लखनऊ - नवाबों का शहर












आज लखनऊ के व्यापारी और ग्राहक प्राप्त करेंगे, कस्टम क्लियरेंस से जुड़ी ज़रूरी जानकारी
य़ातायात और व्यायाम व व्यायामशाला
Locomotion and Exercise/Gyms
13-05-2025 09:20 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ के कुछ लोगों को अपने अंतर्राष्ट्रीय पार्सल, समय पर न मिलने का अनुभव हुआ होगा। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि कस्टम प्रक्रिया अंतर्राष्ट्रीय शिपिंग में बहुत अहम भूमिका निभाती है। यह तय करती है कि सामान कितनी जल्दी एक देश से दूसरे देश तक पहुंचेगा। कई बार देरी का कारण दस्तावेज़ों में गलती, जांच, टैक्स से जुड़े आकलन या नियमों का पालन न करना होता है। क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे सामान को कस्टम अधिकारी कैसे जांचते और मंज़ूरी देते हैं?
आज हम इसी बारे में विस्तार से जानेंगे। हम समझेंगे कि कस्टम क्लियरेंस (Custom Clearance) या सीमा शुल्क निकासी की प्रक्रिया में कौन-कौन से मुख्य चरण होते हैं, जैसे – कार्गो का आना, कस्टम घोषणा, निरीक्षण, टैक्स आकलन और आखिरी मंज़ूरी। इसके बाद, हम भारत में समुद्री और हवाई माल परिवहन की कस्टम क्लियरेंस से जुड़ी चुनौतियों पर भी नज़र डालेंगे। फिर, हम यह जानेंगे कि भारत में कस्टम प्रक्रियाओं को डिजिटलाइज़ करने के क्या फ़ायदे हैं। इनमें पेपरलेस ट्रेडिंग, कम समय में क्लियरेंस और आसान प्रक्रिया शामिल हैं। अंत में, हम यह समझने की कोशिश करेंगे कि भारत में कस्टम संचालन को अधिक प्रभावी बनाने में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस यानी ए आई कैसे मदद कर रहा है।
बंदरगाहों पर सामान की सीमा शुल्क निकासी कैसे होती है?
- कार्गो का बंदरगाह पर आगमन - जब कोई जहाज़ बंदरगाह पर पहुंचता है, तो उसमें लदा सामान उतारने की प्रक्रिया शुरू होती है। कस्टम अधिकारियों को पहले से ही इस माल के बारे में जानकारी दे दी जाती है। यह जानकारी बिल ऑफ़ लैडिंग (Bill of Lading) कार्गो मेनिफ़ेस्ट (Cargo Manifest) और अन्य आवश्यक दस्तावेज़ों के आधार पर दी जाती है।
- आयात/निर्यात घोषणा - आयातक या निर्यातक को कस्टम घोषणा पत्र भरना होता है, जिसमें माल की पूरी जानकारी, उसका मूल्य, स्रोत (उत्पत्ति) और गंतव्य (जहां जाना है) बताना होता है। इस प्रक्रिया में कस्टम ब्रोकर्स की मदद ली जाती है, जो इन नियमों के विशेषज्ञ होते हैं। कई बंदरगाहों पर यह प्रक्रिया डिजिटल रूप से भी की जा सकती है।
- दस्तावेज़ और भौतिक निरीक्षण - कस्टम अधिकारी सामान का निरीक्षण करते हैं, ताकि यह पुष्टि हो सके कि जो जानकारी दी गई है, वह सही है। कुछ सामानों की जांच यादृच्छिक रूप (रैंडमली) से की जाती है, जबकि कुछ की जांच संभावित जोखिम के आधार पर की जाती है।
- कर और शुल्क का भुगतान - कस्टम विभाग, आयात शुल्क, बंदरगाह शुल्क और अन्य आवश्यक शुल्क की गणना कर उनका संग्रह करता है। इसमें आयात शुल्क, प्रशासनिक शुल्क, और कुछ मामलों में सैनिटरी (Sanitary) या फ़ाइटोसैनिटरी (Phytosanitary (स्वास्थ्य एवं वनस्पति सुरक्षा से जुड़े)) शुल्क शामिल होते हैं।
- माल की रिहाई ( Release) - सभी औपचारिकताएं पूरी होने और शुल्क चुकाने के बाद, कस्टम विभाग सामान को जारी करने की अनुमति देता है। इसके बाद, सामान को आयातक के पास भेज दिया जाता है या यदि कोई औपचारिकता अधूरी है, तो उसे गोदाम में रखा जाता है।
- सुरक्षा और अनुपालन नियंत्रण - कस्टम विभाग केवल कर वसूली तक सीमित नहीं होता, बल्कि यह सुरक्षा का भी ध्यान रखता है। वे यह सुनिश्चित करते हैं कि कोई अवैध सामान, मादक पदार्थ, हथियार या अन्य प्रतिबंधित वस्तुएं देश में न आएं। इसके अलावा, खाद्य पदार्थ या जानवरों से संबंधित कार्गो की स्वच्छता जांच भी की जाती है।
भारत में समुद्री और वायु मालवाहन के कस्टम क्लियरेंस में आने वाली चुनौतियाँ
1. नियामक चुनौतियाँ (Regulatory Challenges):
भारत में कस्टम नियम काफ़ी सख़्त होते हैं, और अगर दस्तावेज़ों में कोई गलती हो जाए, तो जुर्माना या देरी हो सकती है। उदाहरण के लिए, अगर किसी सामान का गलत टैरिफ़ वर्गीकरण (Tariff Classification) किया जाता है या उसकी कीमत जानबूझकर कम बताई जाती है, तो उस पर भारी जुर्माना लग सकता है या माल ज़ब्त भी किया जा सकता है। भारत में कस्टम क्लियरेंस के दौरान, कंपनियों को विभिन्न दस्तावेजों की आवश्यकताओं का पालन करना पड़ता है, जैसे उत्पाद प्रमाणपत्र (Product Certificates) या विशेष परमिट्स (Special Permits)। यह चुनौती खासतौर पर उन वस्तुओं के लिए अधिक होती है जो प्रतिबंधित श्रेणी में आती हैं, जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स या फ़ार्मार्मास्युटिकल्स ।
2. देरी की समस्या (Delays):
कस्टम क्लियरेंस में देरी होना बहुत आम समस्या है। इसकी कई वजहें हो सकती हैं, लेकिन सबसे बड़ी वजह गलत या अधूरे दस्तावेज़ होते हैं। उदाहरण के लिए, अगर कमर्शियल इनवॉयस (Commercial Invoice) गायब हो या बिल ऑफ लैडिंग (Bill of Lading) में कोई गलत जानकारी हो, तो पूरी प्रक्रिया अटक सकती है। इसके अलावा, भारत के प्रमुख बंदरगाहों और हवाई अड्डों पर भीड़भाड़ भी एक बड़ी समस्या है। खासकर पीक सीज़न में, जब मालवाहन की संख्या बहुत अधिक हो जाती है, तो कस्टम प्रक्रिया में और भी अधिक समय लग सकता है।
3. कर प्रणाली और बदलती नीतियाँ (Taxation and Changing Policies):
भारत में कस्टम नियम और व्यापार नीतियाँ लगातार बदलती रहती हैं, जिससे कारोबारियों को अनिश्चितता का सामना करना पड़ता है। टैरिफ़, आयात/निर्यात प्रतिबंध या अंतरराष्ट्रीय व्यापार समझौतों में बदलाव का सीधा असर व्यापार पर पड़ता है। उदाहरण के लिए, जब भारत में वस्तु एवं सेवा कर (GST) लागू हुआ, तो कई व्यवसायों को नए कर नियमों को समझने में कठिनाई हुई और इसके कारण कस्टम प्रक्रिया में देरी भी हुई।
भारत में कस्टम क्लियरेंस प्रक्रियाओं के डिजिटलीकरण के
1. पेपरलेस ट्रेडिंग (Paperless Trading (बिना कागज़ी दस्तावेज़ों का व्यापार)) - अब व्यापारी ऑनलाइन माध्यम से कस्टम क्लियरेंस से जुड़े दस्तावेज़ जमा कर सकते हैं, जिससे कागज़ी कार्यवाही की ज़रुरत नहीं रह जाती। यह न केवल प्रक्रिया को तेज़ और सुगम बनाता है, बल्कि लेन-देन की लागत भी कम करता है।
2. कम क्लियरेंस समय - केंद्रीय अप्रत्यक्ष कर एवं सीमा शुल्क बोर्ड (Central Board of Indirect Taxes and Customs (CBIC)) की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, 2024 में 15 सर्वेक्षण किए गए बंदरगाहों में से 9 में आयातित सामान की औसत रिलीज़ टाइम में कमी आई है। यह सुधार खासतौर पर उन व्यापारियों के लिए फायदेमंद है जो इनलैंड कंटेनर डिपो (Inland Container Depot (ICD)) और एयर कार्गो कॉम्प्लेक्स से निर्यात करते हैं।
3. सुगम और प्रभावी प्रक्रिया - स्विफ़्ट (SWIFT) यानी सोसाइटी फ़ॉर वर्ल्डवाइड इंटरबैंक फ़ाइनेंशियल टेलीकम्युनिकेशन, तुरंत कस्टम्स, ई-संचित, और यूलिप - यूनिट लिंक्ड इंश्योरेंस प्लान (ULIP) जैसे मौजूदा डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पहले से ही कस्टम प्रक्रियाओं को आसान बना रहे हैं। जल्द ही एक सिंगल पोर्टल लॉन्च किया जाएगा, जो इन सभी सिस्टम को एकीकृत करेगा और प्रक्रिया को और भी सरल बना देगा।
भारत की कस्टम प्रणाली में ए आई का प्रभाव
1. तेज़ और सुविधाजनक डिलीवरी - ए आई ने कस्टम प्रक्रियाओं को आसान और तेज़ बना दिया है, जिससे व्यापारियों को एक सरलता अनुभव मिलता है। अब कस्टम डेक्लेरेशन (Custom Declaration) की प्रक्रियाएँ अधिक व्यवस्थित हो गई हैं, जिससे व्यापार और आसान हुआ है।
2. जोखिम मूल्यांकन (Risk Assessment) - मशीन लर्निंग एल्गोरिदम व्यापार डेटा का विश्लेषण कर ज़ोख़िम संकेतों और अनियमितताओं की पहचान करते हैं। इससे कस्टम अधिकारी, हाई-रिस्क सामान की जांच को प्राथमिकता दे सकते हैं, जिससे संचालन अधिक प्रभावी बनता है और लो-रिस्क शिपमेंट में देरी नहीं होती।
3. दस्तावेज़ों का स्वचालन (Documentation Automation)
ए आई सेवाओं के माध्यम से व्यापार दस्तावेज़ों की जांच और नियामक अनुपालन (Regulatory Compliance) स्वचालित रूप से किया जा सकता है। मशीन लर्निंग और नेचुरल लैंग्वेज प्रोसेसिंग (Natural Language Processing (NLP)) की मदद से ए आई सिस्टम चालान, कस्टम डेक्लेरेशन और अन्य दस्तावेज़ों में होने वाली त्रुटियों को तुरंत पहचान सकता है।
4. कार्गो स्कैनिंग (Cargo Scanning):ए आई ने कार्गो स्क्रीनिंग और निरीक्षण को अधिक सुरक्षित और कुशल बना दिया है। कंप्यूटर विज़न एल्गोरिदम्स एक्स-रे (X-ray) और स्कैनिंग इमेज में ख़तरों और अवैध वस्तुओं की पहचान कर सकते हैं, जिससे कस्टम सुरक्षा प्रणाली अधिक प्रभावी हो गई है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में एक बड़े जहाज और इंडोनेशियाई कस्टम घोषणा फॉर्म का स्रोत : Pexels, Wikimedia
बुद्ध पूर्णिमा की ये खास बातें बदल सकती हैं लखनऊवासियों का जीवन दृष्टिकोण
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
12-05-2025 09:16 AM
Lucknow-Hindi

आज बुद्ध पूर्णिमा का पावन अवसर है। यह पर्व न केवल एक धार्मिक उत्सव है, बल्कि शांति, करुणा और आत्मज्ञान की अमूल्य शिक्षाओं का प्रतीक भी है। लखनऊ में यह दिन श्रद्धा और भक्ति भाव के साथ मनाया जाता है। रिसालदार रोड पर स्थित बुद्ध विहार मंदिर और बुद्ध धर्मंकुर सभा जैसे ऐतिहासिक स्थलों श्रद्धालुओं से भरे रहते हैं है। लोग भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को आत्मसात करने और आध्यात्मिक शांति प्राप्त करने के लिए यहाँ एकत्र होते हैं।
बुद्ध धर्मंकुर सभा, लखनऊ का सबसे पुराना और ऐतिहासिक बौद्ध केंद्र माना जाता है। यह मंदिर वर्षों से बौद्ध संस्कृति और परंपराओं का महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। इस दिन हम गौतम बुद्ध के जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण को स्मरण करते हैं। यह पर्व सिर्फ़ बौद्ध अनुयायियों के लिए ही नहीं, बल्कि उन सभी के लिए प्रेरणादायक है, जो शांति, अहिंसा और करुणा के मार्ग पर चलना चाहते हैं। इस अवसर पर भक्त मंदिरों में जाकर प्रार्थना करते हैं, ध्यान साधना करते हैं और परोपकार के कार्यों में भाग लेते हैं।
इस लेख में हम बुद्ध पूर्णिमा के ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व को समझेंगे। आगे हम जानेंगे कि इसका गौतम बुद्ध के जीवन से क्या संबंध है, इसे मनाने की प्रमुख परंपराएँ क्या हैं और बुद्ध की शिक्षाएँ हमारे समाज और संस्कृति को कैसे प्रभावित करती हैं। साथ ही, हम यह भी देखेंगे कि आधुनिक समय में बुद्ध के विचार कितने प्रासंगिक हैं और वे हमारी जीवनशैली को कैसे एक नई दिशा दे सकते हैं।
बुद्ध पूर्णिमा को 'वेसाक' के नाम से भी जाना जाता है। आज का दिन हमें गौतम बुद्ध की शिक्षाओं और उनके जीवन के मूल सिद्धांतों की याद दिलाता है, जिनमें करुणा, अहिंसा और सत्य की खोज भी शामिल है। यह दिन हमें अपने वास्तविक अस्तित्व को खोजने एवं अपने जीवन में बुद्ध के मार्गदर्शन को अपनाने की प्रेरणा देता है। हिंदू और बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए बुद्ध पूर्णिमा का दिन बेहद ख़ास होता है। इस दिन को भगवान बुद्ध के जीवन से जुड़ी तीन महत्वपूर्ण घटनाओं "उनके जन्म, ज्ञान प्राप्ति और परिनिर्वाण" के प्रतीक के तौर पर मनाया जाता है।
आइए अब उनके जीवन की इन प्रमुख घटनाओं के पीछे छिपे सार को समझने की कोशिश करते हैं:
1. भगवान बुद्ध का जन्म: - भगवान बुद्ध के जन्म को मात्र एक राजकुमार के जन्म के तौर पर नहीं देखा जाता। वास्तव में इसे आध्यात्मिकता की ओर एक नई शुरुआत माना जाता है। उन्होंने सम्पूर्ण संसार को एक ऐसा मार्ग दिखाया, जो आज भी करोड़ों लोगों के लिए प्रेरणा पुंज के रूप में काम करता है।
2. ज्ञान प्राप्ति: - भगवान् बुद्ध ने जो ज्ञान (आत्मज्ञान) प्राप्त किया, वह दर्शाता है कि हर व्यक्ति के पास अपने जीवन को बेहतर बनाने की शक्ति होती है। वह एक संपन्न राज घराने में जन्में राजकुमार थे। उस समय की सभी सांसारिक सुख-सुविधाएं उनके क़दमों में पड़ी थी। लेकिन इसके बावजूद वह सब कुछ त्यागकर परम सत्य की खोज पर निकल गए। एक भिक्षु के रूप में भटकते हुए उन्होंने न केवल खुद जीवन के गूढ़ रहस्यों को समझा, साथ ही उन्होंने पूरी दुनिया को नैतिकता, करुणा और सत्य के महत्व को समझाया। उनके द्वारा अर्जित ज्ञान न केवल उन्हें, बल्कि अनगिनत लोगों को जन्म और पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति पाने का मार्ग प्रदर्शित किया है।
3. परिनिर्वाण: भगवान् बुद्ध के जीवन के साथ-साथ उनकी मृत्यु भी असाधारण और प्रेरणादायक रही। उनकी मृत्यु को उनके अंतिम निर्वाण, अर्थात् परिनिर्वाण के रूप में देखा जाता है। यह घटना हमें जीवन की नश्वरता को समझने और आत्मज्ञान की तलाश हेतु निरंतर प्रयास करते रहने की सीख देती है।
बुद्ध पूर्णिमा का इतिहास हमें गौतम बुद्ध के जीवन की उन महत्वपूर्ण घटनाओं की याद दिलाता है, जिन्होंने मानवता को शांति, करुणा और ज्ञान का मार्ग दिखाया। हालांकि भगवान बुद्ध के जन्म और मृत्यु की सटीक तिथियाँ अज्ञात हैं, लेकिन इतिहासकार उनके जीवनकाल का अनुमान 563-483 ईसा पूर्व के बीच का बताते हैं। उनका जन्म नेपाल के लुम्बिनी नामक क्षेत्र में हुआ था। मात्र 35 वर्ष की आयु में उन्होंने ज्ञान (निर्वाण) प्राप्त किया, जिससे उनकी आत्मिक यात्रा एक नई दिशा में प्रवाहित हुई।
बुद्ध पूर्णिमा को बौद्ध धर्म के मूल सिद्धांतों "शांति, करुणा और ज्ञानोदय" पर चिंतन के अवसर के रूप में मनाया जाता है। यह दिन हमें आंतरिक शांति को खोजने और दूसरों के प्रति दया भाव अपनाने की प्रेरणा देता है।
दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में, बुद्ध पूर्णिमा के पर्व को वेसाक के रूप में मनाया जाता है।
बौद्ध धर्म में पूर्णिमा का अत्यधिक महत्व है क्योंकि भगवान बुद्ध के जीवन की तीन महत्वपूर्ण घटनाएँ इसी दिन घटी थीं:
१. जन्म: मई माह की पूर्णिमा को राजकुमार सिद्धार्थ का लुम्बिनी ग्रोव में जन्म हुआ था।
२. ज्ञान प्राप्ति: इसी दिन उन्होंने बोधगया में पीपल वृक्ष के नीचे ध्यान साधना करते हुए ज्ञान प्राप्त किया।
३. परिनिर्वाण: 45 वर्षों तक सत्य और करुणा का उपदेश देने के बाद, 80 वर्ष की आयु में कुशीनगर में उनका निधन हुआ, जहाँ उन्होंने परिनिर्वाण (अर्थात पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति) प्राप्त किया। बुद्ध पूर्णिमा केवल एक उत्सव नहीं है, बल्कि यह बुद्ध की शिक्षाओं का एक महत्वपूर्ण अनुस्मारक भी है, जिसने समाज और व्यक्तियों के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला है।
बुद्ध जयंती कई गूढ़ संदेशों और शिक्षाओं से ओतप्रोत नज़र आती है। इनमें से कुछ प्रमुख संदेश निम्नवत दिए गए हैं:
- करुणा: इस दिन किए जाने वाले दान, मुफ़्त भोजन वितरण और जानवरों को मुक्त करने जैसे कार्य बौद्ध धर्म के करुणा के सिद्धांत को दर्शाते हैं। ये क्रियाएँ हमें हर जीव के प्रति संवेदनशील और दयालु बनने की सीख देती हैं।
- शांति: बौद्ध मंदिरों का शांत वातावरण, ध्यान सत्र और संघर्ष से बचने की सीख, आंतरिक और बाहरी शांति की खोज को दर्शाती है। यह हमें जीवन में धैर्य और संतुलन बनाए रखने की प्रेरणा देता है।
- अहिंसा: इस अवसर पर शाकाहार अपनाना और बंदी जानवरों को आज़ाद करना, बौद्ध धर्म की अहिंसा और सभी जीवन रूपों के प्रति सम्मान को दर्शाता है। यह हमें हर जीव के प्रति प्रेम और सहानुभूति रखने की सीख देता है।
- उदारता (दान): इस दिन भोजन वितरण, दान और स्वैच्छिक सेवा का आयोजन उदारता और सेवा के गुण को दर्शाता है। यह हमें निस्वार्थ भाव से दूसरों की मदद करने की प्रेरणा देता है।
- ध्यान: ध्यान और चिंतनशील साधना हमें वर्तमान क्षण में जीने और मन को शांत रखने की कला सिखाती है। यह प्रयोग मानसिक शांति और जागरूकता को भी बढ़ावा देती है।
इस दिन सक्रिय रूप से व्यक्त किए जाने वाले ये बौद्ध मूल्य समाज और व्यक्तियों पर गहरा प्रभाव डालते हैं, चलिए जानते हैं कैसे?
- सामाजिक सद्भाव: करुणा, शांति और अहिंसा जैसे मूल्य समाज में प्रेम, सहिष्णुता और सद्भाव को बढ़ावा देते हैं। इससे विभिन्न समुदायों के बीच एकजुटता और समझ विकसित होती है।
- नैतिक आचरण: पाँच उपदेशों (पंचशील) का पालन, नैतिक आचरण को प्रोत्साहित करता है। यह हमें ईमानदारी, संयम और दूसरों के प्रति सम्मान रखना सिखाता है।
- मानसिक स्वास्थ्य: ध्यान और सचेतनता का नियमित अभ्यास तनाव और चिंता को कम करने में सहायक होता है। यह आंतरिक शांति और मानसिक संतुलन को बढ़ावा देता है।
- सामाजिक ज़िम्मेदारी: सेवा और दान की भावना लोगों को अपने समुदायों में सक्रिय योगदान करने के लिए प्रेरित करती है। यह अधिक न्यायपूर्ण और दयालु समाज की ओर प्रेरित करता है।
- व्यक्तिगत विकास: भगवान् बुद्ध की अनित्यता और अ-स्व (अनात्म) की शिक्षाएँ आत्मनिरीक्षण और आत्म-विकास को प्रोत्साहित करती हैं। इससे व्यक्ति में अधिक आत्म-जागरूकता और ज्ञान का विकास होता है। बुद्ध जयंती हमें सिखाती है कि करुणा, शांति और सेवा का मार्ग अपनाकर भी हम अपने भीतर और समाज में सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं।
संदर्भ
मुख्य चित्र में गौतम बुद्ध और पांच अनुयायी का स्रोत : Wikimedia
जहाँ भगवान बुद्ध का बचपन बीता: आइए, श्रद्धा से करें लुम्बिनी और कपिलवस्तु के दर्शन
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
11-05-2025 09:12 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ के नागरिकों, क्या आप जानते हैं कि ‘भगवान बुद्ध का हमारे शहर के साथ एक गहरा नाता रहा है?’ जी हाँ! अमौसी का इलाका, जिसे आजकल इसे हवाई अड्डे के लिए जाना जाता है, कभी उसे 'अमावसी बुद्ध विहार' के नाम से जाना जाता था। उस समय, अमावस्या की रातों में यहाँ विशेष बुद्ध पूजा होती थी। धीरे-धीरे यह स्थान 'अमौसी' के नाम से मशहूर हो गया। यही नहीं, लखनऊ में 'शांति उपवन बुद्ध विहार' नाम की एक और सुंदर जगह है। यहाँ 18 फीट ऊँची, सफ़ेद संगमरमर की भगवान बुद्ध की एक भव्य मूर्ति स्थापित है। यह मूर्ति शांति और करुणा का प्रतीक है, जो हमें इन मानवीय मूल्यों की याद दिलाती है। भगवान् बुद्ध के जन्म को भी मानव इतिहास से सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में गिना जाता है! उनका जन्म वर्तमान नेपाल में स्थित "लुम्बिनी" में हुआ था! आज हम कुछ रोचक चलचित्रों के माध्यम से भगवान बुद्ध के जीवन से जुड़े दो खास स्थानों 'लुम्बिनी और कपिलवस्तु' की यात्रा पर निकलेंगे।' कपिलवस्तु में भगवान् वुद्ध ने अपने बाल्यकाल में राजकुमार सिद्धार्थ के रूप में अपने बचपन के दिन बिताए थे।
सिद्धार्थ गौतम, (भगवान बुद्ध) का जन्म 623 ईसा पूर्व में लुम्बिनी के प्रसिद्ध बाग में हुआ था। आज यह स्थान एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल बन गया है। भारत के महान सम्राट अशोक भी तीर्थयात्रा पर यहाँ आए थे और उन्होंने यहाँ एक यादगार स्तंभ बनवाया था। आज इस पवित्र स्थल को एक बड़े बौद्ध तीर्थ के रूप में विकसित किया जा रहा है। भगवान बुद्ध के जन्म से जुड़े प्राचीन अवशेष यहाँ का मुख्य आकर्षण हैं। इस पहले विडियो में आप भगवान् बुद्ध की जन्म स्थली लुम्बिनी की आलौकिक दिव्यता को देख सकते हैं|
इस दूसरे विडियो में भी इस व्यक्ति ने “लुम्बिनी” की अध्यात्मिक और ऐतिहासिक महत्ता को बखूबी बयां किया है:
कपिलवस्तु, उस नगर का नाम है, जहाँ सिद्धार्थ गौतम का लगभग 563-483 ईसा पूर्व) में पालन पोषण हुआ था। उन्होंने अपने जीवन के पहले 29 वर्ष यहीं बिताए, जिसके बाद वे आध्यात्मिक मार्ग पर चले और बुद्धत्व को प्राप्त किया। माना जाता है कि इस शहर का नाम महान ऋषि कपिला के सम्मान में रखा गया था। वर्तमान समय में, 'कपिलवस्तु' नेपाल के एक जिले का नाम है, जहाँ तिलौराकोट का पुरातात्विक स्थल स्थित है (जिसे प्राचीन कपिलवस्तु माना जाता है)। हालाँकि, इस नाम का उपयोग नेपाल की सीमा के पार, भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के पिपरहवा गाँव और उसके पुरातात्विक स्थल के लिए भी किया जाता है (जिसे प्राचीन शहर का दूसरा प्रमुख दावेदार माना जाता है)।
आइए अब इस पावन स्थली के दर्शन करते हैं:
कपिलवस्तु में प्राचीन स्तूप की खुदाई में बुद्ध के अवशेष मिले हैं, जो इस पवित्र भूमि की समृद्ध आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत को दर्शाते हैं। आप भी इस चलचित्रों के ज़रिए लुम्बिनी गार्डन के पुराने खंडहर और बौद्ध सभ्यता के शानदार अवशेषों को ज़रूर देखें। कपिलवस्तु तीर्थयात्रियों और इतिहास में रुचि रखने वालों के लिए एक अवश्य जाने लायक जगह है।
आइए अब इस अंतिम चलचित्र में भगवान् बुद्ध के गृहनगर को और करीब एवं गहराई से समझते हैं:
संदर्भ :
भारतीय शास्त्रीय संगीत और नृत्य के कई प्रतिष्ठित घरानों को जन्म दिया है लखनऊ ने
ध्वनि 1- स्पन्दन से ध्वनि
Sound I - Vibration to Music
10-05-2025 09:35 AM
Lucknow-Hindi

हमारा शहर लखनऊ, नवाबों द्वारा पोषित अपनी समृद्ध शास्त्रीय संगीत और नृत्य परंपराओं के लिए जाना जाता है। हमारे शहर ने कई प्रतिष्ठित घरानों को जन्म दिया है। लखनऊ संगीत घराने से वाद्य और गायन संगीत के साथ-साथ नृत्य सहित विभिन्न शैलियों का जन्म हुआ है। यहां का कत्थक घराना सुंदरता से मंत्रमुग्ध कर देता है, तो ठुमरी घराना काव्यात्मक माधुर्य को परिष्कृत करता है, और तबला घराना नृत्य के साथ लय का मिश्रण करता है। नक्कारा घराना ड्रमस्टिक्स का उत्कृष्ट प्रदर्शन करता है, जबकि कव्वाल बच्चा घराना भावपूर्ण कव्वालियों की गूँज सुनाता है। तो आइए, आज लखनऊ में भारतीय शास्त्रीय संगीत की शुरुआत और विकास के बारे में जानते हुए, लखनऊ के विभिन्न संगीत घरानों पर प्रकाश डालते हैं। इसके साथ ही, हम भातखंडे संस्कृति विश्वविद्यालय (Bhatkhande Sanskriti Vishwavidyalaya) के इतिहास के बारे में जानेंगे और पंडित भातखंडे और भारतीय शास्त्रीय संगीत में उनके योगदान के बारे में बात करेंगे। अंत में, हम इस संगीत संस्थान के सांस्कृतिक महत्व के बारे में विस्तार से जानेंगे।
लखनऊ में भारतीय शास्त्रीय संगीत का विकास:
उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत के विकास में लखनऊ का योगदान, एक सांस्कृतिक विरासत है। आधुनिक हिंदुस्तानी संगीत का महत्वपूर्ण प्रारंभिक काल लगभग 1720 से 1860 तक रहा; और इस समय, लखनऊ शहर कला के संरक्षण के सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावशाली केंद्रों में से एक था। 1775 में आसफ़-उद-दौला के अवध के चौथे नवाब के रूप में नियुक्त होने के बाद, लखनऊ को अवध प्रांत की राजधानी बनाया गया। इस प्रकार, फ़ैज़ाबाद और दिल्ली से संगीतकार लखनऊ आने लगे। इनमें से प्रमुख दो गायक गुलाम रसूल और मियां जानी मुस्लिम भक्ति शैली कव्वाली में माहिर थे। हालाँकि, लखनऊ पहुँचने पर वे ख़याल शैली में माहिर भी हो गए। गुलाम रसूल और मियाँ जानी ने ख़याल को लोकप्रिय बनाने के लिए बहुत मेहनत की और कव्वाली और ख़याल के बीच एक महत्वपूर्ण संबंध स्थापित किया। गुलाम रसूल के बेटे, मियां शोरी ने स्वर शैली टप्पा का निर्माण किया, जो एक हल्की-शास्त्रीय शैली है।
1857 में अंग्रेज़ों के खिलाफ़ असफल विद्रोह के बाद, शहर के विशाल भूभाग को बड़े पैमाने पर ध्वस्त करने का आदेश दिया गया। लगभग एक तिहाई आबादी विस्थापित हो गई, और कई स्थान और कुलीन निवास गायब हो गए, संगीत गतिविधियां लगभग बंद हो गईं और नए शासन के डर के कारण लखनऊ संगीत के संरक्षकों ने कोई भी संगीत समारोह आयोजित करना बंद कर दिया। लेकिन जल्द ही, अभिजात वर्ग द्वारा संगीत-निर्माण फिर से शुरू हो गया। इस प्रकार लखनऊ ने कला के केंद्र के रूप में अपना कुछ कद फिर से हासिल कर लिया, लेकिन उतना नहीं, जितना नवाबी दिनों के दौरान था।
लखनऊ का संगीतमय इतिहास इतना गहन था कि इसे समाप्त नहीं किया जा सका, बल्कि यह परदे के पीछे ही फला-फूला। फिर वह समय आया जब ब्रिटिश भी लखनऊ की संगीत की सराहना करने लगे। 1926 में पंडित विष्णु नारायण भातखंडे द्वारा राय उमानाथ बाली, राय राजेश्वर बाली और लखनऊ के अन्य संगीत संरक्षकों की मदद से लखनऊ में एक संगीत विद्यालय की स्थापना के साथ संगीत और नृत्य की परंपरा को फिर से पुनर्जीवित किया गया।
लखनऊ के विभिन्न संगीत घराने:
- कत्थक घराना: एक किंवदंती है कि प्राचीन कत्थक नर्तक हंडिया के ईश्वरी प्रसाद को भगवान कृष्ण ने उनके सपने में नृत्य के रूप में भागवत कथा सुनाने का आदेश दिया था। 'कथा' से, यह नृत्य अंततः कत्थक बन गया और शहर के लखनऊ घराने का जन्म हुआ। वे और उनके भाई इस नृत्य कला को आसफ़-उद-दौला के दरबार में ले गए और इस प्रकार यह नृत्य शैली, मंदिरों से अवध के शाही दरबारों तक पहुंच गई। समय के साथ, प्रसाद के उत्तराधिकारियों, कालका महाराज और बिंदादीन महाराज ने घराने में बहुत बड़ा योगदान दिया और इसे आधिकारिक तौर पर स्थापित किया। कत्थक का लखनऊ घराना इसके संस्थापक कालका बिंदादीन के नाम पर भी जाना जाता है।
- ठुमरी घराना: ठुमरी घराने की उत्पत्ति, 19वीं सदी के अंत में अवध में मानी जाती है। इस समय के दौरान, कई संगीतकारों और कवियों ने ठुमरी शैली का पता लगाना शुरू किया, जो परंपरागत रूप से वैश्याओं और 'तवायफों' से जुड़ा संगीत का एक रूप था। नवाब वाजिद अली शाह ने इसके अभिव्यंजक और भावनात्मक गुणों पर जोर देते हुए, इसे एक परिष्कृत कला रूप में बदल दिया। उन्होंने गायन और सुधार की एक नई शैली विकसित की, जो शास्त्रीय और लोक परंपराओं पर आधारित थी और धीरे-धीरे, प्रदर्शन का एक अलग रूप उभरा, जिसे ठुमरी घराना के रूप में जाना जाता है। लखनऊ घराने के ख़याल के प्रसिद्ध प्रतिपादक उस्ताद सादिक अली खान को भी ठुमरी का जनक माना जाता है। ठुमरी घराने के कलाकारों की पहली पीढ़ी में बड़ी मोती बाई और छन्नूलाल मिश्रा जैसे कलाकार शामिल थे, जिन्होंने शैली को निखारा और इसके प्रदर्शनों का विस्तार किया।
- तबला घराना: 18वीं शताब्दी के मध्य में मियां बक्शू द्वारा स्थापित, लखनऊ के तबला घराने को अवध के नवाबों द्वारा संरक्षण दिया गया था। चूंकि लखनऊ 'ठुमरी का जन्मस्थान' और कत्थक का घर था, इसलिए यहां विकसित हुआ तबला घराना स्वाभाविक रूप से इन दोनों द्वारा गढ़ा और समृद्ध किया गया था। इस घराने से जुड़े कुछ प्रमुख नामों में उस्ताद आबिद हुसैन खान, उनके भतीजे खलीफ़ा वाजिद हुसैन खान, उस्ताद अफ़ाक हुसैन, पंडित हीरू गांगुली, पंडित संतोष किशन विश्वास और पंडित स्वपन चौधरी शामिल हैं।
- कव्वाल बच्चा घराना: इस घराने की शुरुआत उस्ताद हैदर अली खान ने की थी, जिन्हें शिदी हैदरी के नाम से जाना जाता था, जिन्हें गाज़ी-उद-दीन हैदर से संरक्षण प्राप्त था। इस घराने की कव्वाली की परंपरा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक बढ़ने के कारण, इस घराने को कव्वाल बच्चा नाम मिला। समय बीतने के साथ भी, कव्वाली राग, ताल और लय पर ध्यान केंद्रित करते हुए अपने शुद्ध रूप में गाई जाने लगी। इस घराने के कव्वाल फ़ारसी, उर्दू, हिंदी, संस्कृत और अवधी में कव्वालियाँ गाते हैं। इस घराने ने कव्वाली के ग्वालियर घराने की स्थापना में भी मदद की। इस घराने के कुछ प्रमुख कव्वाली गायकों में शामिल हैं- बेगम परवीन सुल्ताना, उस्ताद नाथन पीर बख्श, उस्ताद हस्सू हद्दू खान, उस्ताद बड़े मोहम्मद खान, उस्ताद मियां आशुरी, उस्ताद गुलाम रसूल, उस्ताद आशिक अली और उस्ताद मासूम अली खान।
- लखनऊ-शाहजहांपुर घराना (सरोद): लखनऊ और शाहजहांपुर दोनों घरानों की उत्पत्ति 17वीं शताब्दी की शुरुआत में हुई थी। मदार खान (1704-1752) और नज़फ़ अली खान (1705-1760) को इन घरानों का प्रणेता माना जाता है। उस समय के कुलीन परिवारों में प्रचलित अंतर-पारिवारिक विवाह प्रणाली ने संगीत की इन दोनों धाराओं को एक शैली में विलीन कर दिया। नवाब वाजिद अली शाह के दरबारी संगीतकार, नियामतुल्लाह खान के बाद इसे लखनऊ-शाहजहांपुर घराना माना जाने लगा। इरफ़ान मुहम्मद खान वर्तमान में इस घराने के सरोद वादक हैं।
- नक्कारा घराना: इसकी स्थापना उस्ताद शरीफ खान ने नौटंकी कलाकारों से वाद्ययंत्र सीखने और इसमें शास्त्रीय सुर पेश करने के बाद की थी। यह घराना, दूसरे घरानों से अलग है क्योंकि यह वाद्ययंत्र छड़ियों से बजाया जाता है जो आगे से मोटी और पीछे से पतली होती हैं। इस घराने के दो महत्वपूर्ण लयबद्ध पैटर्न में 'धाती नाडा' और 'उतार' शामिल हैं। घराने से जुड़े कुछ प्रमुख नामों में उस्ताद दिलावर खान और उस्ताद भोले शामिल हैं।
भातखंडे संस्कृति विश्वविद्यालय का इतिहास और महत्व:
1926 में पंडित विष्णु नारायण भातखंडे ने राय उमानाथ बाली और राय राजेश्वर बाली तथा लखनऊ के अन्य संगीत संरक्षकों और पारखी लोगों की सहायता और सहयोग से लखनऊ में एक संगीत विद्यालय की स्थापना की। इस संस्था का उद्घाटन, अवध के तत्कालीन गवर्नर सर विलियम मैरिस ने किया और इस प्रकार इसका नाम उनके नाम पर 'मैरिस कॉलेज ऑफ़ म्यूज़िक' (Marris College of Music) रखा गया। 1966 में, आज़ादी के बहुत बाद, उत्तर प्रदेश राज्य सरकार ने इस कॉलेज को अपने नियंत्रण में ले लिया और इसके संस्थापक के नाम पर इसका नाम बदलकर 'भातखंडे कॉलेज ऑफ़ हिंदुस्तानी म्यूज़िक' (Bhatkhande College of Hindustani Musi) कर दिया। बाद में वर्ष 2000 में यह शास्त्रीय संगीत और नृत्य में पाठ्यक्रम प्रदान करने वाला विश्वविद्यालय बन गया। तो इसका नाम बदलकर 'भातखंडे संगीत संस्थान' (Bhatkhande Music Institute) कर दिया गया। आज, यह संस्थान दुनिया भर से छात्रों को आकर्षित करता है और संगीत में डिप्लोमा, बैचलर ऑफ़ परफ़ॉर्मिंग आर्ट्स, मास्टर ऑफ़ परफ़ॉर्मिंग आर्ट्स और संगीत में डॉक्टरेट की डिग्री प्रदान करता है।
इसके अलावा, भातखंडे और भारतीय शास्त्रीय संगीत में उनके योगदान के बारे में आप हमारे प्रारंग के निम्न पृष्ठ पर जाकर अधिक विस्तार से पढ़ सकते हैं:
संदर्भ
मुख्य चित्र में तबला वादक राशिद नियाज़ी का स्रोत : Wikimedia
लखनऊ और देश के छात्रों के लिए गणित को आसान बना रही है वैदिक गणित की विद्या!
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
09-05-2025 09:20 AM
Lucknow-Hindi

हमारा शहर लखनऊ, जो अपनी नवाबी तहज़ीब और बौद्धिक विरासत के लिए प्रसिद्ध है, हमेशा से ही ज्ञान और शिक्षा का केंद्र रहा है। इसी ऐतिहासिक शहर की गलियों में ज्ञान की परंपराएँ पनपी हैं! और वैदिक गणित इसी परंपरा का एक हिस्सा मानी जाती है। क्या आप जानते हैं कि वैदिक गणित की मदद से जटिल गणितीय समस्याओं को तेज़ी और आसानी से हल किया जा सकता है? यह प्राचीन भारतीय विधि, गणनाओं को सरल और प्रभावी बनाती है। वेदों से उत्पन्न यह तकनीक कुछ विशेष सूत्रों पर आधारित है, जिनकी मदद से बड़े से बड़े और कठिन से कठिन सवाल भी चुटकियों में हल किए जा सकते हैं। लखनऊ के विद्यार्थी और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले अभ्यर्थी इस विधि से ख़ासा लाभ उठा सकते हैं। यह न केवल गणनाओं को आसान बनाती है, बल्कि मानसिक क्षमता और तार्किक सोच को भी विकसित करती है। दिलचस्प बात यह है कि जिस तरह लखनऊ अपनी तहज़ीब और ऐतिहासिक धरोहरों को संजोकर रखता है, उसी तरह वैदिक गणित भी हमारी प्राचीन बौद्धिक संपदा का एक अनमोल हिस्सा है, जिसे अब आधुनिक शिक्षा प्रणाली में फिर से महत्व मिल रहा है।
आज के इस लेख में हम जानने का प्रयास करेंगे कि किस तरह से वैदिक गणित, गणनाओं को सरल बनाने में कैसे मदद करती है। साथ ही हम इसके ऐतिहासिक पहलुओं पर भी चर्चा करेंगे और जानेंगे कि यह प्राचीन भारतीय ग्रंथों से कैसे विकसित हुई। इसके अलावा हम इसकी गति और सटीकता जैसी अनूठी विशेषताओं पर भी नज़र डालेंगे। अंत में, हम देखेंगे कि आधुनिक शिक्षा में यह किस तरह छात्रों की सीखने और समस्या-समाधान की क्षमता को बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो सकती है।
वैदिक गणित क्या है?
वैदिक गणित एक अनोखी और प्राचीन गणितीय प्रणाली है, जो 16 मुख्य सूत्रों और 13 उप-सूत्रों पर आधारित है। यह प्रणाली अंकगणित, बीजगणित, ज्यामिति और कलन जैसे विषयों को आसान और तेज़ गणना को सरल बनाती है। इस गणितीय प्रणाली की खोज प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ "जगद्गुरु भारती कृष्ण तीर्थजी" द्वारा 1911 से 1918 के बीच की गई थी।
वे संस्कृत, गणित, इतिहास और दर्शन के महान विद्वान थे। 1925 से 1960 तक वे पुरी के शंकराचार्य भी रहे। वर्षों के गहन अध्ययन के बाद, उन्होंने दावा किया कि वैदिक ग्रंथों में गणित की एक संगठित प्रणाली छिपी हुई है, जो आधुनिक गणना को आसान बना सकती है।
वैदिक गणित की जानकारी सुल्ब सूत्रों में भी मिलती है, जो कल्प सूत्र (वैदिक अनुष्ठान ग्रंथ) का एक हिस्सा हैं। इन सूत्रों में यज्ञ वेदियों के निर्माण, ज्यामितीय आकृतियों, बीजीय समीकरणों और पाइथागोरस प्रमेय जैसी गणितीय अवधारणाओं का वर्णन किया गया है। यही नहीं, इन सूत्रों में अपरिमेय संख्याओं, वर्गमूल और π (पाई) के शुरुआती प्रमाण भी दिए गए हैं। 1965 में, इस प्रणाली को "वैदिक गणित" नामक पुस्तक में प्रकाशित किया गया। इसके 16 सूत्र और 13 उपसूत्र गणनाओं को तेज़ और आसान बनाने में मदद करते हैं, जिससे गणितीय समस्याओं तेज़ी से और सरलता से हल किया जा सकता है। वैदिक गणित सिर्फ़ गणनाओं की विधि नहीं, बल्कि एक संपूर्ण प्रणाली है, जो गणित को तेज़, आसान और दिलचस्प बनाती है। इसकी कई अनूठी विशेषताएँ हैं, जो इसे ख़ास बनाती हैं।
आइए, इसकी विशेषताओं को सरल भाषा में समझते हैं।
- आपस में जुड़े सूत्र: वैदिक गणित के 16 सूत्र एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। यानी एक ही सूत्र का उपयोग अलग-अलग प्रकार की गणनाओं में किया जा सकता है। इसी वजह से इसे सीखना और समझना बेहद आसान हो जाता है।
- सरल और प्रभावी तरीका: आज की तेज़ रफ़्तार दुनिया में गणना की आसान विधि ही सबसे कारगर होती है। हमारे पूर्वजों ने कठिन गणनाओं को पाँच या उससे ज़्यादा चरणों में हल करने के बजाय एक ही सरल चरण में हल करने का तरीका खोज लिया था। यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है।
- रचनात्मक सोच को बढ़ावा: वैदिक गणित सिर्फ़ पारंपरिक विधियों तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह समस्या को हल करने के नए और रचनात्मक तरीके सिखाती है। इससे छात्र अपनी सोच और कुछ नया करने की क्षमता को विकसित कर सकते हैं।
- तेज़ और सटीक गणना: इस विधि में ज़्यादातर गणनाएँ मानसिक रूप से की जाती हैं। कम चरण होने की वजह से न केवल गणना तेज़ होती है, बल्कि गलतियों की संभावना भी कम हो जाती है। इससे समय की बचत होती है और सटीक उत्तर मिलते हैं।
- आत्मविश्वास और तार्किक क्षमता को बढ़ावा: जब छात्र खुद तेज़ और सही उत्तर निकालने लगते हैं, तो उनका आत्मविश्वास बढ़ता है। इससे उनकी गणितीय सोचने-समझने की क्षमता और तर्क शक्ति भी विकसित होती है।
- याददाश्त और एकाग्रता में सुधार: वैदिक गणित में ज़्यादातर गणनाएँ दिमाग में की जाती हैं, जिससे हमारा मस्तिष्क अधिक सक्रिय रहता है। लगातार अभ्यास करने से स्मरण शक्ति और ध्यान केंद्रित करने की क्षमता बेहतर होती है।
- बीजगणित से गहरा संबंध: जो छात्र वैदिक गणित के तरीकों को अपनाते हैं, वे बीजगणित की समस्याओं को भी आसानी से हल कर सकते हैं। यह विधि अंकगणित से लेकर उन्नत गणितीय समस्याओं तक में सहायक होती है।
- गणित के हर क्षेत्र में उपयोगी: वैदिक गणित केवल जोड़, घटाव या गुणा-भाग तक सीमित नहीं है। इसका उपयोग ज्यामिति, त्रिकोणमिति, खगोल विज्ञान, कलन (Calculus) और अन्य जटिल गणितीय विषयों में भी किया जाता है।
- आधुनिक गणित में योगदान: यह पद्धति सिर्फ़ पारंपरिक गणनाओं तक सीमित नहीं है। गणितज्ञों और शोधकर्ताओं ने वैदिक गणित की मदद से नई गणितीय तकनीकों का विकास किया है, जिससे गणना को और सरल व रोचक बनाया जा सकता है।
वैदिक गणित न केवल गणनाओं को आसान बनाती है, बल्कि दिमागी कौशल को भी बढ़ाती है। यह छात्रों को तेज़, सटीक और आत्मविश्वास से भरी गणना करने में मदद करती है। यही कारण है कि यह आज भी प्रासंगिक है और आधुनिक गणित में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाए हुए है।
आइए अब जानते हैं कि आधुनिक शिक्षा प्रणाली में वैदिक गणित बहुत बड़ी भूमिका निभा सकती है:
- तेज़ी से गणना करने की क्षमता: वैदिक गणित की तकनीकें गणना की गति को कई गुना बढ़ा देती हैं। जहाँ पारंपरिक तरीके बड़ी संख्याओं की गणना में ज़्यादा समय लेते हैं, वहीं वैदिक सूत्रों की मदद से यह काम कुछ ही सेकंड में हो सकता है। ख़ासतौर पर प्रतियोगी परीक्षाओं में, जहाँ समय प्रबंधन महत्वपूर्ण होता है, यह विधियाँ बेहद उपयोगी साबित होती हैं।
- बेहतर सटीकता और आत्मविश्वास: वैदिक गणित मानसिक गणना पर ज़ोर देती है, जिससे कैलकुलेटर (Calculator) पर निर्भरता कम हो जाती है। नियमित अभ्यास से न केवल गलतियाँ घटती हैं, बल्कि छात्रों का आत्मविश्वास भी बढ़ता है। वे संख्याओं से डरने के बजाय उनसे खेलना सीखते हैं, जिससे गणित उनके लिए एक रोचक विषय बन जाता है।
- दिमागी क्षमता को बढ़ावा: वैदिक गणित केवल एक गणना पद्धति नहीं, बल्कि दिमागी कसरत भी है। यह एकाग्रता, स्मरण शक्ति और समस्या हल करने की क्षमता को मज़बूत करती है। इन तकनीकों के अभ्यास से छात्रों की तार्किक और विश्लेषणात्मक सोच विकसित होती है, जिससे वे अन्य विषयों में भी बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं।
- जटिल गणनाओं को आसान बनाना: पारंपरिक गणितीय विधियाँ कई बार जटिल और समय-साध्य लग सकती हैं, लेकिन वैदिक गणित इन्हें सरल बना देता है। उदाहरण के लिए, 'वर्टिकल और क्रॉसवाइज़' (Vertical and Crosswise) तकनीक से बड़ी संख्याओं का गुणा करना बहुत आसान हो जाता है। इससे वे छात्र भी लाभ उठा सकते हैं, जो गणित को कठिन मानते हैं या पारंपरिक विधियों से संघर्ष करते हैं।
- गणितीय डर को कम करना: कई छात्रों के लिए गणित एक डरावना विषय होता है। जटिल समीकरण और लंबी गणनाएँ बच्चों में तनाव बढ़ा सकती हैं। लेकिन वैदिक गणित की सरल और रोचक तकनीकें इस डर को दूर करने में मदद करती हैं। जब गणित आसान और मज़ेदार लगेगी, तो छात्रों की इसमें रुचि भी बढ़ेगी, और वे इसे ख़ुशी-ख़ुशी सीखेंगे।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Wikimedia
कैसे ऑस्मोसिस से सुनिश्चित है प्रकृति में हरियाली,और हमारे घर में स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति
व्यवहारिक
By Behaviour
08-05-2025 09:18 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ के नागरिकों, ऑस्मोसिस (Osmosis) या परासरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें पानी के छोटे-छोटे कण (अणु) कम सांद्रता वाली जगह से ज़्यादा सांद्रता वाली जगह की ओर एक विशेष झिल्ली (अर्ध-परगम्य झिल्ली) के माध्यम से जाते हैं। यह प्रक्रिया पौधों के लिए बहुत ज़रूरी होती है। पौधों की जड़ें मिट्टी से पानी सोखकर उन्हें बढ़ने और स्वस्थ रहने में मदद करती हैं।
हमारे घरों में भी ऑस्मोसिस का उपयोग होता है। आर ओ (RO) वॉटर प्यूरीफायर इसी प्रक्रिया के जरिए पानी को साफ़ करता है, जिससे हम शुद्ध पानी पी सकें। यानी, चाहे पौधों की बढ़त हो या हमारे पीने के पानी की सफ़ाई, ऑस्मोसिस प्रकृति और मानव जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
आज हम समझेंगे कि परासरण पौधों के लिए क्यों ज़रूरी है और यह पानी व पोषक तत्वों को सोखने में कैसे मदद करता है। फिर, हम सरल भाषा में जानेंगे कि ऑस्मोसिस कैसे काम करता है। इसके बाद, हम रोज़मर्रा की ज़िंदगी में ऑस्मोसिस के कुछ उदाहरण देखेंगे, जिससे इसकी उपयोगिता साफ़ समझ आएगी ।अंत में, हम ऑस्मोसिस और रिवर्स ऑस्मोसिस के बीच का अंतर जानेंगे और यह देखेंगे कि दोनों प्रक्रियाएं कहां-कहां उपयोगी होती हैं।
पौधों में ऑस्मोसिस का महत्व
पौधे मिट्टी से पानी को ऑस्मोसिस के ज़रिए सोखते हैं। इस प्रक्रिया से बड़ी मात्रा में पानी जड़ों द्वारा अवशोषित किया जाता है, जिससे पौधों को आवश्यक नमी मिलती है। कोशिकाओं में पानी और घुले हुए पोषक तत्वों का एक कोशिका से दूसरी कोशिका तक पहुंचना भी ऑस्मोसिस के कारण ही संभव होता है।
पत्तों में मौजूद छोटे-छोटे छिद्र, जिन्हें रंध्र (stomata) कहा जाता है, उनके खुलने और बंद होने की प्रक्रिया ऑस्मोसिस पर निर्भर करती है। यह प्रक्रिया रक्षक कोशिकाओं (guard cells) के टर्गर दबाव (turgor pressure) के कारण होती है। इसके अलावा, ऑस्मोसिस की वजह से कोशिकाओं की टर्गर दबाव बनी रहती है, जिससे पौधों के अंगों का आकार और उनकी संरचना ठीक रहती है।
पौधे जब सूखे या ठंडे मौसम का सामना करते हैं, तो उनका ऑस्मोटिक दबाव (osmotic pressure) बढ़ जाता है, जिससे वे इन परिस्थितियों को सहन करने में सक्षम होते हैं। जब बीज अंकुरित होते हैं, तो कोशिकाओं की टर्गर दबाव ही उन्हें मिट्टी से बाहर निकलने में मदद करती है, जिससे नए पौधों का विकास संभव हो पाता है।
ऑस्मोसिस क्या है?
ऑस्मोसिस एक महत्वपूर्ण जैविक प्रक्रिया है, जिसमें घोलक (जैसे पानी) के अणु कम वाले क्षेत्र से अधिक सांद्रता वाले क्षेत्र की ओर एक अर्ध-परगम्य झिल्ली (semi-permeable membrane) के माध्यम से जाते हैं। यह प्राकृतिक प्रक्रिया कोशिकाओं में संतुलन बनाए रखने में मदद करती है और पौधों, जानवरों और मनुष्यों में कई शारीरिक कार्यों का समर्थन करती है।
ऑस्मोसिस एक निष्क्रिय प्रक्रिया है, यानी इसके लिए किसी ऊर्जा की आवश्यकता नहीं होती। यह तब तक जारी रहती है जब तक झिल्ली के दोनों ओर घुलित पदार्थों (solutes) की सांद्रता बराबर नहीं हो जाती। इस प्रक्रिया में घोलक अणु, जैसे पानी, अर्ध-परगम्य झिल्ली के आर-पार जाकर घोल के सांद्रता को संतुलित करते हैं।
ऑस्मोसिस केवल जीवित प्रणालियों में ही नहीं, बल्कि निर्जीव प्रणालियों में भी स्वाभाविक रूप से होता है। उदाहरण के लिए, पौधे मिट्टी से पानी सोखने के लिए ऑस्मोसिस का उपयोग करते हैं, जिससे वे हाइड्रेटेड रहते हैं और उनकी कोशिकाएं तुरगोर दबाव बनाए रखती हैं ।
रोज़मर्रा की ज़िंदगी में ऑस्मोसिस के कुछ महत्वपूर्ण उदाहरण
ऑस्मोसिस हमारे दैनिक जीवन में कई जगह देखने को मिलता है और यह पौधों और जानवरों की कोशिकाओं के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इसे हम कई जैविक प्रक्रियाओं में देख सकते हैं, जैसे कि पौधों की जड़ों द्वारा पानी का अवशोषण, हमारे गुर्दों (किडनी) का कार्य और शरीर की कोशिकाओं में पानी का संतुलन बनाए रखना।
सबसे आम उदाहरण पौधों की जड़ों द्वारा पानी को सोखने का है। मिट्टी में मौजूद पानी की मात्रा जड़ों की कोशिकाओं की तुलना में अधिक होती है, इसलिए ऑस्मोसिस के कारण पानी मिट्टी से जड़ों में चला जाता है। यह प्रक्रिया पौधों के जीवित रहने के लिए बहुत जरूरी होती है, क्योंकि यह उन्हें प्रकाश-संश्लेषण (फोटोसिंथेसिस) और अन्य जैविक क्रियाओं के लिए आवश्यक पानी प्रदान करती है।
ऑस्मोसिस का एक और महत्वपूर्ण उदाहरण हमारे गुर्दों का कार्य है। किडनी हमारे शरीर से अवशिष्ट पदार्थों (वेस्ट प्रोडक्ट्स) को छानने और पानी का संतुलन बनाए रखने का काम करती है। जब खून को छानकर फिल्ट्रेट (छना हुआ तरल) बनता है, तो उसमें से ज़रूरी पानी को फिर से खून में लौटाया जाता है। यह प्रक्रिया ऑस्मोसिस के कारण होती है, क्योंकि खून में घुले पदार्थों की मात्रा ज़्यादा होती है, जिससे पानी फिल्ट्रेट से खून की ओर खिंच जाता है।
हमारे शरीर की कोशिकाओं में भी ऑस्मोसिस का अहम योगदान होता है। कोशिकाएं एक अर्ध-परगम्य झिल्ली से घिरी होती हैं, जो पानी को अंदर-बाहर जाने देती है। अगर कोशिका के अंदर घुलित पदार्थों की मात्रा ज्यादा होती है, तो पानी बाहर से कोशिका के अंदर आ जाता है ताकि संतुलन बना रहे। यही कारण है कि पानी पीना सेहत के लिए बहुत ज़रूरी है, क्योंकि यह हमारी कोशिकाओं को हाइड्रेट रखता है और निर्जलीकरण (डिहाइड्रेशन) से बचाता है।
ऑस्मोसिस और रिवर्स ऑस्मोसिस में क्या अंतर है?
ऑस्मोसिस और रिवर्स ऑस्मोसिस में मुख्य अंतर इनके काम करने के तरीके और उद्देश्य में होता है।ऑस्मोसिस एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिसमें पानी कम घुलित पदार्थों वाले स्थान से ज्यादा घुलित पदार्थों वाले स्थान की ओर जाता है ताकि संतुलन बना रहे। वहीं, रिवर्स ऑस्मोसिस में इस प्रक्रिया को उलट दिया जाता है। इसमें बाहरी दबाव (एक्सटर्नल प्रेशर) डालकर पानी को अधिक घुलित पदार्थों वाले स्थान से कम घुलित पदार्थों वाले स्थान की ओर भेजा जाता है।
ऑस्मोसिस अपने आप होता है और इसमें किसी ऊर्जा (एनर्जी) की जरूरत नहीं होती, जबकि रिवर्स ऑस्मोसिस के लिए बाहरी मशीनों की मदद से ऊर्जा लगाई जाती है ताकि प्राकृतिक ऑस्मोटिक दबाव को पार किया जा सके। ऑस्मोसिस पौधों और कोशिकाओं में पोषक तत्वों को सोखने जैसी जैविक प्रक्रियाओं में मदद करता है, जबकि रिवर्स ऑस्मोसिस को खासतौर पर पानी को शुद्ध करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह पानी से नमक, भारी धातुओं और हानिकारक जीवाणुओं को हटाकर उसे पीने योग्य बनाता है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में पेड़ और रंध्र का स्रोत : Wikimedia, flickr
इंटरनेट उपयोग के इस चरम दौर में, हम लखनऊ वासी कैसे और क्यों रहें सतर्क ?
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
07-05-2025 09:22 AM
Lucknow-Hindi

बच्चों के बीच इंटरनेट का बढ़ता उपयोग, आज हमारे शहर में भी एक चिंता का विषय बन गया है। जबकि, इंटरनेट हमें शिक्षा और मनोरंजन तक आसान पहुंच प्रदान करता है, इसका अत्यधिक उपयोग बच्चों के लिए हानिकारक साबित हो सकता हैं। कई बच्चे स्क्रीन पर अधिक समय बिताते हैं, जिससे उनका शारीरिक स्वास्थ्य, नींद और अध्ययन की क्षमता, नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है। सोशल मीडिया (Social Media) और ऑनलाइन गेम (Online games) की लत लगने पर, उनके सामाजिक संपर्क सीमित हो सकते हैं और वे अनुचित कंटेंट के संपर्क में आ सकते हैं। साइबर बुलिंग (Cyber Bullying) और गोपनीयता जोखिम जैसे साइबर खतरे भी बढ़ रहे हैं। अतः माता-पिता और शिक्षकों को बच्चों की भलाई और मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए, सुरक्षित और संतुलित इंटरनेट उपयोग पर उनका मार्गदर्शन करने की आवश्यकता है। आज, हम बच्चों के बीच इंटरनेट के बढ़ते उपयोग और इसके प्रभावों पर चर्चा करेंगे। फिर हम डिजिटल मीडिया के उपयोग को सीमित करने के महत्व का पता लगाएंगे। अंत में, हम बच्चों में इंटरनेट की लत को रोकने के लिए प्रभावी सुझावों को देखेंगे।
बच्चों द्वारा इंटरनेट के उपयोग का उदय-
इंटरनेट हमारे जीवन के हर पहलू को जोड़ता है। यह सुविधा और अनंत संयोजकता का एक पर्याय है, लेकिन, इसके साथ कई जोखिम भी जुड़े हुए है। इंटरनेट की दुनिया में, हम एक आभासी वातावरण में रहते हैं। हम दरअसल, यह पता लगाने में भी असक्षम हैं कि, वह सूचना कहां से आ रही है, यह न केवल हमारे जीवन के लिए, बल्कि हमारे बच्चों के लिए भी इसका खतरा बन सकता है। 21 वीं सदी में डिजिटल दुनिया बच्चों की दैनिक गतिविधियों में एक अहम हिस्सा बन गई है। एक अमेरिकी रिपोर्ट के अनुसार, 8 से 28 वर्ष की आयु के किशोर, डिजिटल स्क्रीन के सामने सप्ताह में औसतन 44.5 घंटे खर्च करते हैं। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, 23% बच्चे, वे वीडियो गेम की लत के शिकार हैं। चूंकि, वर्तमान युवा पीढ़ी इंटरनेट पर अधिक से अधिक निर्भर बन रही है, इसलिए उन्हें इंटरनेट के विभिन्न दुर्भावनापूर्ण पक्ष से खतरा है।
•ऑनलाइन गेम:
इंटरनेट और गेमिंग तकनीक की तेज़ी से बढ़ती उन्नति के साथ, इंटरनेट पर हज़ारों ऑनलाइन गेम्स उपलब्ध हैं। सही मार्गदर्शन और पर्यवेक्षण के बिना, ये खेल बच्चों में इनकी लत जैसी जोखिमों को उजागर कर सकते हैं। कई ऑनलाइन गेम्स, अब इन-गेम खरीदारी के विकल्प के साथ आते हैं, जिनमें असली धन का उपयोग किया जाता है। इसके चलते कई बार बच्चे अनजाने में बड़ी राशि खर्च कर देते हैं।। दुनिया भर से ऐसे मामले सामने आए हैं, जहां छोटे बच्चे अपने माता-पिता को सूचित किए बिना भी, ऑनलाइन गेम्स पर पैसे खर्च कर बैठते हैं।
•सोशल मीडिया:
कुछ आंकड़ों के अनुसार, 13-17 वर्ष की उम्र के 90% किशोर सोशल मीडिया पर हैं, और उनमें से 51% किशोर, सोशल मीडिया पर दैनिक रूप से सक्रिय हैं। हाल के दिनों में हमने ऐसे सभी प्लेटफ़ॉर्म पर, हावी होने वाला हिंसक, यौन और घृणित कंटेंट देखा है। ऐसे कंटेंट का युवाओं और खासकर बच्चों के मनोविज्ञान पर एक हानिकारक प्रभाव पड़ता है।
डिजिटल मीडिया के उपयोग को सीमित क्यों करें?
डिजिटल मीडिया के अति प्रयोग से, आपके बच्चों पर निम्नलिखित नकारात्मक प्रभाव पड़ सकते हैं -
•अपर्याप्त नींद:
डिजिटल मीडिया का उपयोग, हमारी नींद में हस्तक्षेप कर सकता है। ऐसे बच्चे और किशोर, जिनकी मीडिया तक अधिक पहुंच हैं, या जिनके पास उनके बेडरूम में टीवी, कंप्यूटर या मोबाइल डिवाइस हैं, अक्सर रात में देर से सोते हैं। इस कारण, उनकी नींद कम होती है।
•मोटापा:
अत्यधिक स्क्रीन उपयोग से मोटापे का खतरा बढ़ सकता है। प्रतिदिन 1.5 घंटे से अधिक समय तक टीवी देखना, 4 से 9 साल की उम्र के बच्चों में मोटापे के लिए एक प्रमुख कारक है।
•सीखने की क्षमता और सामाजिक कौशल में देरी:
जब शिशु या प्राथमिक विद्यार्थी बहुत अधिक टीवी देखते हैं, तो वे ध्यान, सोच, भाषा और सामाजिक कौशल में देरी से विकास दिखा सकते हैं।
•विद्यालय प्रदर्शन पर नकारात्मक प्रभाव:
बच्चे और किशोर अक्सर ही, गृहकार्य करते समय भी मनोरंजन मीडिया का उपयोग करते हैं। इस तरह के बहु-कार्य का नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है, और वे विद्यालय में बुरा प्रदर्शन कर सकते हैं।
•व्यवहार की समस्याएं:
टीवी और स्क्रीन पर दिखाई देने वाला हिंसक कंटेंट, बच्चों के व्यवहार की समस्याओं में योगदान दे सकता है। वे इससे डर सकते हैं और जो वे देखते हैं, उससे भ्रमित हो सकते हैं। या फिर, वे स्क्रीन पर दिखाए गए पात्रों की नकल करने की भी कोशिश करते हैं।
•समस्याग्रस्त इंटरनेट उपयोग:
जो बच्चे ऑनलाइन मीडिया पर बहुत अधिक समय बिताते हैं, वे एक प्रकार के विशेष व्यवहार के लिए जोखिम में हो सकते हैं। इसे ‘समस्याग्रस्त इंटरनेट उपयोग(Problematic internet use)’ कहा जाता है।
बच्चों में इंटरनेट की लत की रोकथाम के लिए, उपयोगी सुझाव क्या हैं?
•स्क्रीन समय सीमा निर्धारित करें:
बच्चों के लिए, ऑनलाइन समय बिताने के लिए एक समय सीमा निर्धारित करें। साथ ही, इंटरनेट की लत की रोकथाम के लिए शैक्षणिक कार्यों, घरेलू कर्तव्यों और अन्य दायित्वों के साथ, स्क्रीन समय के हस्तक्षेप को रोकें।
•बच्चों को उचित व्यवहार सिखाए:
ज़िम्मेदार प्रौद्योगिकी उपयोग के लिए, एक आदर्श व्यक्ति बनें। बच्चे अक्सर वयस्कों के व्यवहार का अनुकरण करते हैं, इसलिए, खुद भी संतुलित स्क्रीन समय की आदतों को प्रदर्शित करें।
•संतुलन एवं मनोरंजन:
शैक्षिक और मनोरंजन स्क्रीन समय के बीच, संतुलन सुनिश्चित किया जाना चाहिए। अपने बच्चों द्वारा उपयोग किए जाने वाले कंटेंट और ऐप्स की गुणवत्ता की निगरानी करें।
•ऑनलाइन जोखिमों के बारे में शिक्षित करें:
अपने बच्चों को व्यक्तिगत जानकारी की सुरक्षा के महत्व और इंटरनेट से जुड़े संभावित जोखिमों के बारे में जागृत करें।
•महत्वपूर्ण सोच को प्रोत्साहित करें:
अपने बच्चों को ऐसी जानकारी का मूल्यांकन करना सिखाएं, जो वे ऑनलाइन देखते हैं। उनके साथ, सूचना की सत्यता और दुष्प्रचार की संभावना पर चर्चा करें।
•सूचित रहें:
सबसे हालिया ऑनलाइन रुझानों और आमतौर पर बच्चों के बीच उपयोग किए जाने वाले अनुप्रयोगों से अप-टू-डेट रहें। यह उनके इंटरनेट प्रयोग पर प्रकाश डालता है, और आपको संदर्भ प्रदान करता है।
संदर्भ
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लखनऊ के बदलते मौसम में अस्थमा से कैसे बचें? आइए जानते हैं, इलाज के बेहतरीन विकल्प
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
06-05-2025 09:22 AM
Lucknow-Hindi

हमारे शहर लखनऊ में, और देश के कई अन्य शहरों की तरह, अस्थमा एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या बनता जा रहा है। इसकी मुख्य वजह बढ़ता प्रदूषण और बदलती जीवनशैली है। अस्थमा एक पुरानी बीमारी है, जो फेफड़ों को प्रभावित करती है और सांस लेने में कठिनाई पैदा करती है। इस बीमारी के आम लक्षणों में सांस फूलना, सीटी जैसी आवाज़ आना, खासकर रात या सुबह के समय खांसी आना और सीने में जकड़न महसूस होना शामिल है।
धूल, धुआं, परागकण और ठंडी हवा जैसे कारक अस्थमा को और बढ़ा सकते हैं। इसे नियंत्रित करने के लिए ज़रूरी है कि हम इनसे बचें, डॉक्टर की दी हुई दवाएं सही समय पर लें और अपनी जीवनशैली को स्वस्थ बनाएं। सही जानकारी होने पर लोग अस्थमा के लक्षणों को जल्दी पहचान सकते हैं और सही समय पर इलाज करवा सकते हैं।
आज हम जानेंगे कि अस्थमा क्या होता है। फिर हम इसके शुरुआती लक्षणों पर चर्चा करेंगे, जिससे इसे जल्दी पहचाना और रोका जा सकता है। इसके बाद, हम समझेंगे कि कब डॉक्टर के पास जाना ज़रूरी है, खासतौर पर उन स्थितियों में जब तुरंत इलाज की ज़रूरत हो। आखिर में, हम जानेंगे कि अस्थमा का इलाज कैसे किया जाता है और इसे कंट्रोल करने के लिए किन दवाओं और आदतों को अपनाना फ़ायदेमंद होता है।
अस्थमा क्या है?
अस्थमा एक पुरानी (लंबे समय तक रहने वाली) फेफड़ों की बीमारी है। यह हमारे सांस की नलियों को प्रभावित करता है, जो फेफड़ों तक हवा पहुंचाने का काम करती हैं। जब किसी को अस्थमा होता है, तो उसकी सांस की नलियां सूज जाती हैं और संकरी हो जाती हैं। इससे सांस लेने में दिक्कत होती है और कभी-कभी सीटी जैसी आवाज़ (Wheezing) आने लगती है। इसके अलावा, खांसी आ सकती है और सीने में जकड़न महसूस हो सकती है। जब ये लक्षण सामान्य से ज्यादा बढ़ जाते हैं, तो इसे अस्थमा अटैक या अस्थमा का तेज़ दौरा कहा जाता है।
अस्थमा के शुरुआती लक्षण
अस्थमा का दौरा पड़ने से पहले कुछ बदलाव महसूस हो सकते हैं। ये संकेत अस्थमा के बड़े लक्षणों से पहले आते हैं और बताते हैं कि समस्या बढ़ रही है। अगर इन शुरुआती लक्षणों को समय पर पहचान लिया जाए, तो अस्थमा के दौरे को रोका या इसकी तीव्रता को कम किया जा सकता है।
अस्थमा के शुरुआती लक्षणों में शामिल हैं:
- बार-बार खांसी आना, खासकर रात में
- जल्दी सांस फूलना या सांस लेने में कठिनाई होना
- व्यायाम करते समय बहुत जल्दी थक जाना या कमज़ोर महसूस करना
- कसरत के बाद घरघराहट जैसी आवाज़ आना या खांसी होना
- हर समय थकान महसूस होना, चिड़चिड़ापन या मूड खराब रहना
- फेफड़ों की कार्यक्षमता में कमी, जिसे पीक फ्लो मीटर (Peak flow meter) से मापा जा सकता है
- सर्दी या एलर्ज़ी (Allergy) के लक्षण जैसे छींक आना, बहती नाक, बंद नाक, खांसी, गले में खराश और सिर दर्द
- ठीक से न सो पाना या सोते समय सांस लेने में परेशानी होना
अगर ये लक्षण दिखें, तो समय पर डॉक्टर से सलाह लेना ज़रूरी है ताकि अस्थमा को बिगड़ने से रोका जा सके।
कब डॉक्टर को दिखाना चाहिए?
अगर अस्थमा का दौरा गंभीर हो जाए, तो यह जानलेवा हो सकता है। इसलिए, डॉक्टर से सलाह लेकर पहले से यह सुनिश्चित करें कि लक्षण बिगड़ने पर क्या कदम उठाने चाहिए और कब आपातकालीन इलाज की ज़रूरत होगी।
अस्थमा की इमरजेंसी के संकेत:
- सांस लेने में अचानक ज़्यादा दिक्कत होना या घरघराहट जैसी आवाज़ आना
- जल्दी राहत देने वाले इनहेलर (Inhaler) का इस्तेमाल करने के बाद भी कोई सुधार न होना
- हल्की शारीरिक गतिविधि करने पर भी सांस फूलना
यदि ये लक्षण दिखाई दें, तो तुरंत डॉक्टर संपर्क करें या आपातकालीन चिकित्सा सहायता लें।
साल्बुटामोल मीटर्ड डोज़ इनहेलर का उपयोग आमतौर पर अस्थमा के हमलों के इलाज के लिए किया जाता है |
अस्थमा का इलाज कैसे किया जाता है?
अस्थमा का इलाज दो तरह की दवाओं से किया जाता है—तुरंत राहत देने वाली दवाएं और लंबे समय तक असर करने वाली दवाएं।
1. तुरंत राहत देने वाली दवाएं (Quick Relief Medicines)
ये दवाएं अस्थमा के दौरे के दौरान तुरंत राहत देने में मदद करती हैं। हल्के अस्थमा या सिर्फ़ शारीरिक गतिविधियों के कारण होने वाली सांस की दिक्कत में ये दवाएं प्रभावी होती हैं।
सामान्य राहत देने वाली दवाएं:
- इन्हेलर में शॉर्ट-एक्टिंग बीटा2-एगोनिस्ट (Inhaled selective short-acting β-2 agonists/SABA): ये दवा सांस की नलियों को खोलकर हवा के प्रवाह को बेहतर बनाती है। इसके कुछ नुक़सान हो सकते हैं जैसे हाथ कांपना और दिल की धड़कन तेज़ होना शामिल हो सकता है।
- ओरल कॉर्टिकोस्टेरॉयड्स (Oral Corticosteroid): ये दवा फेफड़ों की सूजन को कम करती है।
- शॉर्ट-एक्टिंग एंटीकोलिनर्जिक्स (Short-acting anticholinergics): ये दवा भी सांस की नलियों (Airways) को तेज़ी से खोलने में मदद करती है, लेकिन एस ए बी ए (SABAs) की तुलना में इसका असर थोड़ा कम हो सकता है।
2. लंबे समय तक असर करने वाली दवाएं (Long-term control medicines)
अगर आपका अस्थमा बार-बार बिगड़ता है, तो डॉक्टर ऐसी दवाएं लिख सकते हैं जिन्हें रोज़ लेना ज़रूरी होता है।
इन दवाओं में शामिल हैं:
- कॉर्टिकोस्टेरॉइड (Corticosteroid): शरीर में सूजन को कम करने के लिए दी जाने वाली स्टेरॉयड (Steroid) दवाएं।
- बायोलॉजिक मेडिसिन्स (Biological Medicine): ये उन लोगों के लिए होती हैं जिनका अस्थमा सामान्य दवाओं से कंट्रोल नहीं होता।
- ल्यूकोट्रिएन मॉडिफ़ायर्स (Leukotriene modifiers): ये दवा सूजन को कम करके श्वसन मार्ग को खुला रखने में मदद करती है।
- इन्हेल्ड मास्ट सेल स्टेबलाइज़र्स (Inhaled mast cell stabilizers): जब कोई व्यक्ति एलर्ज़ी फैलाने वाले तत्वों या अस्थमा ट्रिगर के संपर्क में आता है, तो यह दवा फेफड़ों की सूजन को रोकने में मदद करती है।
- इन्हेल्ड लॉन्ग-एक्टिंग ब्रोंकोडाइलेटर्स (Inhaled long-acting bronchodilators (LABAs) or long-acting muscarinic antagonists (LAMAs): ये सांस की नलियों को सिकुड़ने से रोकते हैं और इन्हेलर (inhaler) के साथ दिए जा सकते हैं।
- एलर्ज़ी शॉट्स (Allergy Shots): ये दवा शरीर की एलर्ज़ी प्रतिक्रिया को कम करने में मदद करती है।
अस्थमा को कंट्रोल में रखने के लिए सही दवाएं लेना और ट्रिगर से बचना बहुत ज़रूरी है। अगर लक्षण बिगड़ने लगें, तो तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें।
संदर्भ
https://tinyurl.com/k8ndp5f9
https://tinyurl.com/mphk98w6
मुख्य चित्र स्रोत : Pexels
लखनऊ के साहित्य एवं संगीत प्रेमियों के लिए मिसाल है, अमीर ख़ुसरो का जीवन और उनकी रचनाएँ!
मघ्यकाल के पहले : 1000 ईस्वी से 1450 ईस्वी तक
Early Medieval:1000 CE to 1450 CE
05-05-2025 09:18 AM
Lucknow-Hindi

अपनी छवि बनाइ के जो मैं पी के पास गई,
जब छवि देखी पीहू की तो अपनी भूल गई।
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइ के
बात अघम कह दीन्हीं रे मोसे नैना मिलाइ के।
इन पंक्तियों को आपने अनेकों बार सूफ़ी संगीत समारोहों, दरगाहों और दर्जनों फ़िल्मी गानों में सुना होगा! लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस कव्वाली के मूल लेखक अमीर ख़ुसरों थे! लखनऊ की गलियों में गूंजती कव्वाली की धुनें और सुरों की मिठास हमें एक ऐसे दौर की याद दिलाती हैं, जब शब्दों और संगीत ने मिलकर इतिहास रच दिया था। अमीर ख़ुसरो, इसी इतिहास का एक चमकता सितारा थे। उनका नाम केवल साहित्य और संगीत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे एक सांस्कृतिक सेतु की तरह आज भी जीवंत हैं। उन्हें "भारत का तोता" कहा जाता है, और वे दिल्ली सल्तनत के दौर के एक महान कवि, विद्वान और संगीतकार थे। उनकी रचनाओं में फ़ारसी और हिंदवी का अनूठा संगम देखने को मिलता है, जो प्रेम, भक्ति और सांस्कृतिक एकता का संदेश देता है। लेकिन अमीर ख़ुसरो केवल लेखक या संगीतकार नहीं थे। वे एक क्रांतिकारी कलाकार थे, जिन्होंने नई संगीत शैलियों को जन्म दिया और कव्वाली को एक नई पहचान दी। उनकी कविताएँ और संगीत सदियों से हमारी संस्कृति को समृद्ध कर रहे हैं। इसलिए आज के इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे एक साधारण बच्चा, जिसने बचपन में ही अपनी तीक्ष्ण बुद्धिमत्ता से सबको चौंका दिया, आगे चलकर इतिहास का एक अमिट नाम बन गया। सबसे पहले, हम उनके शुरुआती जीवन पर नज़र डालेंगे। फिर देखेंगे कि सूफ़ी संत निज़ामुद्दीन औलिया से उनकी मुलाकात ने उनके विचारों और लेखनी को कैसे नया आयाम दिया। इसके बाद, हम बात करेंगे कि खिलजी और तुग़लक़ सल्तनत के दौर में शाही दरबार में उनकी भूमिका कैसी रही। आख़िर में, हम जानेंगे कि अमीर ख़ुसरो का वह योगदान क्या है, जो सदियों बाद भी हमें जोड़ता है और हमारी सांस्कृतिक जड़ों को और मज़बूत करता है। तो आइए, इस अद्भुत यात्रा की शुरुआत करते हैं!
अमीर ख़ुसरो का बचपन और प्रारंभिक जीवन कैसा था?
1253 में उत्तर प्रदेश के पटियाली (ज़िला कासगंज) में जन्मे अबुल हसन यामिनुद्दीन ख़ुसरो का जीवन शुरू से ही असाधारण था। उनके पिता, अमीर सैफ़ुद्दीन महमूद, सुल्तान शम्सुद्दीन इल्तुतमिश के दरबार में एक सम्मानित अधिकारी थे। उनकी माँ, बीबी दौलतनाज़, भारतीय राजपूत परिवार से थीं। बचपन से ही ख़ुसरो असाधारण प्रतिभा के धनी थे। उनके दो भाई और एक बहन थे, लेकिन उनमें कुछ ख़ास था। छोटी उम्र में ही उन्हें कविता और संगीत में गहरी रुचि हो गई। दुर्भाग्यवश, जब वे केवल नौ साल के थे, तब उनके पिता का निधन हो गया। इसके बाद उनके नाना, नवाब इमादुल मुल्क, ने उनका पालन-पोषण किया। अमीर ख़ुसरो के पिता, अमीर सैफ़ उद-दीन महमूद, तुर्क मूल के थे, जबकि उनकी माँ, बीबी दौलतनाज़, भारतीय थीं। अमीर ख़ुसरो के पिता का जन्म मध्य एशिया के केश गाँव में हुआ था, जो आज उज्बेकिस्तान में है। यह जगह समरकंद के पास स्थित थी। जब चंगेज़ ख़ान ने मध्य एशिया पर हमला किया, तो वहाँ के कई लोग अपनी जान बचाने के लिए पलायन करने लगे। भारत उन लोगों की पसंदीदा जगहों में से एक बन गया। अमीर सैफ़ उद-दीन भी अपने परिवार के साथ उज्बेकिस्तान छोड़कर बल्ख (वर्तमान उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान) आ गए। लेकिन वहाँ भी पूरी तरह सुरक्षित महसूस नहीं हुआ, तो उन्होंने दिल्ली के सुल्तान से शरण मांगी।
दिल्ली के शासक सुल्तान इल्तुतमिश भी तुर्क मूल के थे। उन्होंने शरणार्थियों का न सिर्फ़ स्वागत किया, बल्कि कई लोगों को महत्वपूर्ण पद और जागीरें भी दीं। 1230 में, अमीर सैफ़ उद-दीन को उत्तर प्रदेश के पटियाली में एक जागीर मिली। यहीं पर उनकी शादी बीबी दौलतनाज़ से हुई। बीबी दौलतनाज़ एक प्रतिष्ठित भारतीय परिवार से थीं। उनके पिता रावत अर्ज दिल्ली के नौवें सुल्तान ग़ियास उद-दीन बलबन के सैन्य मंत्री थे। उनका परिवार उत्तर प्रदेश के राजपूत समुदाय से संबंध रखता था। अमीर ख़ुसरो की परवरिश एक ऐसी पृष्ठभूमि में हुई, जहाँ तुर्की और भारतीय संस्कृतियाँ आपस में घुल-मिल गई थीं। यही कारण है कि वे आगे चलकर भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब के सबसे बड़े प्रतीक बने।
ख़ुसरो की शिक्षा और आध्यात्मिक सफर कैसा था?
ख़ुसरो में शिक्षा और ज्ञान के प्रति अद्वितीय प्यास देखने लायक थी! ख़ुसरो का शिक्षा के प्रति झुकाव असाधारण था। उन्होंने साहित्य, कला, खगोल विज्ञान, दर्शन, तर्कशास्त्र, धर्म, रहस्यवाद और इतिहास में गहरी समझ विकसित की। तुर्की, फ़ारसी और अरबी भाषाओं में वे पूरी तरह दक्ष हो गए। दिल्ली के विविध सांस्कृतिक माहौल में उन्होंने भारतीय भाषाओं में भी निपुणता हासिल कर ली। लेकिन उनका सफ़र केवल किताबों तक सीमित नहीं था। 1310 में ख़ुसरो की ज़िंदगी में एक बड़ा मोड़ आया। उन्होंने प्रसिद्ध सूफ़ी संत निज़ामुद्दीन औलिया को अपना गुरु बना लिया। यह रिश्ता केवल गुरु-शिष्य का नहीं था, बल्कि आत्मा तक जुड़ा हुआ एक गहरा आध्यात्मिक संबंध था। सूफ़ी विचारधारा ने उनकी सोच और रचनाओं को नया रूप दिया। उनकी कविता और संगीत में एक अनोखा आध्यात्मिक प्रवाह दिखने लगा। 1325 में जब निज़ामुद्दीन औलिया का निधन हुआ, तो ख़ुसरो यह आघात सह नहीं सके। अपने प्रिय गुरु को खोने के कुछ ही समय बाद वे भी इस दुनिया से विदा हो गए।
तुग़लक़ वंश और अमीर ख़ुसरो: इतिहास का एक अनोखा संगम:-
जब भी तुग़लक़ वंश का ज़िक्र होता है, अमीर ख़ुसरो का नाम स्वाभाविक रूप से उभर आता है। उनकी मौजूदगी ने न सिर्फ़ इस दौर की सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध किया, बल्कि सुल्तान मुहम्मद बिन तुग़लक़ के शासन में भी उनकी भूमिका बेहद अहम रही। अमीर ख़ुसरो तुग़लक़ दरबार के प्रमुख सदस्य थे और उन्होंने शाही प्रशासन में कई महत्वपूर्ण पद संभाले। उनकी कलम से लिखा गया "तुग़लक़नामा" उस समय की राजनीतिक और सामाजिक हलचलों को दर्शाने वाला एक अमूल्य ऐतिहासिक दस्तावेज़ माना जाता है। इसमें सुल्तान मुहम्मद बिन तुग़लक़ के शासन की घटनाओं का विस्तार से वर्णन मिलता है, साथ ही यह तत्कालीन समाज की झलक भी पेश करता है। सुल्तान मुहम्मद बिन तुग़लक़ खुद कला और साहित्य के संरक्षक माने जाते थे। उन्होंने अमीर ख़ुसरो की प्रतिभा को पहचाना और उन्हें अपना पूरा समर्थन दिया। इस सहयोग ने तुग़लक़ काल की सांस्कृतिक विरासत को और भी समृद्ध बना दिया।
ख़िलजी वंश और अमीर ख़ुसरो: कला और काव्य का स्वर्ण युग:-
ख़िलजी वंश के दौर में, अमीर ख़ुसरो का योगदान एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की तरह था। वे न केवल एक प्रमुख दरबारी थे, बल्कि शासकों के विश्वासपात्र भी थे। अलाउद्दीन ख़िलजी के शासनकाल में, अमीर ख़ुसरो ने कवि और सलाहकार के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अलाउद्दीन, जो कला और साहित्य के प्रति गहरी रुचि रखते थे, उन्होंने ख़ुसरो की रचनाओं को न केवल सराहा, बल्कि उन्हें भरपूर संरक्षण भी दिया। इसी काल में अमीर ख़ुसरो ने "ख़ज़ाइन-उल-फुतूह" (विजय का ख़ज़ाना) की रचना की। यह ग्रंथ अलाउद्दीन ख़िलजी के सैन्य अभियानों और विजय गाथाओं का एक ऐतिहासिक विवरण है। लेकिन उनका योगदान सिर्फ़ इतिहास लेखन तक सीमित नहीं था। अमीर ख़ुसरो ने संगीत की दुनिया में भी एक नया अध्याय लिखा। उन्होंने फ़ारसी और भारतीय संगीत के अद्भुत मेल से कव्वाली को एक नई पहचान दी। आगे चलकर, यही कव्वाली भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ी संगीत की पहचान बन गई।
आइए अब आपको अमीर ख़ुसरों की एक ऐसी अमर कृति से रूबरू कराते हैं, जिसकी रचना अमीर ख़ुसरों ने अपने गुरु हजरत निजामुद्दीन औलिया को प्रसन्न करने के लिए की थी। कहा जाता है कि जब निजामुद्दीन औलिया अपने भांजे की मृत्यु से दुखी थे, तो अमीर ख़ुसरों ने उनकी मुस्कान लौटाने के लिए बसंत के पीले फूल लेकर दरगाह पर नृत्य किया, जिससे उनके गुरु के चेहरे पर मुस्कान लौट आई। तभी से यह रस्म परंपरा के रूप में चिश्तिया दरगाहों में प्रेम और भक्ति का प्रतीक बन गई। आज भी यह रस्म अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती और दिल्ली में हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह सहित कई सूफी स्थलों पर मनाई जाती है। जब कव्वाल अमीर खुसरो के कलाम गाते हैं, तो यह सदियों पुरानी परंपरा सजीव हो उठती है।
ख़ुसरों द्वारा अपने गुरु हजरत निजामुद्दीन औलिया को प्रसन्न करने के लिए रचा गया गीत निम्नवत दिया गया है:
आज बसंत मना ले सुहागन
आज बसंत मना ले ...
अंजन–मंजन कर पिया मोरी
लंबे नेहर लगाए
तू क्या सोवे नींद की माटी
सो जागे तेरे भाग सुहागन
आज बसंत मना ले...
ऊंची नार के ऊंचे चितवन
ऐसो दियो है बनाय
शाहे अमीर तोहे देखन को
नैनों से नैना मिलाय
आज बसंत मना ले…
संदर्भ
https://tinyurl.com/26tflwab
https://shorturl.at/SySnA
https://tinyurl.com/24dm9ejb
https://tinyurl.com/23u93w69
https://tinyurl.com/22ekedl8
मुख्य चित्र में अमीर खुसरो अपने शिष्यों को शिक्षा देते हुए और लखनऊ के बड़ा इमामबाड़ा परिसर के दृश्य का स्रोत : Wikimedia, प्रारंग चित्र संग्रह
आज हम लखनऊ वासी गोता लगाएंगे, रबींद्रनाथ टैगोर के जीवन तथ्यों के चलचित्रों में
ध्वनि 2- भाषायें
Sound II - Languages
04-05-2025 09:04 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ के नागरिकों, हम सभी जानते हैं कि, रबींद्रनाथ टैगोर भारत के महानतम कवियों, लेखकों और विचारकों में से एक थे। वर्ष 1913 में, अपने प्रसिद्ध कार्य – ‘गीतांजलि’ के लिए साहित्य में नोबेल पुरस्कार(Nobel Prize) जीतने वाले, वे पहले एशियाई व्यक्ति थे। टैगोर के लेखन, गीत और विचारों ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और सांस्कृतिक पहचान को गहराई से प्रभावित किया है। हमारे देश भारत के राष्ट्रगान – “जन गण मन” सहित, उनकी अन्य रचनाओं को आज भी याद किया जाता है।
रबींद्रनाथ टैगोर, विभिन्न प्रतिभाओं में संपन्न थे। उन्हें अपने साहित्यिक कार्यों – कविता, दर्शन, नाटकों और विशेष रूप से, गीत लेखन के लिए दुनिया भर में जाना जाता है। रबींद्रनाथ टैगोर वह व्यक्ति थे, जिन्होंने हमारे भारत देश को राष्ट्रगान भी दिया है। वे हमारे समय के सबसे बड़े महापुरुषों में से एक थे, और नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले एकमात्र भारतीय भी है।
रबींद्रनाथ टैगोर को 1913 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, जो यह सम्मान प्राप्त करने वाले पहले गैर-यूरोपीय भी थे। क्या आप जानते हैं कि, वे केवल सोलह वर्ष के थे, जब उनकी अपनी पहली लघु कहानी – “भानुसिंह” प्रकाशित की गई थी। उनका जन्म 07 मई, 1861 को कोलकाता में हुआ था। टैगोर, ब्रह्म समाज के सक्रिय सदस्यों में से एक थे, एवं देबेंद्रनाथ टैगोर के पुत्र थे। हालांकि, इस महान व्यक्ति ने 7 अगस्त 1941 को एक लंबी बीमारी के चलते अपनी अंतिम सांस ली।
आज रविवार के दिन, हम कुछ चलचित्रों के माध्यम से रबींद्रनाथ टैगोर के बारे में अधिक रोचक तथ्य जानने की कोशिश करेंगे। हम उनके शुरुआती जीवन के बारे में जानकारी बताते हुए लेख की शुरूआत करेंगे। फिर अंत में, हम साहित्य में उनके योगदान के बारे में पढ़ेंगे।
रबीन्द्रनाथ टैगोर के जीवन परिचय के बारे में जानने के लिए ऊपर दिए गए चलचित्र की मदद ले सकते हैं।
उनके जीवन, नोबेल पुरस्कार तथा अन्य कार्यों को बेहतर समझने के लिए नीचे दिए गए चलचित्र आपकी मदद करेंगे।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/yc29vm89
https://tinyurl.com/ys8hefa2
https://tinyurl.com/48cv4kdc
https://tinyurl.com/mvt36fhk
लखनऊ के अवध पंच से लेकर आधुनिक अख़बारों तक, पत्रकारिता का बदलता चेहरा!
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
03-05-2025 09:11 AM
Lucknow-Hindi

हमारा शहर लखनऊ सिर्फ़ एक शहर नहीं है, तहज़ीब और इल्म की जीती-जागती मिसाल है। यहाँ की गलियों में इत्र की ख़ुशबू बसी है, और अख़बारों की सुर्खियाँ भी सुबह-सुबह लोगों की ज़िंदगी का अहम हिस्सा बन जाती हैं। यहाँ घटने वाली एक छोटी से छोटी घटना भी ख़बर में तब्दील हो जाती है! अब्दुल मियां सुबह की पहली चाय के साथ ही अख़बार की सारी ताज़ा ख़बरों को टटोल लेते हैं! अख़बार पढ़ने के बाद वे गली के सबसे ‘ख़बरदार’ आदमी लगने लगते हैं, जो हर बड़ी-छोटी ख़बर से वाक़िफ़ रहते हैं। इससे पता चलता है कि प्रेस महज़ ख़बरों का ज़रिया नहीं, बल्कि समाज को जागरूक करने और बदलाव लाने का हथियार है। अख़बार, टी वी और डिज़िटल मीडिया (Digital Media) ही वो कड़ी हैं, जो आम आदमी को राजनीति से लेकर गली-मोहल्ले की हलचल तक, हर अहम मुद्दे से जोड़े रखते हैं। एक स्वतंत्र और ज़िम्मेदार प्रेस न केवल जनता की आवाज़ बनती है, बल्कि सरकार को जवाबदेह ठहराकर शासन में पारदर्शिता भी लाती है।
लखनऊ की पत्रकारिता का इतिहास भी कम रोशन नहीं है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान यहाँ के पत्रकारों ने अपनी कलम को हथियार बना लिया था। ‘अवध पंच’ जैसे अख़बारों ने अपने तीखे व्यंग्य और बेख़ौफ़ लेखनी से ब्रिटिश हुकूमत की नींद उड़ा दी थी। आज भी लखनऊ की पत्रकारिता सामाजिक मुद्दों को उठाकर नागरिकों को जागरूक करती है और उन्हें सही फ़ैसले लेने की ताकत देती है। लोकतंत्र में प्रेस को यूँ ही "चौथा स्तंभ" नहीं कहा जाता। यह सरकार और जनता के बीच संतुलन बनाए रखने वाला अहम माध्यम है। इसकी मौज़ूदगी एक स्वस्थ, निष्पक्ष और मज़बूत समाज के लिए बेहद ज़रूरी है।
इसलिए आज के इस लेख में हम भारत में प्रेस के इतिहास को समझेंगे! इसके तहत हम देखेंगे कि समय के साथ इसका विकास कैसे हुआ। फ़िर, हम औपनिवेशिक शासन के दौर में प्रेस के योगदान पर नज़र डालेंगे और जानेंगे कि कैसे इसने स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक जागरूकता में अहम भूमिका निभाई। अंत में, हम देखेंगे कि आधुनिक दौर में पत्रकारिता का समाज, लोकतंत्र और शासन पर क्या प्रभाव पड़ता है।
भारतीय पत्रकारिता की शुरुआत कब हुई थी?
भारत में पत्रकारिता की नींव 18वीं सदी में रखी गई थी। 1780 में जेम्स ऑगस्टस हिकी (James Augustus Hickey) ने देश का पहला समाचार पत्र 'बंगाल गजट' (Bengal Gazette) प्रकाशित किया। यह अख़बार अंग्रेज़ी में था और इसकी केवल 400 प्रतियाँ ही छपती थीं। हालाँकि इसे पढ़ने वाले बहुत कम लोग थे, लेकिन इसने भारतीय प्रेस के लिए नई राह खोल दी।
शुरुआती दौर में ज़्यादातर समाचार पत्रों का संचालन ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के हाथ में था। ये अख़बार मुख्यतः अंग्रेज़ शासकों के समर्थन में प्रकाशन करते थे, जिसमें आम भारतीयों की समस्याओं के लिए कोई जगह नहीं थी। लेकिन जैसे-जैसे राष्ट्रवादी आंदोलन तेज़ हुआ, वैसे-वैसे भारतीय पत्रकारों ने ब्रिटिश प्रभुत्व को चुनौती देनी शुरू कर दी। उन्होंने ऐसे समाचार पत्र निकाले, जो भारतीय जनता की आवाज़ बनने लगे।
1857 का स्वतंत्रता संग्राम भारतीय पत्रकारिता के लिए एक बड़ा बदलाव लेकर आया। उस समय तक मीडिया पर अंग्रेज़ों का पूर्ण नियंत्रण था, लेकिन विद्रोह के बाद भारतीयों द्वारा संचालित अख़बारों की संख्या बढ़ने लगी।
इन अख़बारों ने अंग्रेज़ों के अत्याचारों को उज़ागर किया और जनता को उनके ख़िलाफ़ जागरूक किया। पत्रकारों ने विद्रोह की ख़बरें और ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियाँ लोगों तक पहुँचाईं, जिससे विरोध की भावना और अधिक भड़क उठी। इस दौर में प्रेस, स्वतंत्रता संग्राम का एक मज़बूत हथियार बन गया।
20वीं सदी में भारत में राष्ट्रवादी पत्रकारिता ने तेज़ रफ़्तार पकड़ी। इस दौर में 'द हिंदू (The Hindu)', 'द इंडियन एक्सप्रेस (The Indian Express)' और 'अमृत बाज़ार पत्रिका' जैसे अख़बारों ने ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई।
इन समाचार पत्रों ने भारतीयों की समस्याओं, संघर्षों और आकांक्षाओं को प्रमुखता से प्रकाशित किया। उन्होंने जनता को स्वतंत्रता संग्राम के लिए जागरूक किया और समर्थन जुटाने में अहम भूमिका निभाई।
20वीं सदी के मध्य में पत्रकारिता के माध्यमों में बड़ा बदलाव आया। 1936 में ऑल इंडिया रेडियो (All India Radio) की स्थापना हुई, जिसने समाचार और सूचनाओं को देशभर में पहुँचाने का काम किया। रेडियो की वजह से ख़बरें तेज़ी से लोगों तक पहुँचने लगीं। 1950 के दशक में भारत में टेलीविज़न (Television) आया, जिसने पत्रकारिता का दायरा और भी बढ़ा दिया। दृश्य और ध्वनि के माध्यम से ख़बरें दिखाने का यह तरीक़ा जनता तक सूचना पहुँचाने में बेहद प्रभावी साबित हुआ।
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन (1870-1918) के दौर में भारतीय प्रेस ने स्वतंत्रता संग्राम को गति देने में अहम भूमिका निभाई। उस समय भारतीय मीडिया का मुख्य उद्देश्य जनता में राष्ट्रवाद की भावना जागृत करना था। प्रेस ने न केवल सरकार की राजनीतिक नीतियों पर चर्चा की, बल्कि निरक्षरता के खिलाफ़ जागरूकता फ़ैलाने, जन आंदोलनों को प्रेरित करने और सरकार के खिलाफ़ खुली बहस का मंच भी तैयार किया।
- ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में प्रभाव: उस समय अख़बारों का प्रभाव केवल शहरों तक सीमित नहीं था। वे दूर-दराज के गाँवों तक भी पहुँचते थे। कई गाँवों में स्थानीय पुस्तकालय अख़बारों के संपादकीय पृष्ठों पर खुली चर्चा और बहस के केंद्र बन गए थे। प्रेस ने समाज के विभिन्न वर्गों को जोड़ने और एकजुट करने का काम किया।
- औपनिवेशिक नीतियों का विरोध: प्रेस ने ब्रिटिश शासन की नीतियों और अन्यायपूर्ण कानूनों को उज़ागर किया। अख़बार सरकार की ग़लत नीतियों की आलोचना करने वाले प्रमुख मंच बन गए थे। उन्होंने जनता को शोषण के प्रति जागरूक किया और विरोध के लिए प्रेरित किया।
- स्वतंत्रता संग्राम में योगदान: प्रेस ने स्वतंत्रता आंदोलन को गति देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लोकमान्य तिलक के अख़बार केसरी ने ब्रिटिश नीतियों का खुलकर विरोध किया। बिपिन चंद्र पाल के न्यू इंडिया (New India) और लाला लाजपत राय के वंदे मातरम जैसे अख़बारों ने लोगों में जोश और जागरूकता भरी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी अपने निर्णय और कार्यवाहियों को जनता तक पहुँचाने के लिए प्रेस का सहारा लिया।
- जनमत तैयार करने में भूमिका: प्रेस ने लोगों को संगठित किया और उनके विचारों को एक स्वर में व्यक्त करने का मंच दिया। उसने अंग्रेज़ों की दमनकारी नीतियों की पोल खोली और उनके खिलाफ़ जनमत तैयार किया। इसके परिणामस्वरूप, देशभर में स्वतंत्रता संग्राम की लहर तेज़ हो गई।
इस प्रकार, औपनिवेशिक शासन के दौरान भारतीय प्रेस ने केवल सूचनाओं का प्रसार ही नहीं किया, बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन को दिशा देने और जनचेतना को जागृत करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
आइए अब जानते हैं कि आधुनिक समय में भारत में पत्रकारिता क्या भूमिका निभा रही है?
पत्रकारिता का मक़सद लोगों तक सही, सटीक़ और निष्पक्ष जानकारी पहुँचाना, उन्हें जागरूक रखना और शिक्षित करना है। आज के समय में, जब राजनीति, सत्ता और भ्रष्टाचार के खेल में हिंसा और नफ़रत बढ़ रही है, तब पत्रकारिता "बेज़ुबानों की आवाज़" बनकर उभर रही है। मीडिया सच को सामने लाकर जनता को हकीकत से रूबरू कराता है, जिससे लोग सही-गलत का फ़र्क़ समझ पाते हैं। पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण काम लोगों के नज़रिए को आकार देना भी है। यह समाज में रोज़ हो रही घटनाओं और मुद्दों पर जागरूकता फ़ैलाता है। चाहे सड़क हादसे की ख़बर हो या सरकार की नई नीति – मीडिया लोगों को हर महत्वपूर्ण जानकारी से जोड़ता है।
भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में पत्रकारिता का योगदान अहम है। यह राष्ट्रीय एकता को मज़बूत करती है। अन्याय और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती है। समाज में बदलाव लाने में सहायक होती है। मीडिया भ्रष्टाचार को उज़ागर कर समाज में जवाबदेही तय करने में मदद करता है। पत्रकारिता की ख़ासियत यह है कि यह जटिल और तकनीकी जानकारियों को आम लोगों की भाषा में पेश करती है। उदाहरण के लिए, जब सरकार बजट पेश करती है, तो उसमें कई जटिल आँकड़े और तकनीकी शब्द होते हैं, जिन्हें आम जनता आसानी से नहीं समझ पाती। ऐसे में पत्रकारों की ज़िम्मेदारी होती है कि वे विशेषज्ञों से बातचीत करके बजट के फ़ायदे-नुकसान को सरल भाषा में समझाएँ। पत्रकारिता केवल ख़बरें दिखाने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जनता की आवाज़ को सत्ता तक पहुँचाने का काम भी करती है। सही मायनों में, पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है, जो समाज को जागरूक, ज़िम्मेदार और सशक्त बनाता है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में लखनऊ से प्रकाशित उर्दू व्यंग्य साप्ताहिक 'अवध पंच', 1878 और मोबाइल चलाते व्यक्ति का स्रोत : Wikimedia. Pexels
लखनऊ के कृष्ण मंदिरों में गूंजने वाले सूर के पदों में छिपे हैं, गहरे संदेश!
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
02-05-2025 09:20 AM
Lucknow-Hindi

मैया मोहि मैं नहीं माखन खायो।
भोर भयो गैयन के पाछे, मधुबन मोहि पठायो।
अर्थ: इस दोहे में बालकृष्ण अपनी माता यशोदा से कहते हैं कि उन्होंने माखन नहीं खाया है। सुबह होते ही उन्हें गायों के पीछे मधुबन भेज दिया गया था। यह दोहा उनकी बाल लीलाओं और मासूमियत को दर्शाता है। लखनऊ के गोमती नगर, यूसुफ़नगर और अशोक नगर में स्थित भगवान श्री कृष्ण को समर्पित मंदिरों में आपने श्री कृष्ण को समर्पित भजनों को अवश्य सुना होगा। ये मंदिर पूरे दिन संत कवि सूरदास के मधुर भजनों से गुंजायमान रहते हैं, जिनकी धुन से पूरा वातावरण भक्तिमय हो उठता है। संत सूरदास, भक्ति मार्ग के महान संतों में से एक थे! उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से भगवान कृष्ण की लीलाओं, उनके दिव्य प्रेम और आध्यात्मिक शिक्षाओं को अमर बना दिया। हालांकि वह जन्म से ही नेत्रहीन थे, लेकिन उनके हृदय में ईश्वर का ऐसा दिव्य दर्शन समाहित था, जो आज भी करोड़ों भक्तों के लिए प्रेरणा बना हुआ है। सूरदास ने अपना पूरा जीवन श्री कृष्ण की स्तुति में समर्पित कर दिया। उनकी रचनाएँ, विशेष रूप से सूर सागर, में श्री कृष्ण के बाल लीलाओं, रासलीला और उपदेशों का भावपूर्ण चित्रण मिलता है। इन रचनाओं में भक्तों के हृदय में प्रेम और श्रद्धा का संचार करने की अद्भुत शक्ति है।
सूरदास का दर्शन हमें सिखाता है कि सच्ची दृष्टि, आँखों से नहीं बल्कि विश्वास और प्रेम से भरे हृदय से देखी जाती है। उनकी शिक्षाएँ आज भी लोगों को भक्ति, विनम्रता और ईश्वर के प्रति निश्छल प्रेम का मार्ग दिखाती हैं। उनके भजन न सिर्फ़ भक्तों के मन को शांति देते हैं, बल्कि जीवन के गहरे आध्यात्मिक सत्य को भी उजागर करते हैं। इसलिए आज उनकी जयंती के अवसर पर हम इस लेख में उनके जीवन, उनके काव्य दर्शन और भक्ति आंदोलन में उनके अद्वितीय योगदान को समझने का प्रयास करेंगे। साथ ही, हम उनकी रचनाओं में छिपे गहरे आध्यात्मिक संदेशों को भी जानेंगे! ये संदेश न सिर्फ़ भक्तों बल्कि विद्वानों को भी प्रेरित करते हैं।
संत सूरदास सोलहवीं शताब्दी के महान भक्ति कवि थे। उनका जन्म उत्तर भारत के ब्रज क्षेत्र में हुआ, जहाँ भगवान कृष्ण ने अपना बचपन बिताया था। सूरदास जन्म से ही नेत्रहीन थे, लेकिन उनकी आत्मिक दृष्टि अत्यंत दिव्य थी। बचपन में ही उन्होंने संगीत सीखना शुरू कर दिया था। उनकी मधुर आवाज़ और कृष्ण भक्ति ने उन्हें शीघ्र ही प्रसिद्ध कर दिया। सूरदास मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के प्रमुख संतों में से एक थे। उनके गुरु महाप्रभु वल्लभाचार्य ने उन्हें कृष्ण भक्ति का मार्ग अपनाने की प्रेरणा दी। सूरदास ने ब्रज भाषा में भगवान कृष्ण के प्रति समर्पित भक्ति काव्य की रचना की। उनकी कविताएँ सरल, मधुर और हृदय को छू लेने वाली थीं। वे अपनी रचनाओं को संगीतमय रागों में गाकर प्रस्तुत करते थे, जिससे वे भक्तों के बीच और भी लोकप्रिय हो गए।
सूरदास की भक्ति इतनी गहरी थी कि इसे परा-भक्ति कहा गया, अर्थात ऐसी भक्ति, जिसमें भक्त और भगवान के बीच कोई दूरी नहीं रहती। हालाँकि वे नेत्रहीन थे, फिर भी उनकी कविताओं में भगवान कृष्ण के बचपन और बाल लीलाओं का सजीव चित्रण मिलता है। उनकी रचनाओं में वृंदावन की गोपियों और कृष्ण की प्रेममयी छवियाँ अत्यंत भावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत की गई हैं।
सूरदास के भजन आज भी भक्तों द्वारा बड़े प्रेम और श्रद्धा से गाए जाते हैं। उनकी रचनाएँ न केवल भगवान के प्रति प्रेम का अनुभव कराती हैं, बल्कि मानवीय संवेदनाओं को भी स्पर्श करती हैं। उनका काव्य, भक्ति रस में डूबी हुई अमर धरोहर है, जो लोगों को ईश्वर के प्रति प्रेम और आस्था से भर देती है। सूरदास उस भक्ति आंदोलन के प्रकाश स्तंभ माने जाते हैं, जो 800 से 1700 ईस्वी के बीच भारत में फ़ला-फ़ूला। इस आंदोलन का लक्ष्य कृष्ण, विष्णु या शिव जैसे ईश्वर के प्रति प्रेम और पूर्ण समर्पण का प्रचार करना था। सूरदास की रचनाएँ न केवल हिंदू समाज में पूजनीय बनीं, बल्कि सिखों की पवित्र पुस्तक गुरु ग्रंथ साहिब में भी स्थान पाकर उनकी सार्वभौमिक स्वीकार्यता को सिद्ध करती हैं।
सूरदास भले ही नेत्रहीन थे, लेकिन उनकी आंतरिक दृष्टि दिव्य थी। उनकी कविताओं में भौतिकता से परे की आध्यात्मिक झलक मिलती है। उनके शब्दों में वह दिव्यता समाई थी, जिसे सामान्य आँखें नहीं देख सकतीं। सूरदास के लिए कृष्ण केवल एक देवता नहीं, बल्कि प्रेम और करुणा के अवतार थे। उनकी रचनाओं में बाल कृष्ण की चंचलता, मासूमियत और निश्छल प्रेम जीवंत हो उठता है। सूरदास के काव्य में कृष्ण का मानवीय पक्ष प्रमुखता से उभरता है, जिससे भक्त उनसे और अधिक जुड़ाव महसूस करते हैं। सूरदास हमें सिखाते हैं कि सच्ची दृष्टि आँखों की मोहताज़ नहीं होती। यह तो आत्मा की वह अनुभूति है, जो हर कण में ईश्वर का दर्शन करती है। उनकी रचनाएँ हमें भीतर झाँककर देखने और दिव्यता को महसूस करने की प्रेरणा देती हैं।
सूरदास का दर्शन यही सिखाता है कि भक्ति वह पावन सेतु है, जो मानव को ईश्वर से जोड़ती है, सीमाओं को लांघकर दिव्यता तक पहुँचाती है। उनकी कविताओं में प्रेम, करुणा और समर्पण की शक्ति झलकती है। उनकी रचनाएँ आज भी भक्तों को ईश्वर के प्रति प्रेम और आस्था का मार्ग दिखाती हैं।
आइए अब भारतीय संस्कृति में सूरदास के योगदान को समझने की कोशिश करते हैं:
- सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण: सूरदास की रचनाओं ने भारतीय सांस्कृतिक विरासत को संजोकर रखने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने अपनी कविताओं के ज़रिए हिंदू पौराणिक कथाओं और परंपराओं को जीवंत बनाए रखा। ख़ासतौर पर, उनके छंदों ने भगवान कृष्ण की बाल लीलाओं, रासलीला और शिक्षाओं को अमर कर दिया। उनकी कविताओं ने इन कहानियों को जन-जन तक पहुँचाया, जिससे वे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती रहीं।
- भक्ति आंदोलन को बढ़ावा: सूरदास ने भक्ति को ईश्वर से जुड़ने का साधन माना और इसे लोकप्रिय बनाया। उनकी रचनाओं में ईश्वर के प्रति प्रेम और समर्पण की झलक मिलती है। उनके भावपूर्ण पदों ने अनगिनत लोगों को आध्यात्मिक मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। उन्होंने ईश्वर के साथ एक व्यक्तिगत और आत्मीय संबंध स्थापित करने का संदेश दिया, जिससे लाखों भक्त उनके भजन गाकर भावविभोर हो जाते हैं।
- सामाजिक और धार्मिक प्रभाव: सूरदास की कविताएँ सिर्फ़ आध्यात्मिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव का भी ज़रिया बनीं। उनकी रचनाओं ने जाति, धर्म और सामाजिक स्थिति की दीवारों को तोड़ने का काम किया। सूरदास ने भक्ति में समानता और सार्वभौमिकता पर ज़ोर दिया। उनकी कविताएँ दर्शाती हैं कि चाहे अमीर हो या ग़रीब, उच्च जाति का हो या निम्न जाति का व्यक्ति - ईश्वर के लिए सभी समान हैं। इस विचारधारा ने समाज में एकता और सद्भाव को बढ़ावा दिया।
- संगीत और कला पर गहरा प्रभाव: सूरदास का योगदान केवल साहित्य तक सीमित नहीं रहा, बल्कि संगीत और कला पर भी उन्होंने गहरी छाप छोड़ी। उनके भजन और पद शास्त्रीय संगीत का अभिन्न हिस्सा बन गए। उनकी रचनाएँ विभिन्न रागों में गाई जाती हैं, जो श्रोताओं को भावविभोर कर देती हैं। आज भी संगीतकार उनकी रचनाओं को संजोकर प्रस्तुत करते हैं। उनकी कविताएँ मंचीय प्रस्तुतियों और नृत्य नाटिकाओं का भी महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
- साहित्यिक योगदान और ब्रज भाषा का उत्थान: सूरदास की रचनाएँ हिंदी साहित्य की धरोहर हैं। उनके काव्य ने न केवल हिंदी साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि ब्रज भाषा को भी एक साहित्यिक पहचान दिलाई। सूरदास की लोकप्रियता ने ब्रज भाषा को साहित्यिक मंच पर स्थापित किया। उनके पदों ने भाव, भाषा और शैली के नए मानक गढ़े, जिससे आने वाली पीढ़ियों के कवियों को प्रेरणा मिली।
आइए अब हम सूरदास की शिक्षाओं और जीवन के लिए प्रेरक संदेशों को समझने की कोशिश करते हैं:
- कृष्ण भक्ति: सूरदास की रचनाओं का मूल आधार ही श्री कृष्ण की भक्ति है। उन्होंने श्रीकृष्ण को सर्वोच्च ईश्वर मानकर उनकी सगुण भक्ति की। उनकी कविताएँ विशेष रूप से कृष्ण के बाल-लीला और राधा-कृष्ण के दिव्य प्रेम को दर्शाती हैं। सूरदास हमें यह सिखाते हैं कि ईश्वर के प्रति अटूट प्रेम और समर्पण ही सच्ची भक्ति है।
- भक्ति: सूरदास ने समाज में फ़ैले कर्मकांड और जाति-व्यवस्था का विरोध किया। उन्होंने सिखाया कि ईश्वर को पाने के लिए किसी विशेष जाति या पंथ का होना ज़रूरी नहीं है। उनके अनुसार, मन की पवित्रता और सच्चा प्रेम ही ईश्वर प्राप्ति का मार्ग है, न कि दिखावटी पूजा-पाठ।
- दिव्य प्रेम और भावनाएँ: सूरदास की कविताएँ ईश्वर के प्रति गहरे प्रेम और आत्मीय भावनाओं से भरी हुई हैं। उन्होंने राधा और गोपियों के प्रेम को भक्ति का सर्वोच्च रूप बताया। उनकी रचनाओं में प्रेम केवल एक सांसारिक भावना नहीं, बल्कि ईश्वर तक पहुँचने का साधन बन जाता है।
- सरलता और समर्पण की शक्ति: सूरदास ने यह संदेश दिया कि ईश्वर उन्हीं भक्तों को अधिक प्रेम करते हैं, जिनका हृदय सरल, निष्कपट और निर्मल होता है। उन्होंने राजा-महाराजाओं या विद्वानों की बज़ाय, सीधे-सादे, सच्चे भक्तों को ईश्वर का प्रिय बताया। उनका दर्शन मुख्य रूप से पुष्टिमार्ग पर आधारित था, जिसमें ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण को सर्वोपरि माना गया है।
सूरदास की शिक्षाएँ हमें सच्चे प्रेम, निश्छल भक्ति और ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का मार्ग दिखाती हैं। उन्होंने दिखावे और आडंबर से दूर रहकर, सच्चे मन से भक्ति करने को ही मुक्ति का श्रेष्ठ मार्ग बताया।
संदर्भ
मुख्य चित्र में भगवान श्री कृष्ण और संत सूरदास जी का स्रोत : Wikimedia
संस्कृति 2035
प्रकृति 695