा केंद्रीय तंत्रिका तंत्र तनाव पर प्रतिक्रिया देने का तरीका भी बदलता है। प्राणायाम का मूल अनुपात 1:4:2 है। इसमें 1 सेकंड तक सांस अंदर लें (पूरक), 4 सेकंड तक सांस रोकें (कुंभक), और 2 सेकंड तक सांस छोड़ें (रेचक)। उन्नत प्राणायाम में बंधों का समावेश भी होता है। इन तकनीकों को सीखने के लिए किसी अनुभवी योग शिक्षक से सलाह लें।
3. प्रत्याहार (इंद्रियों को वापस लेना): प्रत्याहार का अर्थ, चेतना को बाहरी विकर्षणों से अलग करना होता है। यह ध्यान के अभ्यास की तैयारी का अंतिम चरण है। इस प्रक्रिया में ध्वनि, गंध या दृश्य जैसे संवेदी अनुभवों को बिना किसी प्रतिक्रिया के देखने और उन्हें गुज़रने देने का अभ्यास किया जाता है। यह अभ्यास माइंडफ़ुलनेस (mindfulness) की तरह है, जहां इंद्रियों से जुड़ाव कम किया जाता है।
4. धारणा (एकाग्रता): धारणा योग की आंतरिक यात्रा का पहला चरण है। इसमें साधक अपने ध्यान को पूरी तरह से एक बिंदु, जैसे नाभि या किसी विशेष छवि पर केंद्रित करता है। यह ध्यान अभ्यास दुख से मुक्ति की दिशा में पहला कदम है।
5. ध्यान (ध्यान का अभ्यास): ध्यान का अर्थ किसी एक वस्तु पर पूरी तरह से ध्यान केंद्रित करना होता है। इसमें साधक अपनी पूरी ऊर्जा और चेतना को केवल एक वस्तु पर केंद्रित करता है और बाकी सब कुछ भुला देता है। जबकि कई लोग ध्यान को सभी विचारों को खाली करने की प्रक्रिया मानते हैं, पतंजलि के अनुसार यह आवश्यक नहीं है। ध्यान की वस्तु कुछ भी हो सकती है, जब तक कि ध्यान स्थिर और केंद्रित रहे।
6. समाधि (पूर्ण एकाग्रता): समाधि, वह अवस्था है, जब ध्यान गहन हो जाता है और साधक अपनी ध्यान की वस्तु के साथ विलीन हो जाता है। इसे ईश्वर या ब्रह्मांड के साथ मिलन के रूप में देखा जा सकता है, लेकिन पतंजलि ने इसे सिर्फ ध्यान की उच्चतम स्थिति के रूप में समझाया है। इन छह अंगों का अभ्यास जीवन में शारीरिक और मानसिक शांति लाने का मार्ग है। इनसे मन को स्थिरता, शरीर को लचीलापन, और आत्मा को शांति प्राप्त होती है।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/275uayta
https://tinyurl.com/2ahh7zad
https://tinyurl.com/288nj35q
https://tinyurl.com/255mjk8d
मुख्य चित्र का स्रोत : Pxhere
सूक्ष्मजीव बन गए हैं, रामपुर के किसानों के सुख-दुख के साथी !
कीटाणु,एक कोशीय जीव,क्रोमिस्टा, व शैवाल
Bacteria,Protozoa,Chromista, and Algae
24-03-2025 09:24 AM
Rampur-Hindi

रामपुर के किसानों का एक बड़ा तबका, अपनी आजीविका के लिए खेती-किसानी पर निर्भर करता है! यदि आप भी खेती करते हैं, या फिर अपने घरों के छोटे-छोटे बगीचों में सब्ज़ियाँ उगाते हैं, तो आपको कृषि में सूक्ष्मजीवों (microbes) की रोचक भूमिका के बारे में पता होना चाहिए। ये नन्हें जीव मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने और किसानों को स्वस्थ फ़सल उगाने में बड़ी मदद करते हैं। क्या आप जानते हैं कि लाभकारी बैक्टीरिया और कवक से जैव उर्वरक बनाए जाते हैं, जो मिट्टी में नाइट्रोजन (Nitrogen) जैसे पोषक तत्व बढ़ाकर पौधों को मज़बूत बनाते हैं। इतना ही नहीं सूक्ष्मजीव खाद बनाने में भी सहायक होते हैं। वे कचरे को जैविक खाद में बदलकर मिट्टी की गुणवत्ता को स्वाभाविक रूप से सुधारते हैं। इसके अलावा, सूक्ष्मजीवों से कुछ जैविक कीटनाशक भी बनाए जाते हैं, जो फ़सलों को कीटों और बीमारियों से सुरक्षित रखते हैं। इससे पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए बिना, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों की आवश्यकता कम होती है। इससे किसानों को बेहतर फ़सल उत्पादन में सहायता मिलती है और उनकी मिट्टी भी स्वस्थ बनी रहती है। सूक्ष्मजीव वास्तव में किसानों के सच्चे मित्र हैं। वे न केवल कृषि में बल्कि पर्यावरण संरक्षण में भी योगदान देते हैं। इसलिए आज के इस लेख में हम राइज़ोबियम(Rhizobium) और नाइट्रोजन स्थिरीकरण पर चर्चा करेंगे। इसके तहत हम जानेंगे कि ये मिट्टी की उर्वरता को कैसे बढ़ाते हैं। फिर हम जैव उर्वरकों के लाभों और उनके द्वारा स्वस्थ पौधों के विकास को प्रोत्साहित करने की प्रक्रिया को समझेंगे। अंत में हम खाद निर्माण, मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार और टिकाऊ खेती में सूक्ष्मजीवों की भूमिका पर विचार करेंगे।
आइए लेख की शुरुआत राइज़ोबियम और नाइट्रोजन स्थिरीकरण को आसान भाषा में समझने के साथ करते हैं:
राइज़ोबियम एक ग्राम-नेगेटिव जीवाणु होता है, जो गतिशील होता है और मिट्टी में पाया जाता है। यह वायुमंडलीय नाइट्रोजन को स्थिर करने में मदद करता है। यह मुख्य रूप से फलीदार पौधों और पैरास्पोनिया की जड़ों में मौजूद रूट नोड्यूल (root nodules) में पाया जाता है, जहाँ यह पौधों के साथ, सहजीवी संबंध बनाता है।
राइज़ोबियम बैक्टीरिया रूट नोड्यूल के भीतर पौधों की कोशिकाओं में प्रवेश करता है। वहाँ यह वायुमंडलीय नाइट्रोजन को अमोनिया में परिवर्तित करता है। यह प्रक्रिया " नाइट्रोजनेज़ " (Nitrogenase) एंज़ाइम(enzyme) की मदद से होती है। इसके माध्यम से बैक्टीरिया पौधों को यूरीड्स और ग्लूटामाइन जैसे कार्बनिक नाइट्रोजन यौगिक प्रदान करने में मदद करता है।
राइज़ोबियम बैक्टीरिया अकेले नाइट्रोजन स्थिरीकरण नहीं कर सकते। वे केवल सहजीवी संबंध के तहत ही यह क्षमता विकसित करते हैं। इस संबंध में पौधों को भी लाभ मिलता है क्योंकि वे प्रकाश संश्लेषण द्वारा कार्बनिक यौगिक बनाते हैं, जो बैक्टीरिया को भी मिलते हैं। इस तरह, पौधों और राइज़ोबियम के बीच एक परस्पर लाभकारी संबंध बनता है। फलीदार पौधों की जड़ें कुछ रासायनिक पदार्थ स्रावित करती हैं, जो बैक्टीरिया को आकर्षित करते हैं। इसके बाद, नोड कारक छोड़ने वाले बैक्टीरिया जड़ के बालों को कर्लिंग कर देते हैं, जिससे नोड्यूल बनने की प्रक्रिया शुरू होती है।
राइज़ोबियम का उपयोग कहाँ होता है?
राइज़ोबियम जैव-उर्वरक एक ऐसा पदार्थ है, जिसमें जीवित सूक्ष्मजीव होते हैं। इसे पौधों की सतह, बीज या मिट्टी में मिलाया जाता है। यह बैक्टीरिया पौधों की जड़ों या राइज़ोस्फीयर(rhizosphere) को उपनिवेशित कर, पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ाते हैं और पौधों की वृद्धि में सहायक होते हैं। राइज़ोबियम वायुमंडलीय नाइट्रोजन को स्थिर कर उसे उपयोगी कार्बनिक यौगिकों में बदलता है, जिससे पौधों और बैक्टीरिया दोनों को लाभ मिलता है।
नाइट्रोजनेज़ (Nitrogenase) एक महत्वपूर्ण एंज़ाइम है, जिसका उत्पादन राइज़ोबियम और साइनोबैक्टीरिया जैसे कुछ बैक्टीरिया करते हैं। यह वायुमंडलीय नाइट्रोजन को अमोनिया में परिवर्तित करता है। यह प्रक्रिया अवायवीय परिस्थितियों में अधिक सक्रिय होती है। यह एंज़ाइम दो प्रकार के प्रोटीन सबयूनिट से मिलकर बना होता है—नॉन-हीम आयरन प्रोटीन और आयरन-मोलिब्डेनम प्रोटीन।
इस तरह, राइज़ोबियम बैक्टीरिया और नाइट्रोजनेज एंज़ाइम मिलकर नाइट्रोजन स्थिरीकरण की प्रक्रिया को संचालित करते हैं, जिससे फलीदार पौधों की वृद्धि और उपज में सुधार होता है।
आइए, अब जैव उर्वरकों और उनके लाभों पर एक नज़र डालते हैं:
जैवउर्वरक लाभकारी सूक्ष्मजीवों का उपयोग करके पौधों की वृद्धि में मदद करते हैं। ये मिट्टी में पोषक तत्वों की उपलब्धता को बढ़ाते हैं और पौधों को स्वस्थ व मज़बूत बनाते हैं। जैवउर्वरक नाइट्रोजन फिक्सर, फॉस्फोरस और पोटेशियम घुलनशील बनाने वाले जीवाणुओं, तथा आयरन मोबिलाइज़र का उपयोग करते हैं। इसके अलावा, ये फाइटोहॉर्मोन (phytohormones) का उत्पादन करने वाले सूक्ष्मजीवों की सहायता से मिट्टी की पोषक गुणवत्ता को सुधारते हैं।
इन उर्वरकों के उपयोग से मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ती है, जिससे मिट्टी का स्वास्थ्य और स्थिरता बनी रहती है। इसके परिणामस्वरूप पौधे तेज़ी से बढ़ते हैं और अधिक उपज देते हैं। कुछ जीवाणु प्रजातियाँ, जिन्हें पादप-विकास-प्रवर्तक राइज़ोबैक्टीरिया (PGPR) कहा जाता है, एज़ोटोबैक्टर, एस्चेरिचिया कोली, स्यूडोमोनास और बैसिलस जैसे जैवउर्वरकों में शामिल होते हैं। इसी तरह, आर्बुस्कुलर माइकोराइज़ल कवक (AMF) जैसे ग्लोमस वर्सीफॉर्म, एस्परगिलस अवामोरी, ग्लोमस मैक्रोकार्पम भी बिना किसी नकारात्मक प्रभाव के मिट्टी की उर्वरता बढ़ाते हैं।
पी जी पी आर(PGPR) और ए एम एफ(AMF) के संयुक्त उपयोग से पौधों की वृद्धि, पोषक तत्वों का अवशोषण और रोग सहिष्णुता में सुधार होता है। यह पौधों को अजैविक तनाव सहने में भी सक्षम बनाता है। उदाहरण के लिए, राइज़ोबियम, एज़ोटोबैक्टर और वेसिकुलर आर्बुस्कुलर माइक्रोराइज़ा (Vesicular Arbuscular Mycorrhiza) (VAM) के साथ रॉक फॉस्फेट का उपयोग करने से गेहूं की उपज में वृद्धि हुई। इसी तरह, थियोबैसिलस थायोऑक्सिडेंस, बैसिलस सबटिलिस और सैक्रोमाइसीज जैसे जीवाणु लौह (Fe), मैंगनीज़ (Mn), और ज़िंक (Zn) जैसे सूक्ष्म पोषक तत्वों को घुलनशील बनाकर पौधों को उपलब्ध कराते हैं।
ट्राइकोडर्मा एस पी पी (Trichoderma spp) जैसे कवक पौधों की जैविक और अजैविक तनाव सहनशीलता को बढ़ाने में मदद करते हैं। ये एंज़ाइम का उत्पादन कर हानिकारक रसायनों को निष्क्रिय करते हैं और तनाव-रोधी प्रोटीन के निर्माण को बढ़ावा देते हैं। उदाहरण के लिए, ट्राइकोडर्मा हरज़ियानम ने टमाटर के पौधों की ठंड सहने की क्षमता बढ़ाई। नाइट्रोजन फिक्सिंग, पोटेशियम और फॉस्फेट घुलनशील करने वाले जीवाणु फ़सलों की वृद्धि, उत्पादन और गुणवत्ता को बेहतर बनाते हैं। इस प्रकार, जैवउर्वरक टिकाऊ कृषि के लिए आवश्यक हैं और आधुनिक कृषि प्रणालियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
आइए अब खाद बनाने और मृदा स्वास्थ्य में सूक्ष्मजीवों की भूमिका को समझते हैं:
मृदा सूक्ष्मजीव और कार्बनिक पदार्थ मिलकर मिट्टी को उपजाऊ और उत्पादक बनाते हैं। आइए समझते हैं कि यह प्रक्रिया कैसे काम करती है।
1. मृदा कार्बनिक पदार्थ की भूमिका: मृदा कार्बनिक पदार्थ में पौधों के अवशेष और पशु खाद शामिल होते हैं। यह पदार्थ मिट्टी की संरचना को सुधारता है, जल धारण क्षमता बढ़ाता है और पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ाने में मदद करता है। इसके अलावा, यह पोषक तत्वों का भंडार बनाता है, जिससे पौधे लाभ उठा सकते हैं। कार्बनिक पदार्थ मिट्टी में रहने वाले सूक्ष्मजीवों के लिए भी भोजन का स्रोत बनता है, जिससे उनका समुदाय विकसित होता है।
2. सूक्ष्मजीवों द्वारा अपघटन: मृदा सूक्ष्मजीव कार्बनिक पदार्थों के प्रमुख अपघटक होते हैं। जीवाणु, कवक और अन्य सूक्ष्मजीव जटिल कार्बनिक यौगिकों को सरल रूपों में तोड़ते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान नाइट्रोजन(nitrogen), फ़ॉस्फ़ोरस(phosphorus) और सल्फ़र (sulphur) जैसे आवश्यक पोषक तत्व मुक्त होते हैं। यह अपघटन पोषक चक्रण को बनाए रखने और पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्व उपलब्ध कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
3. सहजीवी संबंध: कुछ मृदा सूक्ष्मजीव पौधों के साथ सहजीवी संबंध बनाते हैं। उदाहरण के लिए, माइकोराइज़ल कवक पौधों की जड़ प्रणाली का विस्तार करते हैं और पोषक तत्वों व पानी के अवशोषण की क्षमता बढ़ाते हैं। नाइट्रोजन-फिक्सिंग बैक्टीरिया वायुमंडलीय नाइट्रोजन को ऐसे रूप में परिवर्तित करते हैं, जिसे पौधे उपयोग कर सकते हैं। इन सहजीवी संबंधों को बनाए रखने में मिट्टी में मौजूद कार्बनिक पदार्थ महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
4. मिट्टी के कार्बनिक पदार्थ और सूक्ष्मजीवों की विविधता: मिट्टी में अधिक कार्बनिक पदार्थ होने से सूक्ष्मजीवों की विविधता बढ़ती है। यह विविधता मिट्टी के स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए आवश्यक होती है। विविध माइक्रोबियल(microbial) समुदाय मिट्टी में होने वाली बीमारियों को रोकने, कार्बनिक पदार्थों के अपघटन को तेज़ करने और पौधों के स्वास्थ्य को बढ़ाने में सहायक होते हैं। खाद डालने, कवर क्रॉपिंग, फ़सल चक्रण और कम जुताई जैसी कृषि तकनीकें मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों के स्तर को बनाए रखने और सूक्ष्मजीवों की विविधता बढ़ाने में मदद करती हैं।
5. मिट्टी के स्वास्थ्य पर प्रभाव: मृदा सूक्ष्मजीवों और कार्बनिक पदार्थों के बीच का संतुलन सीधे मिट्टी के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। संतुलित कार्बनिक पदार्थ और सक्रिय सूक्ष्मजीवों से भरपूर मिट्टी में पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ती है, मिट्टी की संरचना मज़बूत होती है और पर्यावरणीय तनावों से निपटने की क्षमता बेहतर होती है। इससे फ़सल की पैदावार बढ़ती है, उपज की गुणवत्ता में सुधार होता है और खेती अधिक टिकाऊ बनती है।
कुल मिलाकर मृदा सूक्ष्मजीव और कार्बनिक पदार्थ मिट्टी की उर्वरता और स्वास्थ्य को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यदि किसान और कृषि वैज्ञानिक ऐसी पद्धतियाँ अपनाएँ जो मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ाएँ, तो वे मिट्टी की पूरी क्षमता का उपयोग कर सकते हैं और बेहतर उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: खेत में एक किसान और राइज़ोबियम नामक बैक्टीरिया (Wikimedia)
चलिए, कुछ चलचित्रों कि ज़रिए, आज पृथ्वी पर मौजूद सबसे प्रारंभिक जीवों से अवगत होते हैं
व्यवहारिक
By Behaviour
23-03-2025 09:12 AM
Rampur-Hindi

हमारे प्यारे शहर वासियों, क्या आप जानते हैं, कि जेलीफ़िश (Jellyfish), 500 मिलियन से भी अधिक वर्षों से अस्तित्व में है? इसका मतलब है कि वे ऐसे जीव हैं, जो पहले डायनासोर (Dinosaurs) से 250 मिलियन वर्ष पहले भी मौजूद थे। जेलीफ़िश के अलावा, नॉटिलस (Nautilus) भी ऐसे जीव हैं, जो प्राचीन समय से आज भी पृथ्वी पर मौजूद हैं । गहरे समुद्र की चट्टानों में वे 480 मिलियन वर्षों से भी अधिक समय से मौजूद हैं। ये नरम शरीर वाले जीव, एक जटिल कोष्ठ वाले आवरण के अंदर रहते हैं। क्या आप जानते हैं कि एक वयस्क जेलीफ़िश को मेडुसा (medusa) के नाम से जाना जाता है ? जेलीफ़िश की एक प्रजाति, जिसे टुरिटोप्सिस डोहर्नी (Turritopsis dohrnii) कहा जाता है, लगभग 4.5 मिलीमीटर चौड़ी और लंबी होती है, संभवतः यह आपकी छोटी उंगली के नाखून से भी छोटी होती है। किंतु आश्चर्यजनक बात यह है, कि यह अपने जीवन चक्र को उलट सकती है। इसलिए, इसे अमर जेलीफ़िश (Immortal jellyfish) कहा जाता है। जब इस प्रजाति को शारीरिक रूप से नुकसान पहुंचता है या कोई अन्य तनाव होता है, तो यह मरने के बजाय खुद को सिकोड़ लेती है, अपने तंतुओं को फिर से अवशोषित कर लेती है और अपनी तैरने की क्षमता खो देती है। फिर यह, एक बूँद जैसी संरचना के रूप में समुद्र तल से चिपक जाती है। अगले 24-36 घंटों में, यह बूँद जैसी संरचना वापस नए जीव के रूप में विकसित हो जाती है। तो आइए, हम, इन चलचित्रों के माध्यम से पृथ्वी पर आज मौजूद सबसे प्रारंभिक जीवों के बारे में विस्तार से जानें। उपर्युक्त जीवों के अलावा, हम, हॉर्सशू केकड़ा (Horseshoe crab), सीलैकैंथ (Coelacanth), स्टर्जन (Sturgeon) और इसी तरह के अन्य जानवरों पर भी एक नज़र डालेंगे। उसके बाद, एक अन्य चलचित्र के माध्यम से, हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि, अमर जेलीफ़िश (Immortal Jellyfish), सैद्धांतिक रूप से हमेशा के लिए कैसे जीवित रह सकती है।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/4t8dvtbs
https://tinyurl.com/3vute7cb
https://tinyurl.com/3ksmfjd3
https://tinyurl.com/y5kk9wjj
https://tinyurl.com/3x5ahsun
चलिए जानते हैं, भारत की जलविद्युत क्षमता और इसके भविष्य को लेकर महत्वपूर्ण योजनाओं को
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
22-03-2025 09:08 AM
Rampur-Hindi

रामपुर के नागरिकों, क्या आप जानते हैं कि मार्च 2020 तक भारत की जलविद्युत ऊर्जा क्षमता, 46,000 मेगावाट थी, जो देश की कुल बिजली उत्पादन क्षमता का लगभग 12% थी ? इसके अलावा, भारत के जलविद्युत क्षेत्र के लिए 2024-2025 से लेकर 2031-2032 तक 12,461 करोड़ रुपये का बजट रखा गया है।
आज हम भारत की जलविद्युत क्षमता (Hydroelectricity Production Capacity) की तुलना इसके भविष्य से करेंगे। फिर, हम जानेंगे कि भारत में जलविद्युत के लिए पैसे कैसे जुटाए जाते हैं और कौन सी संस्थाएं इसमें मदद करती हैं। इसके बाद, हम भारत के बजट में जलविद्युत के लिए आवंटित पैसे के बारे में बात करेंगे। अंत में, हम जलविद्युत के विकास को बढ़ावा देने के लिए योजनाओं पर चर्चा करेंगे।
भारत में जलविद्युत उत्पादन की वर्तमान स्थिति और संभावित क्षमता की तुलना
केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (Central Electricity Authority (CEA)) के अनुसार, भारत में कुल 133 GW जलविद्युत क्षमता हो सकती है। लेकिन 31 अगस्त 2024 तक, इसमें से केवल 47 GW बड़े जलविद्युत और 5 GW छोटे जलविद्युत परियोजनाएं ही काम कर रही हैं। इसका मतलब है कि भारत की कुल जलविद्युत क्षमता का 40 प्रतिशत से भी कम हिस्सा ही उपयोग हो रहा है।
उत्तर-पूर्वी राज्य जैसे असम, अरुणाचल प्रदेश आदि में जलविद्युत की क्षमता है, यहां कुल 55,929.7 MW क्षमता हो सकती है। इसके बाद हिमाचल प्रदेश (18,305 MW), उत्तराखंड (13,481.35 MW), और जम्मू-कश्मीर (12,264.5 MW) का स्थान आता है। फिलहाल, उत्तर-पूर्वी राज्य में क्षमता का केवल 3.62 प्रतिशत, हिमाचल प्रदेश में 56.16 प्रतिशत, उत्तराखंड में 29.93 प्रतिशत, और जम्मू-कश्मीर में 27.4 प्रतिशत क्षमता का इस्तेमाल हो रहा है।
इसके अलावा, किसी छोटे जलविद्युत संयंत्र (Hydroelectric Poer Plant) की क्षमता, 21,133 MW हो सकती है, और इसके लिए 7,133 स्थलों पर काम किया जा सकता है, जैसा कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) रुड़की के अध्ययन में बताया गया है। लेकिन वर्तमान में छोटे जलविद्युत का इस्तेमाल मात्र 25 प्रतिशत हुआ है यानी 5 GW क्षमता काम कर रही है।
पंप्ड स्टोरेज परियोजनाओं (Pumped Storage Projects (PSPs)) की क्षमता लगभग 176,280 MW हो सकती है, जिसमें पश्चिमी और दक्षिणी राज्यों में 66,580 MW और 60,475 MW की बहुत बड़ी संभावनाएं हैं। मगर फिलहाल भारत में इन परियोजनाओं की क्षमता, 5 GW से भी कम है, और इसके चालू होने की क्षमता केवल 3 GW है, जो अनुमानित क्षमता से बहुत कम है।
भारत में जलविद्युत वित्तपोषण
एन एच पी सी (National Hydroelectric Power Corporation (NHPC)) एक सरकारी संस्था है, जिसकी निवेश राशि 38,718 करोड़ रुपये है। यह मिनी रत्न श्रेणी-1 की भारतीय सरकारी कंपनी है, और इसका अधिकृत शेयर लगभग 15,000 करोड़ रुपये है, जो पूरी तरह से सरकार के पास है। केंद्र सरकार के फंड्स के अलावा, एनएचपीसी वाणिज्यिक ऋण और बॉन्ड्स के फ़ंड्स ज़रिए भी पैसे जुटाती है। मार्च 2017 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, एनएचपीसी का दीर्घकालिक ऋण 17,246 करोड़ रुपये था, जिसमें बॉन्ड्स, सुरक्षित टर्म लोन और असुरक्षित विदेशी मुद्रा लोन शामिल थे, जिनकी राशि क्रमशः 8,493 करोड़ रुपये, 4,479 करोड़ रुपये और 4,274 करोड़ रुपये थी। सुरक्षित ऋण में भारतीय बैंकों और वित्तीय संस्थाओं से लिया गया पैसा शामिल है, जैसे कि भारतीय स्टेट बैंक, भारतीय ओवरसीज बैंक, आई सी आई सी आई बैंक (ICICI Bank), जम्मू और कश्मीर बैंक, बैंक ऑफ़ इंडिया, एक्सिस बैंक, पटियाला स्टेट बैंक, बीकानेर और जयपुर स्टेट बैंक, एचडीएफसी बैंक, इंडसइंड बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया, कोटक महिंद्रा बैंक, आरबीएल बैंक, जीवन बीमा निगम, पावर फाइनेंस कॉर्पोरेशन और ग्रामीण विद्युतीकरण निगम।
जलविद्युत परियोजनाओं के लिए वित्तपोषण के लिए कई नए तरीके सामने आ रहे हैं। हाल ही में एक नया ट्रेंड तेज़ी से बढ़ रहा है, और वह है ग्रीन बॉन्ड्स का। ग्रीन बॉन्ड्स वे फ़िक्स्ड -इनकम लोन होते हैं, जिन्हें खासतौर पर पर्यावरण और जलवायु जोखिमों को कम करने के लिए परियोजनाओं को वित्तपोषित करने के लिए तैयार किया जाता है। 2016 में 80 बिलियन डॉलर से अधिक ग्रीन बॉन्ड्स जारी किए गए थे, जो पिछले साल से लगभग दोगुना था, लेकिन यह बाजार अभी भी शुरुआती चरण में है। ग्रीन बॉन्ड्स बाजार का लक्ष्य 2020 तक प्रति वर्ष 1 ट्रिलियन डॉलर का निवेश प्राप्त करना है, ताकि यह पेरिस समझौते के अनुरूप हो सके। बहुपक्षीय विकास बैंकों और कॉर्पोरेट क्षेत्र के नेतृत्व में पोलैंड 2016 के अंत में पहला ग्रीन सोवरेन बॉन्ड जारी करने वाला देश बना, जिसमें $750 मिलियन जुटाए गए। इसके बाद, फ़्रांस ने जनवरी 2017 में $7.5 बिलियन जुटाए। अन्य देश जैसे स्वीडन, नाइजीरिया और केन्या भी इसे अपनाने की संभावना रखते हैं। भारत ने 2017 के अंत में ग्रीन बॉन्ड्स काउंसिल बनाई, जो भारतीय चैंबर्स ऑफ़ कॉमर्स और इंडस्ट्री (FICCI) और क्लाइमेट बॉन्ड्स इनिशिएटिव (CBI) का एक संयुक्त प्रोजेक्ट था। भारत ने 2017 के अप्रैल में 3.2 बिलियन डॉलर के ग्रीन बॉन्ड्स जारी किए और वैश्विक स्तर पर टॉप 10 में अपनी जगह बनाई।
भारत के हाल के बजट में जलविद्युत के लिए पैसे की व्यवस्था
भारत सरकार, जलविद्युत क्षेत्र के लिए पैसे दे रही है। इसके लिए 2024-2025 से 2031-2032 तक 12,461 करोड़ रुपये का बजट तय किया गया है।
विद्युत मंत्रालय के अनुसार, इस पैसे से 31 गीगावाट (GW) जलविद्युत क्षमता बनाई जाएगी, जिसमें से 15 GW पंप्ड स्टोरेज क्षमता होगी।
के लिए जो मदद मिलेगी, वह छोटे प्रोजेक्ट्स के लिए 200 मेगावाट (MW) तक 1 करोड़ रुपये प्रति मेगावाट होगी। 200 मेगावाट से के प्रोजेक्ट्स के लिए यह 200 करोड़ रुपये के अलावा 0.75 करोड़ रुपये प्रति मेगावाट होगी।
अगर अधिकारियों को सही कारण मिलते हैं, तो यह राशि 1.5 करोड़ रुपये प्रति मेगावाट तक बढ़ाई जा सकती है।
भारत में जिम्मेदार जलविद्युत विकास मार्ग
1.) शासन व्यवस्था को मज़बूत करना: प्राकृतिक संसाधनों के क्षेत्र में अच्छे शासन की आवश्यकता है ताकि देश में टिकाऊ और समावेशी विकास हो सके। इसके लिए देश को एक मज़बूत नीति ढांचा, विशेष क्षेत्रीय रणनीतियाँ और जलविद्युत परियोजनाओं को तेज़ी से बढ़ाने के लिए स्पष्ट और पारदर्शी प्रक्रिया चाहिए। यदि सरकारी एजेंसियाँ आपस में सही तरीके से काम करती हैं और प्रक्रिया मानकीकरण की जाती है, तो इससे निवेशकों के लिए एक बेहतर माहौल बनेगा।
2.) लाभ साझा करने का ढांचा: जलविद्युत परियोजनाओं के विकास में सामाजिक और पर्यावरणीय जोखिमों को कम करना बहुत ज़रूरी है। प्राकृतिक संसाधनों के विकास के लाभ और नकारात्मक प्रभाव आमतौर पर असमान रूप से बांटे जाते हैं, इसलिए लाभ-साझा करने की प्रक्रिया और जोखिम कम करने के उपायों की ज़रूरत है ताकि विकास टिकाऊ और स्थिर रहे। लाभ-साझा करने का मतलब है कि सरकार और परियोजना निर्माता दोनों को मिलकर लाभ और हानि को सही तरीके से साझा करना चाहिए, ताकि समाज में शांति बनी रहे और राष्ट्रीय रणनीतियाँ स्थानीय ज़रूरतों के अनुरूप हों।
3.) निवेश और वित्त पोषण को आसान बनाना: जलविद्युत परियोजनाएँ, बहुत बड़ी और महंगी होती हैं, इसलिए इन परियोजनाओं के लिए निवेश आकर्षित करना ज़रूरी है। सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि जोखिम का सही तरीके से बंटवारा किया जाए और कभी-कभी निवेशकों को बेहतर मुनाफे का अवसर भी दिया जाए। इसके साथ ही, सार्वजनिक-निजी साझेदारी (Public-Private Partnership (PPP)) को इस तरह से डिजाइन किया जाना चाहिए कि परियोजना के लिए ज़रूरी पूंजी, क्षमता और विश्वसनीयता को ध्यान में रखा जाए।
4.) बाज़ार के विकास को बढ़ावा देना: बाज़ार विकास के लिए नीतियाँ बनाना बहुत महत्वपूर्ण है ताकि निजी कंपनियाँ जलविद्युत क्षेत्र में निवेश कर सकें। निजी क्षेत्र जलविद्युत क्षेत्र की बड़ी संभावनाओं को पहचानता है, लेकिन इसे तेज़ी से बढ़ावा देने के लिए सरकार को नीति और नियामक ढांचे में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव करने होंगे।
5.) तकनीकी क्षमता का विकास: जलविद्युत परियोजनाओं में बहुत सी कठिनाइयाँ आती हैं, खासकर भूगोल और इलाके की वजह से। इन समस्याओं का समाधान करने के लिए सरकारी एजेंसियों को मज़बूत करना और नई तकनीकें व तरीकों को अपनाना ज़रूरी है। इस प्रक्रिया में जलविद्युत परियोजनाओं से जुड़ी विशिष्ट तकनीकी चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए एजेंसियों को ज़रूरी उपकरण, प्रशिक्षण और सिस्टम देना होगा ताकि इन चुनौतियों का सामना किया जा सके।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: एक झील पर बने बांध का ड्रोन से लिया गया दृश्य (Pexels)
हमारे रामपुर में मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के प्रति बढ़ रही है जागरूकता !
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
21-03-2025 09:11 AM
Rampur-Hindi

हमारा मानसिक स्वास्थ्य, हमारी सोच, भावनाओं, हमारे आसपास की दुनिया की धारणा और हमारे कार्यों को प्रभावित करता है। भारत में मनोरोग संबंधी बीमारी को लंबे समय से एक वर्जित और कलंकित विषय माना जाता रहा है, जहां व्यक्तियों को अपनी मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों के कारण सामाजिक बहिष्कार और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। लेकिन अब आपको यह जानकर खुशी होगी कि भारत में मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के बारे में जागरूकता बढ़ रही है। 2021 में एक सर्वेक्षण के दौरान, नौ भारतीय महानगरीय केंद्रों में 3497 उत्तरदाताओं में से, 92 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने जवाब दिया कि वे अपने या अपने किसी परिचित के मानसिक विकारों की स्थिति में पेशेवर मनोचिकित्सक से उपचार लेंगे, जो 2018 में 54 प्रतिशत से अधिक है। हालांकि, अभी भी पूरे देश में मानसिक रोगों को लेकर जागरूकता कम है। तो आइए, आज भारत में मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता को बढ़ावा देने में आने वाली चुनौतियों के बारे में जानते हुए समझने का प्रयास करते हैं कि हमारे देश में अन्य शारीरिक बीमारियों की तुलना में इस प्रकार की बीमारी पर उतना ध्यान क्यों नहीं दिया जाता है। इसके साथ ही, हम भारत में मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों से संबंधित कुछ प्रमुख आंकड़ों और मनोचिकित्सकों की कमी के मुद्दे पर चर्चा करेंगे। अंत में, हम भारत में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के समाधान के लिए हाल के वर्षों में उठाए गए कदमों और उपायों पर कुछ प्रकाश डालेंगे।
भारत में मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता को बढ़ावा देने में आने वाली चुनौतियां:
- संसाधनों की कमी: भारत में मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों और सुविधाओं की कमी है, जिससे लोगों के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँचना मुश्किल हो जाता है। इसके अतिरिक्त, मौजूदा सेवाएं भी अधिकांश आबादी के लिए वहनीय नहीं हैं।
- सीमित ज्ञान: भारत में सामान्य आबादी के बीच मानसिक स्वास्थ्य के बारे में ज्ञान और समझ की कमी है। बहुत से लोगों को मानसिक बीमारी के लक्षणों या मदद लेने के तरीके के बारे में जानकारी नहीं होती है।
- सांस्कृतिक मान्यताएँ: मानसिक बीमारी से जुड़ी पारंपरिक मान्यताएं भी चिकित्सीय मदद में बाधा बन सकती हैं। भारत में आज भी कई लोग मानते हैं कि मानसिक बीमारी अलौकिक या आध्यात्मिक कारकों के कारण होती है और मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों के बजाय पारंपरिक चिकित्सकों से मदद लेते हैं।
- सरकारी समर्थन का अभाव: भारत में मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे को संबोधित करने के लिए पर्याप्त संसाधन आवंटित नहीं किए गए हैं, और कई मौजूदा मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम जनसंख्या के अनुरूप अपर्याप्त हैं।
इन चुनौतियों से कैसे निपटें:
इन चुनौतियों पर काबू पाने के लिए, भारत में मानसिक स्वास्थ्य को संबोधित करने की दिशा में अधिक संसाधनों और प्रयासों की आवश्यकता है। इसमें मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बढ़ाना, जनता को मानसिक स्वास्थ्य के बारे में शिक्षित करना और मानसिक बीमारी से जुड़े कलंक को कम करना शामिल है। इसके अतिरिक्त, मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता बढ़ाने के प्रयास में धार्मिक और सामुदायिक नेताओं को शामिल करना लाभदायक हो सकता है।
भारत में मानसिक बीमारी कलंक क्यों है:
आज भी भारत में मानसिक बीमारी को अक्सर अंधविश्वास और अज्ञानता के चश्मे से देखा जाता है। बहुत से लोग मानते हैं कि मनोरोग संबंधी बीमारियाँ व्यक्तिगत कमज़ोरी, बुरे कर्म या यहाँ तक कि बुरी आत्माओं के कब्ज़े के कारण होती हैं। ये अंधविश्वास, मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों से पीड़ित व्यक्तियों को समाज में स्वयं को शर्मिंदा अनुभव कराते हैं। इसके अलावा, मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को अक्सर एक पारिवारिक मामला माना जाता है, जिसे लोगों की नज़रों से छिपाकर रखा जाना चाहिए। अधिकांश लोग, पेशेवर मदद लेने से झिझकते हैं। मानसिक बीमारी से जुड़ा कलंक सामाजिक अलगाव, रोज़गार के अवसरों की हानि और परिवार और दोस्तों के साथ तनावपूर्ण संबंधों को जन्म दे सकता है। इससे पहले से ही मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियों से जूझ रहे व्यक्तियों की पीड़ा और भी अधिक बढ़ जाती है।
भारत में मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों से संबंधित कुछ प्रमुख आँकड़े:
भारत में लगभग 60 से 70 मिलियन (6 से 7 करोड़) लोग, सामान्य और गंभीर मानसिक विकारों से पीड़ित हैं। यह एक चिंता का विषय है कि पूरी दुनिया में सबसे अधिक आत्महत्या भारत में होती है, जहां एक वर्ष में आत्महत्या के लगभग 2.6 लाख से अधिक मामले सामने आते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, भारत में प्रति लाख लोगों पर आत्महत्या की औसत दर 10.9 है। भारत में मानसिक स्वास्थ्य रोगियों की चिंताजनक संख्या को देखते हुए यह जानना आवश्यक है कि हम भारत में मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों से निपटने के लिए कितने सक्षम हैं। भारत में प्रति 100,000 लोगों पर केवल 0.3 मनोचिकित्सक, 0.07 मनोवैज्ञानिक और 0.07 सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वहीं, विकसित देशों में मनोचिकित्सकों का अनुपात प्रति 100,000 पर 6.6 है और वैश्विक स्तर पर मानसिक अस्पतालों की औसत संख्या प्रति 100,000 पर 0.04 है जबकि भारत में यह केवल 0.004 है।
भारत में मनोचिकित्सकों की संख्या कम क्यों हैं:
- अपर्याप्त स्नातक शिक्षा: विशेषज्ञों के अनुसार, भारत में न के बराबर स्नातक चिकित्सा पाठ्यक्रम (Undergraduate medical courses), मनोचिकित्सा पर केंद्रित है। स्नातक स्तर पर, मनोचिकित्सा पर बहुत कम अनिवार्य परीक्षाएं होती हैं और पाठ्यक्रम भी कठोर नहीं हैं।
- स्नातकोत्तर सीटों की सीमित संख्या: जब मनोचिकित्सा में स्नातकोत्तर शिक्षा (postgraduate education) की बात आती है, तो मेडिकल कॉलेजों में पर्याप्त सीटें उपलब्ध नहीं हैं। वर्तमान में, भारत में मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में केंद्र द्वारा वित्त पोषित केवल 21 उत्कृष्टता केंद्र हैं। मनोचिकित्सा में अति विशेषज्ञता पाठ्यक्रम बहुत कम हैं। अब तक, भारत में केवल दो अति विशेषज्ञता पाठ्यक्रम हैं - बाल और किशोर मनोचिकित्सा, तथा वृद्धावस्था मानसिक स्वास्थ्य।
- चिकित्सकों का पलायन: भारत में पर्याप्त मनोचिकित्सकों की कमी का एक और कारण यह है कि अधिकांश मनोचिकित्सक, विदेशों में बेहतर संभावनाओं की तलाश में देश छोड़ देते हैं। भारत में अच्छे अवसरों की कमी के कारण प्रतिभा पलायन होता है, जो जनसंख्या में मनोचिकित्सकों के विषम अनुपात को देखते हुए विडंबनापूर्ण है। यह विडंबना ही तो है कि भारत में जितने मनोचिकित्सक हैं, उससे कहीं अधिक मनोचिकित्सक पश्चिमी देशों में भारतीय मूल के हैं।
भारत में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के समाधान के लिए उठाए गए कदम और उपाय:
देश में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के समाधान के लिए भारत सरकार, मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों की संख्या बढ़ाने के लिए लगातार प्रयास कर रही है। भारत सरकार द्वारा देश में 'राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम' (National Mental Health Programme (NMHP)) लागू किया गया है, जिसके तृतीयक देखभाल घटक के तहत, मानसिक स्वास्थ्य विशिष्टताओं में पीजी विभागों में छात्रों की संख्या बढ़ाने के साथ-साथ तृतीयक स्तर की उपचार सुविधाएं प्रदान करने के लिए 25 उत्कृष्टता केंद्रों को मंजूरी दी गई है। इसके अलावा, सरकार द्वारा मानसिक स्वास्थ्य विशिष्टताओं में 47 पीजी विभागों को मज़बूत करने के लिए 19 सरकारी मेडिकल कॉलेजों/संस्थानों को भी समर्थन दिया गया है। एन एम एच पी (National Mental Health Programme (NMHP)) के ज़िला ' मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम' को 767 ज़िलों में कार्यान्वयन के लिए मंज़ूरी दे दी गई है, जिसके लिए, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के माध्यम से राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों को सहायता प्रदान की जाती है।
सरकार प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को मज़बूत करने के लिए भी कदम उठा रही है। सरकार द्वारा 1.73 लाख से अधिक उप स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को आयुष्मान आरोग्य मंदिरों में अपग्रेड किया है। इन आयुष्मान आरोग्य मंदिरों में प्रदान की जाने वाली व्यापक प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के तहत सेवाओं के पैकेज में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को जोड़ा गया है।
| चित्र स्रोत : Wikimedia
2018 में भारत सरकार द्वारा तीन केंद्रीय मानसिक स्वास्थ्य संस्थानों - राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य और तंत्रिका विज्ञान संस्थान (National Institute of Mental Health and Neuro Sciences (NIMHANS)), बेंगलुरु, लोकप्रिय गोपीनाथ बोरदोलोई क्षेत्रीय मानसिक स्वास्थ्य संस्थान (Lokopriya Gopinath Bordoloi Regional Institute of Mental Health (LGBRIMH)), तेजपुर, असम और केंद्रीय मनोचिकित्सा संस्थान (Central Institute of Psychiatry (CIP)), रांची - की स्थापना की गई, जहां डिजिटल अकादमियों के माध्यम से मानसिक स्वास्थ्य देखभाल चिकित्सा और पैरा-मेडिकल पेशेवरों की विभिन्न श्रेणियों को ऑनलाइन प्रशिक्षण पाठ्यक्रम प्रदान किया जाता है। डिजिटल अकादमियों के तहत प्रशिक्षित पेशेवरों की कुल संख्या 42,488 है।
साथ ही, 66 संस्थान/विश्वविद्यालयों में 'एम.फिल चिकित्सा मनोविज्ञान' पाठ्यक्रम उपलब्ध है। शैक्षणिक सत्र 2024-25 से चिकित्सा मनोविज्ञान में अधिक पेशेवरों को विकसित करने के लिए, चिकित्सा मनोविज्ञान (ऑनर्स) पाठ्यक्रम और इस पाठ्यक्रम की पेशकश करने के लिए 19 विश्वविद्यालयों को मंज़ूरी दी गई। उपरोक्त के अलावा, सरकार द्वारा देश में गुणवत्तापूर्ण मानसिक स्वास्थ्य परामर्श और देखभाल सेवाओं तक पहुंच को और बेहतर बनाने के लिए 10 अक्टूबर 2022 को एक "राष्ट्रीय टेली मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम" शुरू किया गया। 22 नवंबर 2024 तक, 36 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में 53 टेली मानस सेल स्थापित किए गए हैं और टेली मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं शुरू की गई हैं। 10 अक्टूबर, 2024 को 'विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस' के अवसर पर सरकार द्वारा टेली मानस मोबाइल एप्लिकेशन भी लॉन्च की गई। टेली-मानस मोबाइल एप्लिकेशन, एक व्यापक मोबाइल प्लेटफ़ॉर्म है जिसे मानसिक स्वास्थ्य से लेकर मानसिक विकारों तक के मुद्दों के लिए सहायता प्रदान करने के लिए विकसित किया गया है।
संदर्भ:
मुख्य चित्र स्रोत : pexels
संस्कृति 1992
प्रकृति 719